भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की सफलता-असफलता को लेकर कुछ ज़रूरी बातें

– कविता कृष्णपल्लवी

फ़ेसबुक आदि पर होने वाली चर्चाओं में और समाज में आम तौर पर अक्सर भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता को लेकर तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं कि देश में वामपन्थी आन्दोलन के सौ साल हो गये पर अब भी पूँजीवाद का ही हर ओर बोलबाला है। ‘क्रान्तिकारी’ लोग पता नहीं कब जनता के रक्षक की भूमिका में उतरेंगे। अब तो फ़ासीवाद भी आ गया लेकिन कम्युनिस्ट कोई देशव्यापी आन्दोलन नहीं खड़ा कर पा रहे हैं।
कुछ लोग तो इन हालात के लिए जनता को ही दोष देते हुए इस तरह की बातें करने लगते हैं कि जनता भौतिक चकाचौंध में ख़ुद ही वाम को छोड़ चुकी है। लोग अपनी समस्याओं का समाधान तो चाहते हैं पर इसके लिए संघर्ष में ख़ुद भागीदारी करने को तैयार नहीं हैं, न संघर्ष करने वालों को सहयोग करने को तैयार हैं। इसी वजह से वाम कार्यकर्ता भी कुछ समझ नहीं पाते कि क्या करें।
कुछ लोग कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व नौकरशाहाना और आरामपसन्द हो गया है, उनमें पार्टी की कमियों पर बात नहीं होती और विचार-विमर्श नहीं होता, चापलूसी और बड़बोलापन जैसी प्रवृत्तियाँ घर कर गयी हैं। इन्हीं वजहों से आज इन पार्टियों की ऐसी हालत है। कुछ लोग जाति व्यवस्था को न समझ पाने को ही भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की असफलता का कारण बता देते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि कम्युनिस्टों को एक-दूसरे की आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि आज एकता ही सबसे बड़ी ज़रूरत है।
ऐसे ही कुछ सवालों को लेकर फ़ेसबुक पर चले संवाद में हस्तक्षेप करते हुए मैंने कुछ बातें कही थीं। मुझे लगता है कि इस पर और चर्चा होनी चाहिए, इसलिए उन बातों को ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए यहाँ सिलसिलेवार और नुक़्तेवार ढंग से रख रही हूँ।
(1) समस्या यह है कि जितनी भी संशोधनवादी पार्टियाँ हैं, वे अपने को कम्युनिस्ट पार्टियाँ ही कहती हैं, मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन की तस्वीरें भी टाँगती हैं (कुछ स्तालिन और माओ की भी टाँगती हैं और कुछ नहीं टाँगती हैं) और हँसिया-हथौड़े वाला लाल झण्डा भी फहराती हैं। लेनिन ने संशोधनवाद की स्पष्ट परिभाषा दी थी कि उसका खोल कम्युनिस्ट होता है और अन्तर्वस्तु बुर्जुआ होती है। आम लोग मार्क्सवादी विज्ञान से अपरिचय के नाते जेनुइन और नक़ली, यानी संशोधनवादी पार्टी के बीच भेद नहीं कर पाते और ‘कम्युनिस्ट’ और ‘वाम’ शब्द का इस्तेमाल एक सामान्य शब्द (जेनरिक टर्म) की तरह करते हैं। एक सही कम्युनिस्ट पार्टी जब विचारधारात्मक विच्युति और विचलन से गुज़रकर क्रान्तिकारी अवस्थिति से ही प्रस्थान कर जाती है, तो उस मोड़-बिन्दु को आम लोग और कम समझ के पार्टी-कार्यकर्ता समझ नहीं पाते। वे पार्टी के क्रान्तिकारी चरित्र के बारे में व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिस्ट) और अनुभववादी (एम्पीरिसिस्ट) तरीक़े से सोचते हैं और भाववादी तरीक़े से मानते हैं कि नेतृत्व ग़लती नहीं कर सकता।
बुर्जुआ राजनीति करने वाली संशोधनवादी पार्टी जब सुधारों, राहतों और वाजिब माँगों को लेकर लड़ती है और सरकार में शामिल होकर सुधार के कुछ क़दम उठाती है तथा राहत देने वाले कुछ फ़ैसले लेती है तो पार्टी कार्यकर्ता और आम लोग समझते हैं कि इसी तरह राहत और सुधार के काम करते-करते पार्टी देश को एक दिन समाजवाद की मंज़िल तक पहुँचा देगी। जब नक़ली, यानी संशोधनवादी पार्टियाँ बुर्जुआ संसदीय राजनीति में पूरी तरह व्यवस्थित और अनुकूलित हो जाती हैं, तो बुर्जुआ अर्थनीति और राजनीति के साथ उनका भी पतन होता चला जाता है। जब इन पार्टियों का बाह्य रूप और व्यवहार भी इनकी बुर्जुआ अन्तर्वस्तु से पूरी तरह मेल खाने लगता है तो आम लोग और पार्टी कार्यकर्ता निराश होकर कहने लगते हैं कि “यह पार्टी भी अब पतित, भ्रष्ट, अयोग्य या लक्ष्य से दूर हो गयी है, या, हो रही है।” तब भी लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि बुर्जुआ चरित्र में ढल चुकी इस संशोधनवादी, या सोशल-डेमोक्रेट, या नक़ली कम्युनिस्ट पार्टी को फिर से जेनुइन कम्युनिस्ट पार्टी नहीं बनाया जा सकता, बल्कि नये क्रान्तिकारी केन्द्र का निर्माण और गठन ही एकमात्र विकल्प हो सकता है! वे सोचते हैं कि नेतृत्व अगर काहिलीभरा और सुविधाभोगी जीवन छोड़ दे, या नेतृत्व में अगर कुछ ईमानदार लोग आ जायें, या सभी कम्युनिस्ट अगर एक हो जायें तो सारी समस्याएँ हल हो जायेंगी! (वे समझते हैं कि कम्युनिस्टों में फूट उनके अहं के कारण है, न कि किसी विचारधारात्मक-राजनीतिक मतभेद के कारण!)
(2) मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षा यह है कि अब तक किसी भी शोषक-शासक वर्ग ने शान्तिपूर्वक शोषित-उत्पीड़ित वर्गों को न तो सत्ता सौंपी है और न ही आगे ऐसा सम्भव है। हर राज्यसत्ता शासक वर्गों का अधिनायकत्व होती है, और राज्यसत्ता की बनी-बनायी मशीनरी का ध्वंस करके ही संघर्षरत वर्ग अपनी राज्यसत्ता, यानी अपने वर्गीय अधिनायकत्व की स्थापना करता है। हर क़िस्म का बुर्जुआ लोकतंत्र बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व, यानी बुर्जुआ राज्यसत्ता का कोई न कोई रूप होता है और सर्वहारा वर्ग की हरावल पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी का अन्तिम लक्ष्य होता है कि वह बुर्जुआ राज्यसत्ता का बलात् ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की ऐतिहासिक मुहिम में मेहनतकश जन-समुदाय को नेतृत्व दे। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कम्युनिस्ट मज़दूरों और सभी क्रान्ति-पक्षधर वर्गों के जन-संगठन बनाते हैं, आर्थिक सुधारों-माँगों-रियायतों के लिए लड़ते हुए जनता की जुझारू संगठनबद्धता को बढ़ाते हैं, रूढ़ियों से मुक्ति और वर्ग-चेतना को प्रखर बनाने के लिए सतत् सामाजिक आन्दोलन करते हैं और सांस्कृतिक कार्य करते हैं। और सिर्फ़ इतना ही नहीं, बुर्जुआ जनवाद का रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) इस्तेमाल करने के लिए वे बुर्जुआ संसदीय चुनावों, विधायिकाओं और मुमकिन होने पर, सरकारों में भी भागीदारी करते हैं।
टैक्टिकल इस्तेमाल का मतलब है चुनाव लड़ते हुए और संसद में हिस्सा लेते हुए सच्चे कम्युनिस्ट निरन्तर जनता के बीच इस व्यवस्था के असली चरित्र और सीमाओं का एक्सपोज़र करते हैं और उसके सामने क्रान्ति और समाजवाद की अपरिहार्यता को स्पष्ट करते हैं। जो लोग सिर्फ़ आर्थिक सुधारों-रियायतों की लड़ाई लड़ते हैं और मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक मुद्दों पर संघर्ष का काम नहीं करते, वे लोगों में यह विभ्रम पैदा करते हैं कि आर्थिक सुधारों, रियायतों के लिए लड़ते-लड़ते ही हम समाजवाद तक पहुँच जायेंगे। ऐसे लोग अर्थवादी कहलाते हैं। इसी तरह सुधारवादी भी जनता को क्रान्ति और समाजवाद के लक्ष्य और संघर्ष की शिक्षा नहीं देते और यह भ्रम पैदा करते हैं कि सामाजिक-राजनीतिक सुधार करते-करते ही हम समाजवाद तक पहुँच जायेंगे, बलात् राज्यसत्ता-ध्वंस की कोई ज़रूरत ही नहीं होगी।
जो कम्युनिस्ट चुनावों और संसद आदि का टैक्टिकल नहीं बल्कि रणनीतिक (स्ट्रैटेजिक) इस्तेमाल करते हैं, यानी लोगों में यह भ्रम फैलाते हैं कि इसी राज्यसत्ता के रहते वे अगर सरकार में आ गये तो धीरे-धीरे समाजवाद ला देंगे, वे संसदीय जड़वामन “कम्युनिस्ट” होते हैं, इन्हें संशोधनवादी कहते हैं। यानी संशोधनवादी राज्यसत्ता के प्रश्न की मार्क्सवादी समझ को विकृत बनाकर जन-समुदाय को ठगने का काम करते हैं। जो संशोधनवादी होते हैं, वे अनिवार्यतः अर्थवादी और सुधारवादी भी होते ही हैं। बुर्जुआ राज्यसत्ता बुर्जुआ वर्ग के शासन और दमन का केन्द्रीय उपकरण है! इसका भी मुख्य अंग सशस्त्र बलों का तंत्र है। पूरी व्यवस्था के रोज़मर्रा के काम नौकरशाही करती है। सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और विधायिका सरकार द्वारा पेश बिलों को पास करके उन्हें क़ानून का रूप देने की औपचारिकता निभाती है। संशोधनवादी ऐसा दिखाते हैं मानो सरकार ही राज्यसत्ता हो और वे चुनाव जीतकर सरकार में आ गये तो धीरे-धीरे समाजवाद ला देंगे। यह संशोधनवादी कचरा क्रान्तिकारी जुमलों के बरतन में रखकर बर्नस्टीन, काउत्स्की आदि पहले भी प्रस्तुत कर चुके थे, पर ख्रुश्चेव ने “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व-शान्तिपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा-शान्तिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धान्त के रूप में इसे सबसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत किया। दुनिया की थोड़ी नरम या थोड़ी गरम, थोड़ी ढँकी या अधनंगी या पूरी तरह नंगी – जितनी भी संसदमार्गी या संशोधनवादी पार्टियाँ हैं, उनका आदि-कुलगुरु ख्रुश्चेव ही है। अब आगे उसमें एक नाम ‘चीनी ख्रुश्चेव’ देङ सियाओ-पिङ का भी जुड़ चुका है।
(3) लेनिन का कहना था कि मज़दूर वर्ग की जिस पार्टी का लक्ष्य अन्ततोगत्वा बलात् बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करना होगा, वह ‘मास मेम्बरशिप’ वाली जन-पार्टी नहीं हो सकती, वह अपने कार्यक्रम और संविधान को मानने वाले सभी आंशिक सक्रिय लोगों, हमदर्दों और समर्थकों को सदस्यता नहीं दे सकती। वह फ़ौलादी अनुशासन वाली कैडर-पार्टी होगी, जिसका मेरुदण्ड पेशेवर क्रान्तिकारियों (होलटाइमरों) का कोर-ग्रुप होगा और सदस्यता दायरा केवल पार्टी के किसी मोर्चे पर सक्रिय एक्टिविस्ट साथियों तक ही हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि ज़्यादा से ज़्यादा खुले बुर्जुआ जनवादी माहौल में काम करते हुए भी, चुनाव में हिस्सा लेते हुए भी, कोई क्रान्तिकारी पार्टी पूरी तरह खुली नहीं हो सकती, उसका ढाँचा, कार्य-प्रणाली और सदस्यता एवं कमेटी ढाँचा खुला नहीं हो सकता। सांगठनिक ढाँचे और कार्य-प्रणाली के सवाल पर मेंशेविकों से, और आगे चलकर यूरोप की काउत्स्कीपन्थी पार्टियों से बोल्शेविकों का यही बुनियादी अन्तर था।
(4) राज्यसत्ता और संसदीय चुनाव आदि के प्रश्न पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी अवस्थितियों को लेनिन की रचनाओं ‘राज्य और क्रान्ति’, ‘राज्यसत्ता क्या है’, ‘मार्क्सवाद और संशोधनवाद’, ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’ आदि पढ़कर तथा ‘महान बहस’ (ख्रुश्चेव के साथ चीनी पार्टी की बहस) के दस्तावेज़ों को पढ़कर भली-भाँति समझा जा सकता है। सांगठनिक सवाल पर एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी के ढाँचे और कार्य-प्रणाली को लेनिन की रचनाएँ – ‘एक क़दम आगे दो क़दम पीछे’ और ‘क्या करें’ पढ़कर जाना जा सकता है। कोमिन्टर्न के अधिवेशन में लेनिन द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज़ ‘कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और ढाँचा’ और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पुस्तक ‘पार्टी की बुनियादी समझदारी’ भी ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए !
(5) इस बेहद संक्षिप्त सैद्धान्तिक पूर्व-पीठिका के बाद, आइए, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन पर एक सरसरी नज़र डाली जाये।
(क) एक पिछड़े और ग़ुलाम देश में जन्म लेने के कारण भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप से बेहद कमज़ोर था। अपने देश की ठोस परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी यह अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का मुँह जोहता था। महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़-बिन्दुओं पर भारत के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने या तो निर्णय लेने में देर की, या फिर ग़लत निर्णय लिये। पार्टी का ढाँचा शुरू से ही ढीला-पोला था। लेकिन तमाम कमज़ोरियों-ग़लतियों के बावजूद यह 1951 तक सर्वहारा वर्ग की ही पार्टी थी। नेतृत्व ने नीतिगत ग़लतियाँ कीं, पर क़तारों ने बहादुराना संघर्ष किये और बेमिसाल क़ुर्बानियाँ दीं। ग़लतियों और भटकावों के परिमाणात्मक विकास के सिलसिले ने 1951 में एक गुणात्मक छलाँग तब ली जब तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी-नेतृत्व ने नेहरू सरकार के सामने पूरी तरह से आत्म-समर्पण कर दिया। पूरा पार्टी ढाँचा, सदस्यता, कमेटी-व्यवस्था, हेडक्वार्टर आदि को पूरी तरह से खुला कर दिया गया, पार्टी-सदस्यता यूनियनों की चवन्निया मेम्बरी की तरह बँटने लगी और पार्टी का परम लक्ष्य चुनाव लड़कर संसद में बैठना भर रह गया। सोवियत संघ में ख्रुश्चेव जब संशोधनवाद की लहर लेकर आया तो 1958 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अमृतसर स्पेशल कांग्रेस में उसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया! अब पार्टी के भीतर नेतृत्व के एक हिस्से का कहना था कि सत्तारूढ़ प्रगतिशील बुर्जुआ के प्रतिनिधि नेहरू राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति (यानी साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी कार्यभार) को पूरा करने का काम कर रहे हैं, अतः हमें उनका समर्थन करना चाहिए। दूसरे धड़े का कहना था कि नेहरू के नेतृत्व में बड़ी बुर्जुआज़ी अपने वायदों से विश्वासघात कर रही है, अतः हमें मज़दूरों-किसानों और मध्य वर्ग के साथ रैडिकल छोटी बुर्जुआज़ी को लेकर लोक जनवादी क्रान्ति के लिए संघर्ष करना होगा। लेकिन व्यवहारतः इस धड़े ने भी कुछ रुटीनी ट्रेड यूनियन संघर्षों, आन्दोलनों और चुनावी सरगर्मियों के अतिरिक्त पार्टी के बोल्शेविकीकरण के लिए कुछ करना तो दूर, कोई आवाज़ तक नहीं उठायी। यानी मतभेद मात्र इतना था कि नरमपन्थी संशोधनवादी सीधे नेहरू सरकार की गोद में बैठ जाना चाहते थे, जबकि “गरमपन्थी” संशोधनवादी बुर्जुआ संसद में एक ज़िम्मेदार विपक्ष और ‘प्रेशर-ब्लॉक’ की भूमिका निभाना चाहते थे।
(ख) 1964 में भाकपा से अलग होकर जब माकपा बनी तो उसने भाकपा को संशोधनवादी कहा, पर ख़ुद उसने पार्टी-सदस्यता और ढाँचे के बोल्शेविक उसूलों में आयी ढिलाई को दुरुस्त करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया। पूरी पार्टी का ढाँचा यथावत खुला रहा। 1958 की अमृतसर कांग्रेस में पार्टी-संविधान की प्रस्तावना व अन्य हिस्सों में ख्रुश्चेवी लाइन के हिसाब से जो बदलाव किये गये थे, उन्हें ठीक नहीं किया गया। यही नहीं, 1963 से चीन की पार्टी ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध जो वैचारिक संघर्ष चला रही थी, उसमें माकपा ने पोज़ीशन लेने की जगह बीच-बीच का रास्ता चुना। आगे चलकर वह सोवियत पार्टी के प्रति ज़्यादा से ज़्यादा नरम हो गयी और चीनी पार्टी की पोज़ीशन के प्रति ज़्यादा से ज़्यादा आलोचनात्मक होती चली गयी। और फिर 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में जब पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी, तो माकपा ने देङ सियाओ-पिङ के सुर में सुर मिलाते हुए माओ पर हमले करना शुरू कर दिया और देङ और उसके चेलों के “बाज़ार-समाजवाद” की पुरज़ोर समर्थक हो गयी। क्रान्तिकारी क़तारों की आँखों में धूल झोंकने के लिए माकपा ने अपनी स्थापना के दिनों में कहा था कि वह “जन-संघर्षों की मदद के लिए संक्रमणकालिक सरकारें” चलायेगी। इस तरह वह कहना चाहती थी कि वह चुनावों और संसद-विधानसभाओं का ‘टैक्टिकल’ इस्तेमाल’ कर रही है, पर पूरी पार्टी दरअसल एक पूर्णतः खुली ‘जन-पार्टी’ (न कि कैडर पार्टी) के रूप में सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनाव ही लड़ती रही और ट्रेड-यूनियन स्तर के कुछ आन्दोलन करती रही।
“जन-संघर्षों की मदद” माकपा नेतृत्व वाली प. बंगाल की सरकारों ने आगे चलकर इस हद तक की कि नन्दीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ में बर्बर दमन करने तक पहुँच गयी। ज्योति बसु ने बर्गा-पंजीकरण के रूप में भूमि-सुधार का जो काम किया वह तात्कालिक तौर पर प्रगतिशील होते हुए भी रैडिकल भूमि-सुधार न होकर कुछ वैसा ही था जिसे लेनिन ने ‘प्रशियाई मार्ग’ की संज्ञा दी थी। आगे चलकर इन्हीं बुर्जुआ भूमि-सुधारों की बदौलत मालिक किसानों का जो वर्ग फला-फूला, उसने अपनी दलीय वफ़ादारी बदल दी और अर्द्ध-फ़ासीवादी तृणमूल का सामाजिक आधार बन गया। नव-उदारवाद का रैडिकल विरोध करने और उसके एकमात्र विकल्प के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत करने की जगह जब माकपा और उसके सहयोगियों ने “मानवीय चेहरे वाले नवउदारवाद” (अमर्त्य सेन ब्राण्ड) की बात की और मात्र कुछ नेहरूकालीन कीन्सवादी नुस्ख़ों तक वापसी को ही अपना “समाजवाद” बना लिया तो संगठित मज़दूरों और मध्य वर्ग के बीच मौजूद इसका सामाजिक आधार भी कमज़ोर पड़ गया। असंगठित मज़दूरों में तो पहले भी इसकी पकड़ कमज़ोर थी जो बाद में समाप्तप्राय हो गयी। पार्टी-नेतृत्व में ऊपर उच्च-मध्यवर्गीय कुलीनता घर कर गयी और नीचे तथा मध्यवर्ती नेतृत्व के संस्तरों पर भ्रष्ट, गुण्डे टाइप नौकरशाहों की भरमार हो गयी। इससे ग़रीबों में मौजूद पार्टी का वोट बैंक भी तेज़ी से सिकुड़ता चला गया।
(ग) बहुत सारे ईमानदार पार्टी-कैडर भी पार्टी की राजनीतिक संस्कृति में आये पतन को ही रोग की जड़ समझते हैं, जबकि यह मूल रोग का एक लक्षण और अभिव्यक्ति मात्र है। कोई भी पार्टी जब संशोधनवाद के रास्ते पर चलती है तो उसके चरित्र और व्यवहार में उसका पतन तुरन्त परिलक्षित नहीं होता। इसमें समय लगता है। मार्क्सवादी विज्ञान का जानकार पार्टी के पतन की शुरुआत वहीं से मान लेता है जब पार्टी विचारधारात्मक स्तर पर विपथ-गमन कर जाती है, यानी, वह वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को छोड़कर (भले ही ज़ुबानी इनकी दुहाई देती रहे) शान्तिपूर्ण संक्रमण और चुनावों से सरकार बनाकर “समाजवाद लाने” के रास्ते पर चल पड़ती है और ख़ुद को एक ढीली-पोली, संसदीय, पूरी तरह से खुली, मास-पार्टी में तब्दील कर लेती है। समझना इस बात को होगा कि राजनीतिक चरित्र की पतनशीलता एकदम नग्न होने के दशकों पहले से ही भाकपा, माकपा, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, आर.एस.पी., एस.यू.सी.आई. आदि पार्टियाँ विचारधारात्मक रूप से संशोधनवादी हो चुकी थीं और कुछ तो अपने जन्मकाल से ही ऐसी ही थीं। 1981 के बाद इनकी क़तार में भाकपा (मा-ले) लिबरेशन भी आकर शामिल हो गयी जो आज सबसे गन्दे और शातिराना क़िस्म के दक्षिणपन्थी अवसरवाद का प्रदर्शन कर रही है।
(घ) 1964 में माकपा के गठन के तुरन्त बाद, 1965-66 से ही माकपा के भीतर के कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी तत्वों ने एक नया कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी केन्द्र बनाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। 1967 के नक्सलबाड़ी किसान जन-उभार से इस प्रक्रिया को नया संवेग मिला। 1968 में ‘कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की अखिल भारतीय तालमेल कमेटी’ का गठन एक महत्वपूर्ण क़दम था। पर 1970 में भाकपा (मा-ले) के अस्तित्व में आने के पहले ही चारू मजुमदार ने इस महत्वपूर्ण पहल को “वामपन्थी” दुस्साहसवाद और कठमुल्लावाद के गड्ढे में धकेल दिया और गठन से पहले ही फूट-दर-फूट की प्रक्रिया शुरू हो गयी जो आजतक जारी है। इसी मा-ले धारा से निकली हुई भाकपा (माओवादी) आज “वामपन्थी” दुस्साहसवाद और सैन्यवाद की लाइन को लागू कर रही है और क्रान्तिकारी धारा के अग्रवर्ती विकास को गम्भीर क्षति पहुँचा रही है। नक्सलबाड़ी किसान-उभार से निकले कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन आज अपने कठमुल्लावाद के चलते विसर्जित हो चुके हैं, कुछ मज़दूरों की राजनीति की जगह किसानों की वर्गीय पोज़ीशन पर खड़े होकर राजनीति करते हुए नरोदवादी टाइप बन गये हैं। कुछ ‘आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स’ और अम्बेडकरवाद के साथ हनीमून मना रहे हैं और कुछ “मुक्त चिन्तक” बन चुके हैं।
इसी धारा से छिटके कुछ संगठन विचारधारा के प्रश्न और समाजवाद की समस्याओं को संजीदगी से समझने की कोशिश कर रहे हैं, भूमण्डलीकरण के दौर के साम्राज्यवाद और भारत में पूँजीवाद के विकास का सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन कर रहे हैं और आज के दौर की सर्वहारा क्रान्ति की लाइन को विकसित कर रहे हैं, शहरों और गाँवों के मज़दूर वर्ग के बीच ज़मीनी काम कर रहे हैं, तथा बोल्शेविक ढंग से संगठन खड़ा करने की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। लेकिन सिर्फ़ ऐसे ही संगठनों की एकता से एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी का गठन नहीं हो जायेगा। अपनी बनती हुई समझ के आधार पर इन शक्तियों को ‘व्यवहार-सिद्धान्त-व्यवहार’ का एक सघन और सुदीर्घ सिलसिला चलाना होगा, तथा, समाज से बड़े पैमाने पर नयी क्रान्तिकारी भरती करनी होगी। तब जाकर एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आ सकती है।
विज्ञान और विगत इतिहास का समाहार हमें यही बताता है। पर इतिहास की इस शिक्षा को और मार्क्सवादी विज्ञान की इस समझ को अमल में उतारने के लिए, निश्चय ही दृढ़ इच्छा-शक्ति की ज़रूरत होगी, फ़ैसलाकुन होने की ज़रूरत होगी!

(इस सवाल के अन्य पहलुओं पर ‘मज़दूर बिगुल’ के आगामी अंकों में चर्चा जारी रहेगी)

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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