क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-2
कुछ बुनियादी बातें जिन्हें समझना ज़रूरी है – 1

अभिनव

इस बार हम सीधे राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा शुरू करने की बजाय कुछ एकदम बुनियादी अवधारणाओं से शुरुआत करेंगे। यह सम्भव है कि इस अंक में प्रकाशित इस लेख के कई नुक़्तों को अभी कई साथी पूरी तरह न समझ पायें, बल्कि केवल आंशिक तौर पर ही समझ पायें। लेकिन इससे कोई नुक़सान नहीं है। जैसे-जैसे हम पूँजीवादी समाज के आर्थिक सम्बन्धों, मज़दूर वर्ग के शोषण की सच्चाई, पूँजीवादी संकटों के मूलभूत कारण और पूँजीवादी समाज के बुनियादी और प्रधान अन्तरविरोध को समझते जायेंगे वैसे-वैसे मौजूदा लेख में व्याख्यायित बुनियादी अवधारणाओं की समझ भी और विकसित होती जायेगी। यह लेख आगे भी आपके लिए एक सन्दर्भ स्रोत का काम करेगा। यह तमाम चीज़ों को गहराई से समझने और उसके बारे में वैज्ञानिक समझ बनाने में आपकी भविष्य में भी मदद करेगा। इसलिए मौजूदा लेख के कुछ तत्वों को समझ पाने में अगर कठिनाई होती है, तो चिन्ता की कोई बात नहीं है।

मौजूदा लेख और उसके अगले अंक में प्रकाशित होने वाले उसके अगले हिस्से में हम जिन चीज़ों की चर्चा कर रहे हैं, उन्हें हम ऐतिहासिक भौतिकवाद, यानी इतिहास की वैज्ञानिक भौतिकवादी समझदारी के कुछ तत्वों पर चर्चा मान सकते हैं। इन्हें समझने के बाद पूँजीवादी समाज का समूचा आर्थिक विश्लेषण आपके लिए कहीं ज़्यादा आसान होगा और उसकी जटिल अवधारणाओं को भी आप अधिक सुगमता से समझ पायेंगे। इसलिए शुरुआत में हम आपको कुछ असुविधा दे रहे हैं, लेकिन हमें यक़ीन है कि यह असुविधा आपके लिए काफ़ी उपयोगी असुविधा सिद्ध होगी।

उत्पादन, उत्पादक शक्तियाँ, उत्पादन सम्बन्ध और समाज का आर्थिक आधार

किसी भी समाज की बुनियाद में मनुष्य के जीवन का भौतिक उत्पादन और पुनरुत्पादन होता है। यदि मनुष्य जीवित होगा तो ही वह राजनीति, विचारधारा, शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति, वैज्ञानिक प्रयोग, खेल-कूद और मनोरंजन जैसी गतिविधियों में संलग्न हो सकता है। मनुष्य अपने जीवन के भौतिक उत्पादन और पुनरुत्पादन के प्रकृति के साथ एक निश्चित सम्बन्ध बनाता है और उसका रूपान्तरण कर उसके संसाधनों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ढालता है। इस गतिविधि को ही हम उत्पादन कहते हैं। मनुष्य के भौतिक जीवन के पुनरुत्पादन के लिए उपयोगी वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन करने के लिए मनुष्य प्रकृति को रूपान्तरित करता है। यह मनुष्य का उत्पादन के लिए, यानी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप, प्रकृति के रूपान्तरण का संघर्ष है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य के लिए क्या उपयोगी है और क्या नहीं, यह कोई पहले से या जन्मजात तय बात नहीं होती बल्कि समाज के विकास के साथ ऐतिहासिक तौर पर बदलने वाली चीज़ है। मसलन, पुरापाषाण युग के मनुष्य के लिए भाप इंजन उपयोगी नहीं था लेकिन 19वीं सदी के मनुष्य के लिए था और आज भी है। उसी प्रकार, आज के मनुष्य के लिए पत्थर के औज़ार उपयोगी नहीं हैं, क्योंकि उसकी उत्पादकता का विकास पत्थर के औज़ारों से मीलों आगे जा चुका है। किसी आदिम मनुष्य के हाथ में यदि मोबाइल फ़ोन या कम्प्यूटर दे दिया जाये तो भला उसके लिए उसकी क्या उपयोगिता हो सकती है? कहने का अर्थ यह कि मनुष्य के लिए कौनसी वस्तुएँ अथवा सेवाएँ उपयोगी हैं, या दूसरे शब्दों में, उपयोगमूल्य हैं, यह ऐतिहासिक सामाजिक रूप से निर्धारित होने वाली चीज़ है। ज़ाहिर है, मनुष्य के लिए जीने के लिए केवल खाना, कपड़ा और मकान ही आवश्यक नहीं है। जैसे-जैसे मनुष्य के श्रम की उत्पादकता का विकास हुआ, वैसे-वैसे उसकी बुनियादी आवश्यकताओं की परिभाषा भी बदलती गयी। ‘बाइबल’ में ही लिख दिया गया था : “केवल रोटी के बूते मनुष्य नहीं जियेगा।”

मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति को रूपान्तरित करने के लिए जो संघर्ष करता है, उसी के साथ उसका प्रकृति के बारे में ज्ञान भी विकसित होता है। यानी, उसकी चेतना उन्नत होती है, उसके उपकरण उन्नत होते हैं और उसकी कुशलता विकसित होती है। इसके साथ ही प्रकृति को अपनी आवश्यकता के अनुसार रूपान्तरित करने की उसकी क्षमता भी विकसित होती जाती है। मनुष्य अपने लिए उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन हेतु प्रकृति के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की जो क्षमता विकसित करता है, उसकी माप को ही हम उत्पादक शक्ति कहते हैं।

लेकिन मनुष्य उत्पादन हेतु कभी भी प्रकृति का रूपान्तरण अकेले नहीं करता है। समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन अपने चरित्र से ही एक सामाजिक गतिविधि होता है। जब तक उत्पादक शक्तियों का विकास बहुत नीचे था तब तक समाज में कोई श्रम विभाजन नहीं पैदा हो सकता था और न ही कोई सामाजिक विभेदीकरण, यानी अमीर-ग़रीब का फ़र्क़, मालिक और उत्पादक का फ़र्क़, आदि पैदा हो सकता था। उत्पादक शक्तियों के एक स्तर तक विकास के साथ समाज में श्रम का विभाजन होने लगता है। यानी, अलग-अलग उत्पादक अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन करते हैं और फिर आपस में विनिमय के ज़रिए अपने लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करते हैं। बिल्कुल सम्भव है कि समाज में लाखों अलग-अलग उत्पादक अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हों। लेकिन सामाजिक तौर पर देखें तो यह समूचा उत्पादन किसी एक उत्पादक की गतिविधि नहीं है, बल्कि लाखों-करोड़ों उत्पादकों की गतिविधि है, भले ही वे उसे व्यक्तिगत तौर पर चला रहे हों। आज के दौर में तो उत्पादन सीधे-सीधे सामाजिक चरित्र ग्रहण कर चुका है। कोई एक पिन भी आज एक मज़दूर अकेले नहीं बना रहा है। हर वस्तु और सेवा का बड़े पैमाने पर हज़ारों मज़दूरों द्वारा उत्पादन हो रहा है, चाहे यह उत्पादन कई अलग-अलग हिस्सों में भौगोलिक तौर पर विभाजित ही क्यों न हो। आज उत्पादन के इस सामाजिक चरित्र को देखने के लिए किसी गहरे विश्लेषण की आवश्यकता नहीं रह गयी है। लेकिन जब ऐसा सीधे और स्पष्ट तौर पर नज़र नहीं आता था, तो भी उत्पादन वास्तव में एक सामाजिक गतिविधि ही था।

अब चूँकि उत्पादन अपनी प्रकृति से ही एक सामाजिक गतिविधि है, इसलिए उत्पादन करते हुए मनुष्य आपस में एक निश्चित सम्बन्ध बनाते हैं। जिस समय उत्पादक शक्तियों का विकास बेहद निम्न स्तर पर था, समाज आदिम अवस्था में था, जिसमें लोग शिकार करके, कन्द-मूल इकट्ठा करके और थोड़ी-बहुत खेती करके मुश्किल से इतना पैदा कर पाते थे कि क़बीले के सभी लोगों की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो सकें, तब तक समाज में समानतामूलक रिश्ते थे, कोई ऊँच-नीच या अमीरी-ग़रीबी नहीं थी। हो भी नहीं सकती थी। क्योंकि अमीर और शोषक लोग तभी पैदा हो सकते हैं, जबकि समाज में अतिरिक्त उत्पादन हो रहा है। इस पर हम आगे विस्तार से बात करेंगे। अभी इतना समझने की आवश्यकता है कि उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर के अनुसार ही समाज में मनुष्यों के बीच उत्पादन की प्रक्रिया में निश्चित सम्बन्ध बनते हैं। इन्हें हम उत्पादन सम्बन्ध कहते हैं।

उत्पादन सम्बन्ध पलटकर उत्पादक शक्तियों के विकास को प्रभावित भी करते हैं। यदि उत्पादन सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के अनुकूल होते हैं, तो वे उत्पादक शक्तियों के विकास को गति प्रदान करते हैं। जब उत्पादक शक्तियों का विकास आगे बढ़ जाता है और उत्पादन सम्बन्ध पुराने पड़ जाते हैं, तो यही उत्पादन सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के उत्तरोत्तर विकास में बाधा पैदा करने लगते हैं। आगे हम ऐतिहासिक विवरण से इन बातों को समझेंगे। अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि उत्पादन हेतु प्रकृति के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की मनुष्य की क्षमता की माप को ही उत्पादक शक्ति कहा जाता है और उत्पादन की इस प्रक्रिया में मनुष्य आपस में जो निश्चित सम्बन्ध स्थापित करते हैं, उन्हें उत्पादन सम्बन्ध कहा जाता है। उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर के अनुसार बने उत्पादन सम्बन्धों के कुल योग को ही हम आर्थिक आधार या मूलाधार कहते हैं।

उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्ध के बीच सतत् द्वन्द्व यानी अन्तरविरोध जारी रहता है और यही समाज को गति देने का बुनियादी कारक या बुनियादी अन्तरविरोध है। दूसरे शब्दों में, यह अन्तरविरोध समाज के आर्थिक आधार में शुरू से अन्त तक मौजूद रहता है। इनके बीच के अन्तरविरोध और उसके समाधान और फिर एक नये स्तर पर फिर से उनके अन्तरविरोध के विकास की प्रक्रिया में ही समाज का विकास होता है। आर्थिक आधार या मूलाधार वह क्षेत्र है जिसमें यह अन्तरविरोध लगातार जारी रहता है और उसमें गति के लिए उत्तरदायी होता है। लेकिन उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों का अन्तरविरोध ही अपने आप में आर्थिक आधार को गुणात्मक रूप से नहीं बदल सकता है। यह केवल राजनीतिक वर्ग संघर्ष के ज़रिए ही सम्भव होता है, जो कि अधिरचना के क्षेत्र में जारी रहता है। अधिरचना क्या होती है?

अधिरचना और आर्थिक आधार

समाज का आर्थिक आधार यानी उसके आर्थिक सम्बन्धों का समूचा ढाँचा जिस प्रकार का होता है, उसी के अनुसार उसके ऊपर एक समूचा राजनीतिक और विचारधारात्मक ढाँचा खड़ा होता है।

यदि हम दास समाज के आर्थिक आधार की बात करें, तो उस समाज में दास व्यवस्था के आर्थिक सम्बन्धों के आधार पर एक विशेष प्रकार की राजनीति और विचारधारा की एक समूची अट्टालिका या ढाँचा खड़ा होता है जो अन्तत: उस विशिष्ट आर्थिक आधार की सेवा करता है। दास व्यवस्था के युग में हम आज के पूँजीवादी लोकतंत्र पर आधारित राजनीति और व्यक्तिवाद, अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की सोच, और पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते हैं। पूँजीवादी लोकतंत्र और पूँजीवादी विचारधाराएँ अन्तत: पूँजीवादी आर्थिक आधार की ही सेवा कर सकती हैं और वे पूँजीवादी आर्थिक आधार की बुनियाद पर ही खड़ी हो सकती हैं। उसी प्रकार सामन्ती युग में भूदास प्रथा और सामन्ती लगान के ज़रिए प्रत्यक्ष उत्पादकों के अतिरिक्त श्रम को लूटने का काम सामन्ती ज़मीन्दार और राजतंत्र करते हैं। उस युग में भी हम पूँजीवादी जनवाद और निजी मुनाफ़े पर आधारित सोच और संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते हैं। पूँजीवादी समाज में मज़दूर औपचारिक तौर पर दोहरे अर्थों में “मुक्त” होता है। पहला, वह उत्पादन के साधनों से पूरी तरह “आज़ाद” हो जाता है, यानी उसे उत्पादन के साधनों से पूर्णत: वंचित कर दिया जाता है, जिसके कारण वह अपनी मेहनत करने की क्षमता यानी श्रमशक्ति को उत्पादन के साधन के स्वामी यानी पूँजीपति को बेचने के लिए बाध्य होता है। दूसरा, वह अपना मालिक स्वयं चुन सकता है क्योंकि वह अपनी श्रमशक्ति एक निश्चित समय के लिए ही पूँजीपति को बेचता है। वह दास के समान अपने मालिक की सम्पत्ति नहीं होता। दास को तो रोमन समाज में दास स्वामी ‘बोलने वाला औज़ार’ कहा करते थे। पूँजीवादी समाज में मज़दूर इस प्रकार निरपेक्ष अर्थों में ग़ुलाम नहीं होता, बल्कि उजरती ग़ुलाम होता है। यानी वह श्रमशक्ति बेचने को बाध्य होता है और मज़दूरी के वास्ते पूँजीपति की ग़ुलामी करता है। एक दफ़ा अपनी श्रमशक्ति एक निश्चित अवधि के लिए पूँजीपति को बेचने के बाद मज़दूर का श्रमशक्ति के उपयोग पर कोई नियंत्रण नहीं होता है और पूँजीपति उसकी श्रमशक्ति का जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है। ऐसी व्यवस्था में ऊपरी तौर पर लेन-देन की बराबरी यानी ‘विनिमय की समानता’ होती है। मज़दूर अपनी श्रमशक्ति को एक निश्चित समय के लिए पूँजीपति को बेचता है और बदले में अपनी श्रमशक्ति को फिर से पैदा करने हेतु आवश्यक सामान ख़रीदने के लिए उसे मज़दूरी मिलती है। ऊपर से देखा जाये तो कहीं कोई शोषण नज़र नहीं आता है। मज़दूर के शोषण को केवल इस ऊपरी सतही यथार्थ को भेदकर ही देखा जा सकता है क्योंकि मज़दूर अपने एक दिन के काम के दौरान अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन योग्य मूल्य तो कार्यदिवस के एक हिस्से में ही पैदा कर लेता है और उसके बाद वह पूँजीपति के लिए मुफ़्त में मुनाफ़ा पैदा करता है, जिसके बदले में उसे कुछ भी नहीं मिलता। जैसे ही हम यह समझ जाते हैं कि श्रमशक्ति एक ऐसा माल है जो अपने ख़र्च होने की प्रक्रिया में अपने मूल्य से ज़्यादा मूल्य पैदा करता है, वैसे ही हमें पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का रहस्य समझ में आ जाता है और विनिमय की समानता की सच्चाई भी सामने आ जाती है। तमाम पूँजीवादी व ग़ैर-पूँजीवादी (साधारण) माल उत्पादक भी बाज़ार में अपने मालों का विनिमय की समानता के सिद्धान्त के आधार पर विनिमय करते हैं और एक दूसरे की निजी सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार मानते हैं। बाज़ार में यानी संचरण के क्षेत्र में होने वाला यह समान विनिमय और निजी सम्पत्ति का ‘प्राकृतिक अधिकार’ पूँजीवादी जनवाद का आधार होता है, जबकि उत्पादन के क्षेत्र में श्रमशक्ति को ख़रीदने के बाद मज़दूरों की पूँजीपति के समक्ष पूर्ण अधीनता पूँजीवादी तानाशाही का आधार होती है।

लुब्बेलुआब यह कि समाज का आर्थिक आधार जिस प्रकार का होता है, यानी उसमें जिस प्रकार के उत्पादन सम्बन्ध होते हैं, उसी के आधार पर समाज में एक राजनीतिक और विचारधारात्मक अधिरचना का निर्माण होता है। उसी के अनुसार, राजनीतिक सत्ता की समूची संरचना यानी क़ानून, संविधान, पुलिस, संसद, विधानसभाएँ आदि स्थापित होती हैं, उसी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था, सांस्कृतिक तंत्र और तमाम विचारधाराओं का ढाँचा खड़ा होता है। यह अधिरचना अन्तत: आर्थिक आधार की ही सेवा करती है, लेकिन हर क्षण नहीं, बल्कि अन्तत: वह आर्थिक आधार की सेवा करती है। यानी स्वयं आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच भी अन्तरविरोध होता है।

मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच संघर्ष की शुरुआत मज़दूरों की आर्थिक और भौतिक माँगों को लेकर शुरू होता है लेकिन जैसे-जैसे यह संघर्ष विकसित होता जाता है वैसे-वैसे मज़दूर वर्ग पहले यह समझता है कि उसके शोषण के लिए मशीनें नहीं बल्कि मालिक ज़िम्मेदार है, फिर यह समझता है कि उसका शत्रु एक मालिक नहीं बल्कि मालिकों का पूरा वर्ग, यानी पूँजीपति वर्ग है, फिर यह समझता है कि पूँजीपति वर्ग अपने शोषण, उत्पीड़न और दमन को जारी रखने का काम अपने राजदण्ड यानी राज्यसत्ता के ज़रिए करता है। जैसे-जैसे मज़दूर वर्ग की यह चेतना विकसित होती है, वैसे-वैसे वह अपने राजनीतिक हितों और लक्ष्य के प्रति सचेत होता है और यह समझता जाता है कि वास्तविक सवाल राज्यसत्ता का है और जब तक पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता क़ायम रहेगी, तब तक वह चाहे कितने ही जुझारू आर्थिक संघर्ष लड़ ले, उसका शोषण समाप्त नहीं होगा। इस राजनीतिक चेतना के विकसित होने के साथ मज़दूर वर्ग अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग, यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में, अपने ही संघर्षों के ज़रिए, संघटित करता (बनाता) है और संगठित करता है। यानी, एक ऐसे वर्ग के रूप में जिसका लक्ष्य पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर अपनी राज्यसत्ता को स्थापित करना है। इस राजनीतिक चेतना का सर्वोच्च रूप ही पार्टी की आवश्यकता को समझना है, यानी पार्टी राजनीतिक चेतना का विकास है। सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्वों द्वारा सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के निर्माण के ज़रिए ही पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता का ध्वंस करने हेतु सर्वहारा वर्ग अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करने की उच्चतम मंज़िल पर पहुँचता है और केवल उसी के ज़रिए वह व्यापक मेहनतकश आबादी, यानी ग़रीब व मँझोले किसानों, निम्न मध्यम वर्ग, छोटे माल उत्पादकों आदि को पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक व विचारधारात्मक प्रभाव से मुक्त कर अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक नेतृत्व के मातहत लाता है। जब सर्वहारा वर्ग अपनी पार्टी के नेतृत्व में समूचे मेहनतकश जनसमुदायों को नेतृत्व देने की स्थिति में पहुँचता है, केवल तभी वह पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता को उखाड़ फेंकने की स्थिति में पहुँच सकता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो व्यापक जनता के बीच पूँजीपति वर्ग अपने विचारधारात्मक और राजनीतिक वर्चस्व को क़ायम रखने और इस प्रकार अपनी राज्यसत्ता को क़ायम रखने में कामयाब होता है। केवल अपनी राज्यसत्ता की स्थापना करके ही सर्वहारा वर्ग आर्थिक आधार में मौजूद उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के द्वन्द्व को हल कर सकता है, यानी समाज के विकास के पैरों में बेड़ी बन चुके निजी सम्पत्ति सम्बन्धों का उन्मूलन कर सामूहिक सम्पत्ति की स्थापना कर सकता है, उत्पादक शक्तियों के उत्तरोत्तर विकास को निर्बन्ध कर सकता है, योजनाबद्ध तरीक़े से देश के पैमाने पर उत्पादन और वितरण को, मुट्ठीभर लुटेरों के निजी मुनाफ़े और बाज़ार की अराजक शक्तियों के अनुसार नहीं, बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार संगठित कर सकता है, शोषण का ख़ात्मा कर सकता है और एक नयी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की ओर आगे बढ़ सकता है। पूँजीवादी समाज में सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का यह राजनीतिक अन्तरविरोध यानी राजनीतिक वर्ग संघर्ष ही वह प्रधान अन्तरविरोध होता है, जो कि समाज की तात्कालिक प्रेरक शक्ति होता है और समाज के विकास को एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल पर ले जाता है। वास्तव में, हर समाज में राजनीतिक वर्ग संघर्ष ही समाज को तात्कालिक तौर पर गति देने वाला प्राथमिक प्रेरक तत्व होता है। इसीलिए वर्ग संघर्ष को मार्क्स ने समाज की ‘तात्कालिक प्रेरक शक्ति’ और माओ ने ‘प्रधान अन्तरविरोध’ की संज्ञा दी। इसका हल ही बुनियादी अन्तरविरोध यानी आर्थिक आधार में अन्तर्निहित अन्तरविरोध और साथ ही अन्य सभी अन्तरविरोधों के हल को सम्भव बनाता है। लेनिन के शब्दों में, वर्ग संघर्ष ही कुंजीभूत कड़ी है।

संक्षेप में, आर्थिक आधार के द्वन्द्व यानी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के द्वन्द्व का समाधान ख़ुदख़ुद नहीं हो सकता है, बल्कि केवल राजनीतिक वर्ग संघर्ष और उसके फलस्वरूप राज्यसत्ता यानी राजनीतिक अधिरचना के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के ज़रिए ही आर्थिक आधार का क्रान्तिकारी रूपान्तरण शुरू हो सकता है। यह आर्थिक आधार और अधिरचना के द्वन्द्व का एक उदाहरण है जो कि क्रान्ति के बाद भी विविध रूपों में जारी रहता है। क्योंकि राजनीतिक अधिरचना के क्रान्तिकारी रूपान्तरण और उसके बाद आर्थिक आधार के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की शुरुआत के बावजूद पुरानी विचारधारात्मक अधिरचना तत्काल नष्ट नहीं हो जाती और न ही आर्थिक आधार का क्रान्तिकारी रूपान्तरण केवल निजी सम्पत्ति के क़ानूनी तौर पर ख़ात्मे से पूरा हो जाता है। एक ओर समाज के आर्थिक आधार में भी अभी माल उत्पादन जारी रहता है, यानी वस्तुओं का उत्पादन केवल समाज के लिए उपयोगी वस्तुओं के तौर पर नहीं होता, बल्कि मालों के रूप में उनका विनिमय एक अलग रूप में अभी भी जारी रहता है। दूसरी ओर, पूँजीवादी समाज और उससे भी पहले के शोषणकारी समाजों के दौर से चली आ रही असमानता, शोषण, उत्पीड़न व दमन, व्यक्तिवाद, लोभ-लालच, निजी मुनाफ़े पर आधारित विचारों, मूल्यों-मान्यताओं और आदतों का प्रभाव अभी भी बना रहता है। नतीजतन, आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच के अन्तरविरोध नये और जटिल रूपों में मौजूद रहते हैं।

अधिरचना के भीतर मूल अन्तरविरोध राजनीतिक अधिरचना और विचारधारात्मक अधिरचना के बीच होता है। समाज में पूँजीवादी विचारधारा के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग अपनी विचारधारा के ज़रिए संघर्ष छेड़ता है। यदि सर्वहारा वर्ग अपने विचारधारात्मक संघर्ष को सही तरीक़े से चलाता है और पूँजीवादी विचारधारा पर अपने वर्चस्व को स्थापित करता है, तो यह उसके राजनीतिक वर्ग संघर्ष को भी बल देता है और उसे आगे बढ़ाता है। लेकिन यदि मज़दूर वर्ग स्वयं पूँजीवादी विचारधाराओं मसलन अर्थवाद, मज़दूरवाद, अराजकतावाद आदि के प्रभाव में आकर अपने ऐतिहासिक लक्ष्य और अपनी हिरावल भूमिका को भूलता है, तो यह उसके राजनीतिक वर्ग संघर्ष को पीछे धकेलने का काम करता है और उसे पूँजीपति वर्ग के विचारधारात्मक व राजनीतिक वर्चस्व के अधीन रहने के लिए अभिशप्त करता है। अधिरचना में राजनीतिक वर्ग संघर्ष और विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष का यह अन्तरविरोध लगातार जारी रहता है और यह अधिरचना का मूल अन्तरविरोध होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों का अन्तरविरोध आर्थिक आधार का मूल अन्तरविरोध होता है।

अन्तत: समूचे मानव समाज के इतिहास की गतिकी को व्याख्यायित करने वाला अन्तरविरोध आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध होता है, जो अपने अन्दर सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं और उसमें निहित अन्तरविरोधों को समेटता है।

ये कुछ बुनियादी बातें और अवधारणाएँ हैं, जिन्हें समझकर हम अपने आगे के कार्यभार को अच्छी तरह से पूरा कर सकते हैं, यानी, पूँजीवादी समाज में मज़दूर वर्ग के शोषण को समझना, पूँजीवादी समाज में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों को समझना, उनके द्वन्द्व को समझना और इस बात को समझना कि इतिहास के किसी भी अन्य समाज के समान पूँजीवादी समाज का भी एक आदि और अन्त है, पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है। इसका आन्तरिक द्वन्द्व ही अन्तत: एक नये उन्नत समाज की ओर ले जाता है।

अगले अंक में हम इसी लेख के दूसरे हिस्से में मनुष्य के ज्ञान के विकास की प्रक्रिया में कुछ बुनियादी बातों को समझेंगे और उसके बाद हम पूँजीवादी समाज के क्रान्तिकारी वैज्ञानिक आर्थिक विश्लेषण की ओर आगे बढ़ेंगे।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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