मज़दूर बिगुल के सभी पाठकों और शुभचिन्तकों से…

दोस्तो,
‘मज़दूर बिगुल’ जिस काग़ज़ पर छपता है, उसकी क़ीमत में पिछले फ़रवरी अंक के बाद से प्रति रीम न्यूनतम 160 रुपये की बढ़ोत्तरी हो गयी है। 540 रुपये रीम से सीधे 700 रुपये (कहीं-कहीं 750 भी है)। यानी अख़बार की लागत में प्रति कॉपी लगभग 80-85 पैसे का इज़ाफ़ा सिर्फ़ पिछले एक महीने में हो गया है। हम सबसे मामूली क़िस्म का न्यूज़प्रिण्ट इस्तेमाल करते हैं। थोड़े बेहतर क़िस्म का न्यूज़प्रिण्ट तो और भी महँगा होकर 950 से लेकर 1050 रुपये प्रति रीम तक जा पहुँचा है। इसके पहले भी छपाई की लागत लगातार बढ़ती रही है। ख़ासकर काग़ज़ की क़ीमतें तो पिछली जुलाई से फ़रवरी के बीच ही 60-70 रुपये प्रति रीम बढ़ गयी थीं। अभी इनके और बढ़ने की सम्भावना है। किताबों की छपाई में लगने वाले काग़ज़ की क़ीमतें भी पिछले चन्द महीनों में बेतहाशा बढ़ी हैं।
चौतरफ़ा बढ़ती महँगाई की ख़बरों के बीच काग़ज़ जैसी शै के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की शायद ही कभी चर्चा होती है। इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के दौर में और “पीडीएफ़” से पढ़ने के चलन के बीच बहुत-से लोगों को लग सकता है कि छपी सामग्री महँगी होने से ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। मगर ऐसा है नहीं।
‘मज़दूर बिगुल’ सैकड़ों व्हॉट्सऐप ग्रुपों, क़रीब 30,000 पतों वाली सुस्थिर ईमेल लिस्ट, वेबसाइट और फ़ेसबुक के ज़रिए हज़ारों पाठकों तक पहुँचता है, लेकिन हमारे सबसे मूल्यवान पाठक वे हैं जिनके हाथों में अख़बार की छपी प्रतियाँ पहुँचती हैं। हर महीने कभी 5000, कभी 6000 प्रतियाँ ही हम छाप पाते हैं जिनका एक छोटा हिस्सा डाक से सदस्यों को भेजा जाता है। ज़्यादातर प्रतियाँ विभिन्न शहरों में मज़दूरों की बस्तियों या कारख़ाना इलाक़ों में कार्यकर्ताओं के ज़रिए वितरित होती हैं। और बड़ी संख्या तक नहीं पहुँच पाना हमारी अपनी सीमा है।
क़रीब 12 वर्ष पहले 16 पेज के इस अख़बार की शुरुआत 5 रुपये क़ीमत से हुई थी। तबसे प्रेस की दरें लगभग दोगुनी और काग़ज़ की क़ीमत तीन गुनी हो चुकी हैं। तब भी आर्थिक संकट अक्सर रहता ही था मगर अब अख़बार की सिर्फ़ छपाई का ख़र्च इसकी क़ीमत के बराबर पहुँच रहा है। डाक और अन्य ख़र्चों को तो छोड़ ही दें। अख़बार की कुल लागत से कई गुना कमाई विज्ञापनों से करने वाले बुर्जुआ अख़बारों के लिए लागत बढ़ना कोई ख़ास समस्या नहीं है। लेकिन ‘मज़दूर बिगुल’ और इस जैसे अनेक जनपक्षधर अख़बारों, पत्रिकाओं और प्रकाशनों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है।
लेनिन के ये शब्द हमें भूलने नहीं चाहिए : “ “विशुद्ध लोकतंत्र” का एक और ख़ास नारा है “प्रेस की आज़ादी”। और यहाँ भी, मज़दूर जानते हैं – और हर जगह के समाजवादी लाखों बार इसे मान चुके हैं – कि यह आज़ादी एक धोखा है क्योंकि सबसे अच्छे और बड़े प्रिण्टिग प्रेसों और काग़ज़ के सबसे बड़े भण्डारों पर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा है…”
‘मज़दूर बिगुल’ के सभी पाठकों, सहयोगियों और शुभचिन्तकों से हमारी अपील है कि अगर आप इस अख़बार को ज़रूरी समझते हैं और जनता का अपना मीडिया खड़ा करने के जारी प्रयासों की इसे एक ज़रूरी कड़ी मानते हैं, तो इसे जारी रखने में हमारा सहयोग करें।
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हमें जनता की ताक़त पर भरोसा है और हमारे अनुभव ने यह सिद्ध किया है कि बिना कोई समझौता किये, एक विचार के ज़रिए जुड़े लोगों की साझा मेहनत और सहयोग के दम पर बड़े काम किये जा सकते हैं। इसी ताक़त के सहारे ‘बिगुल’ 1996 से लगातार निकल रहा है और यह यात्रा आगे भी जारी रहेगी। हमें विश्वास है कि इस यात्रा में आप हमारे हमसफ़र बने रहेंगे।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2022


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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