ओखला औद्योगिक क्षेत्र : मज़दूरों के काम और जीवन पर एक आरम्भिक रिपोर्ट

– लता, सार्थक, अमन

चौड़ी-चौड़ी सड़कों के दोनों तरफ़ मकानों की तरह बने कारख़ाने एक बार को देख कर लगता है कि कहीं यह औद्योगिक क्षेत्र की जगह रिहायशी क्षेत्र तो नहीं। कई कारख़ाने तो हरे-हरे फूलदार गमलों से सज़े इतने ख़ूबसूरत मकान से दिखते हैं कि वहम होता है शायद यह किसी का घर तो नहीं। लेकिन नहीं ओखला फेज़ 1 और ओखला फेज़ 2 के मकान जैसे दिखने वाले कारख़ाने और कारख़ानों जैसे दिखने वाले कारख़ाने, सभी एक समान मज़दूरों का ख़ून निचोड़ते हैं, उन्हें मनमर्ज़ी काम पर रखते हैं और मनमर्ज़ी काम से निकाल देते हैं, दस से बारह घण्टे काम करना आम बात है, लेकिन जिन महीनों व्यवसाय अपने चरम पर होता है काम के घण्टे 24 तक हो जाते हैं। मालिक की बढ़ी ज़रूरतों को चौबीस-चौबीस घण्टे बिना रुके काम कर पूरा करने के बाद भी मज़दूरों को हाथ लगती है छँटनी और मज़दूरी में धाँधली। फ़ैक्टरी-कारख़ानों के भीतर सुरक्षा इन्तज़ाम उतने ही दुरुस्त हैं जितने आज के दौर में पक्की नौकरी और बेहतर पगार। दुर्घटनाग्रस्त होने पर कोई मुआवज़ा मिले यह तो दूर की बात है, उस समय चिकित्सा मदद दी जाये यह भी कठिन हो जाता है और फिर नौकरी तो जाती ही है। काम की परिस्थितियाँ तो दुरूह हैं ही, जीवन की परिस्थितियाँ भी बद से बदतर हैं। कोई भी इन्सान अपना ख़ून-पसीना मात्र दो जून की रोटी पाने के लिए नहीं बहाता है। वह समाज के लिए मेहनत कर रहा होता है इसलिए बदले में उसे बेहतर जीवन, स्वास्थ्य सुविधा, स्कूल और हवादार आवास मुहैया कराना व्यवस्था की न्यूनतम ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन यह व्यवस्था मज़दूरों को चाहे काम की जगह हो या आवास की, एक समान नारकीय स्थिति में रखती है।

क्षेत्रफल, आबादी और उद्योगों के प्रकार

1952 में लघु उद्योगों के लिए ओखला औद्योगिक क्षेत्र के निर्माण का काम शुरू हुआ जो 1958 में पूरा हुआ। दक्षिण दिल्ली में बसा ओखला औद्योगिक क्षेत्र 7.33 वर्ग किलोमिटर में फैला हुआ है जिसकी आबादी लगभग दो लाख है। यहाँ मुख्य तौर पर कपड़ा और चमड़ा पोशाकों के निर्यात आधारित उद्योग (गार्मेण्ट एक्सपोर्ट इण्डस्ट्री और लेदर गार्मेण्ट इण्डस्ट्री) हैं, साथ में फार्मास्युटिकल उद्योग, प्लास्टिक और पैकेजिंग उद्योग, मशीन मैन्युफ़ैक्चरिंग तथा प्रिण्टिंग प्रेस हैं। इसके अलावा कॉरपोरेट कार्यालय भी हैं। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (MSME) मंत्रालय की वार्षिक रिपोट 2018-19 के अनुसार नई दिल्ली में 9,36,000 पंजीकृत कम्पनियाँ हैं जिसमें 23 लाख के लगभग कुशल और अर्द्ध-कुशल मज़दूर काम करते हैं, ओखला भी इसी मंत्रालय के मातहत है। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है इस औद्योगिक क्षेत्र में मुख्य तौर पर गार्मेण्ट एक्सपोर्ट के कारख़ाने हैं। इन कारख़ानों में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं। इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की औसत उम्र 35 साल होती है। मशीन पर झुक कर सिलाई करने से आँखों और पीठ पर बेहद ज़ोर पड़ता है। क्षेत्र में कई भण्डार घर हैं जिसमें मज़दूर माल ढोने का काम करते हैं। माल ढुलाई बेहद कठिन काम होता है जिसकी तुलना में दिहाड़ी बेहद कम मिलती है। किंगफ़िशर के गोदाम में काम करने वाले तौहीद के अनुसार एक पेटी बियर चढ़ाने के 65 पैसे मिलते हैं। पेटी चढ़ाने और उसे शहर के अलग-अलग हिस्सों में पहुँचाने में दिन का 500 बनता है। लेकिन जो मज़दूर शराब की भट्टी से आयी बियर की पेटियों को गोदाम में उतारते-चढ़ाते हैं उनकी और बुरी हालत होती है क्योंकि उन्हें टेम्पों में लाने-ले-जाने का पैसा नहीं मिलता। उनकी 65 पैसे पेटी के हिसाब से पूरे दिन की दिहाड़ी बेहद कम बनती है।
मज़दूरों की एक आबादी भागती-दौड़ती सुबह चार बजे से काम की तलाश में लेबर चौक पहुँचती है। लॉकडाउन के बाद इनकी काम की असुरक्षा पहले से कई गुणा अधिक बड़ गयी है।
सुबह-सुबह अपने कामों पर भागते-दौड़ते मज़दूरों में एक आबादी बेहद अलग सी दिखती है वह है कॉरपरेट दफ़्तरों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों की। यह आबादी चेहरे के रंगरोगन, कपड़ों और बोल-चाल से मज़दूर आबादी से एकदम अलग-थलग दिखती है और देखकर ऐसा ही महसूस होता है कि इस आबादी के लिए मज़दूर वर्ग अदृश्य है। अपने फ़ोन में मशग़ूल या अपने जैसे ही कॉरपोरेट के दूसरे कर्मचारियों के साथ हँसी-मज़ाक़ करते या चायख़ानों और ठेलों पर बातचीत करते ये अपने समानान्तर चल रही दुनिया से बिल्कुल अपरिचित लगते हैं।

काम की परिस्थितियाँ और मज़दूरी

मज़दूरों के लिए काम करने की परिस्थितियाँ बेहतर और सुरक्षित रही हों ऐसा तो कभी नहीं था, लेकिन लॉकडाउन के पहले की तुलना में इस दौरान हालात बहुत तेज़ी से बदतर हुए हैं। लॉकडाउन के दौरान 12 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियाँ गवायीं, जिसका असर ओखला औद्योगिक क्षेत्र में भी साफ़ देखने को मिलता है। जिन सड़कों पर मज़दूरों की रेलमपेल लगी रहती थी वहाँ बहुत कम मज़दूर नज़र आते हैं। चाय-ठेले, रेहड़ी-खोमचे, रुमाल-इयरफ़ोन-मोबाइल के कवर बेचने वाले किसी से भी बात करो, सभी का एक ही कहना होता है, “पहले देखना था यहाँ सुबह-शाम पाँव रखने की जगह नहीं होती थी।” हरकेश नगर मेट्रो स्टेशन के सामने की सड़क पर खड़े होने वाला बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला विशाल, जो इयरफ़ोन और चार्जर बेचता है उसने भी हमें यही बताया। ऐसा ही ओखला फेज़ 1 में चाय की दुकान वाले का कहना था कि अब तो यहाँ लोग ही नहीं दिखते, वहीं पहले यहाँ सुबह आठ बजे किसी मेले जैसी भीड़-भाड़ हुआ करती थी। वह स्वयं भी गार्मेण्ट एक्सपोर्ट में काम करते थे, लॉकडाउन के समय नौकरी चली गयी और वह भी नौकरी की तलाश कर रहे हैं। उनसे गार्मेण्ट फ़ैक्टरी में काम की परिस्थितियों की महत्वपूर्ण जानकारी मिली। उनके अनुसार सितम्बर से मार्च तक एक्सपोर्ट गार्मेण्ट में तेज़ी का दौर रहता है। उस दौरान मज़दूर बिना रुके लगातार खड़े या बैठे चौबीस-चौबीस घण्टे काम करते हैं। कारख़ानों में ही कुछ घण्टों के लिए सो जाते हैं और फिर उठकर काम में लग जाते हैं। मज़दूर महीनों-महीनों कारख़ाने में बन्द हो काम करते हैं। मज़दूर अपने बच्चों का मुँह कुछ पल के लिए कारख़ाना गेट पर देख लिया करते हैं। इन कुछ पलों में वे कारख़ाना गेट पर परिवार के साथ होते और फिर दुबारा से काम पर वापस लौट जाते। इस तरह महीनों-महीनों मज़दूरों का ख़ून चूसकर मालिक लाखों-करोड़ों का मुनाफ़ा कमाते हैं और इन्हें काम में मन्दी आने पर भूखों मरने के लिए सड़कों पर छोड़ देते हैं। फेज़ 1 में सड़क की सफ़ाई करने वाले प्रेम का कहना है कि यहाँ तो अब नौकरियाँ रह ही नहीं गयी हैं। लोग बस्तियों में भूखों मर रहे हैं। इण्टरनेट पर कितना भी खोजो कोई ठोस आँकड़ा नहीं मिलता। यह पता लगाना बेहद कठिन हो गया है कि किसी ख़ास औद्योगिक क्षेत्र में कितने लोगों की नौकरियाँ गयीं या औसत दिहाड़ी क्या है, कुछ पता नहीं चलता। यह सरकार बेहद शातिराना तरीक़े से सारे आँकड़ों और जानकारियों को छुपा रही है। आख़िरी आँकड़े 2016-17 तक के मिलते हैं और उसके बाद के नहीं।
ख़ैर, हर क्षेत्र के मज़दूर अपने आस-पास और अपनी ज़िन्दगी को देखकर भली-भाँति समझ रहे हैं कि रोज़गार मिलना कितना कठिन और मज़दूरी कितनी कम है। संजय कॉलोनी के नागेन्द्र, जो लॉकडाउन के पहले गार्मेण्ट एक्सपोर्ट हाउस में मास्टर टेलर का काम करते थे, लॉकडाउन के समय से बेरोज़गार हैं। पत्नी अपोलों में मरीज़ों की अटेण्डेण्ट का काम करती हैं। पूरे कोरोना काल में वह काम करती रहीं, लेकिन जैसा पीएफ़ की धाँधली का ठेका कम्पनियों में चलन है वह किसी को भी पूरे साल के लिए काम पर नहीं रखतीं और इसलिए उन्हें भी घर बिठा दिया। यह है फ़्रण्ट लाइन वारियर पर फूल बरसाने के बाद उनके साथ किया गया सलूक़। पत्नी को काम मिल गया है लेकिन कोरोना काल में ही अटेण्डेण्ट का काम करने वाली पत्नी की बहन अभी दो महीनों से घर बैठी है। नागेन्द्र ने बताया कि आज कई फ़ैक्टरियों में तनख़्वाह पहले जितनी ही देते हैं लेकिन नौकरी पर रखने से पहले यह लिखवा लेते हैं कि तनख़्वाह का चार हज़ार वापस कम्पनी के खाते में भेजना होगा। जो ऐसा न करे वह नौकरी से बाहर। प्रिण्टिंग प्रेस में काम कर चुके एक बुज़ुर्ग मज़दूर ने बताया कि प्रिण्टिंग में भी काम की परिस्थितियाँ वैसी ही बुरी हैं। काम के दौरान उनका हाथ कट गया था। कटने के बाद दाहिने हाथ की उंगलियाँ विकृत हो गयी हैं। इस दुर्घटना का कम्पनी ने कोई मुआवज़ा नहीं दिया। मायंत्रा में काम कर चुके रवि ने बताया कि किस प्रकार दिवाली की सेल के दौरान उसने ओवरटाइम किया, लेकिन ओवरटाइम का पैसा देने की जगह उसे और उसके तीन दोस्तों को काम से निकाल दिया गया। ये तीनों पैकेजिंग और डिस्पैच में एक्सपर्ट थे लेकिन किसी भी ग़लत बात का विरोध पुरज़ोर तरीक़े से करते थे। इन तीनों ने लेबर कोर्ट में केस भी किया, लेकिन जैसा कि अपेक्षित है वहाँ कोई सुनवाई नहीं हुई, बदले में जो लेबर इंस्पेक्टर आया वह एचआर को समझा गया कि ऐसी स्थिति से बचने के लिए कौन से तिकड़म आज़माएँ। गार्मेण्ट फ़ैक्टरी में काम करने वाले मुकेश और उसकी पत्नी ने भी घटती दिहाड़ी की शिकायत की और बताया कि खाते में लॉकडाउन का पैसा डाला तो गया, लेकिन फिर वापस ले लिया गया। उसने बताया कि उसकी फ़ैक्टरी में तीन-चार लोग ही काम करते हैं और लगभग सभी एक्सपोर्ट हाउस में ऐसे ही दस से कम या दस-बीस या मुश्किल से तीस काम करते हैं। ये सूक्ष्म उद्योग किसी भी श्रम क़ानून के दायरे में नहीं आते, इसलिए समझा जा सकता है कि इनकी काम और मज़दूरी की स्थिति कितनी बदतर होती होगी।
औरतें दोहरी ग़ुलामी झेलती इस औद्योगिक क्षेत्र में भी समान काम का समान पैसा नहीं पाती हैं। यदि गार्मेण्ट सेक्टर की ही बात की जाये तो इन कम्पनियों में मज़दूरों की मासिक आय औसतन 8,000 से 9,000 रुपये के क़रीब है, लेकिन लॉकडाउन के बाद से रोज़गार और मज़दूरी में भारी गिरावट आयी है। गार्मेण्ट एक्सपोर्ट में पुरुषों के लिए 220 रुपये या उससे कम तो महिलाओं को समान काम के लिए 180 से 200 रुपये तक या इससे भी कम दिहाड़ी मिल रही है। इतना ही नहीं औरतों का कहना है कि उनके साथ भेदभाव का व्यवहार होता है, सुपरवाइज़र गाली-गलौच करता है और छोटी-छोटी ग़लतियों पर भारी-भरकम फ़ाइन लगा देता है। इन्हें प्रसुति के लिए कोई छुट्टी नहीं मिलती, लेकिन कारख़ाने के गेट का रास्ता ज़रूर दिखला दिया जाता है।

एक जानलेवा और ख़तरनाक स्थिति : ओखला वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट

ओखला औद्योगिक क्षेत्र में ही एक क्षेत्र है ओखला वेस्ट मैनेजमेण्ट ज़ोन, जो दिल्ली का सबसे बड़ा वेस्ट मैनेजमेण्ट ज़ोन है। यह वहाँ रह रहे 10 लाख लोगों की रिहायश के लिए जानलेवा स्थिति पैदा करता है जिसमें मज़दूरों और आम मेहनतकशों की बस्तियाँ आती हैं। यहाँ वेस्ट से बिजली पैदा करने की कम्पनी जिन्दल की है, साथ ही यहाँ सीवर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाने की भी योजना है। जिन्दल की यह कम्पनी मिट्टी, पानी और हवा को जानलेवा स्तरों पर प्रदूषित कर रही है जिस पर पिछले कई वर्षों से सवाल उठाये जा रहे हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं। जामिया की शोधकर्ता समीरा सुल्तान के एक अध्ययन के अनुसार इस बिजली पैदा करने के फ़र्नेस में गीले कचरे और अक्रिय पदार्थों को अलग-अलग नहीं किया जाता, जिसकी वजह से दो बेहद ख़तरनाक रासायनिक पदार्थ, डायॉक्सीन्स और फ़्यूरेन्स उत्सर्जित होते हैं, जिसकी वजह से पानी में ज़हरीले भारी धातु (हेवी मेटल) मिल रहे हैं। पानी के इस प्रदूषण से तीव्र ब्रॉन्काइटिस, ख़ासकर बच्चों और नवजात शिषुओं में सांस की जानलेवा बीमारी, पीलिया तथा गर्भवती महिलाओं के लिए घातक स्थिति पैदा हो रही है। स्वास्थ्य स्थिति इतनी गम्भीर और चिंताजनक है, लेकिन उसमें सुधार करने की जगह सरकार एक और पहले से कहीं बड़ा सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट जिन्दल के साथ पीपीपी मॉडल के तहत बनाने जा रही है। कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था फ़ैक्टरियों और कारख़ाना में मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी का शोषण मात्र ही नहीं करती बल्कि उसकी रिहायश और जीने की बुनियादी ज़रूरतों को भी उससे छीनकर हर जगह एक समान नार्कीय स्थिति का निर्माण करती है।

रिहायश के बुरे हालात

दस से बारह घण्टे काम करने के बाद घर वापस लौटते मज़दूर नयी जद्दोजहद में जुट जाते हैं। जब मज़दूर स्त्री-पुरुष थक-हारकर घर लौटते हैं तो छोटी-छोटी बिना हवा, रोशनी की कोठरियों में खाना बनाते हैं और उसी में सपरिवार सो जाते हैं और फिर अगले दिन उठकर शोषण की चक्की में पिसने को निकल जाते हैं। पानी सप्लाई में आता नहीं, टैंकर की लाइन लगानी पड़ती है। सघन रिहायशी इलाक़ों में पतली-संकरी गलियों का जाल सा बिछा होता है, छोटे-छोटे कमरे और कमरों के ऊपर बॉक्स से बने कमरे, जहाँ धूप और पानी कुछ नहीं पहुँचता, वहाँ डब्बों में भरकर टैंकर का पानी लाना भी बड़ी मशक़्क़त का काम होता है। कई गलियाँ इतनी संकरी हैं कि वहाँ साइकल भी नहीं जा सकती। कमरे बेहद छोटे-छोटे हैं और बच्चों के खेलने के लिए कोई खुली जगह नहीं। खुली गन्दी नालियाँ बहती रहती हैं। पूरी दुनिया का निर्माण करने वाले, आलीशान अट्टालिकाएँ, अपार्टमेण्ट और पांच सितारा होटल बनाने वाले मज़दूरों को इस दुनिया में यही अँधेरा-सीलन भरा, खुली नालियों और बिना पानी वाला कोना मिलता है रहने को।
काम के लम्बे घण्टे और फिर जीने के लिए पानी जुगाड़ना, शौचालय की लाइन में लगना, खाना बनाना, यह पूँजीवादी व्यवस्था समय ही नहीं देती कि कोई कहीं घूमने, सिनेमा देखने, दोस्तों से बातें करने या कुछ अच्छा लिखने-पढ़ने के बारे में सोचे। जिस मशीन पर काम करते हैं वैसे ही एक मशीन से बन जाते हैं। बस फ़र्क़ इतना है कि यह शरीर रूपी मशीन सोचती भी है और इस सोचने की क्षमता से डरे पूँजीपति और सरकार नित नये क़ानून और योजनाएँ बनाकर उसे सोचने से रोकना चाहते हैं। उसके पास सोचने-समझने और एकजुट होने का वक़्त ही न बचे, इसके लिए जीवन परिस्थितियाँ असह्य रूप से कठिन बना देते हैं। फिर उन्हें जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर बाँट देते हैं। इन सब से उठकर मज़दूरों को अपने पूरे वर्ग के बारे में सोचना होगा। पूँजीपति वर्ग शोषण के लिए एकजुट है, मज़दूरों को भी अपने संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

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