प्रवासी मज़दूरों के ख़ून से रंगा है क़तर में होने वाला अगला फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप

– लालचन्द्र

एक साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा फ़ुटबॉल टूर्नामेंट क़तर में होने वाला है। लम्‍बे समय बाद यह टूर्नामेंट एशिया के किसी देश में हो रहा है। लगभग महीने भर चलने वाले इस टूर्नामेंट के लिए लोगों में पागलों जैसी दीवानगी होती है। सारी दुनिया से पैसे वाले लोग मैच देखने के लिए क़तर पहुँचेंगे। उनके लिए आलीशान स्‍टेडियम, होटल, चमचमाती सड़कें आदि बनाने में एशिया के अनेक ग़रीब देशों के लाखों मज़दूर पिछले कई सालों से जुटे हुए हैं। ये मज़दूर बेहद ख़राब हालात में रहते और काम करते हैं। आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में वे अपनी जान भी गँवाते रहते हैं।
अपने देशों में रोज़ी-रोटी के बेहतर मौक़े न मिलने पर ये कामगार क़तर, सफदी, अमीरात जैसे देशों में जाते हैं, जहाँ उन्हें पैसे तो कुछ बेहतर म‍िल जाते हैं, पर जान हथेली पर लेकर और सम्‍मान को भूलकर काम करना पड़ता है।
भारत, नेपाल व बांग्लादेश के प्रवासी मज़दूरों के शोषण से क़तर के ख़लीफ़ा स्टेडियम का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। आस-पास के बग़ीचों व खेल सुविधाओं को, जिसे “एस्पायर ज़ोन” कहा जाता है, विकसित किया जा रहा है। दुनिया के प्रमुख फ़ुटबाल टूर्नामेण्ट की मेज़बानी के लिए क़तर ने सात स्टेडियमों, एक हवाई अड्डे और सार्वजनिक परिवहन के लिए परिवर्धित व्यवस्था सहित प्रमुख निर्माण परियोजनाएँ शुरू की हैं। मगर इस मेज़बानी की क़ीमत प्रवासी मज़दूर अपनी जान देकर अदा कर रहे हैं।
क़तर में 2017 में दो लाख तीस हज़ार प्रवासी श्रमिक थे। सरकारी सूत्रों के मुताबिक़ 10 सालों में 6,500 प्रवासी मज़दूरों की मौतें हो चुकी हैं। जिसमें सबसे ज़्यादा मौतें भारत के मज़दूरों की हुई हैं। इनकी संख्या 2,711 है। नेपाल के 1,641, बांग्लादेश के 1,018 व पाकिस्तान के 824 प्रवासी मज़दूरों की जानें गयीं। गार्जियन के मुताबिक़, 2010 के बाद हर दिन औसत बारह प्रवासी मज़दूरों की मौतें हुई हैं। लन्दन से प्रकाशित अख़बार ‘द गार्डियन’ के मुताबिक़, 37 मौतें केवल स्टेडियमों पर काम के दौरान हुई थीं।
जो मज़दूर अभी काम पर लगे हैं, वे भयंकर शोषण और उत्पीड़न के शिकार हैं। कुछ से ज़बरन काम कराया जा रहा है, वे नौकरी नहीं बदल सकते। वे देश नहीं छोड़ सकते और तनख़्वाहों के लिए अक्सर महीनों इन्तज़ार करते हैं, जबकि फ़ीफ़ा (फ़ुटबाल का वैश्विक शासी निकाय), इसके प्रायोजक और इसमें शामिल निर्माण कम्पनियाँ अकूत दौलत कूटने के लिए तैयार बैठी हैं।
यह बात सौ फ़ीसदी सच है कि सम्पत्ति का हर साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है। और सबसे बड़ा अपराध मेहनतकशों की श्रमशक्ति के शोषण का है। दक्षिण एशियाई देशों, जैसे भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान व बांग्लादेश के लाखों श्रमिक अच्छे रोज़गार की तलाश में खाड़ी देशों की तलाश में जाते हैं। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देशों की तरह क़तर भी प्रवासी मज़दूरों पर अत्यधिक निर्भर है।
लेकिन मरने वाले मज़दूरो की कुल संख्या इसससे कहीं अधिक है। क्योंकि रिसर्च में केन्या व फिलीपीन्स के मज़दूरों को शामिल नहीं किया गया है। जबकि यहाँ से अच्छी ख़ासी संख्या में मज़दूर क़तर में काम पर आते हैं। रिपोर्ट बताती है कि क़तर प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा के लिए कुछ ख़ास नहीं कर रहा है। इस त्रासदी को झेल रहे परिवारों को मुआवज़ा तक नहीं दिया गया।
एमनेस्टी इण्टरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक़, ख़लीफ़ा स्टेडियम व एस्पायर ज़ोन के निर्माण में लगे प्रवासी मज़दूरों के मानवाधिकारों का गम्भीर उल्लंघन हो रहा है। ग़रीबी व बेरोज़गारी से बचने के लिए प्रवासी मज़दूर क़तर में काम करने आते हैं लेकिन उन्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। श्रमिकों के अनुसार भर्ती एजेण्ट उन्हें काम के प्रकार व सैलरी प्राप्त करने के बारे में झूठे वायदे करते हैं। इसके बदले में भर्ती एजेण्ट श्रमिकों से भारी वसूली करते हैं जो कि 500 अमेरिकन डॉलर से 4,300 अमेरिकी डॉलर तक हो सकती है। कई श्रमिक क़र्ज़ में डूबे हुए हैं। उन्हें क़तर में अपनी नौकरी छूटने का डर लगा रहता है।
श्रमिक अक्सर तंग, गन्दे व असुरक्षित आवासों में रहते हैं। एक ही कमरे में आठ से अधिक लोग चारपाइयों पर सोने के लिए विवश हैं। जबकि क़तर का क़ानून व वर्कर्स वेलफ़ेयर स्टैण्डर्ड अधिकतम चार बेड प्रति कमरा और बेड शेयरिंग के उपभोग की अनुमति देता है।
नेपाल के एक श्रमिक से क़तर में हर महीने 300 अमेरिकी डॉलर मिलने का वायदा किया गया था। लेकिन क़तर में काम करने के बाद यह 190 डॉलर हो गया। जब श्रमिक कम्पनियों को बताते हैं कि उन्हें उच्च वेतन देने का वायदा किया गया था तो उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है। मैनेजर कहता है कि मुझे इसकी परवाह नहीं कि आपके देश में आपसे क्या कहा गया था। हम आपको जो दे रहे हैं, उससे ज़्यादा आपको कुछ नहीं मिलेगा। और अगर आप इसी तरह बोलते रहे, तो एजेन्सी को वीज़ा रद्द करने और देश में वापस भेजने के लिए कहूँगा।
श्रमिकों को कई महीने तक वेतन नहीं दिया जाता है। जिससे वे भोजन ख़रीदने, अपने घर पैसे भेजने व भर्ती से सम्बन्धित क़र्ज़ के भुगतान में असमर्थ होते हैं और कई लोग हताशा के कगार पर धकेल दिये जाते हैं।
कुछ नियोक्ता क़तरी क़ानून द्वारा आवश्यक होने के बावजूद श्रमिकों को आवास परमिट नहीं देते। या उसका नवीनीकरण नहीं करते। ये आई.डी. कार्ड तय करते हैं कि श्रमिकों को क़तर में रहने और काम करने की अनुमति है। इसके बिना श्रमिकों को क़ैद या ज़ुर्माना हो सकता है। इसी वजह से ख़लीफ़ा स्टेडियम में काम करने वाले कुछ मज़दूर, कार्यस्थल से निकलने से डरते हैं। आमतौर पर सभी मज़दूरों के पासपोर्ट नियोक्ताओं द्वारा जमा करा लिये जाते हैं। यदि मज़दूर क़तर छोड़कर जाना चाहे तो उसे कम्पनी द्वारा एक्ज़िट परमिट लेना होता है लेकिन नियोक्ता इन अनुरोधों को अनदेखा कर देते हैं। श्रमिकों को धमकी दी जाती है कि जब तक कि उनका कहीं और अनुबन्ध नहीं हो जाता, वे नहीं जा सकते और नये अनुबन्ध की अवधि दो साल तक हो सकती है। ख़लीफ़ा स्टेडियम में मज़दूरों की आपूर्ति करने वाली कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को ज़बरिया श्रम के अधीन रखती हैं। और जो मज़दूर अपनी शर्तों के कारण काम करने से इन्कार करते हैं, उनके वेतन में कटौती की धमकी दी जाती है या उन्हें बकाया वेतन दिये बिना निर्वासन के लिए पुलिस को सौंप दिया जाता है।
पिछले साल क़तर की हुकूमत ने मज़दूरों के अधिकारों और सेवा शर्तों में सुधार के नाम पर क़वायद शुरू की थी। मसलन कफ़ाला प्रणाली यानी वीज़ा सिस्टम में मज़दूर और नियोक्ता के बीच व्यवस्थित क़ायदे तय करना। इसमें नियोक्ता की पकड़ काग़ज़ी तौर पर कुछ ढीली की गयी हालाँकि अमल में ऐसा नहीं दिखायी दिया।
भारत हो या खाड़ी देश, सारे श्रम व सेवा शर्तों में सुधार मेहनतकशों को और अधिक निचोड़कर थैलीशाहों की तिज़ोरियाँ भरने के लिए हो रहे हैं। ऐसे में मज़दूरों को सोचना-समझना होगा कि इससे पार पाने का सही रास्ता क्या हो।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

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