‘किसान मज़दूर एकता’ केे खोखले नारे की असलियत

– कालू राम

पंजाब, हरियाणा और पूर्वी राजस्थान के कुछ हिस्सों में पिछले 2-3 महीनों से ग्रामीण व खेतिहर मज़दूर अपनी मज़दूरी बढ़ाने के लिए धरने प्रदर्शन कर रहे हैं जिससे यहाँ के धनी किसान, कुलकों की नींद उड़ी हुई है। हरियाणा, राजस्थान के गाँवों में तो धनी किसानों, कुलकों के षड्यंत्रों और चालों के चलते ये आन्दोलन दबाये जा चुके हैं या समझौते हो चुके हैं। लेकिन पंजाब में अभी कुछ लाल झण्डा संगठनों और नीले झण्डे की अगुवाई में मानसा, सरदुलगढ़ जैसे ज़िलों में ये आन्दोलन अभी भी चल रहे हैं और सरकार और धनी किसानों दोनों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए मजबूर करने की कोशिश जारी है। अब बात करते हैं तथाकथित ‘किसान मज़दूर एकता’ के एक खोखले और प्रसिद्ध नारे की जिसे पिछले साल हुए धनी किसान कुलक आन्दोलन में बड़े ही जोर शोर से भुनाया गया था और बहुत से मज़दूर भी उस नारे से भावुक होकर धनी किसान कुलक आन्दोलन में कूद पड़े थे। इसमें कुसूर मज़दूरों का नहीं था बल्कि उन धनी किसान का था जिन्होंने अपनी निजी स्वार्थ के लिए मज़दूरों को भावनाओ का दुरुपयोग किया था। लेकिन अब जब मज़दूर अपनी मज़दूरी बढ़ाने के लिए सड़कों पर है तो कोई भी किसान संगठन या उनका कोई भी छोटा बड़ा नेता इनके समर्थन में नहीं आया है। जबकि इनके किसान आन्दोलन में मज़दूर शामिल भी हुए थे, शहीद भी हुए थे और पुलिस की प्रताड़ना भी सही थी और आज जब मज़दूर को इनके सहयोग की ज़रूरत है तो सहयोग करना तो दूर बल्कि धनी किसानों द्वारा आन्दोलन कर रहे मज़दूरों का गाँव में सामाजिक बहिष्कार तक करने की बातें हो रही है । जो मज़दूर धनी किसानों के घर से लस्सी माँगने जाते हैं उनसे लस्सी के पैसे माँगे जाते हैं। और जब इनका किसान आन्दोलन चल रहा था तो गाँवों से दूध के केंटर भर-भरकर कुण्डली, सिंघु बॉर्डर पर पहुँचाये जाते थे ।
वैसे तो पहले से ही स्पष्ट था कि इन धनी किसानों के मन में मज़दूरों के लिए रत्तीभर भी सहानुभूति नहीं है और अब तो ये बात एकदम स्पष्ट हो चुकी है क्योंकि मज़दूरी बढ़ाने की इनकी माँग को किसी भी किसान नेता ने समर्थन नहीं दिया है। मज़दूर आबादी किसान आन्दोलन के समय भी मजबूर थी और आज भी मजबूर है क्योंकि अगर उस समय किसान आन्दोलन के समर्थन में मज़दूर नहीं जाते तो भी धनी किसानों द्वारा सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता और अगर आज अपनी मज़दूरी बढ़ाने के लिए आन्दोलन करता है तो भी सामाजिक बहिष्कार की धमकियाँ मिलती हैं ।
मज़दूरों को अब समझ जाना चाहिए कि इन धनी किसानों व पूँजीवादी भूस्वामियों का पिछलग्गू बनने का कोई फ़ायदा नहीं है बल्कि इनके ख़िलाफ एकजुट होकर ही समस्या का समाधान है। और जो लोग मज़दूरों को छोटे मालिक और बड़े मालिक वाली परिभाषा से झाँसा देने का प्रयास कर रहे हैं तो मज़दूर ये समझें कि सांप चाहे छोटा हो या बड़ा ज़हर बराबर ही होता है। ये धनी किसान, कुलक कभी भी मज़दूरों के साथ ना तो खड़े हुए थे, ना अब खड़े हैं और ना ही आगे कभी खड़े होंगे । मज़दूरों को इनसे सावधान रहने की ज़रूरत है और साथ में इन धनी किसानों, कुलकों की निजी सम्पत्ति की रक्षा कर रहे तथाकथित वामपंथी संगठनों और उनके नेताओं से भी सावधान रहने की जरूरत है जो किसान आन्दोलन में तो गिद्दा, भंगड़ा, भरतनाट्यम पता नहीं क्या क्या कर रहे थे लेकिन अब जब सच में मज़दूरों का साथ देने का समय है तो शतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन दबाए बैठे हैं। बाकी मौजूद घटनाक्रम पर मज़दूर बिगुल अखबार द्वारा ग्रामीण मज़दूरों और धनी किसानों पर जो विश्लेषण दिया गया था वो ज़्यादा सच्चाई के करीब था।

मज़दूर बिगुल, जून 2022


 

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