फ़ासिस्टों को धूल चटाने वाले मज़दूर वर्ग के महान क्रान्तिकारी नेता और शिक्षक जोसेेफ़ स्तालिन के जन्मदिवस (21 दिसम्बर) के अवसर पर
कम्युनिस्ट कार्यशैली के बारे में एक महत्त्वपूर्ण उद्धरण

कुछ लोगों का विश्वास है कि फ़रमानों द्वारा हर चीज़ की व्यवस्था हो सकती है। हर तरह का सुधार किया जा सकता है। इस तरह के विश्वास वाले लोग जिस तरह हर बात के लिए चटपट “क्रान्तिकारी” हल निकाल लेते हैं और “क्रान्तिकारी” योजनाओं के अण्डे दिया करते हैं, उसे कौन नहीं जानता? एक रूसी लेखक इलिया एहरेनबुर्ग ने अपनी कहानी ‘द पर्कोमान’ (अर्थात पक्का कम्युनिस्ट मानव) में इस तरह के एक “बोल्शेविक” का चित्रण किया है। उक्त “बोल्शेविक” ने एक पूर्णतः आदर्श व्यक्ति की रचना का सूत्र खोज निकालने का निश्चय किया… और इसी “कार्य” में खो गया। इस कहानी में कुछ अतिशयोक्ति है, तो भी वह उपरोक्त बीमारी का एक सही चित्र उपस्थित करती है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इस रोग का उपहास जिस निर्ममता से लेनिन ने किया है वैसा और किसी ने नहीं किया है। हर चीज़ की चटपट योजना बना लेने और फ़तवों द्वारा हर काम की व्यवस्था कर लेने की इस धारणा को लेनिन ने “कम्युनिस्ट दम्भ” कहा है।
लेनिन ने लिखा है, “कम्युनिस्ट दम्भ एक ऐसे आदमी का लक्षण है जो समझता है कि वह केवल फ़तवे निकालकर सब प्रश्नों को हल कर सकता है।” (लेनिन, ‘नयी आर्थिक नीति और राजनीतिक शिक्षा विभाग के कार्यभार’, ग्रन्थावली, खण्ड 9, पृ. 273)
लेनिन अक्सर सीधे दैनिक काम और खोखले “क्रान्तिकारी” शब्दाडम्बर का भेद बताया करते थे। वह बराबर इस काम पर ज़ोर देते थे कि यह तथाकथित “क्रान्तिकारी” योजनाबाज़ी लेनिनवाद के सिद्धान्तों और भावना के सर्वथा विरुद्ध है।
उन्होंने लिखा है, “…लच्छेदार भाषा का प्रयोग कम करके अपने दैनिक कार्य की मात्रा बढ़ाओ।”
“…राजनीतिक आतिशबाज़ी का प्रदर्शन कम करो, कम्युनिस्ट निर्माण के साधारण किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की ओर अधिक ध्यान दो।” (लेनिन, ‘एक महान शुरुआत’, ग्रन्थावली, खण्ड 9, पृ. 430-40)
अमेरिकी कार्यकुशलता “क्रान्तिकारी” मानिलोववाद और हास्यास्पद योजनाबाज़ी की शत्रु है। यह कार्यकुशलता वह अजेय शक्ति है जो न बाधाओं को जानती है और न उन्हें स्वीकार करती है। अपने उद्यम और अध्यवसाय के बल से कार्यकुशल व्यक्ति सभी बाधाओं को दूर कर देता है और जब तक कार्य समाप्त नहीं हो जाता तब तक उसे करता जाता है चाहे वह काम कितना ही छोटा क्यों न हो। इस प्रकार की कार्यकुशलता (अमेरिकी दक्षता) के बिना कोई भी रचनात्मक कार्य पूरा नहीं किया जा सकता।
किन्तु उसका (अमेरिकी दक्षता का) संयोग रूसी क्रान्तिकारी उत्साह के साथ न हो तो अमेरिकी कार्यकुशलता के विकृत होकर संकुचित और सिद्धान्तहीन व्यावसायिकता में बदल जाने की पूरी सम्भावना है। संकुचित व्यावहारिकता और सिद्धान्तहीन व्यावसायिकता के कारण कभी-कभी कुछ “बोल्शेविकों” ने क्रान्तिकारी कार्य को त्याग दिया है। उनके इस रोग की बात किसने नहीं सुनी है? बी. पिलनियाक की ‘बंजर वर्ष’ नामक कहानी में हमें इस विचित्र रोग का परिचय मिलता है। उसमें कुछ ऐसे “बोल्शेविकों” का चित्रण किया गया है जिनकी इच्छाशक्ति और व्यावहारिक संकल्प काफ़ी दृढ़ हैं और जो काफ़ी “ज़ोरशोर” से “काम” करते हैं। लेकिन वे कुछ समझ नहीं पाते, वे यह नहीं जानते कि वे “क्या कर रहे हैं” और इस कारण क्रान्तिकारी पथ से भटक जाते हैं। इस संकुचित व्यावसायिकता का उपहास करने में लेनिन से अधिक निर्ममता और किसी ने नहीं दिखायी है। उन्होंने इसे “कूपमण्डूक व्यावहारिकता” और “नासमझ बनियापन” बतलाया है। लेनिन ने महत्त्वपूर्ण क्रान्तिकारी कार्य करने की और दैनिक कार्यक्रम के सम्बन्ध में क्रान्तिकारी सम्बन्ध बनाये रखने की आवश्यकता में और इस संकुचित दृष्टिकोण में भेद बतलाया है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि सिद्धान्तहीन व्यावसायिकता लेनिनवाद के सिद्धान्तों के उतना ही विरुद्ध है जितना कि तथाकथित “क्रान्तिकारी” योजनावाद।
पार्टी और राज्य के कार्यक्षेत्र में रूसी क्रान्तिकारी उत्साह और अमेरिकी कार्यकुशलता के इस सम्मिश्रण का नाम है लेनिनवाद। इन्हीं दो गुणों के संयोग से निपुण लेनिनवादी कार्यकर्ता उत्पन्न होता है और लेनिनवादी कार्यशैली का निर्माण होता है।

(‘लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त’ से)

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021


 

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