कज़ाख़स्तान में आम मेहनतकश जनता की बग़ावत

– डॉ. ऋषि

कज़ाख़स्तान में इस साल की शुरुआत बग़ावत के स्तर तक पहुँच गये मज़दूरों और आम जनता के सत्ता-विरोधी प्रदर्शनों के साथ हुई। ये विरोध प्रदर्शन कज़ाख़स्तान के लगभग सभी बड़े शहरों में हुए और प्रदर्शनकारियों द्वारा कई शहरों और प्रदेशों के प्रशासनिक व पुलिस प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। देश के सबसे बड़े शहर अलमाती में हवाई अड्डे पर भी प्रदर्शनकारियों ने क़ब्ज़ा कर लिया। राष्ट्रपति कासिम तोकायेव द्वारा तत्काल ही प्रदर्शनकारियों की आर्थिक माँगों को एक हद तक मान लिया गया, देश की सरकार को भंग कर दिया गया तथा ‘कज़ाख़स्तान की सुरक्षा परिषद्’ के चेयरमैन और परदे के पीछे से अभी तक शासन पर नियंत्रण रख रहे भूतपूर्व राष्ट्रपति नूर सुल्तान नज़रबायेव को भी हटा दिया गया। लेकिन उसके बाद भी जब प्रदर्शन उग्र से उग्रतर होते गये तो राष्ट्रपति तोकायेव द्वारा बाहर के मुल्कों, विशेषकर रूस की सेना बुलाकर इस प्रदर्शन को बेरहमी से कुचला गया। देशी-विदेशी सैन्य-बलों द्वारा सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और हज़ारों मज़दूरों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया है।
जहाँ एक ओर कज़ाख़स्तान की सरकार तथा मीडिया द्वारा प्रदर्शनकारियों को विदेशी ताकतों द्वारा समर्थित आतंकवादी घोषित कर दिया गया है, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी देशों के मीडिया में इसे निरंकुश नौकरशाह राज्यसत्ता के भीतर मौजूद अलग-अलग धड़ों के द्वारा सत्ता के लिए संघर्ष या फिर लिबरल बुद्धिजीवियों और “प्रगतिशील बुर्जुआ वर्ग” के नेतृत्व में जनता द्वारा ‘लोकतंत्र’ की बहाली के लिए संघर्ष के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कज़ाख़स्तान की निरंकुश पूँजीवादी राज्यसत्ता तथा देशी-विदेशी पूँजीवादी मीडिया इस तथ्य को छिपाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं कि इस बग़ावत की शुरुआत देश के उन इलाक़ों से हुई जहाँ बड़ी तादाद में मज़दूर आबादी रहती है जिसमें अपने काम व ज़िन्दगी के बदतर होते हालात की वजह से राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष बढ़ता जा रहा था और इस चिंगारी ने जंगल की आग की तरह फैलकर लगभग सभी बड़े शहरों और प्रान्तों के बेरोज़गार नौजवानों और निम्न-मध्य वर्ग की एक बड़ी आबादी को अपने दायरे में ले लिया था। पूँजीवादी राज्यसत्ता और उसके टुकड़ों पर पलने वाली मीडिया से इसके अलावा और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती है कि वह पूँजीवाद को क़ब्र में पहुँचाने की क्षमता रखने वाले मज़दूर वर्ग से हमेशा आतंकित रहे और उसके आन्दोलनों और क्रान्तिकारी कार्रवाइयों को अपने बेशर्म झूठों से ढाँपने -छुपाने का प्रयास करे।
इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए हमें घटनाओं को थोड़ा विस्तार से देखना होगा। कज़ाख़स्तान सरकार द्वारा प्राकृतिक गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी को 1 जनवरी 2022 से समाप्त कर दिया गया था जिसकी वजह से गैस के दामों में दोगुने से भी ज़्यादा की बढ़ोत्तरी हो गयी थी। इस बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ 2 जनवरी को कज़ाख़स्तान के पश्चिमी प्रदेश मांगिस्ताओ के ज़नाओज़ेन शहर की आम जनता सड़कों पर आ गयी। उसी दिन यह प्रदर्शन प्रशासनिक केन्द्र सहित पूरे अतिराओ प्रदेश में फैल गया जहाँ प्रदर्शनकारियों ने सेण्ट्रल चौक पर टेण्ट लगाने शुरू कर दिये थे। ग़ौरतलब है कि मांगिस्ताओ कज़ाख़स्तान का एक मुख्य तेल-उत्पादक प्रदेश है और यहाँ प्राकृतिक गैस खाना बनाने, घरों को गर्म करने के साथ ही गाड़ियों के ईंधन के रूप में भी प्रयोग में लायी जाती है। गैस के दाम दोगुने होने का मतलब है – घरेलू ख़र्चों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी जोकि पहले से महँगाई, बेरोज़गारी और कम वेतन से त्रस्त आम जनता के लिए बर्दाश्त से बाहर थी। 3 जनवरी को तेल का उत्पादन करने वाली कम्पनियों में हड़ताल हो गयी। तेल-मज़दूरों की माँगें थीं : वेतन में दोगुने की बढ़ोत्तरी, काम की स्थिति में सुधार, स्वतंत्र ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार तथा राजनीतिक पार्टियों पर जारी प्रतिबन्ध को समाप्त करना। इस तरह हम देख सकते हैं कि मज़दूर सिर्फ़ आर्थिक माँगें ही नहीं बल्कि राजनीतिक माँगें भी उठा रहे थे। ग़ौरतलब है कि कज़ाख़स्तान में सरकार द्वारा एक लम्बे समय से ट्रेड यूनियनों तथा राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ है।
शुरू में सरकार ने कोई भी माँग मानने से इन्कार कर दिया लेकिन प्रदर्शनकारियों के जुझारू तेवर देखकर बाद में उसने गैस के दाम कुछ कम करने की घोषणा की। लेकिन उससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और 4 जनवरी को पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन होने लगे। मध्य कज़ाख़स्तान के करागांदा प्रदेश में आर्सेलर मित्तल कम्पनी के खान मज़दूरों और कज़ाख़मिस निगम के धातु व खान मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। देश के लगभग सभी प्रदेशों के प्रशासनिक केन्द्रों में हज़ारों की तादाद में प्रदर्शनकारी शहरों के केन्द्रीय चौकों में जमा हो गये और मांगिस्ताओ की तर्ज पर ही आर्थिक व राजनीतिक माँगें उठाने लगे। अब सरकार और राष्ट्रपति को बर्ख़ास्त करने, संसद को भंग करने, नये चुनाव कराये जाने तथा राजनीतिक बन्दियों को रिहा करने जैसी राजनीतिक माँगें भी रखी जाने लगीं। 4 जनवरी की शाम को अलमाती शहर के ‘गणतंत्र चौक’ पर पहुँचे हज़ारों प्रदर्शनकारियों की पुलिस और नेशनल गार्ड के दस्तों के साथ भिड़न्त हुई। इन प्रदर्शनकारियों में बड़ी तादाद शहर की ग़रीब बस्तियों के नौजवानों और मज़दूरों की थी। पुलिस और नेशनल गार्ड द्वारा उन पर स्टन ग्रेनेड, आँसू गैस व रबर की गोलियों से हमला किया गया। प्रदर्शनकारियों की ओर से भी माक़ूल जवाब दिया गया और कई दिनों तक शहर के केन्द्रीय चौराहे व सड़कों पर गोलियों और बमों की आवाज़ें गूँजती रहीं। विद्रोहियों द्वारा मुख्य प्रशासनिक बिल्डिंग पर क़ब्ज़ा करके आग लगा दी गयी। उसी शाम को राष्ट्रपति तोकायेव ने मांगिस्ताओ प्रदेश और अलमाती शहर में आपातकाल लागू कर दिया, सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया और गैस के दामों को पुराने स्तर पर लाने की घोषणा की।
इस सबके बावजूद प्रदर्शनकारी अलमाती शहर की सड़कों पर डटे रहे। उन्होंने हथियारों की दुकानों को लूट लिया, शहर के मेयर के घर को आग लगा दी और अलमाती के हवाई अड्डे पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था। देशभर में सत्तारूढ़ पार्टी नुर ओतन के दफ़्तरों पर भी कई जगह हमला किया गया और उनमें आग लगा दी गयी। कई जगहों पर सुरक्षा बलों के वाहनों में आग लगा दी गयी और उन्हें पीछे धकेल दिया गया। ऐसी ख़बरें भी हैं कि कई जगहों पर सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया और उनके साथ मिल गये। अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकते देख तोकायेव ने ‘कज़ाख़स्तान की सुरक्षा परिषद्’ के चेयरमैन और भूतपूर्व राष्ट्रपति नूर सुल्तान नज़रबायेव को हटाकर स्वयं उस पद को हथिया लिया, पूरे देश में आपातकाल लागू कर दिया और साथ ही ‘सामूहिक सुरक्षा सन्धि संगठन’, जिसमें रूस के नेतृत्व में आर्मीनिया, बेलारूस, किर्गिज़स्तान और ताज़िकिस्तान शामिल हैं, से अपनी फ़ौजी टुकड़ियों को भेजने की अपील की। 6 जनवरी की सुबह रूस के 3000 सैनिकों के कज़ाख़स्तान पहुँचने के बाद सरकार अगले कई दिनों तक प्रदर्शनकारियों के भयंकर दमन के बाद ही स्थिति को अपने नियंत्रण में ला पायी।
कज़ाख़स्तान के वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य को समझने के लिए हमें उसके इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा। 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ की सत्ता पर क़ाबिज़ होने वाले संशोधनवादियों द्वारा पूँजीवाद का रास्ता पकड़ लेने के बाद से पार्टी और सत्ता के प्रतिष्ठानों में जनवाद का ख़ात्मा करके खुलेआम नौकरशाही और व्यक्तिवाद की स्थापना की गयी और यही प्रक्रिया सोवियत संघ में शामिल विभिन्न गणराज्यों में भी घटित हुई। गणराज्यों में भी पार्टी व राज्य के ढाँचे पर नौकरशाहों, उनके परिवार के लोगों और उनके लग्गू-भग्गुओं का क़ब्ज़ा होने लगा। 1991 में संशोधनवादी सोवियत संघ के विघटन के बाद कज़ाख़स्तान ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की और वहाँ पार्टी की केन्द्रीय समिति का प्रथम सचिव नूर सुल्तान नज़रबायेव वहाँ का प्रथम राष्ट्रपति बना। पार्टी में पहले से ही भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का बोलबाला था और नज़रबायेव ने इसे खाद-पानी देकर और मज़बूत किया।
कज़ाख़स्तान के स्वतंत्र होने के बाद नज़रबायेव ने एक निरंकुश नौकरशाह क़िस्म की पूँजीवादी राज्यसत्ता क़ायम की जिसमें जनता को बुनियादी जनवादी अधिकार भी हासिल नहीं हैं। वहाँ मज़दूर अपनी ट्रेड यूनियन नहीं बना सकते, सत्ता की पालतू छह पार्टियों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबन्ध है तथा स्वतंत्र पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का दमन आम बात है। सत्ता के ख़िलाफ़ बोलने वाले लोगों की गिरफ़्तारियाँ और हत्या आम बात है। इसके अलावा पूरे प्रशासन तंत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वर्तमान संकट के पहले तक इस तंत्र पर नज़रबायेव के सगे-सम्बन्धी और अन्य वफ़ादार लोगों का क़ब्ज़ा था। आम जनता इस निरंकुश शासन से आजिज़ आ चुकी है और परिवर्तन चाहती है इसलिए प्रदर्शनों के दौरान नज़रबायेव के ख़िलाफ़ एक नारा “शाल कैत” यानी “बूढ़े आदमी! दफ़ा हो जा” सबकी ज़ुबान पर था। हालाँकि नज़रबायेव ने 2019 में राष्ट्रपति का पद छोड़ दिया था और कासिम तोकायेव का इस पद के लिए चयन किया था लेकिन उसने पूरी तरह सत्ता नहीं छोड़ी और ख़ुद को एक बड़ी शक्तिशाली संस्था ‘कज़ाख़स्तान की सुरक्षा परिषद’ के चेयरमैन के रूप में स्थापित कर लिया। इसीलिए लोगों को यह लगता था कि नज़रबायेव परदे के पीछे से अभी भी सरकार चला रहा है। नज़रबायेव के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद भी शासन-तंत्र में उसके परिवार के लोग और अन्य वफ़ादार बैठे हुए थे जिन्हें तोकायेव ने वर्तमान संकट के दौरान बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
स्वतंत्र गणराज्य बनने के तुरन्त बाद आर्थिक संकट के बावजूद कज़ाख़स्तान के पास एक बड़ा लाभ यह था कि उसके पास खनिज पदार्थों, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के बहुत बड़े भण्डार थे। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के ये भण्डार मुख्यतः कज़ाख़स्तान के पश्चिमी प्रदेशों मांगिस्ताओ और अतिराओ में स्थित हैं। कज़ाख़स्तान के निर्यात का 70 प्रतिशत तेल, गैस और अन्य कच्चे माल होते हैं। बाक़ी 15-20 प्रतिशत लौह-धातुओं तथा ताँबा, ज़िंक और यूरेनियम अयस्क से आता है। सोवियत संघ के विघटन के तुरन्त बाद से कज़ाख़स्तान ने नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया जिसकी वजह से आज यहाँ ‘स्वतंत्र राज्यों के राष्ट्रमण्डल’ यानी पूर्व सोवियत संघ के सभी देशों से ज़्यादा प्रति व्यक्ति विदेशी निवेश होता है। यहाँ अमेरिका, नीदरलैण्ड, स्विट्ज़रलैण्ड और चीन जैसे देशों की पूँजी लगी हुई है। लेकिन यह सारी पूँजी पश्चिमी कज़ाख़स्तान के तेल-उत्पादन में और, कुछ हद तक, केन्द्रीय प्रदेशों के धातु-उद्योगों में संकेन्द्रित है। देश की अर्थव्यवस्था के कच्चे मालों के निर्यात पर लगभग पूरी तरह निर्भर होने के कारण यहाँ उद्योग धन्धों का विकास नहीं हुआ और साथ ही कृषि भी पूँजीवादी संकट से ग्रस्त है। इस बीच दक्षिणी कज़ाख़स्तान के ग्रामीण इलाक़ों में जनसंख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन इस आबादी को रोज़गार देने के लिए पर्याप्त उद्योग धन्धे ही नहीं हैं इसलिए यहाँ बेरोज़गारी बहुत बढ़ गयी है। 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के ऊँचे दाम होने के कारण देश में सकल घरेलू उत्पाद साल दर साल 9-10 प्रतिशत तक रहा। 2007-2008 की वैश्विक आर्थिक मन्दी की वजह से यह दर कुछ कम हुई लेकिन फिर 5-7 प्रतिशत पर पहुँच गयी। आर्थिक वृद्धि के इस दौर में देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने बहुत मुनाफ़ा कूटा और इस मुनाफ़े का एक छोटा हिस्सा उन्होंने मज़दूर वर्ग को भी स्थानान्तरित किया, इसलिए एक हद तक प्रति व्यक्ति आय में भी बढ़ोत्तरी हुई जो इस दौर में सत्ता की सापेक्षिक स्थिरता का एक बड़ा कारण था।
2014 में चीन और पश्चिमी देशों की आर्थिक वृद्धि दर कम होने की वजह से उनकी कच्चे तेल, गैस और खनिज पदार्थों की माँग में कमी आयी जिसकी वजह से अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में इन वस्तुओं के दाम गिर गये। इसका कज़ाख़स्तान की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा और उसके सकल घरेलू उत्पाद की दर 4.2 से 1.2 प्रतिशत तक गिर गयी। इस वजह से ‘कज़ाख़स्तान गणराज्य के राष्ट्रीय फ़ण्ड’ में कमी आयी। पहले शासक वर्ग इस फ़ण्ड के एक हिस्से से मज़दूर वर्ग को कुछ रियायतें दे दिया करता था लेकिन फ़ण्ड के संकुचित होते जाने के बाद से ऐसा करना सम्भव नहीं था जिसके फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय में बहुत कमी आयी। 2020 में कोरोना महामारी के साथ आने वाले आर्थिक संकट ने देश की अर्थव्यवस्था की ख़स्ता हालत को सबके सामने ला दिया। एक तरफ़ तो आमदनी कम हुई वहीं दूसरी ओर आवश्यक वस्तुओं के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई।
इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि कज़ाख़स्तान लम्बे समय से आर्थिक संकट का शिकार था और इस आर्थिक संकट का कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में राजनीतिक संकट में रूपान्तरण बस समय की बात थी। और इस रूपान्तरण का तात्कालिक कारण बना इस वर्ष के आरम्भ में की गयी प्राकृतिक गैस के दामों में दोगुने से भी ज़्यादा की बढ़ोत्तरी। कज़ाख़स्तान में बहुतायत में होने की वजह से प्राकृतिक गैस बहुत सस्ती है इसलिए यह खाना बनाने और घरों को गर्म करने के साथ ही गाड़ियों के ईंधन के रूप में भी प्रयोग में लायी जाती है। 2020 में कोरोना महामारी में लॉकडाउन की वजह से गैस की घरेलू माँग में कमी आयी जिसकी वजह से गैस का उत्पादन करने वाली कम्पनी ‘सिबूर’ ने गैस का बड़ी मात्रा में निर्यात किया। 2021 में घरेलू माँग फिर से पुराने स्तर पर आ गयी परन्तु निर्यात के ज़रिए होने वाली कमाई को न तो कम्पनी और न ही सरकार छोड़ना चाहती थी। इसलिए सरकार ने गैस के दाम जोकि पहले फ़िक्स होते थे उन्हें 1 जनवरी 2022 से बाज़ार के भरोसे छोड़ने का निर्णय किया। इस नीति की वजह से नये साल की शुरुआत में गैस के दामों में दोगुने से भी ज़्यादा की बढ़ोत्तरी हो गयी जिसके फलस्वरूप आम जनता का राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ संचित आक्रोश विस्फोट के रूप में सामने आया।
कज़ाख़स्तान की सरकार तथा मीडिया द्वारा प्रदर्शनकारियों को विदेशी ताक़तों द्वारा समर्थित आतंकवादी घोषित कर दिया गया है। इसके सबूत के तौर पर उन्होंने किर्ग़िज़स्तान के एक आदमी को आतंकवादी बताते हुए मीडिया के सामने पेश किया लेकिन वह किर्ग़िज़स्तान का एक संगीतकार था। फ़ज़ीहत होने पर सरकार को उसे रिहा करना पड़ा। जब सरकार को और कोई “आतंकवादी” नहीं मिला तो उसने घोषणा की कि “आतंकवादियों” की लाशों को उनके साथी मुर्दाघरों से चुरा ले गये हैं। सरकार द्वारा इस तरह की बेशर्मी और झूठ उसकी बौखलाहट को ही दिखाते हैं और यह साफ़ कर देते हैं कि सरकार सत्ता के नशे में इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहती कि प्रदर्शनकारी बाहरी आतंकवादी नहीं बल्कि कज़ाख़स्तान के ही नागरिक हैं जो सत्ता के ख़िलाफ़ बग़ावत करने पर उतर आये हैं।
दूसरी ओर, पश्चिमी देशों के मीडिया में इसे निरंकुश नौकरशाह राज्यसत्ता के भीतर मौजूद अलग-अलग धड़ों के द्वारा सत्ता के लिए संघर्ष या देश की लिबरल शक्तियों के नेतृत्व में जनता द्वारा ‘लोकतंत्र’ की बहाली के लिए संघर्ष के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन प्रदर्शनों के दौरान शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों, मुख्यतः नज़रबायेव व तोकायेव धड़ों, के आपसी अन्तर्विरोध खुलकर सामने आ गये हैं। यह कुछ घटनाओं से साफ़ हो जाता है जैसे, नज़रबायेव को एक महत्वपूर्ण पद से हटा दिया गया है, उसके परिवार के लोग शासन तंत्र से बाहर कर दिये गये हैं और नज़रबायेव के ही एक वफ़ादार नौकरशाह और राष्ट्रीय सुरक्षा कमिटी के चेयरमैन करीम मासिमोव को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि जब आम मेहनतकश जनता शासक वर्ग के ख़िलाफ़ बग़ावत पर उतर आती है तो अक्सर शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के अन्तरविरोध परदे के बाहर आ जाते हैं और साफ़ दिखाई देने लग जाते हैं। इन अन्तरविरोधों के गहराने के साथ ही राजनीतिक संकट की स्थिति पैदा होती है। राजनीतिक संकट के ही दौर में आम जनता के सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह का इस्तेमाल अक्सर शासक वर्ग के इस या उस धड़े द्वारा अवसरवादी तरीक़े से दूसरे धड़ों के बरक्स अपने हित साधने के लिए किया जाता है। शासक वर्ग की इस आपसी उठा-पटक की पृष्ठभूमि तथा आधार के रूप में आम मेहनतकश जनता के आन्दोलन को न देख पाने की राजनीतिक रतौंधी पूँजीवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों में अक्सर पायी जाती है।
ऐसा होना भी लाज़िमी है कि निरंकुश नौकरशाहाना राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ आन्दोलन में लिबरल बुद्धिजीवियों और टुटपुँजिया वर्ग का एक हिस्सा शामिल हो जाये लेकिन इस वर्ग को आन्दोलन की चालक शक्ति मानना एक भूल होगी। इस बग़ावत की शुरुआत देश के उन इलाक़ों से हुई जहाँ बड़ी तादाद में मज़दूर आबादी रहती है जिसमें अपने काम व ज़िन्दगी के बदतर होते हालात की वजह से राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष बढ़ता जा रहा था और यह कि देश के अलग अलग इलाक़ों में तेल-मज़दूरों, खान-मज़दूरों, धातु मज़दूरों की हड़तालों के साथ इस चिंगारी ने जंगल की आग की तरह फैलकर लगभग सभी बड़े शहरों और प्रान्तों के बेरोज़गार नौजवानों और निम्न-मध्य वर्ग की एक बड़ी आबादी को अपने दायरे में ले लिया था। इसलिए इस आन्दोलन की चालक शक्ति सर्वहारा वर्ग था जिसके साथ अर्ध-सर्वहारा और निम्न-मध्य वर्ग की एक बड़ी तादाद शामिल थी।
आम मेहनतकश जनता की इस बग़ावत ने कज़ाख़स्तान की पूँजीवादी राज्यसत्ता की चूलें हिला दी थीं। देश के विभिन्न प्रदेशों के प्रशासनिक केन्द्रों पर प्रदर्शनकारियों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। आपातकाल लगाने और फ़ौज को सड़कों पर उतार देने के बावजूद सरकार आन्दोलन को कुचल नहीं पा रही थी। शासक-वर्ग के विभिन्न धड़ों के आपसी अन्तरविरोध भी खुलकर सामने आ गये थे। भूतपूर्व राष्ट्रपति लेकिन अभी भी शक्तिशाली नेता को पदच्युत कर दिया गया; राष्ट्रीय सुरक्षा कमिटी के चेयरमैन को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। सुरक्षा बलों ने कई जगह प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया था। राष्ट्रपति का अपने ही सुरक्षा बलों पर भरोसा ख़त्म हो गया था जिसकी वजह से उसे विदेशी, विशेषकर, रूसी साम्राज्यवाद की फ़ौजों को अपनी ही जनता को कुचलने के लिए बुलाना पड़ा। देश के अमीर लोग अपने निजी हवाई जहाज़ों में देश छोड़ कर भाग रहे थे।
ये सारे तथ्य एक हद तक क्रान्तिकारी परिस्थिति के होने की ओर इंगित करते हैं। लेकिन अगर क्रान्ति की मनोगत शक्तियाँ, यानी वैचारिक और सांगठनिक रूप से क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली शक्तियाँ कमज़ोर हों तो वस्तुगत तौर पर क्रान्तिकारी परिस्थिति होने के बावजूद क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया जा सकता है। कज़ाख़स्तान में फ़िलहाल क्रान्तिकारी शक्तियाँ बहुत कमज़ोर हालत में हैं और मज़दूर आन्दोलन में उनका दख़ल नहीं के बराबर है। कज़ाख़स्तान की विशिष्ट परिस्थितियों के चलते वहाँ मज़दूरों के संघर्ष का एक इतिहास है इसलिए वहाँ मज़दूर जुझारू तरीक़े से संघर्ष करते हैं और कुछ राजनीतिक माँगों को भी उठाते हैं लेकिन इस सबके बावजूद मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के अभाव में ऐसे जुझारू आन्दोलन भी एक गोल चक्कर में घूमने को अभिशप्त होते हैं। इसलिए कज़ाख़स्तान में एक इन्क़लाबी पार्टी बनाकर ही मज़दूर वर्ग के संघर्षों को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाते हुए निरंकुश नौकरशाह पूँजीपति वर्ग के हाथों से सत्ता छीनी जा सकती है। यही बात आज भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर मुल्कों पर लागू होती है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022


 

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