क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-3 : कुछ बुनियादी अवधारणाएँ जिन्हें समझना ज़रूरी है – 2

अभिनव

पिछली बार हमने कुछ बेहद बुनियादी अवधारणाओं को समझने के साथ शुरुआत की थी, मसलन, उत्पादक शक्तियाँ, उत्पादन सम्बन्ध, मूलाधार या आर्थिक आधार, अधिरचना, इत्यादि। साथ ही, हमने यह भी समझा था कि आर्थिक आधार में निहित बुनियादी अन्तरविरोध क्या है, अधिरचना में निहित बुनियादी अन्तरविरोध क्या है और साथ ही आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध किस प्रकार समूचे मानव समाज की गति को व्याख्यायित करता है। हमने यह भी समझा था कि आर्थिक आधार में निहित आर्थिक अन्तरविरोध समाज का बुनियादी अन्तरविरोध होता है और इस अन्तरविरोध की प्रकृति के आधार पर ही समाज के चरित्र का निर्धारण होता है और यह कि यह बुनियादी अन्तरविरोध जब अपने आपको वर्गीय स्वरूप में अभिव्यक्त करता है, तो वह वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है और यही इतिहास या समाज को गति देने वाली तात्कालिक या अव्यवहित प्रेरक शक्ति होता है। इस बार हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि प्रकृति और समाज के विषय में मनुष्य का ज्ञान किस प्रकार विकसित होता है।
यह समझना क्यों ज़रूरी है? यह समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि चीज़ों को बदलने के लिए चीज़ों को समझना होता है। यदि हम मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी के शोषण व उत्पीड़न पर आधारित समाज को बदलना चाहते हैं, तो हमें मौजूदा समाज को समझना होगा, हमें उसके इतिहास का ज्ञान हासिल करना होगा। प्रकृति को बदलने पर भी यह बात लागू होती है। साथ ही, बिना समाज और प्रकृति को बदलने का प्रयास किये, बिना प्रत्यक्ष रूप से उसके सम्पर्क में आये, उसे जाना भी नहीं जा सकता है। इसलिए चाहे प्रकृति के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का प्रश्न हो या फिर समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का, उसके विषय में हमारे ज्ञान के विकास की प्रक्रिया को गहराई से समझना बेहद ज़रूरी है। इस बार हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे।

ज्ञान के प्रति मज़दूर वर्ग का वैज्ञानिक नज़रिया

मनुष्य का ज्ञान प्रकृति के विषय में हो सकता है, समाज के बारे में हो सकता है, या फिर वह विचारों के बारे में हो सकता है। समाज प्रकृति का ही विस्तार होता है। प्रकृति के विकास की एक विशिष्ट मंज़िल में ही जीवन का विकास हुआ। जीवन के विकास की प्रक्रिया में ही मनुष्य की प्रजाति का उद्भव और विकास हुआ। मनुष्य के विकास के साथ ही विचार का एक उन्नत मंज़िल में विकास हुआ। इस रूप में प्रकृति, समाज और विचार के जगत के विकास में आम तौर पर प्रकृति का पहलू बुनियादी है। हमारे सामने जो समूचा भौतिक जगत या यथार्थ मौजूद है, उसके ये ही तीन हिस्से हैं : प्रकृति, उसके विस्तार के रूप में समाज और उन दोनों के विस्तार के रूप में विचार। इन तीन हिस्सों में ही हमारा समूचा यथार्थ अस्तित्वमान होता है। नतीजतन, हमारा ज्ञान भी इन तीन पहलुओं के विषय में ही विकसित होता है।
हमने ऊपर कहा कि चीज़ों को बदलने के लिए चीज़ों को समझना होता है। लेकिन चीज़ों को समझा कैसे जाता है? क्या विद्वान लोग प्रकृति और समाज और साथ ही विचार जगत के बारे में ज्ञान को अपने अध्ययन कक्षों में पैदा कर लेते हैं? क्या ज्ञान आसमान से टपकता है? यानी क्या इस भौतिक दुनिया से ऊपर कोई ईश्वरीय सत्ता है, जो ज्ञान को जन्म देती है? कुछ लोगों का मानना था कि ज्ञान व्यक्ति अपने दिमाग़ से पैदा कर लेता है। ऐसे लोगों का मानना था कि ज्ञान मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होता है। वहीं कुछ दूसरे लोगों का मानना है कि दुनिया वास्तव में ईश्वर या किसी दिव्य विचार की ही एक अभिव्यक्ति है और सभी चीज़ों के बारे में ज्ञान किसी ईश्वरीय नियम द्वारा पहले से तय है और हमें बस उस धार्मिक या आध्यात्मिक नियम को समझ लेना है और फिर हम हर चीज़ के बारे में ज्ञान को हासिल कर सकते हैं। जो ज्ञान को मनुष्य के मस्तिष्क की पैदावार मानते हैं उन्हें मनोगत भाववादी कहा जाता है। जो ज्ञान का स्रोत किसी ईश्वरीय या आध्यात्मिक सत्ता में देखते हैं, जो भौतिक विश्व से पहले और उससे परे कहीं मौजूद थी, उन्हें वस्तुगत भाववादी कहा जाता है। ये दोनों ही भाववादी सोच को मानते हैं : यानी ये भौतिक यथार्थ को बुनियादी और प्राथमिक नहीं मानते हैं, बल्कि विचार को प्राथमिक मानते हैं। पहला इस विचार का स्रोत ईश्वर या अध्यात्म में देखता है तो दूसरा इस विचार का स्रोत आदमी के मन को या दिमाग़ को मानता है।
भाववादी सोच यह नहीं बता पाती कि ज्ञान आख़िर पैदा कहाँ से और कैसे होता है। मज़दूर वर्ग का नज़रिया भौतिकवादी होता है। भौतिकवादी नज़रिया सही और वैज्ञानिक नज़रिया होता है। ज्ञान के बारे में भौतिकवादी नज़रिया क्या है?
भौतिकवादी नज़रिया साफ़ तौर पर बताता है कि विचार भौतिक पदार्थ से स्वतंत्र और उससे इतर कहीं मौजूद नहीं होता। उल्टे विचार पदार्थ के विकास की ही एक उन्नत अवस्था का गुण होता है, यानी मस्तिष्क का गुण होता है। इस मस्तिष्क के पैदा होने से पहले विचार का कोई अस्तित्व नहीं था। भौतिक यथार्थ चेतना से स्वतंत्र और उससे बाहर मौजूद है और चेतना इसी भौतिक यथार्थ का (सही या ग़लत, या, आंशिक तौर पर सही या ग़लत) प्रतिबिम्बन या छाया होती है। मसलन, अगर आपने कभी शेर नहीं देखा तो भी शेर का वजूद सवालों से परे है! शेर आपके देखने से नहीं पैदा होता बल्कि शेर होता है इसलिए आप उसे देखते हैं और उसके बारे में आपका ज्ञान पैदा होता है!
लेकिन मज़दूर वर्ग ज्ञान के बारे में केवल भौतिकवादी ही नहीं होता, बल्कि वह द्वन्द्ववादी भी होता है। इसका क्या मतलब है?
इसका मतलब यह है कि दुनिया को जानना और बदलना आपस में जुड़ा हुआ है। न तो दुनिया को बदले बिना दुनिया को जाना जा सकता है और न ही उसे जाने बिना उसे योजनाबद्ध तौर पर बदला जा सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि दुनिया यानी भौतिक यथार्थ का विचारों से स्वतंत्र अस्तित्व तो है, मगर उसे जानना सम्भव नहीं है क्योंकि हमारी आँखें, हमारी नाक, कान, जीभ, त्वचा आदि इन्द्रियाँ दुनिया के बारे में हमें सही बता रही हैं या नहीं, इसे सुनिश्चित करने का कोई तरीक़ा नहीं है। ऐसे लोगों को अज्ञेयवादी कहा जाता है। वे अस्तित्व और चेतना की एकता को नहीं समझते। ‘अज्ञेय’ का अर्थ होता है, जिसे न जाना जा सके। लेकिन मज़दूर वर्ग का दर्शन अज्ञेयवाद का विरोध करता है और बताता है कि दुनिया को जाना जा सकता है। दुनिया के बारे में हमारा ज्ञान सही है या नहीं है, इसकी कसौटी भी व्यवहार ही है। एक अज्ञेयवादी दार्शनिक ने सवाल किया : “मेरी आँखें मुझे बता रही हैं कि मेरे सामने एक सेब रखा है, लेकिन मैं पक्का कैसे मानूँ कि वह सेब ही है? यह पक्का कैसे होगा कि मेरी इन्द्रियाँ यानी आँखें मुझे सही बता रही हैं?” मज़दूर वर्ग के दर्शन ने इसका जवाब दिया : “सेब को खाकर उसका आकार बदल दीजिए, आपको पता लग जायेगा कि वह सेब है या नहीं!” मज़दूर वर्ग अज्ञेयवादियों के उलट यह मानता है कि दुनिया को जाना जा सकता है। लेकिन मज़दूर वर्ग यह भी मानता है कि दुनिया सतत् गतिमान है और उसे देख पाने की हमारी इन्द्रियों की भी एक सीमा होती है। इसलिए मज़दूर वर्ग यह जानता है और मानता है कि हमारा ज्ञान हमेशा अधूरा होता है, सापेक्ष होता है, और सतत् गतिमान होता है। इसलिए निरपेक्ष ज्ञान कुछ भी नहीं होता, सिवाय सापेक्ष ज्ञानों की अनन्त श्रृंखला के। अज्ञेयवादी लोग भौतिक जगत और उसके बारे में ज्ञान के सम्बन्ध को तोड़ देते हैं, उनकी एकता को नहीं समझते।
वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कि दुनिया को मूलत: अपरिवर्तनशील मानते हैं। उनका मानना है कि दुनिया में सभी परिवर्तन परिमाणात्मक होते हैं यानी वे चीज़ों में घटती या बढ़ती के रूप में होते हैं या फिर सिर्फ़ उनकी अवस्थिति (पोज़ीशन) में बदलाव के रूप में होते हैं। चूँकि पदार्थ में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता, इसलिए दुनिया उनके लिए गतिमान नहीं होती और उसके बारे में ज्ञान भी गतिमान नहीं होता। ऐसे लोगों को अधिभूतवादी कहा जाता है। यानी वे लोग जो गुणात्मक परितर्वन और गति में यक़ीन नहीं करते और परिमाणात्मक परिवर्तन के पीछे भी किसी बाह्य शक्ति को देखते हैं, चीज़ों के भीतर मौजूद आन्तरिक अन्तरविरोध को नहीं।
लेकिन सच यह है कि दुनिया में हर चीज़ अपने आन्तरिक अन्तरविरोध से ही बनती है और उस आन्तरिक अन्तरविरोध के कारण ही सतत् गतिमान रहती है। और इसी प्रकार हर चीज़ के बारे में ज्ञान भी सतत् गतिमान रहता है, स्थिर नहीं। आप किसी भी चीज़ के बारे में कोई अन्तिम निरपेक्ष सत्य नहीं तलाश सकते और यदि कोई अन्तिम निरपेक्ष सत्य है तो वह केवल यही है कि हर चीज़ सतत् गतिमान है और उसके बारे में इन्सान का ज्ञान भी सतत् गतिमान है।
अब अपने बुनियादी सवाल पर वापस आते हैं : आख़िर मनुष्य का ज्ञान विकसित कैसे होता है? जैसा कि हमने पहले बताया कि यदि किसी चीज़ को बदलना है, तो उसे जानना और उसे समझना ज़रूरी है। मिसाल के तौर पर, अगर हम मज़दूर वर्ग के शोषण पर टिके मौजूदा पूँजीवादी समाज को बदलना चाहते हैं, तो हमें उससे समझना होगा। लेकिन समझने का काम अध्ययन कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता है, हालाँकि जानने की प्रक्रिया में अध्ययन का महत्व भी बहुत बुनियादी है। आगे हम देखेंगे क्यों और कैसे?
चीज़ों को जानने के लिए उनके सम्पर्क में आना ज़रूरी है। निश्चित तौर पर, आज हमें दुनिया की तमाम चीज़ों के बारे में, लोगों के बारे में, जगहों के बारे में तमाम जानकारियाँ किताबों से, टेलीविज़न से, रेडियो से, अख़बारों से (हालाँकि पूँजीपति वर्ग के नियंत्रण में मीडिया के ये तमाम रूप आज ज्ञान से ज़्यादा अज्ञान फैलाने के उपकरण हैं!) मिल सकती हैं। हमारे लिए यह अप्रत्यक्ष ज्ञान है। लेकिन हमारे लिए जो अप्रत्यक्ष ज्ञान है, यानी जो हमारे द्वारा इन चीज़ों, लोगों, जगहों आदि के सम्पर्क में आने से हमें नहीं मिला है, वह भी किसी न किसी का प्रत्यक्ष ज्ञान है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं हो सकता जो किसी का प्रत्यक्ष ज्ञान न हो, चाहे वह वस्तुओं के बारे में हो, व्यक्तियों के बारे में हो या जगहों के बारे में। वास्तव में, किसी भी वस्तु या प्रक्रिया के बारे में कोई भी ज्ञान मूलत: प्रत्यक्ष ज्ञान ही होता है, भले ही वह हमें तमाम माध्यमों से अप्रत्यक्ष रूप में मिल जाता हो। इसलिए ज्ञान का स्रोत सामाजिक व्यवहार होता है। जब मनुष्य अपने जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए प्रकृति से सम्पर्क में आता है, जब वह समाज के वर्ग संघर्ष में सचेतन या अचेतन तौर पर हिस्सा लेता है और जब वह विचारों में परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक प्रयोग करता है, तो ही वह प्रकृति, समाज और विचार जगत के बारे में अपने ज्ञान को पैदा और विकसित कर सकता है। इसके अलावा, दुनिया को जानने का और कोई तरीक़ा नहीं है।
जब इन्सान अपने जीवन के उत्पादन व पुनरुत्पादन की भौतिक आवश्यकताओं और पूर्वशर्तों को पूरा करने के लिए प्रकृति का रूपान्तरण करता है (क्योंकि उत्पादन मूलत: प्रकृति का रूपान्तरण करके ही सम्भव है) तो वह क़दम-दर-क़दम प्रकृति के बारे में अपने ज्ञान को विकसित करता जाता है। खेती के बारे में ज्ञान की शुरुआत खेती से होती है, खेती के बारे में लिखी गयी किताबों से नहीं! तमाम चीज़ों को बनाने का ज्ञान भी उत्पादन की प्रक्रिया यानी कि प्रकृति से अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया से ही पैदा हुआ है, चाहे वे धातु से बनती हों, लकड़ी से बनती हों, चाहे उनमें खनिज व रसायनों का उपयोग होता हो, या फिर किसी अन्य वस्तु का, क्योंकि हर उत्पाद के निर्माण के लिए आवश्यक कच्चा माल हमें प्रकृति से ही मिलता है। आज के युग में जो ऐसे उत्पाद बन रहे हैं, जो किसी उपयोगी सेवा या प्रभाव के रूप में हों और जिन्हें छुआ न जा सकता हो, उनका उत्पादन भी प्रकृति से अन्तर्क्रिया के बिना सम्भव नहीं है, भले ही प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा नज़र न आता हो। मसलन, एक कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर। लेकिन एक कम्प्यूटर सॉफ़्टवेयर को बनाने के लिए कम्प्यूटर हार्डवेयर की भी आवश्यकता होती है, जिसके निर्माण के लिए तमाम कच्चे मालों की आवश्यकता होती है, जो कि मूलत: प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं। जैसे-जैसे उत्पादन विकसित होता है, वैसे-वैसे मनुष्य का प्रकृति के बारे में ज्ञान भी विकसित होता है। इसलिए भौतिक यथार्थ के बुनियादी पहलू यानी प्रकृति के विषय में मनुष्य का ज्ञान सामाजिक व्यवहार के बुनियादी रूप, यानी उत्पादन के लिए संघर्ष के ज़रिए पैदा होता है और विकसित होता है।
लेकिन उत्पादन के विकास के साथ ही समाज भी नयी मंज़िलों में प्रवेश करता है। जब उत्पादन बेहद कम विकसित था और आदिम क़बीले शिकार और कन्द-मूल एकत्र करने और थोड़ी-बहुत खेती के ज़रिए केवल इतना ही पैदा कर पाते थे कि मुश्किल से क़बीले के सभी सदस्यों को खाने योग्य नसीब हो जाये, तो क़बीलों के भीतर वर्ग नहीं पैदा हो सकते थे। कुछ लोग उत्पादन के कुछ अधिक हिस्से पर क़ब्ज़ा तभी कर सकते हैं, जबकि उत्पादन इतना हो रहा हो कि एक सामाजिक अधिशेष बचता हो, यानी उत्पादन की वह मात्रा जो कि ख़र्च उत्पादन के साधनों और श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के बाद बेशी बचता हो। ऐसे में, मुट्ठीभर लोग इस अतिरिक्त उत्पादन पर अपना नियंत्रण और फिर स्वामित्व स्थापित करते हैं और कालान्तर में इसी के बूते वे अपने आपको उत्पादक श्रम से काट लेते हैं। जिनके पास सामाजिक अधिशेष पर क़ब्ज़ा होता है, वे भी धीरे-धीरे उत्पादन के साधनों और भूमि को भी निजी सम्पत्ति में तब्दील करने में कामयाब होते हैं। जिनके पास उत्पादन के साधनों के बड़े हिस्से पर नियंत्रण व स्वामित्व हो और जिनके पास सामाजिक अधिशेष पर क़ब्ज़ा हो, वे ही समाज में शासक वर्ग का रूप लेते हैं, जबकि बाक़ी आबादी शासित आबादी का स्वरूप लेती है, जिसमें प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग और बीच के ऐसे वर्ग शामिल होते हैं, जो सीधे शासक वर्ग भी नहीं हैं और सीधे प्रत्यक्ष उत्पादन में भी नहीं लगे हैं, बल्कि बौद्धिक व अन्य प्रकार के पेशों में लगे होते हैं या शासक वर्ग के अहलकार होते हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ अतिरिक्त उत्पादन के बिना समाज का वर्गों में विभाजन सम्भव नहीं है। जब समाज में वर्गों का उदय होता है, तो शासक वर्ग को अपने प्रभुत्व को क़ायम रखने के लिए एक ऐसे उपकरण की ज़रूरत होती है, जो कि शासित वर्गों को बलपूर्वक अपने मातहत रखे और साथ ही उन पर विचारधारात्मक प्रभाव स्थापित करने में एक भूमिका निभाये। इसी के साथ, सेना, सशस्त्र बलों, पुलिस, अफ़सरशाही, न्यायपालिका, आदि अस्तित्व में आते हैं। इन संस्थाओं को ही सामग्रिक तौर पर राज्यसत्ता कहा जाता है। इसलिए जैसे-जैसे उत्पादक शक्तियाँ उत्पादक वर्गों द्वारा प्रकृति के रूपान्तरण के साथ विकसित होती हैं और जैसे-जैसे उत्पादन बढ़ता है और सामाजिक अधिशेष पैदा होने की मंज़िल आती है, वैसे-वैसे वर्गों के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया शुरू होती है, वर्ग समाज अस्तित्व में आते हैं, वर्ग संघर्ष शुरू होता है और राज्यसत्ता का उदय होता है।
वर्ग संघर्ष में हिस्सेदारी के साथ शासक वर्ग और शासित वर्ग समाज के बारे में अपना ज्ञान विकसित करते हैं। ज़ाहिर है इस ज्ञान का सीधे-सीधे एक वर्ग चरित्र होता है। शासक वर्ग का “ज्ञान” वास्तव में सच्चाई को छिपाने का काम करता है यानी विचारधारात्मक होता है, क्योंकि उनका हित शोषण, उत्पीड़न, अन्याय और ग़ैर-बराबरी को बचाने में निहित होता है। इसके उलट मज़दूर वर्ग का समाज के बारे में ज्ञान सच्चाई की नुमाइन्दगी करता है क्योंकि उसका हित शोषण, उत्पीड़न, अन्याय और ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने में होता है और इसलिए वह वैज्ञानिक होता है। इसलिए समाज के बारे में भी सही मायने में ज्ञान वर्ग संघर्ष द्वारा सर्वहारा वर्ग अपने ज्ञान के विकास के साथ ही करता है। सर्वहारा वर्ग ही यह कर सकता था क्योंकि वह हर प्रकार के उत्पादन के साधनों से वंचित होता है, “दोहरे अर्थों में मुक्त” (यानी अपनी श्रमशक्ति किसी भी पूँजीपति को बेचने के लिए मुक्त और उत्पादन के साधनों से मुक्त!) होता है, उन्नत औद्योगिक उत्पादन में लगा होता है, बड़े पैमाने के सामाजिक उत्पादन में लगा होता है और उसके अन्दर संकीर्ण बौद्धिक सीमाओं का अतिक्रमण करने की क्षमता होती है। यह सर्वहारा वर्ग ही है जिसके अतिरिक्त श्रम को हड़पकर पूँजीपति वर्ग मुनाफ़ा कमाता है और यह मुनाफ़ा ही पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी समाज का आधार होता है। लेकिन सर्वहारा वर्ग से पहले भी अपने युग और अपने वर्ग की प्रकृति की सीमाओं के भीतर दमित और शोषित वर्गों द्वारा शोषक और शासक वर्गों के विरुद्ध विद्रोह और उनके विरुद्ध उनका वर्ग संघर्ष ही समाज के विषय में ज्ञान का स्रोत रहा है।
सर्वहारा वर्ग पहली वैश्विक और सर्वाधिक गतिमान उत्पादन व्यवस्था यानी पूँजीवाद के साथ अस्तित्व में आता है और इसलिए वह इतिहास का सर्वाधिक क्रान्तिकारी वर्ग है क्योंकि हर प्रकार की निजी सम्पत्ति से वंचित होने के कारण उसमें एक सार्वभौमता है और निजी सम्पत्ति की व्यवस्था को समाप्त कर सामूहिक सम्पत्ति पर आधारित एक अधिक वैज्ञानिक व्यवस्था यानी समाजवाद को स्थापित करने में व्यापक मेहनतकश जनता को नेतृत्व देने का काम वही कर सकता है। लेकिन उससे पहले अपने-अपने युग में दासों, किसानों, दस्तकारों और एक युग में विशेष तौर पर क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग के वर्ग संघर्ष ने भी ज्ञान को अपने युग की सीमाओं में विकसित किया। सर्वहारा वर्ग इस समूचे ज्ञान का सच्चा वारिस होता है और वही इसके वर्ग पूर्वाग्रहों या संकीर्ण सीमाओं का निषेध करके उसे आगे विकसित भी कर सकता है। आज पूँजीपति वर्ग शासक और दमनकारी वर्ग बनने के साथ वह क्रान्तिकारी भूमिका खो चुका है जो कि उसमें तब तक थी जब तक कि वह स्वयं एक शासित वर्ग के रूप में सामन्तवाद से लड़ रहा था। जब वह स्वयं शासक वर्ग बन गया तो वह स्वयं एक दमनकारी और उत्पीड़क वर्ग बन गया और अब वह समाज और उसके बारे में ज्ञान को आगे ले जाने का अभिकर्ता (एजेण्ट) नहीं रह गया है, बल्कि यथास्थिति बनाये रखने, यानी इतिहास को पीछे ले जाने वाली शक्ति बन चुका है, यानी एक प्रतिक्रियावादी शक्ति बन चुका है।
आज समाज और उसके विषय में ज्ञान को विकसित करने का काम इतिहास का अब तक का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग यानी सर्वहारा वर्ग ही अपने वर्ग संघर्ष के ज़रिए कर सकता है। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि ज्ञान का दूसरा सबसे अहम स्रोत है सामाजिक व्यवहार का यह दूसरा रूप, यानी, वर्ग संघर्ष। वर्ग संघर्ष आर्थिक रूपों में ही नहीं होता, बल्कि राजनीतिक और विचारधारात्मक रूपों में भी होता है और समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए वस्तुत: राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष विशेष महत्व रखते हैं, हालाँकि वर्ग संघर्ष के ये तीनों ही रूप नाभिनालबद्ध रूप से जुड़े हुए हैं। ज्ञान का यह रूप केवल समाज के रूपान्तरण के लिए किये जाने वाले संघर्ष के साथ ही विकसित हो सकता है और पलटकर यह ज्ञान ही समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का मार्गदर्शन कर सकता है और इसी प्रक्रिया में अपने आपको लगातार उन्नततर मंज़िलों तक विकसित कर सकता है।
इसके अलावा, मनुष्य अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के ज़रिए अपने विचारों की दुनिया का भी क्रान्तिकारी रूपान्तरण करता है। ये वैज्ञानिक प्रयोग केवल विज्ञान की प्रयोगशालाओं में ही नहीं होते हैं, बल्कि स्वयं उत्पादन और वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में भी होते हैं। वैज्ञानिक प्रयोग वास्तव में विचारों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए होते हैं। मिसाल के तौर पर, समाजवादी रूस में जब मज़दूरों की सत्ता क़ायम थी तो वहाँ मज़दूरों ने पूँजीवादी विशेषज्ञों के प्रयोग और उत्पादन को तकनीकी रूप से विकसित करने के एकाधिकार को चुनौती दी और इस काम को ख़ुद अपने हाथों में लिया। इस प्रकार मज़दूरों ने उत्पादन में मौजूद पूँजीवादी श्रम विभाजन पर चोट की और मानसिक और शारीरिक श्रम के विभाजन पर चोट की। यह उत्पादन के लिए जारी संघर्ष में एक वैज्ञानिक प्रयोग था जिसने मज़दूरों की चेतना को उन्नत किया। चीन में भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और विशेषकर माओ के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों ने उत्पादन की प्रक्रिया में महान वैज्ञानिक प्रयोग किये और ताचाई और ताचिंग जैसे प्रयोग कृषि व उद्योग के उत्पादन में खड़े किये, जिन्होंने न सिर्फ़ उत्पादकता को तेज़ी से बढ़ाया बल्कि प्रयोग और नवोन्मेष में पूँजीवादी विशेषज्ञों व बुद्धिजीवियों के एकाधिकार पर चोट करते हुए मानसिक और शारीरिक श्रम विभाजन पर चोट की। उसी प्रकार, समाज में जारी वर्ग संघर्ष में भी सर्वहारा वर्ग ने कई प्रयोग किये जिनमें मज़दूर कमेटियों की स्थापना, सोवियतों को व्यवस्थित करना, कम्यूनों की स्थापना करना, आदि शामिल हैं। वर्ग संघर्ष में इन वैज्ञानिक प्रयोगों ने सर्वहारा वर्ग के विचारों का क्रान्तिकारी रूपान्तरण किया। समाजवादी समाज में वैज्ञानिक प्रयोगों की प्रक्रिया में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्ग की भागीदारी बढ़ती जाती है और वैज्ञानिक प्रयोग भी जनसमुदायों का मसला बन जाता है क्योंकि अब मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के पास भी वह समय होता है जिससे कि वह वैज्ञानिक प्रयोगों में हिस्सेदारी कर सके। वह पूँजीवादी शोषण, उत्पीड़न और पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए 10-12 घण्टे कमरतोड़ मेहनत से मुक्त होता है। उसके पास अब इन वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए समय, इच्छा और रचनात्मकता होती है। अब वह जानता है कि देश की समूची सम्पदा पर एक वर्ग के रूप में उसका सामूहिक अधिकार है और वह पूँजीपतियों के एकाधिकार के मातहत नहीं है।
लेकिन पूँजीवादी समाज में एक वर्ग के रूप में मज़दूर वर्ग और एक समूह के रूप में समूचे मेहनतकश जनसमुदाय की वैज्ञानिक प्रयोगों में हिस्सेदारी नहीं बनती है क्योंकि एक पूँजीवादी समाज में आम मेहनतकश आबादी का जीवन वैसा नहीं होता कि वह वैज्ञानिक प्रयोगों में हिस्सेदारी कर सके, चाहे वे उत्पादन की प्रक्रिया में हों, वर्ग संघर्ष में हों, या फिर वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में होता हो। पूँजीवादी समाज में वैज्ञानिक प्रयोग या तो पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी बुद्धिजीवी भागीदारी करते हैं, या फिर मज़दूर वर्ग की पार्टी। जहाँ तक पूँजीवादी बुद्धिजीवियों का प्रश्न है, वे पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं और वैज्ञानिक प्रयोग भी वे पूँजीपति वर्ग के हितों के लिए और उनके टुकड़ों पर पलते हुए करते हैं। जहाँ तक निम्न-पूँजीवादी व मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का प्रश्न है, वे आम तौर पर व्यक्तिवाद का शिकार होते हैं। मज़दूर वर्ग की ताक़त उसकी सामूहिकता होती है। एक अकेले मज़दूर की पूँजीवादी समाज में कोई ताक़त नहीं होती है और केवल अपनी एकता और संगठन के बल पर ही वह पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता से जीत सकता है। लेकिन एक बुद्धिजीवी का जीवन ही ऐसा होता है कि उसको ऐसा लगता है कि अपने जीवन में वह सबकुछ अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा या अपने व्यक्तिगत ज्ञान के बूते करता है। प्रतीतिगत तौर पर, जीवन में कोई भी उपलब्धि या पद वह अपनी व्यक्तिगत क्षमता के बूते हासिल करता है। उसकी अलगावग्रस्त जीवनस्थिति बिरले ही उसे समझने की क्षमता देती है कि उसकी क़ाबिलियत, उसका ज्ञान और उसकी प्रतिभा मूलत: और मुख्यत: समाज में निर्मित होती है और उसकी बुनियाद में भी मज़दूर वर्ग का श्रम होता है। उसके भौतिक अस्तित्व की सारी ज़रूरतें भी मेहनतकश वर्ग पूरी करते हैं और उसके ज्ञान का स्रोत भी सामाजिक व्यवहार ही होता है। इसलिए अगर ऐसे निम्न-पूँजीवादी यानी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी मार्क्सवाद को भी काग़ज़ी तौर पर स्वीकार करते हैं, तो मज़दूर वर्ग की सामूहिकता को स्वीकार करने, संगठन के अनुशासन को स्वीकार करने और क्रान्ति की ज़रूरतों के मद्देनज़र अपनी व्यक्तिगत पसन्द या नापसन्द की क़ुर्बानी देने में उन्हें दिक़्क़त होती है।
केवल ऐसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी ही सच्चे मायने में सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी बन सकते हैं जिन्होंने मार्क्सवाद को और सर्वहारा वर्ग के लक्ष्य को वास्तव में आत्मसात किया हो और क्रान्ति और संगठन के हितों को कमान में रखते हुए व्यक्तिवाद, अहंवाद आदि की पूँजीवादी विचारधाराओं के विरुद्ध निर्मम और समझौताविहीन संघर्ष किया हो। ऐसा वे ही बुद्धिजीवी कर सकते हैं जो कि सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्षों में भागीदारी करते हों। जैसा कि माओ ने बताया था, मार्क्स, एंगेल्स, स्तालिन और लेनिन सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी सिद्धान्तों को विकसित ठीक इसीलिए कर सके क्योंकि उन्होंने सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्षों में हिस्सेदारी की और अपना क्रान्तिकारी रूपान्तरण कर दिया। साथ ही, बुद्धिजीवी का क्रान्तिकारी सन्दर्भ में एक दूसरा अर्थ भी हो सकता है : वे उन्नत मज़दूर जो पढ़-लिखकर क्रान्ति के विज्ञान यानी मार्क्सवाद को समझते हैं, उसे लागू करते हैं और उसके अपने जीवन और कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धान्त बना लेते हैं।
बहरहाल, पूँजीवादी समाज में वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा विचारों की दुनिया के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का कार्य या तो पार्टी करती है या फिर बुद्धिजीवी। केवल समाजवादी समाज में ही वैज्ञानिक प्रयोगों में जनता की हिस्सेदारी बनती है और वे व्यापक जनसमुदायों का मसला बन जाते हैं, हालाँकि यह पार्टी के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हिरावल के नेतृत्व में ही हो सकता है और समाज से पूँजीवादी श्रम विभाजन के पूर्ण समापन और अलगाव के पूर्ण समापन के साथ ही पार्टी के नेतृत्व की आवश्यकता कम हो सकती है। यह एक वर्गविहीन समाज यानी कम्युनिज़्म की ओर आगे बढ़ने के साथ ही सम्भव होगा।
अन्त में, हम कह सकते हैं कि प्रकृति और उसके ही अंग और विस्तार के तौर पर समाज और विचारों की दुनिया का रूपान्तरण सामाजिक व्यवहार के तीन रूपों के ज़रिए होता है : उत्पादन के लिए संघर्ष, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग। उत्पादन के लिए संघर्ष बुनियादी है क्योंकि यह मनुष्य के जीवन के भौतिक उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए अनिवार्य है और यह प्रकृति के रूपान्तरण से जुड़ा है, जो कि समूचे भौतिक यथार्थ का बुनियादी पहलू है। इस संघर्ष का सामाजिक पहलू अपने आपको उत्पादक शक्तियों व उत्पादन सम्बन्धों के संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त करता है जो कि समाज के विकास की एक विशिष्ट अवस्था में अपने आपको वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट करता है। वर्ग संघर्ष समाज को गति देने वाला प्रधान अन्तरविरोध है क्योंकि यही समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की तात्कालिक (अव्यवहित) प्रेरक शक्ति होती है। विचारों की दुनिया का रूपान्तरण वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा होता है, जो कि पूँजीवादी समाज में पार्टी व बुद्धिजीवी ही करते हैं और केवल समाजवादी समाज में ही आम तौर पर जनता वैज्ञानिक प्रयोगों में हिस्सेदारी करती है और विचारों की दुनिया के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को अभूतपूर्व रूप से आगे बढ़ाती है।
प्रकृति, समाज और विचार के रूपान्तरण और उससे जुड़े तीन सामाजिक व्यवहार के रूप में मनुष्य के समूचे ज्ञान का स्रोत है। मनुष्य के ज्ञान का कोई और चौथा स्रोत नहीं होता है। ज्ञान सामाजिक व्यवहार के इन तीन रूपों से ही पैदा होता है और यह पलटकर उनकी ही सेवा करता है। यदि प्रकृति के बारे में ज्ञान पलटकर प्रकृति के रूपान्तरण का काम नहीं करता है, तो वह ज्ञान बेकार है और साथ ही वह मृत हो जायेगा, क्योंकि ज्ञान का सतत् विकास तभी हो सकता है, जबकि वह व्यवहार की सेवा करे। ज्ञान व्यवहार से ही पैदा होता है और उसे लौटकर व्यवहार के ही पास जाना होता है, उसका मार्गदर्शन करना होता है और इसी प्रक्रिया में अपना लगातार विकास करना होता है। यदि समाज के विषय में हमारा ज्ञान पलटकर समाज को बदलने में नहीं लगता तो वह ज्ञान अपनी जीवन्तता को खोकर समाप्त हो जायेगा क्योंकि वह अपने स्रोत से कट जायेगा। निश्चित तौर पर, सामाजिक व्यवहार के अनुभवों का अमूर्तन, सामान्यीकरण और समाहार कर वैज्ञानिक ज्ञान को विकसित कर व्यवहार का मार्गदर्शन किये बिना सामाजिक व्यवहार भी आदिम अवस्था में पड़ा रहेगा। और अगर ज्ञान व्यवहार की सेवा नहीं करता तो वह भी ख़त्म हो जायेगा। यही व्यवहार और ज्ञान की एकता है, यही अस्तित्व और विचारों की एकता है, और यही उनका द्वन्द्व भी है।
मज़दूर वर्ग के लिए व्यवहार और ज्ञान का यह सिद्धान्त समझना बहुत ज़रूरी है। केवल तभी वह समझ सकता है कि सही विचार न तो ‘आसमान से टपक पड़ते हैं’ और न ही वे ‘प्रतिभावान विद्वानों के दिमाग़ की पैदावार’ होते हैं। वे केवल और केवल सामाजिक व्यवहार के तीन रूपों से ही पैदा हो सकते हैं : उत्पादन के लिए संघर्ष, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग। व्यवहार के ये रूप सामाजिक इसलिए हैं क्योंकि ये समाज के मेहनतकश वर्गों के सामूहिक प्रयासों के फलस्वरूप ही सम्भव हैं। इस रूप में व्यापक जनता का सामाजिक व्यवहार ही ज्ञान का स्रोत होता है। पूँजीवादी समाज में मेहनतकश जनता की जीवन स्थितियाँ ऐसी होती हैं कि स्वयं वह ही वैज्ञानिक ज्ञान यानी अवधारणात्मक ज्ञान से कट जाती है। ज्ञान मूलत: एक सामाजिक सम्पत्ति है, लेकिन हर चीज़ की तरह पूँजीवादी समाज में उसे भी निजी सम्पत्ति बना दिया जाता है। केवल समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण, यानी समाजवादी समाज की स्थापना और मज़दूर सत्ता की स्थापना के ज़रिए भी ज्ञान वापस सामाजिक सम्पत्ति का स्वरूप ग्रहण करता है, हालाँकि वह पूँजीवादी समाज में भी अपने मूल से सामाजिक ही होता है। स्वयं इस क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए मज़दूर वर्ग को मौजूदा समाज और राज-काज, उसके वर्ग चरित्र और अपनी शक्ति के बारे में ज्ञान हासिल करना होता है। ऐसा तभी हो सकता है जबकि मज़दूर वर्ग के उन्नत तत्व अपने आपको क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में संगठित करें, क्योंकि यह पार्टी ही मज़दूर वर्ग के ज्ञान और संघर्ष का मुख्यालय हो सकती है, मज़दूर वर्ग के अनुभवों का अमूर्तन, सामान्यीकरण और समाहार कर उसके वैज्ञानिक ज्ञान को पैदा और व्यवस्थित कर सकती है और इस वैज्ञानिक ज्ञान के मार्गदर्शन में क्रान्ति के रास्ते पर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के व्यापक जनसमुदायों की अगुवाई कर सकती है।
ये कुछ बुनियादी बातें थीं जिन्हें समझना हर मज़दूर और क्रान्तिकारी के लिए बेहद ज़रूरी है। अगले अंक में हम पूँजीवादी समाज के आर्थिक विश्लेषण की ओर आगे बढ़ेंगे और क़दम-दर-क़दम और परत-दर-परत इसकी सच्चाई को उजागर करेंगे।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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