बेरोज़गारी का गहराता संकट

मनजीत

बेरोज़गारी की समस्या साल दर साल विकराल रूप लेती जा रही है। स्थाई रोज़गार पाना तो जैसे शेख़चिल्ली के सपने जैसा हो गया है। देश में करोड़ों पढ़े-लिखे डिग्रीधारक युवा नौकरी ना मिलने के चलते अवसाद का शिकार हो रहे हैं। रोज़ ही नौजवानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं। आज देश के नौजवानों के बीच रोज़गार सबसे ज्वलन्त मुद्दा है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों, दिल्ली व कोटा जैसे महानगरों में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे युवाओं, छोटे क़स्बों और गाँव तक में नौजवानों का बस एक ही लक्ष्य होता है कि किसी भी तरीक़े से कोई छोटी-मोटी सरकारी नौकरी मिल जाये ताकि उनकी और उनके परिवार की दाल-रोटी का काम चलता रहे। आप सभी अपने अनुभव से यह बात जानते ही हैं कि स्थायी नौकरियाँ साल दर साल कम हो रही हैं। एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों हज़ार आवेदन किये जाते हैं, पर नौकरी तो मुट्ठीभर लोगों को ही मिलती है। इस प्रकार हर साल लाखों क़ाबिल नौजवान बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल हो रहे हैं और सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा उन्हें कोई दूसरा विकल्प नही दिखाई पड़ता।

बेरोज़गारी के कारणों की अनभिज्ञता के चलते ख़ुद को ही दोष देने की प्रवृत्ति लम्बे समय में उन्हें मानसिक रोगी में बदल रही है। अन्त में जब कोई रास्ता नहीं सूझता तो कई युवा मौत को गले लगाने को मजबूर हो रहे हैं। बीच-बीच में बढ़ती बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा सड़क पर भी फूटता है, परन्तु सही दिशा न होने के कारण अन्ततः आन्दोलन बिखर जाते हैं। ‘अग्निपथ योजना’ के ख़िलाफ़ छात्रों और युवाओं के सड़कों पर उतरने के पीछे भी रोज़गार का लम्बे समय से बना संकट ही है।

आगे दिये गये आँकड़े बेरोज़गारी की भयंकरता को दर्शाते हैं। इन आँकडों से समझा जा सकता है कि नौकरी मिलने की सम्भावना नगण्य है। इन आवेदन करने वालों में पीएचडी, एमटेक, बीटेक, एमबीए जैसे डिग्रीधारक भी शामिल थे जबकि इनमें से ज़्यादातर पदों के लिए न्यूनतम योग्यता 5वीं या 10वीं थी।

सेण्टर फ़ॉर मोनिटरिंग इण्डियन इकॉनमी (सीएमआईई) के ताज़ा आँकड़ों के अनुसार जून, 2022 के अन्तिम सप्ताह में भारत में बेरोज़गारी की दर 8 प्रतिशत के लगभग पहुँच गयी है। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें इन आँकड़ों को ग़लत बता रही हैं, जबकि असल स्थिति यह है कि बेरोज़गारी की दर इन आँकड़ों से कहीं ज़्यादा है। देश में 45 करोड़ से ज़्यादा लोग, अब काम की तलाश ही छोड़ चुके हैं। इस तथ्य को श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) के आँकड़े सही साबित करते हैं, जिसके अनुसार भारत में 2020 में श्रम बल भागीदारी दर 46 प्रतिशत थी, जबकि साल 2022 में यह घटकर 40 प्रतिशत ही रह गयी है।

रोज़गार के मामले में महिलाओं की स्थिति और भी ज़्यादा ख़राब है। 1990 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू हुई थीं, तब से महिलाओं की काम में भागीदारी लगातार कम हो रही है। साल 1990 में जहाँ कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 30.3 प्रतिशत थी जो साल 2021 में घटकर 19 प्रतिशत पर आ गयी और साल 2022 में यह संख्या मात्र 9 प्रतिशत रह गयी।

भर्ती के नाम पर भी युवाओं के साथ भद्दा मज़ाक़ ही किया जा रहा है। किसी भी भर्ती की पूरी प्रक्रिया होने में 4-5 साल से भी ज़्यादा समय लग जाता है और कई दफ़ा भर्ती ही रद्द हो जाती है। भर्ती के नाम पर करोड़ों रुपये बेरोज़गार आवेदकों से हड़प लिये जाते हैं। इतना ही नहीं लगभग हर भर्ती घोटाले की भेंट चढ़ जाती है। सरकारी नौकरी के बारे में कुछ साल पहले तक यह कहा जाता था कि एक बार मिल गयी तो पूरी उम्र का सुख हो जाता है। मोदी सरकार में तो 10 वर्षों से काम कर रहे सरकारी कर्मचारियों को भी नौकरी से बाहर निकाला जा रहा है।

साल दर साल कम होते रोज़गार के अवसर

1991 में कांग्रेस की सरकार ने व्यवस्थित तरीके से उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू करनी शुरू की थी। जिसके बाद से सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दाम में देश के धन्नासेठों को बेचने की शुरुआत हुई जो कि आज तक जारी है और इन्हीं नीतियों को मोदी सरकार बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से आगे बढ़ाने का काम कर रही है। जिसके चलते पहले से ही कम बचे स्थायी रोज़गार के अवसर और ज़्यादा कम होते जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में ही मोदी सरकार ने विऔद्योगीकरण के नाम पर सार्वजनिक उपक्रमों की बड़ी हिस्सेदारी पूँजीपतियों को कौड़ियों के दाम बेच दी है। इसके कारण भी लाखों सरकारी नौकरियाँ कम हो गयी हैं।

मोदी सरकार ख़ाली पड़े पदों पर नयी भर्ती करने की बजाय, उन पदों को ही ख़त्म कर रही है। पिछले 6 वर्षों में अकेले रेलवे विभाग में 72,000 पदों को ख़त्म कर दिया गया है और आने वाले समय में लगभग 81,000 पद रेलवे में और कम होने वाले हैं। पिछले साल ही सरकार ने यह तय किया था कि डिफ़ेन्स में पिछले 5 साल से ख़ाली पड़े हज़ारों पदों को समाप्त किया जायेगा। इसी तरीक़े से छात्रों की कम संख्या का हवाला देकर हज़ारों सरकारी स्कूल बन्द किये जा चुके हैं जिसके कारण इन स्कूलों में शिक्षकों के ख़ाली पद ख़त्म हो गये हैं।

भर्ती का नाम साल कुल पद कुल आवेदक नौकरी मिलने
का प्रतिशत
रेलवे भर्ती बोर्ड 2019 35,281 1,26,30,885 0.28
चपरासी (यूपी) 2015 368 23,00,000 0.016
रेलवे (सी एण्ड डी) 2018 90,000 2,50,00,000 0.36
चतुर्थ श्रेणी (हरियाणा) 2018 18,412 23,00,000 0.8
चपरासी (यूपी) 2018 62 93000 0.066

केन्द्र और राज्यों में कुल नौकरियों में भी भारी कमी आयी है। केन्द्र में 2021 में 2020 की तुलना में 27 प्रतिशत कम स्थायी भर्तियाँ हुई हैं। यही हाल राज्यों का भी है। यहाँ भी 2021 में 2020 की तुलना में 21 प्रतिशत कम स्थायी भर्तियाँ हुई हैं। केन्द्र में साल 2020 में कुल 1.19 लाख स्थायी भर्तियाँ हुई थीं, जबकि साल 2021 में यह संख्या घटकर 87,423 हो गयी। आँकड़ों के अनुसार साल 2017 में केन्द्र सरकार हर महीने औसतन 11,000  स्थायी नौकरियाँ निकालती थी, जो 2020 में घटकर 7,285 रह गयीं। यही हाल राज्यों में निकलने वाली स्थायी भर्तियों का है। साल 2017 में औसतन हर महीने राज्यों में 45,208 स्थायी भर्तियों की संख्या 2020 में घटकर 32,421 ही रह गयी है। यूपीएससी और एसएससी में भर्तियाँ भी लगातार कम हो रही हैं। साल 2012 में एसएससी में 83,591 भर्तियाँ हुई थीं, जो साल 2021 में घटकर 68,533 रह गयीं। यूपीएससी में साल 2012 में 6,863 भर्ती हुई थी, जो 2021 में घटकर 3,986 ही रह गयी।

स्थायी रोज़गार को ख़त्म करके ठेका प्रथा को बढ़ावा देना

स्थायी नौकरियों की जगह ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जा रहा है। श्रम मंत्रालय द्वारा लोकसभा में पेश किये गये आँकड़ों के अनुसार साल 2017 में केन्द्र की नौकरियों में 11.11 लाख कर्मचारी ठेके पर काम कर रहे थे। यह आँकड़ा साल 2021 में बढ़कर 24.31 लाख हो गया। सावर्जनिक उपक्रमों में भी ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जा रहा है। साल 2016 में सार्वजनिक उपक्रमों में 2.68 लाख कर्मचारी ठेके पर काम करते थे जो 2020 में बढ़कर 4.99 लाख हो गये।

सार्वजनिक उपक्रम कुल कर्मचारी ठेका कर्मचारी ठेका कर्मचारियों
का प्रतिशत
इण्डियन ऑयल 1,06,000 73,070 69%
भारत पेट्रोलियम 40,183 28,923 72%
ओएनजीसी 28,479 17,657 62%

ऊपर दिये गये आँकड़े भारत के तेल और गैस के तीन प्रमुख सार्वजनिक उपक्रमों के हैं, जो सार्वजनिक उपक्रमों में घटते स्थायी रोज़गार की हक़ीक़त को बयान कर रहे हैं। बाक़ी के सार्वजनिक उपक्रमों का भी कमोबेश यही हाल है। ‘अग्निपथ योजना’ के तहत 4 साल के लिए सेना में संविदा पर नौजवानों की भर्ती करना, ठेकाकरण का सबसे बेहतर उदाहरण है जो आने वाले समय की स्पष्ट तस्वीर पेश करता है कि आने वाले दिनों में स्थायी नौकरियाँ न के बराबर रह जायेंगी।

2019 में आयी इकॉनोमिक सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में काम करने वाली आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के हालात सबसे बदतर हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को न तो पेंशन, ईएसआई, पीएफ़ और न ही किसी भी प्रकार की कोई सामाजिक सुरक्षा ही मिलती है। इस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा दुर्घटनाएँ घटती हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की सालाना आय भी बहुत ही कम होती है। ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ अख़बार में 27 सितम्बर, 2018 को छपी एक ख़बर के अनुसार, हमारे देश में काम करने वाली पुरुष आबादी की 92 प्रतिशत और महिलाओं की 82 प्रतिशत संख्या को 10,000 रुपये प्रति महीने से भी कम तनख़्वाह मिलती है।

असंगठित क्षेत्र के लगभग सभी कारख़ानों में औसतन काम के घण्टे 10 से 12 होते हैं। ओवरटाइम का भुगतान डबल रेट से कहीं नहीं होता है। ‘समान काम, समान वेतन’ का नियम सिर्फ़ काग़ज़ों में ही है। किसी भी राज्य में यह नियम लागू नहीं होता है। स्थायी प्रकृति के कार्य में स्थायी नौकरी देने का प्रावधान है, परन्तु निजी क्षेत्र में तो छोड़िए, सरकारी उपक्रमों में भी यह क़ानून लागू नहीं होता। असंगठित क्षेत्र में सबसे बुरा हाल खेत मज़दूरों का है। ‘स्टेटीस्टा’ द्वारा पेश आँकड़ों के अनुसार 2009 से 2019 के 10 वर्षों में कृषि के क्षेत्र में कार्यबल की संख्या 52.5 प्रतिशत से घटकर 42.6 प्रतिशत रह गयी है। इस क्षेत्र में सबसे कम मज़दूरी मिलती है।

पूँजीवाद के पैरोकारों द्वारा बेरोज़गारी के कारणों के बारे में फैलाये जाने वाले विभ्रम

बेरोज़गारी के लगातार बढ़ने के असल कारणों पर हम बाद में आयेंगे। पहले इस व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा फैलाये विभ्रमों पर संक्षिप्त चर्चा कर लेते हैं। पहला विभ्रम ये लोग फैलाते हैं कि बेरोज़गारी के पीछे जनसंख्या ज़िम्मेदार है। इसके पीछे उनका यह तर्क है कि संसाधनों की तुलना में जनसंख्या ज़्यादा तेज़ गति से बढ़ रही है। 1950-1951 से 2010-2011 तक के सरकारी आँकड़ों का अगर हम अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि संसाधनों (खाद्य उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन) के बढ़ने की दर जनसंख्या के बढ़ने की दर से बहुत ज़्यादा है। ख़ुद सरकारी थिंकटैंक नीति आयोग ने भी स्वीकार किया था कि फ़िलहाल तक जनसंख्या की तुलना में हमारे पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। इसलिए यह तर्क निराधार है।

दूसरा विभ्रम ये लोग फैलाते हैं कि आरक्षण बेरोज़गारी के लिए ज़िम्मेदार है। ऊपर हमने आँकड़ों से यह देखा है कि एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों फ़ॉर्म भरे जाते हैं। यदि आरक्षण ख़त्म भी हो जाये, तो क्या रोज़गार की समस्या हल हो सकती है? इसका जवाब है नहीं। क्योंकि जब नौकरियाँ ही नहीं हैं तो आरक्षण मिलने और न मिलने से कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता।

तीसरा ये लोग विभ्रम फैलाते हैं कि सरकारी महकमों में कर्मचारियों की ज़रूरत ही नहीं है जो पहले से ही काम कर रहे हैं वो भी ज़रूरत से ज़्यादा हैं। ऐसे में सरकार नयी भर्ती क्यों करे? परन्तु ऐसा नहीं है। संसद में एक सवाल के जवाब में कैबिनेट राज्यमंत्री जितेन्द्र प्रसाद ने ख़ुद माना था कि कुल 4,20,547 पद तो अकेले केन्द्र में ही ख़ाली पड़े हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के निर्माताओं ने ख़ुद माना है कि अकेले स्कूल स्तर पर शिक्षकों के 10,00,000 से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं। राज्य और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तक़रीबन 70,000 पद ख़ाली पड़े हैं। विभिन्न राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में अकेले पुलिस विभाग में 5,49,025 पद ख़ाली हैं। सरकारी हस्पतालों में तक़रीबन 5,00,000 पद ख़ाली पड़े हैं। कुल मिलाकर तक़रीबन 24 लाख पद सरकारी विभागों में ख़ाली पड़े हैं।

अब सवाल ये उठता है कि सरकार इन ख़ाली पड़े पदों को क्यों नहीं भर रही है? इसका कारण सरकार पैसे की कमी का होना बताती है। पर क्या ऐसा वास्तव में है? बिलकुल नहीं। अगर ऐसा होता तो बीजेपी के पहले ही कार्यकाल में सरकारी बैंकों ने पूँजीपतियों के 3,16,000 करोड़ रुपये कैसे माफ़ कर दिये? इन्हीं के कार्यकाल में एनपीए 2,14,000 करोड़ से बढ़कर 8,98,000 करोड़ हो गया है। ये सारा पैसा पूँजीपतियों की ही जेब में गया है। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी जैसे चोर हज़ारों करोड़ रुपये डकार जाने के बाद भी देश से बाहर कैसे जाने दिये गये? और आज तक पकड़ में क्यों नहीं आये हैं? विज्ञापनों और बड़ी-बड़ी मूर्तियों को खड़ा करने के लिए हज़ारों करोड़ रुपये कहाँ से आ जाते हैं? 2019 का लोकसभा चुनाव दुनिया में दूसरा सबसे ज़्यादा महँगा चुनाव था। सेण्टर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ के अनुसार इस चुनाव पर लगभग 60,000 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे।

बेरोज़गारी का असल कारण

आम तौर पर बेरोज़गारी का कारण पूँजीवादी व्यवस्था की प्रकृति में ही निहित है। पूँजीवादी व्यवस्था को बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी की आवश्यकता होती है। पूँजीवादी व्यवस्था मुनाफ़े की ख़ातिर उत्पादन करती है, सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नहीं। एक ऐसी व्यवस्था में हर पूँजीपति अपने मुनाफ़े को अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए अन्य पूँजीपतियों से प्रतिस्पर्द्धा में संलग्न रहता है। इसके लिए वह अपनी लागत को कम से कम करना चाहता है, ताकि बाज़ार के बड़े से बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा किया जा सके और अपने मुनाफ़े को बढ़ाया जा सके। इसके लिए वह उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी लगाता है। एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था में उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी का इस्तेमाल मनुष्यों को अधिक से अधिक मुक्त करने और उनके जीवन को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने के लिए होना चाहिए। लेकिन मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में तकनोलॉजी बन्दर के हाथ में उस्तरे के समान होती है। यदि पूँजीवादी उत्पादन ठहरावग्रस्त होता है या संकटग्रस्त होता है, तो उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी आने पर बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी में बढ़ोत्तरी होती है। यदि पूँजीवादी व्यवस्था तेज़ी से गुज़र रही होती है, तो भी तकनोलॉजी आने के साथ श्रम और यंत्रों का अनुपात घटता है, यानी कि प्रति यंत्र श्रमिक संख्या घटती है, लेकिन चूँकि पूँजीवादी उत्पादन का विस्तार हो रहा होता है, इसलिए बेरोज़गारी निरपेक्ष तौर पर बढ़ती नहीं है और कई बार घट भी सकती है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए जिन तरकीबों का इस्तेमाल करती है, ठीक उन्हीं के कारण नियमित अन्तराल पर संकट के भँवर में भी फँसती रहती है। ऐसे दौरों में बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी में बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन जब पूँजीवादी व्यवस्था में तेज़ी का दौर होता है और उत्पादन का विस्तार होता है तो फिर उसे एक बेरोज़गारों की ऐसी फ़ौज की ज़रूरत होती है, जिसके बूते पर विस्तारित पुनरुत्पादन और पूँजी संचय किया जा सके। इन सभी कारणों से पूँजीवादी व्यवस्था के लिए बेरोज़गारी आवश्यक है। यदि सभी को रोज़गार मिल जायेगा तो पूँजीपतियों की मोलभाव की ताक़त शून्य हो जायेगी, जबकि मज़दूर वर्ग की मोलभाव की ताक़त निरपेक्ष रूप से बढ़ जायेगी। पूँजीवाद इसलिए भी बेरोज़गारों की एक रिज़र्व सेना को हमेशा बनाये रखता है। यह वह आम कारण है, जिसके चलते पूँजीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी एक आम और स्थायी परिघटना के तौर पर मौजूद रहती है। अब इस आम और बुनियादी कारण के मातहत ही सरकार की रोज़गार नीति को समझ लेते हैं।

युवाओं को रोज़गार मुहैया न करने के पीछे असल कारण यह है कि अगर सरकार लोगों को रोज़गार मुहैया कराती है, तो बजट का एक हिस्सा इसके लिए आबण्टित करना होगा। अगर ऐसा होता है तो पूँजीपतियों को दिये जाने वाले राहत पैकेज में कमी करनी पड़ेगी। इससे बेरोज़गारों की संख्या में कमी होगी। नतीजतन मज़दूरों की मोलभाव की ताक़त बढ़ जायेगी। और मजबूरन पूँजीपतियों को मज़दूरी बढ़ानी पड़ेगी। यानी औसत मज़दूरी की दर में बढ़ोत्तरी होगी। दोनों ही सूरत में पूँजीपतियों के हितों को चोट पहुँचेगी।

2008 से पूरी दुनिया की अर्थव्यव्स्थाएँ भयंकर मन्दी की चपेट में हैं। भारत में पहले नोटबन्दी, जीएसटी जैसी जनविरोधी नीतियों और फिर कोविड के कारण हाल और ज़्यादा बदतर हो गये हैं। मन्दी के पीछे मुनाफ़े की गिरती दर का संकट होता है। यह संकट पूँजीवाद की स्वाभाविक गति का नतीजा होता है। जिसका सीधा-सा कारण उत्पादन का सामाजिक स्वरूप और मालिकाने का निजी स्वरूप होता है। इसलिए मन्दी के दौर में ख़ास तौर पर पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर को बनाये रखने के लिए सरकारें जनता की बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, आवास, बिजली आदि पर होने वाले ख़र्च में लगातार कटौती कर रही हैं। जिसके कारण बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। पूँजीवाद में सरकारों का काम पूँजीपतियों के सामूहिक हितों की सेवा करना होता है इसलिए बेरोज़गारी की समस्या का हल पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे के बाद ही हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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