सशस्त्र बलों के बीच प्रचार की लेनिनवादी अवस्थिति क्या है?

सनी

बीते दिनों अग्निपथ योजना की घोषणा के ख़िलाफ़ देशभर में नौजवानों का ग़ुस्सा स्वत:स्फूर्त तौर पर फूट पड़ा। सरकार के दमन के बावजूद अब भी नौजवानों में ग़ुस्सा मौजूद है और रह-रहकर नौजवान इसके ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं। यह महज़ अग्निपथ योजना के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि मोदी सरकार के रोज़गारविहीन विकास के ख़िलाफ़ फूटा ग़ुस्सा था। परन्तु क्रान्तिकारी दायरे में कुछ ऐसी आवाज़ें भी उठीं जिनके अनुसार हमें सैनिकों की माँगों को नहीं उठाना चाहिए क्योंकि ये राज्य का अंग हैं। कुछ लोगों ने कहा कि सैनिकों की माँगों को उठाना पूँजीवाद को मज़बूत करना होगा। इन प्रश्नों पर मार्क्सवादी लेनिनवादी अवस्थिति क्या हो यह समझने के लिए हम कुछ प्रश्न-उत्तर के ज़रिए अपनी बात स्पष्ट करेंगे :

प्रश्न : क्या कम्युनिस्टों को सशस्त्र बल के सैनिकों की माँगों को उठाना चाहिए?

उत्तर : निश्चित ही हमें सैनिकों के जनवादी व आर्थिक-भौतिक अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उनके संघर्ष के साथ हमें एकजुटता से खड़ा होना चाहिए। हमें सैनिकों के वेतन-भत्ते, जीवन स्थिति से लेकर अफ़सरों द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उनका साथ देना चाहिए। हर पूँजीवादी देश में फ़ौजी बैरकें उत्पीड़न का अड्डा होती हैं और इसी वजह से ही “क्रान्ति का सरगर्म अड्डा” भी बनती हैं। ऐसी स्थिति ज़ारकालीन रूस में भी थी। “रूस में फ़ौजी बैरकें बहुधा किसी भी जेल से बदतर होती हैं; व्यक्तित्व और कहीं इतना कुचला हुआ, इतना उत्पीड़ित नहीं होता, जितना कि बैरकों में, और कहीं इन्सान को सताये जाने, उसे मारे-पीटे जाने और ज़लील किये जाने का इतना बोलबाला नहीं है। और ये बैरकें क्रान्ति के सरगर्म अड्डे बन रही हैं।…सैनिक-नागरिकों की माँगें सामाजिक-जनवाद की, सभी क्रान्तिकारी पार्टियों की, वर्ग-सचेत कार्यकर्ताओं की माँगें हैं। स्वतंत्रता के समर्थकों की क़तारों में शामिल होकर और लोगों का साथ देकर सैनिक स्वतंत्रता और अपनी माँगों की सन्तुष्टि सुनिश्चित करेंगे।” [लेनिन]

वास्तव में, सेना की निचली क़तारें क्रान्ति की सहयोगी होती हैं। बोल्शेविकों ने सेना के निचले संस्तरों यानि सैनिकों के बीच सक्रिय रूप से प्रचार किया और सैन्य सेवाओं में सोवियतों का गठन किया। लेनिन बताते हैं कि हमें सैनिकों के जनवादी और राजनीतिक अधिकारों को उठाना चाहिए और उनके बीच सैन्यवाद के ख़िलाफ़ भी प्रचार करना चाहिए क्योंकि जो मज़दूर बतौर कम्युनिस्ट सेना में शामिल होता है वह बुर्जुआ वर्ग के लिए बेकार होता है। लेनिन कहते हैं : “सेना में भरती जवानों के बीच प्रचार चलाना अति कठिन और कभी-कभी प्रायः असम्भव होता है। बैरकों में जीवन, सख़्त निगरानी और विरल छुट्टियाँ बाहरी दुनिया से सम्पर्क में अत्यधिक बाधक होती हैं; फ़ौजी अनुशासन और मूढ़कारी क़वायद सैनिकों को संत्रस्त कर देती है; फ़ौजी अधिकारी इस “बेज़बान मवेशी” के दिमाग़ से सभी सप्राण विचारों और मानवीय भावनाओं को निकाल फेंकने और उसमें अन्ध आज्ञाकारिता तथा “देश-विदेश” के शत्रुओं के प्रति युक्तिहीन तथा बर्बर क्रोध भरने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं… उस एकाकी, जाहिल और संत्रस्त सैनिक के पास पहुँचना, जो अपने सहज परिवेश से बिछुड़ा हुआ है और जिसके सिर में उसके गिर्द की हर चीज़ के बारे में वहम भर दिये गये हैं, अनिवार्य भरती की उम्रवाले उस नौजवान के पास पहुँचने से कहीं अधिक मुश्किल है, जो अपने परिवार के साथ और अपने साथियों के बीच रहता है और उनके दुख-सुख का समान भागीदार है। युवा मज़दूरों के बीच सैन्यवाद-विरोधी प्रचार से हर जगह बहुत बढ़िया नतीजे हासिल हो रहे हैं। इसका बहुत बड़ा महत्व है। जो मज़दूर चेतन सामाजिक जनवादी के रूप में फ़ौज में भरती होता है, वह सत्ताधारियों के लिए निकम्मा सहारा होता है।”

प्रश्न : क्या सशस्त्र बलों की माँगों को उठाकर हम पूँजीवाद को ही मज़बूत नहीं करते हैं?

उत्तर : सशस्त्र बलों की व उसमें भर्ती के लिए प्रयासरत नौजवानों की माँगें पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर न्यूनतम माँगें हैं। पूँजीवाद की सीमाओं को उजागर करने के लिए ही न्यूनतम माँगें उठायी जाती हैं। बुर्जुआ लोकतंत्र के ढाँचे के भीतर, न्यूनतम माँगों का चरित्र ऐसा होता है कि बुर्जुआ लोकतंत्र के दावों को उनकी पूर्णता में उठाकर ही इसे असम्भाव्यता के बिन्दु पर ले जा सकते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि ये सभी माँगें पूरी नहीं हो सकती हैं। बुर्जुआ लोकतंत्र इन्हें पूरा नहीं कर सकता और इस प्रक्रिया में ही समाजवाद के विचार को अधिकांश मेहनतकश जनता द्वारा स्वीकार किया जाता है। ऐसा संघर्ष ही पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी वैधिकता की सीमाओं को जनता के समक्ष उजागर करता है और समाजवादी व्यवस्था के प्रचार के लिए अनुकूल बनाता है। इसलिए, यह बुर्जुआ राज्य मशीनरी को मज़बूत नहीं करता बल्कि इन माँगों को उठाकर इसके असली चरित्र को उजागर करता है। न्यूनतम माँगों के लिए संघर्ष किये बिना दीर्घकालिक माँगों को हासिल नहीं किया जा सकता है। सशस्त्र बलों की माँगों के ज़रिए पूँजीवाद को मज़बूत करने के तर्क को कारख़ाने/कार्यक्षेत्र की स्थिति की बेहतरी की माँग से तुलना कर भी समझा जा सकता है। क्योंकि कारख़ानों में बेहतर कार्यस्थिति की माँग, काम के घण्टे कम करने की माँग, ठेकाकरण ख़त्म करने की माँग या बेहतर वेतन की माँग पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी से आगे नहीं जाती हैं। लेनिन इसी बाबत कहते हैं, “मज़दूरों द्वारा काम करने की परिस्थितियों में मामूली सुधारों की माँग को लेकर चलाये जाने वाले आन्दोलनों के प्रति तिरस्कार का रुख़ अपनाना या कम्युनिस्ट कार्यक्रम और अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सशस्त्र क्रान्तिकारी संघर्ष की आवश्यकता के नाम पर उनके प्रति निष्क्रियता का रुख़ अपनाना कम्युनिस्टों के लिए भारी भूल होगी। मज़दूर अपनी जिन माँगों को लेकर पूँजीपतियों से लड़ने के लिए तैयार और रज़ामन्द हों, वे चाहे कितनी भी छोटी या मामूली क्यों न हों, कम्युनिस्टों को संघर्ष में शामिल न होने के लिए उन माँगों के छोटी होने का बहाना नहीं बनाना चाहिए।” यह बहाना अकसर क्रान्तिकारी लफ़्फ़ाज़ देते हैं। क्रान्तिकारी लफ़्फ़ाज़ों, “वामपन्थी” दुस्साहसवादियों और निष्क्रिय उगर्परिवर्तनवादियों की राजनीति अधिकतम कार्यक्रम के साथ न्यूनतम कार्यक्रम को गड्डमड्ड कर देती है।

प्रश्न : क्या सैनिकों के लिए बेहतर रोज़गार की माँग राष्ट्रवादी भटकाव नहीं है?

उत्तर : नहीं। हम सैनिकों और सेना में जाने की तैयारी कर रहे नौजवानों के बीच कम्युनिस्ट अवस्थिति से प्रचार करते हैं। इस प्रचार में हमें संशोधनवादियों द्वारा ली गयी राष्ट्रवादी अवस्थिति को उजागर करना चाहिए। संशोधनवादियों की अवस्थिति भाजपा की घोर राष्ट्रवादी अवस्थिति की ही पूरक है। हमें उन सभी का पर्दाफ़ाश करना चाहिए जो कहते हैं कि राष्ट्र की सेवा के हित में सेना को राजनीतिक तौर पर तटस्थ रहना चाहिए। ये दोनों ही अवस्थितियाँ ग़लत हैं। लेनिन ने कहा था : “सशस्त्र बल तटस्थ नहीं हो सकते हैं और न ही होना चाहिए। उन्हें राजनीति में नहीं घसीटना पूँजीपति वर्ग और ज़ारशाही के पाखण्डी सेवकों का नारा है, जिन्होंने वास्तव में हमेशा सेना को प्रतिक्रियावादी राजनीति में घसीटा है, और रूसी सैनिकों को गुर्गे में बदल दिया है। उस संघर्ष से अलग रहना असम्भव है जिसमें लोग स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। जो कोई भी इस संघर्ष के प्रति उदासीनता दिखाता है वह पुलिस सरकार के आक्रोश का समर्थन कर रहा है, जिसने स्वतंत्रता का केवल मज़ाक़ उड़ाने का वादा किया था।”

प्रश्न : सेना के सन्दर्भ में आंशिक माँगों के अतिरिक्त हमारी दूरगामी माँग क्या होगी?

उत्तर : हमारा दूरगामी लक्ष्य स्थायी सेना का उन्मूलन होगा। जनता से कटी हुई, सामाजिक-राजनीतिक जीवन से वंचित यह स्थायी सेना ही है जिसका इस्तेमाल जनता के आन्दोलनों को कुचलने के लिए किया जाता है। यह स्थायी सेना पूँजी की चाकर होती है। लेनिन बताते हैं कि :

“सर्वत्र तमाम देशों में स्थायी सेना को इतना बाहरी दुश्मन के ख़िलाफ़ नहीं इस्तेमाल किया जाता, जितना कि अन्दरूनी दुश्मन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है। स्थायी सेना सर्वत्र प्रतिक्रियावाद का हथियार, श्रम के विरुद्ध संघर्ष में पूँजी की चाकर और जनता की स्वतंत्रता का हत्यारा बन गयी है। इसलिए अपनी महान मुक्तिदायी क्रान्ति में मात्र आंशिक माँगें पेश कर खड़े न रहें। बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकें। स्थायी सेना का बिल्कुल उन्मूलन कर डालें। सेना हथियारबन्द जनता के साथ घुल-मिल जाये, सैनिक अपना फ़ौजी ज्ञान जनता तक पहुँचाएँ, बैरकें लुप्त हों और उनका स्थान स्वतंत्र सैनिक स्कूल लें। दुनिया में कोई ताक़त स्वतंत्र रूस का अतिक्रमण करने का साहस नहीं कर पायेगी, अगर इस स्वतंत्रता का दुर्ग फ़ौजी जाति-व्यवस्था को नष्ट कर देनेवाली तमाम सैनिकों को नागरिक तथा हथियार रखने में सक्षम तमाम नागरिकों को सैनिक बना देनेवाली हथियारबन्द जनता हो।

“…जब तक दुनिया में उत्पीड़ित तथा शोषित रहेंगे, तब तक हमें निरस्त्रीकरण करने का नहीं, वरन पूरी जनता को हथियारबन्द करने का प्रयास करना होगा। मात्र यही स्वतंत्रता की पूर्ण रक्षा करेगा। मात्र यही प्रतिक्रियावाद का तख़्ता पूरी तरह उलट सकेगा। परिवर्तन की केवल इन अवस्थाओं के अन्तर्गत ही मुट्ठीभर शोषक नहीं, अपितु लाखों-लाख मेहनतकश वास्तविक स्वतंत्रता का उपभोग कर सकेंगे।”

परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि हम तात्कालिक तौर पर सैनिकों की जनवादी और राजनीतिक माँगों को न उठायें। अन्त में हम लेनिन द्वारा सशस्त्र सेनाओं और नौसेनाओं के बीच प्रचार के बारे में उद्धरण से अपनी बात ख़त्म करेंगे :

“पूँजीवादी राज्यों की सशस्त्र सेनाओं और नौसेनाओं के बीच प्रचार के तरीक़े प्रत्येक देश की विशेष परिस्थितियों के अनुकूल होने चाहिए। शान्तिवादी प्रकृति का सैन्यवाद विरोधी आन्दोलन (या आन्दोलनपरक प्रचार) अत्यन्त हानिकारक होता है और सर्वहारा वर्ग को निशस्त्र करने के पूँजीपति वर्ग के प्रयासों की मदद करता है। सर्वहारा वर्ग, उसूली तौर पर पूँजीपति वर्ग की हर तरह की सामरिक (या सैन्य) संस्थाओं को ख़ारिज करता है और आम तौर पर पूरी ताक़त के साथ उनका मुक़ाबला करता है। लेकिन फिर भी मज़दूरों को भविष्य की क्रान्तिकारी लड़ाइयों का सैनिक प्रशिक्षण देने के लिए वह इन संस्थाओं (सेना, राइफ़ल, क्लब, नागरिक सुरक्षा संगठन आदि) का इस्तेमाल करता है। इसलिए घनीभूत राजनीतिक आन्दोलन (या आन्दोलनपरक प्रचार) की धार नौजवानों और मज़दूरों के सैनिक प्रशिक्षण के विरुद्ध नहीं बल्कि सैन्यवादी सत्ता और अफ़सरों के प्रभुत्व के विरुद्ध केन्द्रित होनी चाहिए। मज़दूरों को हथियारों से लैस करने की प्रत्येक सम्भावना का बड़ी तत्परता के साथ लाभ उठाना चाहिए।

“अफ़सरों की भौतिक रूप से सुविधाजनक स्थितियों, साधारण सैनिकों के प्रति ख़राब व्यवहार और उनके जीवन की सामाजिक असुरक्षा आदि के रूप में प्रकट होने वाले वर्ग अन्तरविरोधों को सैनिकों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त आन्दोलनपरक प्रचार के ज़रिए आम सैनिकों के बीच यह तथ्य स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उनका भविष्य अटूट रूप से शोषित वर्गों की नियति के साथ जुड़ा हुआ है। प्रारम्भिक क्रान्तिकारी उद्वेलन के अपेक्षाकृत उन्नत दौर में साधारण सैनिकों और नौसैनिकों द्वारा अपने अफ़सरों का जनवादी ढंग से चुनाव करने और सैनिक परिषदों का गठन करने की माँग पूँजीवादी शासन की बुनियाद को कमज़ोर करने में विशेष लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

“पूँजीपति वर्ग द्वारा वर्ग युद्ध में इस्तेमाल की जाने वाली चुनिन्दा सैनिक टुकड़ियों और विशेषकर सशस्त्र स्वयंसेवक जत्थों के ख़िलाफ़ आन्दोलनात्मक प्रचार की कार्रवाई के समय सर्वाधिक सतर्कता और अधिकतम सावधानी बरतने की हमेशा आवश्यकता होती है।”

“जब भी इन सेनाओं और जत्थों की सामाजिक संरचना और भ्रष्ट आचरण के चलते ऐसा अवसर उत्पन्न हो जाये; तो (सेना में) विघटन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए आन्दोलनात्मक प्रचार के हर अनुकूल क्षण का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। जहाँ पर भी इसका पूँजीवादी चरित्र एकदम उजागर हो, मिसाल के तौर पर अफ़सरों की कोर में, वहाँ पूरी जनता के सामने उसे बेनक़ाब करना चाहिए तथा उन्हें इतनी अधिक घृणा और सार्वजनिक तिरस्कार का पात्र बना देना चाहिए कि अपने ख़ुद के अलगाव के कारण वे भीतर से ही विघटन के शिकार हो जायें।”

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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