जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए सड़कों पर उतरकर संघर्ष करना मज़दूर वर्ग के लिए अस्तित्व का प्रश्न है
जनवादी व नागरिक अधिकारों के लिए जुझारू जनान्दोलन खड़ा करो!

सम्‍पादकीय

हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर मोदी के सत्ता में आने के पहले से ही बार-बार यह लिखते रहे हैं कि आज के दौर के फ़ासीवाद की ख़ासियत यह है कि यह नात्सी पार्टी व हिटलर तथा फ़ासिस्ट पार्टी व मुसोलिनी के समान बहुदलीय संसदीय बुर्जुआ जनतंत्र को भंग नहीं करेगा। आम तौर पर, यह बुर्जुआ चुनावों को बरक़रार रखेगा, संसदों और विधानसभाओं को बरक़रार रखेगा व काग़ज़ी तौर पर बहुतेरे जनवादी-नागरिक अधिकारों को भी औपचारिक तौर पर बनाये रखेगा। लेकिन पूँजीवादी जनवाद का केवल खोल ही बचेगा और उसके अन्दर का माल-मत्ता नष्ट हो जायेगा। आज हमारे देश में यही हो रहा है।
एक ओर व्यापक मेहनतकश जनता के जनवादी-नागरिक अधिकारों को लगातार अभूतपूर्व रूप से छीना जा रहा है; मोदी सरकार का विरोध करने वाली किसी भी आवाज़ को निर्ममता से दबा दिया जा रहा है; और मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, वकीलों, कलाकारों को सोशल मीडिया पर डाली गयी उनकी किसी पोस्ट के बहाने तो कभी उनकी किसी पुस्तक, किसी कलाकृति के “राष्ट्र-विरोधी” होने के नाम पर गिरफ़्तार किया जा रहा है, उन पर फ़र्ज़ी मुक़दमे डाले जा रहे हैं और, अगर वे अन्त में दोषमुक्त हो भी जायें, तो उससे पहले हफ़्तों, महीनों या वर्षों तक उन्हें जेलों में सड़ाया जा रहा है। पूँजीवादी न्यायपालिका द्वारा जब एक केस या मुक़दमा ख़ारिज होता है, तब तक फ़ासीवादी मोदी सरकार दूसरा मुक़दमा जनता के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले ऐसे कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों पर डाल देती है। इसी सिलसिले में बीते दिनों तीस्ता सेतलवाड़, मुहम्मद ज़ुबैर, रूपेश कुमार जैसे प्रगतिशील मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया। इसी प्रकार हिमांशु कुमार जैसे जनअधिकारों के लिए समर्पित गाँधीवादी कार्यकर्ता को भी पूँजीवादी न्यायपालिका के ज़रिए सताने का सिलसिला जारी है। हालिया दिनों में भारत की पूँजीवादी न्यायपालिका ने जैसे फ़ैसले दिये हैं, उस पर तो कई वकीलों और भूतपूर्व न्यायाधीशों ने ही सवाल उठा दिये। अगर किसी को ऐसा लगता है कि मोदी सरकार की कैबिनेट बैठक में ही ये फ़ैसले तय हो जाते हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है!
इसके अलावा, संसद और विधानसभा के भीतर मौजूद पहले से ही नाकारा और पंगु पूँजीवादी विपक्ष को पूरी तरह से लकवाग्रस्त बना देने के लिए भाजपा की फ़ासीवादी मोदी सरकार ने दो तरीक़ों का इस्तेमाल किया है।
पहला, भारत के पूँजीपति वर्ग के अभूतपूर्व समर्थन के बूते हासिल हुई पूँजी की शक्ति द्वारा बुर्जुआ विपक्षी पार्टियों को निष्प्रभावी बना देना और दूसरा, सरकारी जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल करके विपक्षी पार्टियों की बाँह मरोड़ना और पहले से ही घुटनों पर पड़े बुर्जुआ विपक्ष को अपने सामने पूरी तरह से दण्डवत करवा देना। ज़ाहिर है, भाजपा की मोदी सरकार अपने इन कारनामों को करने में इसलिए भी कामयाब होती है क्योंकि उसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में एक काडर-आधारित और अनुशासित फ़ासीवादी पार्टी भी है और साथ ही उसके पीछे टुटपुँजिया वर्गों का एक अन्धा प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन भी है। नतीजतन, इनफ़ोर्समेण्ट डाइरेक्टोरेड (ईडी), सीबीआई आदि के छापों के ज़रिए विपक्षी पार्टियों के नेताओं आदि पर मुक़दमे डाले जा रहे हैं और उनमें से कई जेलों में भी डाले गये हैं और जनता में इसके पक्ष में राय बनाने में भी मोदी सरकार फ़िलहाल कमोबेश कामयाब ही हो रही है। यह दीगर बात है कि ये नेता वाक़ई भ्रष्ट हैं और इसलिए मोदी सरकार को यह मौक़ा भी मिल रहा है कि सरकारी जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल करके इनके कान उमेठे जायें और इन्हें ‘सीधा’ कर दिया जाये। लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि भाजपा के नेताओं द्वारा भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के स्थापित किये जाने पर ईडी की निगाह कभी नहीं जाती है! इस समय सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचारी अगर किसी पार्टी में हैं, तो वह भाजपा है।
बहरहाल, जो भाजपा द्वारा पैसे के बल पर ख़रीदा नहीं जा पाता, उन्हें सीधा करने के लिए जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल होता है। और अगर कोई भाजपा के हाथों बिकने को तैयार हो जाता है तो वह अचानक भ्रष्टाचारी से परम सदाचारी बन जाता है! किसी राज्य में यदि भाजपा चुनाव हार भी जाये, तो पूँजी की शक्ति के बूते वह खुलेआम विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करके जीतने वाले विपक्षी दल की सरकार को गिरा देती है। मध्यप्रदेश, गोवा, कर्नाटक और हाल ही में महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में हम इसकी बानगी देख चुके हैं। पूँजीवादी विपक्षी दलों से कोई उम्मीद करना बेकार है। न तो उनमें सड़कों पर उतरने की ताक़त बची है और न ही इच्छाशक्ति। भाजपा के पास पूँजी की अकूत शक्ति है क्योंकि उसके पास पूँजीपति वर्ग का अभूतपूर्व समर्थन है और साथ ही उसके पास एक काडर-आधारित सांगठनिक ढाँचा है। ऊपर से इस समय केन्द्र में और अधिकांश राज्यों में साम-दाम-दण्ड-भेद से बनायी गयी उसकी सरकारें भी हैं। इसके अलावा, न्यायपालिका से लेकर सशस्त्र बलों और नौकरशाही में संघी घुसपैठ भी भाजपा की राह आसान करती है। पूँजीवादी विपक्ष भाजपा की मोदी सरकार के समक्ष कोई अर्थपूर्ण प्रतिरोध खड़ा कर पायेगा, इसकी गुंजाइश लगभग नहीं के बराबर है।
ऐसे में, भाजपा की मोदी सरकार के लिए उस एजेण्डा पर अमल करना अपेक्षाकृत सुगम हो गया है, जिसके लिए भारत के पूँजीपति वर्ग ने दो-दो बार अपनी पूँजी की शक्ति के बूते उसे सत्ता में पहुँचाया है। यह एजेण्डा है पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मन्दी के दौर में मज़दूर वर्ग के शोषण के रास्ते में खड़ी सभी बाधाओं को हटाना ताकि मुनाफ़े की दर को बढ़ाया जा सके व औसत मज़दूरी को घटाया जा सके, पूँजीपतियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की खुली छूट देना और जनता की गाढ़ी कमाई के बूते खड़ी सार्वजनिक सम्पत्तियों को औने-पौने दामों पर अम्बानियों, अडानियों, टाटाओं, बिड़लाओं को सौंपना, जनता के कल्याण पर होने वाले सामाजिक ख़र्च को घटाकर पूँजीपतियों को तमाम सौग़ातें देना ताकि मुनाफ़े की गिरती औसत दर से बिलबिलाते पूँजीपति वर्ग को राहत दी जा सके। ज़ाहिरा तौर पर, ये काम करने के लिए आज पूँजीपति वर्ग के लिए भाजपा ही सबसे उपयुक्त पार्टी है क्योंकि वह एक फ़ासीवादी पार्टी है। वह मज़दूर वर्ग की सबसे बड़ी दुश्मन है जो ‘मज़बूत नेता’, “राष्ट्रवाद”, धर्म आदि के नाम पर देश के टुटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन को खड़ा करके देश की व्यापक मेहनतकश जनता का तानाशाहाना दमन करने की इच्छाशक्ति और निर्णायकता रखती है। ये वे गुण हैं जो भाजपा को अन्य पूँजीवादी पार्टियों से अलग करते हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि अपने इन नापाक मंसूबों में कामयाब होने के लिए भाजपा की मोदी सरकार के लिए यह अनिवार्य है कि वह मेहनतकश जनता और मज़दूर वर्ग के अधिकारों के पक्ष में खड़ी होने वाली हर आवाज़ को एक के बाद एक शान्त कर दे। इसीलिए तमाम जनवादी व नागरिक अधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, कलाकारों आदि पर हमले किये जा रहे हैं, उनपर फ़र्ज़ी मुक़दमे डालकर उन्हें जेलों में डाला जा रहा है। इनमें से अधिकांश लोग प्रगतिशील व जनपक्षधर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी हैं। इन आवाज़ों का दमन करने के पीछे भाजपा की मोदी सरकार का असली निशाना स्वयं मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी है। फ़ासीवादी मोदी सरकार को यह लगता है कि जब एक बार मज़दूरों व आम जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने वाली ताक़तों को शान्त कर दिया जायेगा, तो मज़दूरों और मेहनतकशों के अधिकारों के हनन का काम और भी आसान हो जायेगा। हर तानाशाह को ऐसा ही लगता है, हालाँकि इतिहास उसकी इस ग़लतफ़हमी को दूर कर देता है।
जनवादी और नागरिक अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, कलाकारों आदि की आवाज़ों को आतंकित करके चुप करा देने से जनवादी व नागरिक अधिकारों का संघर्ष ख़त्म नहीं हो जायेगा। जहाँ दमन होता है, वहाँ प्रतिरोध होता ही है। यह समाज का नियम है। कुछ आवाज़ें दबायी जायेंगी तो नयी आवाज़ें खड़ी हो जायेंगी। इतिहास में हमेशा ऐसा ही होता आया है।
लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि जब तक जनवादी व नागरिक अधिकारों का आन्दोलन मध्यवर्गीय दायरों से आगे जाकर एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन में तब्दील नहीं होता, तब तक उसे आगे भी नहीं बढ़ाया जा सकता है। अन्तत: सत्ता उसे कमज़ोर करने में कामयाब ही होगी। निश्चित तौर पर, इक्की-दुक्की आवाज़ें अलग-अलग कोनों से उठती रहेंगी और उन्हें दमनकारी से दमनकारी सत्ता भी कभी पूरी तरह से दबा नहीं सकती है। लेकिन यह भी सच है कि व्यापक जनाधार वाला एक जनवादी-नागरिक अधिकार आन्दोलन खड़ा नहीं होगा, तो वह कमज़ोर और निष्प्रभावी होता जायेगा। ऐसे में, यह समझना ज़रूरी है कि जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के बारे में मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या हो। आख़िर हम मज़दूरों को इस बात से फ़र्क़ क्यों पड़ना चाहिए कि हिमांशु कुमार को जेल में डालने की तैयारियाँ चल रही हैं, या मुहम्मद ज़ुबैर को गिरफ़्तार कर लिया गया, तीस्ता सेतलवाड़ को जेल में डाल दिया गया?
सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने बताया है कि जनवाद पर ही रुक जाना मज़दूर वर्ग का काम नहीं है और वह कभी भी पूँजीवादी जनवाद के बारे में कोई ख़ामख़याली नहीं पालता है। वह जानता है कि पूँजीवादी जनवाद पूँजीवादी तानाशाही का ही दूसरा पहलू है। पूँजीवादी समाज में जैसे-जैसे आप ऊपर से नीचे की ओर, यानी पूँजीपति वर्ग से होते हुए मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग और फिर अन्तत: सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग तक पहुँचते हैं, वैसे-वैसे जनवादी अधिकारों की मात्रा भी घटती जाती है। काग़ज़ों पर बेशक यह लिखा हो सकता है कि सभी नागरिकों के समान क़ानूनी जनवादी अधिकार हैं, क़ानून के समक्ष सभी बराबर हैं, वग़ैरह, लेकिन हर मज़दूर अपने जीवन के अनुभव से जानता है कि इन काग़ज़ी दावों और असलियत में बंगाल की खाड़ी जितना बड़ा अन्तर होता है। एक ठेका मज़दूर, एक रिक्शेवाले, एक घरेलू कामगार, एक पटरीवाले-रेहड़ीवाले के लिए क्या जनवादी अधिकार है? किसी थाने का दारोग़ा या सिपाही उसे थप्पड़ मार सकता है, खड़े-खड़े उसकी इज़्ज़त उतार सकता है। किस क़ानून के अनुसार यह जायज़ होता है? और ये ही दारोग़ा और सिपाही अमीरज़ादों की लम्बी गाड़ियों के सामने सलाम ठोंकते और लम्ब-लेट होते हुए नज़र आते हैं। जब कोई ग़रीब मेहनतकश आदमी जब किसी तथाकथित जनप्रतिनिधि यानी सांसद, विधायक या पार्षद के पास कोई माँग या शिकायत लेकर जाता है, तो उसके साथ क्या होता है? अब इसकी तुलना किसी धनपशु द्वारा की जाने वाली फ़रमाइश से कीजिए! इसे पूरा करने के लिए सांसद, विधायक और पार्षद इनके दरवाज़ों पर पहुँच जाते हैं और न्यायपालिका तक रात के बारह बजे बैठ जाती है! इसलिए हम मज़दूर-मेहनतकश जानते हैं कि पूँजीवादी लोकतंत्र या जनवाद का हमारे लिए क्या और कितना अर्थ है। हमें केवल उतने ही जनवादी अधिकार मिलते हैं जितना कि पूँजीपतियों के बीच बाज़ारू प्रतिस्पर्द्धा को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक होता है, जैसे कि आम तौर पर कोई पूँजीपति हमें बंधुआ या ग़ुलाम नहीं बना सकता, और साथ ही जितने अधिकार पूँजीवादी जनवाद के फटे-चुटे मुखौटे को मुश्किल से पूँजीवाद के चेहरे पर टाँगे रखने के लिए ज़रूरी होते हैं। इसके अलावा, हम अपने जीवन से पूँजीवादी तानाशाही की असलियत को जानते हैं। हमें बेहद सीमित जनवादी अधिकार हासिल होते हैं और उन्हें भी हम तभी लड़कर जीत सकते हैं जब हम संगठित हों, एकजुट हों और जुझारू तरीक़े से लड़ने के लिए तैयार हों।
लेकिन इसके बावजूद हम मज़दूर-मेहनतकश क्या चुनावों व वोट देने के अधिकार को भंग कर देने की वकालत करेंगे? क्या हम सीमित जनवादी अधिकारों को भी छीन लिये जाने का समर्थन करेंगे? क्या हम संसद-विधानसभाओं को भंग कर दिये जाने और आपातकाल जैसी स्थिति थोप दिये जाने का समर्थन करेंगे, जिसमें एकत्र होने, संगठन बनाने, प्रदर्शन करने आदि के अधिकार को औपचारिक तौर पर समाप्त कर दिया जाये? नहीं! क्यों? लेनिन ने ही हमें सिखाया है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि सर्वहारा वर्ग द्वारा पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध अपने वर्ग संघर्ष को विकसित करने और संचालित करने की सबसे अनुकूल ज़मीन पूँजीवादी जनवाद है। ज़ाहिर है कि किसी कुलीन निरंकुश सत्ता, या फिर किसी खुली पूँजीवादी तानाशाही के मुक़ाबले पूँजीवादी जनवाद द्वारा दिये जाने वाले जनवादी स्पेस का इस्तेमाल कर सर्वहारा वर्ग अपने राजनीतिक संघर्ष को अधिक विकसित कर सकता है। निश्चित तौर पर, ये सीमित जनवादी अधिकार अपने आप में सर्वहारा वर्ग का लक्ष्य नहीं होते और न ही वह इसके प्रति कोई अन्धपूजक भाव रखता है। ऐसा करना पूँजीवादी जनवादी विभ्रम और ग़लतफ़हमी को पालना होगा। लेकिन यह कहना कि चूँकि पूँजीवादी जनवाद सर्वहारा वर्ग को सीमित अधिकार ही देता है इसलिए हमें निरंकुश सत्ता या खुली तानाशाही की ओर लौट जाना चाहिए या सामन्तवाद की ओर लौट जाना चाहिए, या फिर यह कहता है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि पूँजीवादी जनवाद है या मूलत: फ़ासीवादी तानाशाही स्थापित हो गयी है, वह “वामपन्थी” बचकानेपन के सबसे मूर्खतापूर्ण संस्करण का शिकार है। ज़ाहिर है कि अगर हमें यूनियन बनाने, एकत्र होने, अपने संगठन बनाने का औपचारिक अधिकार भी हासिल है, तो वह हमारे लिए उपयोगी है, भले ही इन अधिकारों पर अमल के लिए हमें संघर्ष ही क्यों न करना पड़े।
ये जनवादी अधिकार पूँजीवादी व्यवस्था के व्यापक जनता से किये गये वायदे हैं, जिन्हें पूरा करने की क्षमता वह अपने अधिक से अधिक मरणासन्न, परजीवी और प्रतिक्रियावादी होने के साथ खोती जाती है। लेकिन ठीक इसीलिए इन अधिकारों पर ज़िद के साथ ज़ोर देना और उन्हें हासिल करने के लिए संघर्ष करना पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों को और भी ज़्यादा बढ़ाता है और उसे असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाता है। साथ ही, ये सीमित जनवादी अधिकार सर्वहारा वर्ग को जनता के वर्गों में अपने क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन को संगठित करने का किसी निरंकुश सत्ता, सैन्य या फ़ासीवादी तानाशाही के मुक़ाबले ज़्यादा स्पेस देते हैं।
निश्चित तौर पर, यदि इस स्पेस के प्रति कोई सर्वहारा क्रान्तिकारी ज़्यादा ही मोहित हो गया या उसके गुणगान करने लगा, तो उसे अपना क्रान्तिकारी चरित्र खोते और माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) जैसे घृणित संशोधनवादी में तब्दील होते और “संविधान बचाओ” का नारा उठाते ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा। उनमें और राजनीतिक व विचारधारात्मक रूप से विकसित सर्वहारा क्रान्तिकारी में यह अन्तर होता है कि वह सीमित पूँजीवादी जनवादी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए भी उसके प्रति कोई अनालोचनात्मक नज़रिया नहीं रखता, उसकी असलियत को भी जनता के सामने लगातार उजागर करता है, उसकी सीमाओं को बेनक़ाब करता है और व्यापक मेहनतकश जनता को शिक्षित करता है कि पूँजीवादी जनवाद हमारा लक्ष्य नहीं है और हमें इससे आगे बढ़ते हुए समाजवाद, मज़दूर राज, सर्वहारा जनवाद और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व तक जाना होगा, जो कि अमीरों के लिए जनवाद और व्यापक मेहनतकश जनता के लिए सीमित और खण्डित जनवाद नहीं होगा बल्कि व्यापक मेहनतकश जनता के लिए अधिकतम जनवाद और शोषक वर्गों पर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होगा। लेकिन वह यह जानता है कि ठीक इन्हीं कार्यभारों को पूरा करने के लिए उसके लिए सबसे उपयुक्त वातावरण पूँजीवादी जनवाद है न कि किसी प्रकार की निरंकुश सत्ता, सैन्य हुन्ता या फ़ासीवादी तानाशाही (भले ही ऐसी तानाशाही ने पूँजीवादी जनवाद का खोल क़ायम रखा हो)। और ठीक इसीलिए वह जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष की हिमायत करता है, जनवादी स्पेस को बढ़ाने के लिए संघर्ष करता है, उसके लिए जनता के व्यापक जनसमुदायों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करता है।
इसलिए पूँजीवादी जनवाद के बारे में कोई विभ्रम पाले बग़ैर क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग जनवादी व नागरिक अधिकारों की अहमियत को समझता है, अपने वर्ग संघर्ष को आगे ले जाने के लिए उपयुक्त ज़मीन के रूप में उसकी ज़रूरत और महत्व को समझता है।
आज जबकि मोदी सरकार ने देश में एक अघोषित आपातकाल थोप दिया है, जनवादी व नागरिक अधिकारों के लिए उठने वाली हर आवाज़ को एक-एक करके दबाया जा रहा है और पूँजीवादी विपक्ष तक को नहीं बख़्शा जा रहा है, तो मोदी सरकार के इरादे साफ़ हैं। साथ ही यह भी साफ़ है कि मध्यवर्गीय दायरों में क़ैद रहते हुए जनवादी-नागरिक अधिकार आन्दोलन एक धीमी मौत मरने के लिए अभिशप्त है। इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि ऐसे तमाम प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी व कार्यकर्ता नहीं हैं, जो बिना डरे मोदी सरकार के दमन और तानाशाहाना रवैये के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं और डटे हुए हैं। लेकिन अगर जनवादी व नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की ख़ातिर एक व्यापक जनाधार रखने वाला क्रान्तिकारी जनान्दोलन नहीं खड़ा होगा तो ऐसे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों व कार्यकर्ताओं की व्यक्तिगत वीरता और साहस बहुत काम नहीं आयेगा। मोदी सरकार द्वारा जनता के जनवादी अधिकारों पर होने वाले हमलों के विरुद्ध आज एक जुझारू जनवादी व नागरिक अधिकार आन्दोलन खड़ा करने की ज़रूरत है, जिसका मेहनतकश जनता में व्यापक आधार हो।
जनवादी और नागरिक अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए एक जुझारू जनान्दोलन खड़ा करने का काम आज मज़दूर वर्ग अपने नेतृत्व में ही कर सकता है। निश्चित तौर पर, इसमें ऐसे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की भी महती भूमिका होगी जो कि निडरता के साथ फ़ासीवादी सत्ता का मुक़ाबला करने को तैयार हों। हालिया वर्षों में यह देखने में आया है कि अधिकांश प्रगतिशील जनवादी अधिकार संगठन अधिक से अधिक कमज़ोर और निष्क्रिय होते गये हैं। वजह यह है कि उनके प्रमुख नेतृत्वकारी सदस्यों को ही सलाख़ों के पीछे डाल दिया गया है या उन्हें न्यायपालिका व प्रशासन के ज़रिए लगातार सताया जा रहा है। कुछ स्वयंसेवी संगठन जो कि देशी-विदेशी फ़ण्डिंग एजेंसियों से पैसा लेते थे और मानवाधिकारों आदि के बारे में भी कुछ सक्रिय रहते थे, उनकी फ़ण्डिंग के स्रोतों से उन्हें काट दिया गया है और एनजीओ जैसी सुधारवादी संस्थाएँ इस प्रकार के हमले के समक्ष कुछ नहीं कर सकती हैं। वैसे भी ऐसे एनजीओ संगठनों का काम वास्तव में कोई बुनियादी परिवर्तन करना नहीं होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था की ही हिफ़ाज़त करना होता है। लेकिन फ़ासीवादी सत्ता के लिए तात्कालिक तौर पर वे भी कुछ असुविधा पैदा कर रहे हैं। व्यवस्था के इन आपसी अन्तरविरोधों के कारण ऐसे एनजीओ भी मोदी सरकार के निशाने पर आ रहे हैं। लुब्बेलुबाब यह कि एक ऐसा जनवादी अधिकार आन्दोलन व ऐसे जनवादी अधिकार संगठन जिनका व्यापक मेहनतकश जनता में कोई आधार न हो, भले ही वे कितने ही प्रगतिशील बुद्धिजीवियों व कार्यकर्ताओं द्वारा चलाये जाते हों, फ़ासीवादी मोदी सरकार के हमलों के समक्ष टिक नहीं सकते हैं। उनका मुक़ाबला करने के लिए सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में एक जुझारू जनान्दोलन की आवश्यकता है, जो कि व्यापक मेहनतकश जनता में मज़बूत आधार रखता हो।
ऐसे आन्दोलन के निर्माण के लिए सबसे पहले मज़दूर वर्ग के उन्नत तत्वों को स्वयं यह समझना होगा कि जनवादी अधिकारों के प्रति हमारा नज़रिया क्या है और हमें क्यों जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष को नज़रन्दाज़ नहीं करना चाहिए। दूसरा, हमें व्यापक मेहनतकश जनता के बीच, जिसमें कि मध्य मध्यवर्ग व निम्न मध्यवर्ग भी शामिल हैं, इस बात का सघन और व्यापक प्रचार करना होगा कि जनवादी व नागरिक अधिकारों के प्रति तटस्थता रखना आत्मघाती है। हमारा इस बात से सीधा सरोकार बनता है कि हिमांशु कुमार, मुहम्मद ज़ुबैर, रूपेश कुमार, तीस्ता सेतलवाड़ आदि जैसे लोगों को फ़ासीवादी सत्ता विविध रूपों में सता रही है, प्रताड़ित कर रही है। जब हम फ़ासीवादी सत्ता द्वारा दमन के इन क़दमों पर चुप रहते हैं, तो एक प्रकार से हम उसे मौन समर्थन देते हैं, फ़ासीवादी सत्ता के “दमन के अधिकार” की हिमायत करते हैं और उसे वैधीकरण प्रदान करते हैं। यही दमन का चक्का कल मज़दूर आन्दोलन पर, छात्रों-युवाओं पर, स्त्रियों पर, दलितों पर, ग़रीब किसानों पर भी चलेगा। सर्वहारा वर्ग एक राजनीतिक वर्ग यानी पूँजीपति वर्ग की सत्ता का ध्वंस कर अपनी सत्ता को स्थापित करने का लक्ष्य रखने वाला वर्ग तभी बन सकता है, जब वह हर जगह और कहीं भी होने वाले दमन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाये। यह इस बात की कसौटी है कि वह महज़ अपने विशिष्ट आर्थिक हितों व अधिकारों लिए नहीं, बल्कि अपने आम राजनीतिक हितों के अनुसार अपने संघर्ष की रणनीति व आम रणकौशल तय करता है। केवल तभी वह व्यापक मेहनतकश जनता का अगुवा बन सकता है और पूँजीपति वर्ग के वर्चस्व और उसकी सत्ता को चुनौती दे सकता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार जनता के जनवादी अधिकारों का कहीं भी दमन करे, तो हम मज़दूर अपने संगठनों के ज़रिए उसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरें। इसी से तीसरा कार्यभार निकलता है जो कि यह है कि हम ऐसे जुझारू जनवादी अधिकार संगठनों को खड़ा करें, जो व्यापक मेहनतकश जनता के बीच गाँव-गाँव, शहर-शहर, गली-गली, बस्ती-बस्ती सघन प्रचार अभियान चलायें और जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए एक जनान्दोलन को खड़ा करने की ज़रूरत पर एक आम राय का निर्माण करे।
संघर्ष के तमाम मोर्चों पर अगुवा भूमिका अपने हाथों में लेने के साथ सर्वहारा वर्ग को आज जनवादी व नागरिक अधिकार आन्दोलन में भी अगुवा भूमिका लेनी होगी। यह न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग के लिए अपरिहार्य है, बल्कि यह जनवादी व नागरिक अधिकार आन्दोलन के अस्तित्व के लिए भी अनिवार्य है।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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