पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव : मज़दूर वर्ग और आम जनता के सामने विकल्प क्या है?

– इन्द्रजीत

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव एकदम सिर पर हैं। इन पाँच राज्यों के सात चरणों में होने वाले चुनावों में वोट पड़ने की शुरुआत 10 फ़रवरी से हो जायेगी तथा चुनाव परिणाम 10 मार्च को घोषित कर दिये जायेंगे। पूँजीपति वर्ग की विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियाँ जोश-ओ-ख़रोश के साथ चुनावी नूराकुश्ती के मैदान में डटी हुई हैं। जिस तरह से बारिश के मौसम में गन्दे नालों का पानी एक नाले से दूसरे नाले में आता-जाता रहता है ठीक वैसे ही चुनावबाज़ पार्टियों के नेता भी एक पार्टी से दूसरी पार्टी में मिल रहे हैं। तमाम दलों की एक-दूसरे का सात जन्मों तक साथ निभाने वाली क़समों के पुराने ‘एफ़िडेविट’ रद्दी की टोकरियों की भेंट चढ़ रहे हैं और नित नये “ठगबन्धन” क़ायम हो रहे हैं। पंजाब को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में पहले से भाजपा और एनडीए गठबन्धन की ही सरकारें क़ायम थीं। अब अन्य दल जाति के समीकरण बैठाने, झूठे वायदे करने और सरकारी पक्ष को घेरने में लगे हैं तो भाजपा साम्प्रदायिक एजेण्डे को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में जुटी हुई है।
उत्तर प्रदेश का चुनाव विभिन्न बुर्जुआ दलों और चुनाव विश्लेषकों के ध्यान का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, यहाँ विधान सभा की 404 तो लोकसभा की 80 सीटें जो हैं। यहाँ 2017 से योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रीत्व में भाजपा की सरकार क़ायम है। भाजपा सरकार बनने के बाद से अब तक साम्प्रदायिक नफ़रत के मोर्चे को छोड़कर हर मोर्चे पर बुरी तरह से विफल साबित हुई है। रोज़गार, चिकित्सा, शिक्षा, प्रशासन और आर्थिक मोर्चे पर योगी सरकार की भयानक रूप से भद्द पिटी हुई है। मानव विकास के तमाम मानकों पर यूपी सरकार फिसड्डी साबित हुई है। लोगों ने न केवल कोरोना काल में सत्ता की अक्षम्य लापरवाही झेली और गंगा के घाट लाशों से पट गये बल्कि इससे पहले भी अस्पतालों, विद्यालयों के हालात किसी से छिपे नहीं थे। अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और ग़रीबों पर योगी सरकार किसी आफ़त की तरह टूट पड़ी। ज़हरखुरानी गिरोह के शिकार हुए लोगों को छोड़कर प्रदेश की ज़्यादातर जनता आज सत्ता की बेरुख़ी, दमन, साम्प्रदायिक तनाव से आजिज़ आ चुकी है।
पिछले पाँच साल की कारगुज़ारियों की वजह से यूपी में भाजपा की हालत कुछ पतली नज़र आ रही है। इस बात को भाजपा का नेतृत्व भी अच्छी तरह से जानता है। यही कारण है कि इस समय भाजपा का नफ़रती गिरोह पूरी नंगई के साथ साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने में जुट गया है। योगी, मोदी और शाह ने यहाँ विकास की लफ़्फ़ाज़ी का झुनझुना दूर फेंक दिया है और अपना पूरा ध्यान मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुसलमान पर केन्द्रित कर दिया है। हालिया दिनों में योगी आदित्यनाथ को साम्प्रदायिक नफ़रत का ज़हर उगलते हुए आसानी से देखा जा सकता है। सत्ता खो जाने के भय से इनकी बदहवासी और बेचैनी देखते ही बन रही है। संतों के भेस में नफ़रती भेड़ियों को खुली छूट दे दी गयी है और भाजपा के आईटी सेल से लेकर गोदी मीडिया तक धार्मिक नफ़रत के कारोबार में पूरा-पूरा योग दे रहे हैं। इस सबके बावजूद सत्ताच्युत हो जाने के डर के चलते योगी आदित्यनाथ की कँपकँपी दूर होती नहीं दिख रही है। असल में यूपी में भाजपा का मुक़ाबला सपा-रालोद गठबन्धन से नहीं बल्कि सीधे जनता से है। परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन इतना साफ़ है कि सही राजनीतिक विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी के बावजूद भी जनता सपा, रालोद और तमाम अवसरवादी गिरोहों को जिताने की बजाय भाजपा को हराने के लिए ख़ुद मैदान में खड़ी नज़र आ रही है। हालाँकि भाजपा को पूरे सरकारी तंत्र, चुनाव आयोग, साम्प्रदायिक गुण्डा गिरोह और अन्त में ईवीएम मशीन का साथ तो मिलेगा ही। इसके साथ ही बसपा भी अन्दर खाते किसे फ़ायदा पहुँचाने वाली है यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए।
पंजाब में पिछले पाँच साल से कांग्रेस की सरकार थी। शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और जनता की अन्य बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में राज्य की कांग्रेस सरकार भी नाकाम ही साबित हुई है। यहाँ कांग्रेस की अन्दरूनी कलह ही ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है। कैप्टन-सिद्धू की कुत्ताघसीटी में कैप्टन को कांग्रेस से जुदा होना पड़ा। कैप्टन ने भी फट दूसरी पार्टी बनायी और झट भाजपा के साथ नत्थी हो गये। अब सिद्धू और चन्नी की नयी कुत्ताघसीटी चालू हो चुकी है। जट्टवाद का तुम्बा बना अकाली दल इस बार दलितों की राजनीति का दम भरने वाली बसपा के साथ चुनावी गठबन्धन में है। पंजाब में आम आदमी पार्टी भी ख़ूब हाथ-पैर मार रही है। भाजपा को पता है कि वह ख़ुद पंजाब में ज़्यादा कुछ नहीं कर पायेगी। यहाँ भाजपा का पूरा ध्यान कांग्रेस को पीछे हटाने पर है। इसके लिए चाहे उसे अन्दर खाते आम आदमी पार्टी की ही मदद क्यों न करनी पड़े। भाजपा जानती है कि कांग्रेस की बजाय उसके लिए ‘आप’ को कूट-छेतकर सीधा करना ज़्यादा आसान है। उत्तराखण्ड के चुनावों में भी भाजपा औजहीन-सी नज़र आ रही है। सत्ता विरोधी लहर की वजह से यहाँ बिल्ली के भाग से छीका टूटता हुआ दिख रहा है। किसी सही राजनीतिक विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में भी यहाँ पर हरीश रावत और पूरा कांग्रेसी ख़ेमा जीत के प्रति आश्वास्त-सा नज़र आ रहा है। केजरीवाल को यहाँ भी दौड़-धूप करते देखा जा सकता है। गोवा के विगत विधान सभा चुनाव में भाजपा ने बहुमत न होने के बावजूद भी सरकार बनायी थी। इसका कारण भाजपा के तथाकथित चाणक्य का वोट हासिल न होने की सूरत में सीधे विधायकों की सेंधमारी करने में माहिर होना पाया गया था। इस बार भी भाजपा इसी उम्मीद के सहारे चुनाव मैदान में है। श्रीमान सुथरे अरविन्द केजरीवाल का गोवा में भी सैर-सपाटा जारी है। 2017 के विगत विधान सभा चुनाव में मणिपुर में भी भाजपा बहुमत से काफ़ी पीछे थी। उस समय यहाँ कुल 60 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस को 28 तो भाजपा को 21 सीटें मिली थी। यहाँ भी जोड़-तोड़ से भाजपा की सरकार बनी और कांग्रेसी मुँह ताकते रह गये थे।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि उक्त पाँच राज्यों के चुनावों में चाहे कोई चुनावबाज़ पार्टी या गठबन्धन जीते इससे इन राज्यों की मेहनतकश जनता के जीवन में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आने वाला है। जनता के एक हिस्से को यह भी पता है कि इन पूँजीवादी अवसरवादी चुनावी दलों और ठगों-बटमारों के गिरोहों में क़त्तई अन्तर नहीं है। लेकिन असल बात यह है कि इस समय देशव्यापी स्तर पर कोई सही राजनीतिक विकल्प मौजूद नहीं है। तमाम रंगों-झण्डों की पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण की लुटेरी नीतियों को ही अंजाम तक पहुँचाने का काम करने वाली हैं। इतिहास गवाह है कि फ़ासीवाद को केवल और केवल मज़दूर वर्ग और आम जनता की वर्गीय आधार पर संगठित व एकजुट ताक़त ही शिकस्त दे सकती है। फ़ासीवाद कुछ और नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के दौर में वित्तीय पूँजी की नंगी तानाशाही होता है। यही काम भाजपा कर भी रही है। इस काम में भाजपा के लिए तमाम पूँजीपति घरानों ने धन की बरसात ऐसे ही नहीं कर रखी है। चुनावी चन्दे से लेकर धन्नासेठ हर प्रकार की मदद भाजपा को कर रहे हैं। कहा भी गया है जो जिसका खाता है वह उसी का बजाता है। फ़ासीवादी भाजपा और पूरा संघ परिवार मुस्लिमों को नक़ली दुश्मन के तौर पर खड़ा करके व्यापक हिन्दू आबादी को भी साम्प्रदायिक राजनीति की आग में झोंकने का ही काम कर रहे हैं। इनके एजेण्डे में हिन्दू आबादी के लिए भी सिवाय बोगस नारों के कुछ भी नहीं है। यदि कहीं पर भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों की हार भी होती है तो भले ही इससे जनता को एक तात्कालिक और अल्पकालिक राहत मिलती हुई प्रतीत हो लेकिन वास्तविकता में इससे फ़ासीवाद का संकट टलने वाला नहीं है। पूँजीवाद के ख़ात्मे के बिना फ़ासीवाद के ख़ात्मे की कल्पना भी बेमानी है। थियोडोर अड़ोर्नो एक जगह ठीक ही कहते हैं कि पूँजीवाद पर बात किये बिना फ़ासीवाद पर किसी को अपना मुँह भी नहीं खोलना चाहिए।
मौजूदा चुनावों में एक या दूसरे पूँजीवादी दल की जीत से अपनी बेहतरी की उम्मीद पालने की बजाय हमें अपनी वर्ग एकजुटता क़ायम करने और अपना स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष खड़ा करने की ओर ध्यान देना चाहिए। चुनावों में इस या उस पार्टी की जीत के प्रति आश्वस्त और उत्साहित होने की बजाय जनपक्षधर ताक़तों को जनता के सही राजनीतिक विकल्प को वर्तमान करना चाहिए। संसदीय राजनीति में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप करते हुए भी जनता के बीच संसदीय राजनीति के द्वारा समाज को बदलने के विभ्रम को भी अधिकाधिक नग्न करते जाना चाहिए। मेहनतकश जनता की असल मुक्ति तभी सम्भव हो सकती है जब उत्पादन और राजकाज पर मेहनतकश वर्गों का ही क़ब्ज़ा हो। मौजूदा दौर में यह चीज़ समाजवादी क्रान्ति के द्वारा ही फलीभूत हो सकती है। क्रान्ति की पूर्वशर्त क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के लिए आज महती प्रयासों की दरकार है। पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों के परिणाम चाहे जो भी हों हमें अपने हक़-अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष किये बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। हमें मेहनतकश जनता की अपनी फ़ौलादी एकजुटता क़ायम करने पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022


 

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