मोदी और केजरीवाल के सारे दावे हवाई हैं

– करन, करावल नगर, दिल्ली

मेरा नाम करन है। मैं दिल्ली के करावल नगर इलाक़े में रहता हूँ। मैं दिल्ली के स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग से बीए तृतीय वर्ष का छात्र हूँ। मैं अपने बुज़ुर्ग दादा-दादी के साथ रहता हूँ। मेरे दादा गार्ड के तौर पर काम करते थे, अब काफ़ी उम्र हो जाने के कारण वे काम कर पाने में असमर्थ हैं। दिल्ली की गलियों में ताउम्र काम करने के बाद अभी तक दिल्ली सरकार की ओर से उन्हें कोई वृद्धा पेंशन नहीं दी जा रही है। मैंने भी सालों सरकारी दफ़्तर के चक्कर काटे, कई दिन बाद पता चला कि 2018 से ही दिल्ली में वृद्धा पेंशन की योजना बन्द है। परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद ख़राब होने के कारण मैं पढ़ाई के साथ काम भी करता हूँ। मैं दिल्ली के भजनपुरा में एक फ़्लैक्स बनाने की कम्पनी में कार्य करता हूँ। मेरी कम्पनी में बैनर, पर्चे, पोस्टर छपने से लेकर प्रिण्टिंग के सारे कार्य होते हैं! यह कम्पनी उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सबसे बड़ी फ़्लैक्स की कम्पनी है। जब मैं यहाँ नौकरी का पता करने गया तब मुझे मालिक ने बताया कि 10 घण्टे काम करना पड़ेगा और तनख़्वाह होगी मात्र 8000 रु.। मुझे काम की बहुत ज़रूरत थी, इसलिए मैं आज की इस महँगाई के दौर में भी इतनी कम तनख़्वाह पर काम को तैयार हो गया। कहने के लिए मेरी 10 घण्टे की ड्यूटी है लेकिन आम तौर पर 11 घण्टे तक काम करना पड़ जाता है, जिसका कोई अत्तिरिक्त पैसा नहीं दिया जाता। यह हालत सिर्फ़ मेरे काम की जगह पर नहीं है, बल्कि आम तौर पर मेरे सारे दोस्त जहाँ भी काम करते हैं, हर जगह हालात यही हैं।
वैसे तो हम जैसे आम लोगों का राग अलापने वाली दिल्ली की केजरीवाल सरकार यह दम्भ भरती है कि दिल्ली में न्यूनतम वेतन 16,064 रु है, लेकिन यह लागू सिर्फ़ काग़ज़ों में होता है। हमारी कम्पनी में कोई मिनिमम वेज लागू नहीं होती। ज़मीनी स्तर पर दिल्ली के अधिकतर उद्योगों के यही हालात हैं। श्रम क़ानून, मिनिमम वेज की खुलकर धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं, और कोई जाँच भी नहीं होती, तनख़्वाह समय से नहीं दी जाती, बारहों घण्टे का हाड़-तोड़ काम होता है, जिसके बीच मात्र एक लंचब्रेक होता है, जिसका समय सिर्फ़ 20 मिनट होता है। काम की पारी भी हर हफ़्ते बदलती रहती है, एक हफ़्ते दिन में काम करना होता है, तो अगले हफ़्ते रात में, ऐसे में सोने उठने का चक्र पूरी तरह से गड़बड़ हो जाता है, जिसका शरीर पर काफ़ी बुरा असर पड़ता है। हमारे यहाँ सरकारी छुट्टियों के अवसर पर भी बाहर से ताला लगाकर अन्दर काम करवाया जाता है। मज़ेदार है कि मेरी ही कम्पनी में पार्टियों के विज्ञापन के पोस्टर्स फ़्लैक्स छपते हैं। आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, भाजपा सभी पार्टियों के पोस्टर्स हमारे यहाँ छपते हैं, जिनमें सरकार के हवाई दावे भी होते हैं, और उन पोस्टर्स को बनाने वाले मुझ जैसे मज़दूरों तक भी वे योजनाएँ लागू नहीं होती हैं।
मुझे अपने घर के पास ही कुछ लोग मज़दूर बिगुल अख़बार का प्रचार करते दिखते थे। मैंने शुरू-शुरू में जब बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों को देखा था, तब मैंने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, तब मुझे लगता था ये ऐसे ही कुछ शोर मचा रहे थे। लेकिन एक बार मैंने सोचा कि एक अंक लेकर देखता हूँ, मैंने अख़बार पढ़ा तो पाया कि इसमें दिल्ली सरकार के न्यूनतम वेतन के झाँसे की पोल पट्टी खोली गयी है। मुझे अख़बार के सारे लेख पसन्द आये, वो बातें जानने को मिली जो हमारे आसपास कोई नहीं करता लेकिन हमारी ज़िन्दगी से जुड़ी सबसे ज़रूरी बातें थीं। मैं अख़बार का नियमित पाठक बना, और अब मैं इसका वितरक भी हूँ, मैं ख़ुद आम मज़दूरों के बीच इस अख़बार को लेकर जाता हूँ, उन्हें इसकी अहमियत के बारे में बताता हूँ। आज हम मेहनत करने वालों के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम संगठित हों, तभी हम कुछ कर सकते हैं। और यह अख़बार हमें संगठित करने में अहम भूमिका निभा रहा है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022


 

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