म्यांमार में बर्बर दमन के बावजूद सैन्य तानाशाही के ख़ि‍लाफ़ उमड़ा जनसैलाब

– आनन्द

गत 1 फ़रवरी को म्यांमार में एक बार फिर सेना ने तख़्तापलट करके शासन-प्रशासन के समूचे ढाँचे को अपनी गिरफ़्त में ले लिया। वहाँ की निर्वाचित ‘स्टेट काउंसलर’ आंग सान सू की और उनकी पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी के सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और एक साल के लिए देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। हालाँकि इस तख़्तापलट से पहले भी म्यांमार में शासन-प्रशासन के ढाँचे पर सेना की अहम भूमिका रहती थी, लेकिन अब रहा-सहा बुर्जुआ जनवादी आवरण भी पूरी तरह से उतर गया है और एक नग्न तानाशाही स्थापित हो चुकी है। म्यांमार की सेना के नेतृत्व ने सोचा था कि चूँकि वह देश आज़ादी के बाद अधिकांश समय सेना के नियंत्रण में रहा था इसलिए लोग आसानी से इस तख़्तापलट को स्वीकार कर लेंगे। लेकिन सेनाध्यक्ष जनरल मिन आंग लाइंग की उम्मीद से उलट वहाँ के छात्र-युवा, मज़दूर, किसान और आम नागरिक सड़कों पर उतरकर बहादुरी के साथ इस सैन्य तानाशाही की पुरज़ोर मुख़ालफ़त कर रहे हैं और देखते-ही-देखते इस सैन्य तख़्तापलट के ख़ि‍लाफ़ एक जुझारू जनान्दोलन उठ खड़ा हो गया है।
सैन्य शासन के ख़ि‍लाफ़ चल रहे देशव्यापी प्रतिरोध में लोग सड़कों पर उतरकर धरना-प्रदर्शन के ज़रिए अपना रोष जताने के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन भी कर रहे हैं और कलात्मक व सांस्कृतिक माध्यमों से भी अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं। म्यांमार में क़रीब दस लाख सरकारी कर्मचारियों में से तीन-चौथाई काम पर नहीं जा रहे हैं और धरना-प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में आम मज़दूर, ट्रेड यूनियनें, रैडिकल छात्र-युवा संगठन भी शामिल हो रहे हैं। यह पहले ही 1988 के बाद से सबसे बड़ा प्रतिरोध आन्दोलन बन चुका है।
अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में म्यांमार की सेना इस जनविद्रोह को फ़ौजी बूटों के तले बर्बरता से कुचल देना चाहती है। यह लेख लिखे जाने तक म्यांमार में सैनि‍क तख़्तापलट के बाद उठे जनप्रतिरोध के ख़ि‍लाफ़ सैन्य कार्रवाई में 500 से भी ज़्यादा नागरिक जान गँवा चुके हैं और सैकड़ों लोग गम्भीर रूप से ज़ख़्मी हो चुके हैं। गत 27 मार्च को जहाँ एक ओर सेना का नेतृत्व राजधानी नेपिडॉ में ‘आर्म्ड फ़ोर्सेज डे’ के जश्न में मशगूल था वहीं दूसरी ओर सेना ने देशभर में हुए प्रदर्शनों का दमन करते हुए कम से कम 114 लोगों को मौत के घाट उतारा, जिसमें कई बच्चे भी शामिल थे। यही नहीं, देश के पूर्वी हिस्से पर सेना ने हवाई हमला करने से भी गुरेज़ नहीं किया। लेकिन इस बर्बर दमन के बावजूद प्रतिरोध कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
ग़ौरतलब है कि 1948 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ादी के बाद म्यांमार में अधिकांश समय सैन्य शासन रहा है। जब सैन्य शासन नहीं भी रहा है तब भी वहाँ की सत्ता पर सेना का काफ़ी हद तक नियंत्रण रहा है। 2015 में हुए चुनावों में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी को मिले भारी बहुमत के बावजूद वहाँ 2008 में सेना द्वारा बनाये गये संविधान के तहत शासन व प्रशासनिक ढाँचे में सेना का ही प्रभुत्व बरक़रार रहा। म्यांमार में सेना के प्रभुत्व के ख़ि‍लाफ़ वहाँ के समाज में समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं। परन्तु इन आन्दोलनों का नेतृत्व उदारवादी बुर्जुआ पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी के हाथों में होने की वजह से, वे एक सीमा से अधिक आगे नहीं बढ़ पाते। अमेरिका की शह प्राप्त म्यांमार का उदारवादी बुर्जुआ सीमित जनवाद के लिए संघर्ष को बढ़ावा देता है, परन्तु साथ ही साथ वह संघर्ष को एक हद से ज़्यादा बढ़ाने का पक्षधर नहीं होता क्योंकि उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं मेहनतकश अवाम संघर्ष में इतनी आगे न बढ़ जाये कि उसके भीतर मुनाफ़े पर टिके पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को बदलने के ख़्याल पनपने लगें।
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, नवस्वाधीन तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की ही भाँति, म्यांमार की बुर्जुआज़ी के चरित्र और जुझारूपन में इतना पतन हो चुका है कि अब उसके पास आम जनता को सीमित बुर्जुआ जनवादी अधिकार दिलवा पाने लायक़ ताक़त भी नहीं बची है। सत्ता में रहने के दौरान आंग सान सू की की सैन्य शासकों के सामने रीढ़विहीनता जगज़ाहिर है। उन्होंने सेना के अधिकारों में कटौती करने की कोई मंशा नहीं दिखायी। सेना के नेतृत्व में बौद्ध आतंकियों की मदद से रोहिंग्या लोगों पर किये गये बर्बर नरसंहार पर न सिर्फ़ आंग सान सू की ने षड्यंत्रकारी चुप्पी साधे रखी बल्कि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक जाकर सेना का बचाव भी किया। ऐसे में यदि मौजूदा जनप्रतिरोध का नेतृत्व सू की की पार्टी के हाथों में ही रहा तो भविष्य में किसी बुनियादी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती।
म्यांमार के घटनाक्रम को अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी देखने की ज़रूरत है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों और रूस व चीन के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी गुटों के बीच जारी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में म्यांमार के सैन्य शासकों का स्पष्ट झुकाव रूस व चीन की ओर रहा है। अमेरिका सहित पश्चिमी देशों द्वारा रोहिंग्या लोगों का मुद्दा प्रमुखता से उछालने का प्रमुख कारण म्यांमार का रूस व चीन की ओर झुकाव रहा है। चीन म्यांमार के रखाइन प्रान्त में एक बन्दरगाह बना रहा है जिससे उसको बंगाल की खाड़ी में जाने का सीधा रास्ता मिल जायेगा और जिसकी वजह से उसकी मलेशिया स्थित मलक्का जलडमरूमध्य पर निर्भरता कम हो जायेगी जो अमेरिकी नौसेना के क़ब्ज़े में है। गत 27 मार्च को ‘ऑर्म्ड फ़ोर्सेज डे’ के दिन अमेरिका व पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने जश्न का बहिष्कार किया था जबकि रूस और चीन जैसे देशों ने उस जश्न में शरीक़ होने के लिए अपने प्रतिनिधि भेजे थे। ग़ौरतलब है कि उस कार्यक्रम में भारत का भी एक प्रतिनिधि मौजूद था। भारत के फ़ासिस्ट हुक्मरानों से इसके अलावा और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
म्यांमार की अर्थव्यवस्था में अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व है क्योंकि बुनियादी और अवरचनागत उद्योग सहित देश के अधिकांश क्षेत्रों में निजीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकांश कम्पनियों में अभी भी वहाँ सेना के अधिकारियों का नियंत्रण है। ये कम्पनियाँ ठेके पर जिन निजी कम्पनियों से काम करवाती हैं उनमें से ज़्यादातर का सम्बन्ध सैन्य अधिकारियों से होता है। आंग सान सू की के सत्ता में रहते समय कुछ क्षेत्रों में निजीकरण की शुरुआत हुई थी, परन्तु सैन्य अधिकारियों के हितों से सीधे टकराने की वजह से यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। ये भी अमेरिका से दूरी की एक वजह है। अमेरिका द्वारा म्यांमार की सेना के हाथों मानवाधिकारों के हनन पर ज़ोर देने की मुख्य वजह भी यही है।
हालाँकि म्यांमार की मेहनतकश जनता तमाम क़ि‍स्म के दमन के बावजूद सैन्य तख़्तापलट के ख़ि‍लाफ़ एकजुट होकर जुझारू प्रतिरोध की नयी मिसालें पेश कर रही है, लेकिन फिर भी चिन्ता की बात यह है कि यह प्रतिरोध किसी आमूलगामी बदलाव की ओर जा सकने में सक्षम नहीं दिखता। म्यांमार के क्रान्तिकारी आन्दोलन में आये बिखराव व भटकाव की वजह से अभी तक कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं उभर पाया है। ऐसे में इस प्रतिरोध पर सू की की नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी के नियंत्रण की सम्भावना ज़्यादा है जिसका अर्थ होगा सू की के शासन यानी सेना द्वारा नियंत्रित एक अति-सीमित बुर्जुआ लोकतंत्र की बहाली। परन्तु मेहनतकश जनता को इससे संतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि उसका हित ऐसे आधे-अधूरे लोकतंत्र में नहीं बल्कि एक समाजवादी लोकतंत्र स्थापित करने में है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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