सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

लता

गुजरात दंगों के 20 साल बाद 24 जून 2022 को इन्हीं दंगों से जुड़ी जाकिया जाफ़री की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया। सभी स्तरों पर अपनी गुहार लगाने और कहीं भी न्याय नहीं मिलने पर आख़िरी उम्मीद के तौर पर जाकिया जाफ़री ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था लेकिन वहाँ भी उन्हें निराशा ही हासिल हुई। जाकिया जाफ़री ने अपनी आँखों के सामने दंगाइयों को अपने पति को काटते और जलाते देखा। यह गुलबर्ग सोसाइटी की घटना थी जहाँ वह अपने पति पूर्व सांसद एहसान जाफ़री के साथ रहती थीं। इस याचिका में मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार पर दंगों में शामिल होने का आरोप था। कई लोगों ने इसे सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में एक काला दिन कहा और नाउम्मीदी ज़ाहिर की है। लेकिन बुर्जुआ राज्यतंत्र पर फ़ासीवाद के मज़बूत होते शिकंजे को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि यह अप्रत्याशित नहीं था।

भारत में फ़ासीवाद के दो प्रमुख चेहरे, मोदी-शाह, दोनों इस केस के अभियोगी थे। यह कैसे सम्भव है कि जब देश में फ़ासीवाद सत्ता पोर-पोर में समा रही है तब न्यायपालिका इससे अछूती रहेगी? ऊपर से कोई भी न्यायाधीश अपना ‘लोया’ तो नहीं करवाना चाहेगा! कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन पिछले लम्बे समय से न्यायपालिका ने भी अपने स्वतंत्र होने के स्वाँग को त्याग दिया है।

हम सभी जानते हैं कि फ़रवरी 2002 में, तीन दिनों तक गुजरात के अगल-अलग क्षेत्रों में मौत का कोहराम मचता रहा, सड़कों पर मासूम बच्चों से लेकर नौजवान, महिलाएँ, बुज़ुर्ग सभी भेड़-बकरियों की तरह काटे जाते रहे और राज्य सरकार चुप बैठी रही। सही मायनों में वह चुप नहीं बैठी थी। इस पूरे हत्याकाण्ड, तबाही और आगजनी को सरकारी देखरेख और संरक्षण के बिना किया ही नहीं जा सकता था। यदि ऐसा नहीं होता तो गोधरा में कारसेवकों के जलने के 24 घण्टों के भीतर गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में लोगों के हाथों में तलवार, छुरा, बारूद, पेट्रोल और एसिड बम इतनी भारी मात्रा में कहाँ से इकट्ठा हो गये? ऐसे सामान आम लोगों के घरों में नहीं होते हैं और न ही रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इनका कोई इस्तेमाल है। घरों में ज़्यादा से ज़्यादा सब्ज़ी काटने के चाक़ू या फहसुल होते हैं जिनसे इतनी बड़ी संख्या में लोगों को मारा-काटा नहीं जा सकता। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1114, और ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2000 लोग मारे गये, जिस तरह की तस्वीरें, वीडियो और आँखों देखे विवरण सामने आये हैं उनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि नरसंहार करने वाले इसकी तैयारी पहले से कर चुके थे। बिना राज्य सरकार के संरक्षण के इतनी भारी मात्रा में हथियारों को एकत्र किया ही नहीं जा सकता था। यह काम गली-मुहल्ले के गुण्डों का नहीं हो सकता था।

दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी की राज्य सरकार पर प्रश्न उठने लगे। कई स्वतंत्र जन अदालतों में दंगाइयों के साथ पुलिस की मिली भगत और उन्हें खुली छूट देने के विवरण सामने आये तो सवाल उठने लगे कि राज्य सरकार ने फ़ौरन सेना को बुलाने की माँग क्यों नहीं की? साथ ही दंगा रोकने में पुलिस पर दबाव क्यों नहीं बनाया गया? राज्य सरकार पर उठने वाले सवाल इंगित करने लगे कि यह मुद्दा मात्र दंगे रोकने में नाकामी का नहीं है। बल्कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात सरकार का इस नरसंहार को संरक्षण और देखरेख देने में योगदान था। कई पत्रकार व अन्य संगठन स्वतंत्र तौर पर तहक़ीक़ात करने लगे। इसमें से एक हैं राणा अय्यूब, उनकी पुस्तक ‘गुजरात फ़ाइल्स’ में भी यह बात सामने आयी है कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर मंत्रियों और उच्च अधिकारियों की योजना के तहत दंगे प्रायोजित किये गये थे।

2002 के बाद का ही दौर था जब फ़ासीवाद अपने प्रभाव वाले राज्यों के अलावा अलग-अलग राज्यों में अपने पाँव पसार रहा था। इन जगहों पर गुजरात दंगों को सर्टिफ़िकेट की तरह इस्तेमाल किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विभिन्न संगठन जैसे बजरंग दल, दुर्गा वाहनी, विहिप, हिन्दु युवा वाहिनी आदि लोगों को बताते हैं कि गुजरात में जैसा हुआ वही मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को अपनी हद में रखने का उपाय है।

वहीं, मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने अदालतों में अपना दामन चाक रखने के लिए राज्य सरकार में होते हुए सबूतों को मिटाने के लिए सारे तीन-तीकड़म आज़माये। किसी जासूसी उपन्यास के अध्यायों की तरह एक के बाद एक कई हत्याएँ, झूठे एनकाउण्टर और गिरफ़्तारियाँ की गयीं तथा हिरासत में यंत्रणाएँ दी गयीं। हिरेन पाण्ड्या की हत्या, इशरत जहाँ एनकाउण्टर, शोहराब्बुदीन शेख़ एनकाउण्टर, आज़म ख़ान की गिरफ़्तारी, जज लोया की संदिग्ध स्थिति में मौत और इनसे जुड़े कई लोगों की मौत। इन सब को देखकर साफ़ लगता है मानो भाजपा कोई आपराधिक गिरोह है और वह राज्य मशीनरी को अपने गिरोह के काम के लिए चला रही है। या इसे इस तरह देख सकते हैं कि बुर्जुआ राज्य मशीनरी पर जैसे-जैसे फ़ासीवादी संघ परिवार की पकड़ बढ़ती गयी वैसे-वैसे उसके जनवाद का खोखला आवरण भी उतरता चला गया।

भारत का फ़ासीवाद बाबरी मस्जिद के बाद अपने दूसरे बड़े काण्ड की तैयारी में था। इस काण्ड का श्रेय मोदी को लेना था जिसकी तैयारी में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। गोधरा में ट्रेन में आग लगाये जाने पर उसी रात यानी 27 फ़रवरी को राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सरकारी बंगले में एक गुप्त मीटिंग बुलायी जिसमें मंत्री, आला अधिकारी और पुलिस अधिकारी शामिल थे। कुछ स्वतंत्र प्रेक्षकों की जाँच-पड़ताल के अनुसार, इसमें मोदी ने अधिकारियों और राज्य मंत्रियों को स्पष्ट तौर पर कहा कि हिन्दुओं को अपना ग़ुस्सा निकालने दिया जाये और उनके बीच नहीं आया जाये। इस मीटिंग में मंत्री हिरेन पाण्ड्या भी शामिल था। बाद में मीडिया को इस मीटिंग की सूचना उसने दी और कुछ महीनों बाद ही उसकी हत्या हो गयी। इन जाँच अध्ययनों के अनुसार, मोदी-शाह की जोड़ी ने एकदम शातिर दिमाग़ अपराधियों की तरह कई हत्याएँ, एनकाउण्टर करवाये और मौत की धमकियाँ दिलवायीं। इस दौरान समाज में फ़ासीवाद का प्रभाव भी बढ़ रहा था। पूँजीवाद के गहराते संकट के साथ पूँजीपति वर्ग के लिए भी फ़ासीवादी राजनीति का मज़बूत होना आवश्यक था। पूँजीपतियों के मोटे चन्दे पर ‘मोदी लहर’ को तैयार किया गया और 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी।

लेकिन तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।

गुजरात दंगों का दाग़ क़ानूनी तौर पर भाजपा को पूरी तरह से धो डालना था। 24 जून को जाकिया जाफ़री की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका रद्द करते हुए अपने आदेश में कहा कि किसी छिपे मक़सद से बस मुद्दे को गरमाये रखने के लिए यह याचिका दायर की गयी थी इसलिए यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए और उनपर उचित क़ानूनी  कार्रवाई की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का आदेश सुनकर ऐसा लग रहा था मानो इसकी कॉपी अमित शाह के निर्देशन में गृह मंत्रालय में तैयार की गयी हो क्योंकि 25 जून को अमित शाह का एएनआई के साथ साक्षात्कार होता है और इस साक्षात्कार में कई बार अमित शाह तीस्ता सीतलवाड़ का नाम लेता है। 26 तारीख़ की तड़के सुबह तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी हो जाती है। तीस्ता गुजरात के दंगों से हताहत लोगों के सन्दर्भ में मानवाधिकार और न्याय के लिए लड़ रही थीं। जाकिया जाफ़री की याचिका में भी वह पहले सह-याचिकाकर्ता थीं। जाकिया जाफ़री के 16 साल के संघर्ष में वह उनके साथ रही थीं। हालाँकि हम एनजीओ की राजनीति से असहमत हैं, लेकिन एनजीओ चलाना क़ानूनी है और तीस्ता सीतलवाड़ का पूरा काम क़ानूनी दायरे में ही है। सबसे ज़्यादा फ़ण्डिंग वाले सबसे ज़्यादा एनजीओ तो स्वयं संघ परिवार चलाता है, जिसकी कोई भी जाँच कभी नहीं की जाती है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी में कोई नाम नहीं था लेकिन अमित शाह ने अपने साक्षात्कार में कई बार तीस्ता सीतलवाड़ का नाम लिया था। तीस्ता सीतलवाड़ को आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने उनके मुम्बई के आवास से गिरफ़्तार कर लिया और उनपर कई झूठे इलज़ाम लगाये हैं। उन्हें बिना वारण्ट दिखाये, उनके घर में अवैध रूप से घुसकर तथा क़ानूनी प्रक्रिया को ताक पर रखकर गिरफ़्तार किया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाकिया जाफ़री याचिका का रद्द किया जाना और अमित शाह के साक्षात्कार के बाद तीस्ता की गिरफ़्तारी साफ़ दिखा रही है कि फ़ासीवाद राज्यसत्ता के सभी स्तम्भों में गहरे समा रहा है। कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन अगर हमें बस ख़तरों से आँखें मूँदे रहना है और कुछ एक अपवादों के बूते राहत की साँस लेनी है तो इससे फ़ासीवाद का ख़तरा नहीं टलने वाला। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनान्दोलन खड़ा करने के अलावा आज कोई विकल्प नहीं है। केवल इसी के ज़रिए फ़ासीवादी उभार का मुक़ाबला किया जा सकता है और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, जिसके बुढ़ापे की बीमार पैदावार फ़ासीवाद होता है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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