बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों की रिहाई : भाजपा और संघ की बेशर्मी की पराकाष्ठा

लता

देश के इतिहास में लिखे कई काले अध्यायों में एक अध्याय होगा ख़ून से सना मार्च 2002 गुजरात नरसंहार का इतिहास। तीन दिनों तक गुजरात की सड़कों पर मौत का ताण्डव चलता रहा, सड़कों पर औरतें, बच्चें, बुज़ुर्ग, नौजवान क़त्ल किये जाते रहे। दंगाई हैवानियत की सारी हदें पार करते हुए इन्सानियत को शर्मसार करने वाले कुकृत्यों से गुजरात की सड़कों, गलियों और मोहल्लों को ख़ून में भिगोते रहे। चारों ओर चीख़-पुकार मची थी। दिल दहला देने वाली मदद की गुहार आती रही लेकिन पुलिस, अधिकारी या सेना इनकी मदद के लिए नहीं पहुँचे। मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार न केवल इस हैवानियत पर आँख मूँदे थी बल्कि इस नरसंहार की योजना में उसके ख़ूनी हाथ सने थे। दंगों के बाद राज्य सरकार के सीधे-सीधे शामिल होने के हज़ारों तथ्‍य सामने आने लगे। इन तथ्‍यों के आधार पर स्पष्ट कहा जाने लगा कि 2002 के गुजरात दंगे राज्य द्वारा प्रायोजित नरसंहार थे। समझा जा सकता है कि जब रक्षक ही भक्षक बने बैठे हैं तो सड़कों पर रोते बिलखते और मदद की गुहार लगाते लोगों को सहायता कहाँ से पहुँचती।
2002 से लेकर अब तक कुछ मामलों को छोड़कर लगभग सभी मामलों में न्याय का दरवाज़ा खटखटाने वालों को निराशा ही हासिल हुई है। अभी 24 जून 2022 को ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इतिहास के इस काले अध्याय में देश को शर्मसार करने वाला एक और अध्याय जुड़ गया है। 15 अगस्त को बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों को क्षमा दे कर रिहा कर दिया गया। बिलकिस बानो भी गुजरात नरसंहार की शिकार महिला है। 11 फ़ासीवादी दंगाइयों ने 3 मार्च 2002 को इसके परिवार के 15 सदस्यों में से 14 को उसकी आँखों के सामने मार डाला। महिलाओं के साथ बलात्कार किया फिर उन्हें मार डाला। स्वयं बिलकिस बानो के साथ बेहद बर्बरता के सा‍थ गैंग रेप किया गया। उस समय बिलकिस बानो 19 साल की थी और गर्भवती थी। चौदह लोगों की हत्या और बलात्कार ख़ौफ़नाक है लेकिन इन 11 अपराधियों ने दरि‍न्दगी की सारी सीमा पार करते हुए बिलकिस बानो की तीन साल की मासूम बेटी को उसकी गोद से छीनकर पत्थर पर पटक कर मार डाला। बिलकिस बानो बेहोश हो गयी और उसे मरा समझकर इन फ़ासीवादी दरिन्दों ने उसे छोड़ दिया। इस साल 15 अगस्त को ऐसे बर्बर अपराधियों को भाजपा की शासन वाली गुजरात सरकार ने न केवल रिहा किया है बल्कि कारावास के बाहर विश्‍व हिन्दू परिषद और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने इन 11 फ़ासीवादी हत्यारों और बलात्कारियों के चरण स्पर्श कर, मिठाई खिलायी और फूल-मालाओं से उनका स्वागत किया। स्वागत करने वालों में कई महिलाएँ भी शामिल थीं।
इतना शर्मसार हमारा देश शायद ही पहले कभी हुआ होगा जितना 15 अगस्त को 11 फ़ासीवादी अपराधियों के रिहा होने पर हुआ है। वैसे कश्मीर में आसिफ़ा गैंग रेप आरोपियों के समर्थन में भाजपा की निकली रैली या हाथरस गैंग रेप आरोपियों के समर्थन में भाजपा एमएलए द्वारा निकाली रैली देश का सिर शर्म से नीचा कर चुकी है लेकिन स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इन अपराधियों को रिहा किया जाना सरकार की बेशर्मी की पराकाष्ठा है। लाल क़िले की प्राचीर से नारी शक्ति, लैंगिक समानता और नारी सम्मान की बात करने वाले प्रधानमंत्री के अपने राज्य में 15 अगस्त को ही इन अपराधियों को माफ़ी देकर रिहा किया गया। वैसे तो प्रधानमंत्री को लाल क़िले से शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्‍य, आवास और भोजन की बात करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने महिलाओं का मज़ाक़ नहीं उड़ाने के लिए बेहद भावुक होकर देशवासियों को उपदेश दिया! लेकिन क्या 11 अपराधियों को सारे नियम-क़ानूनों की तिलांजलि देकर 15 अगस्त को रिहा करना देश की औरतों के साथ किया गया भद्दा मज़ाक़ नहीं है? निश्चित ही यह भद्दा और क्रूर मज़ाक़ है। साथ ही यह आने वाले भयानक काले दिनों का संकेत भी है। बलात्कारियों, हत्यारों और लम्पटों को खुला सन्देश दिया जा रहा है कि वे कुछ भी करें उन्हें राज्य का पूरा संरक्षण और समर्थन हासिल होगा।
बिलकिस बानो मामले के 11 अभियुक्तों को रिहा करने के लिए सबसे उपयुक्त दिन इन्हें 15  अगस्त ही मिला। ऐसा करने के लिए आज़ादी के अमृत महोत्सव पर क़ैदियों को रिहा करने के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा जारी निर्देश को अवसर बनाया गया। हालाँकि, उस निर्देश में 12 ऐसी श्रेणियाँ गिनाई गयी थीं जिनमें माफ़ी नहीं दी जा सकती थी। स्पष्ट तौर पर बलात्कार और सामूहिक बलात्कार (गैंग रेप) के अपराधियों को माफ़ी नहीं दी जानी थी। लेकिन गुजरात सरकार ने अपनी 1992 की पुरानी नीति के आधार पर इन 11 अपराधियों को रिहा कर दिया। लेकिन 1992 की नीति अब प्रचलन में नहीं है। अमृत महोत्सव पर जारी निर्देश में यह भी स्पष्ट किया गया था कि माफ़ी दिये जाने में केन्द्र से सलाह मशविरा किया जाना ज़रूरी था। मौक़ा बनाया गया अमृत महोत्सव का लेकिन अमृत महोत्सव पर जारी निर्देश को न मान कर 1992 के क़ानून का पालन किया गया जो पुराना हो चुका है और जिसे लागू नहीं किया जाता है। मतलब “जब सईंया भये कोतवाल तो डर काहे का”! गुजरात के ऐडिशनल सेक्रेटरी का कहना था कि केन्द्र सरकार के जारी निर्देश बिलकिस बानो के मामले पर लागू ही नहीं होते हैं क्योंकि गुजरात राज्य ने अपनी 1992 की नीति के तहत माफ़ी दी है वह नीति जो पहले ही अमल से बाहर हो गयी थी। इसलिए आनन-फ़ानन में एक कमेटी का निर्माण कर सभी को माफ़ी दे दी गयी। इस कमेटी में लगभग सभी भाजपा के लोग हैं।
इन अपराधियों का रिहा होना केन्द्र और राज्य सरकार की मिलीभगत है। यह सम्भव ही नहीं है कि भाजपा शासित कोई राज्य सरकार आज केन्द्र सरकार के आदेशों के उलट जाकर कोई क़दम उठा सकती है। वास्तव में यह क़दम भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकार ने सोचे-समझे तौर पर उठाया है। आने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की हालत कुछ पतली नज़र आ रही है। इसलिए हिन्दू वोटों के सुदृढ़ीकरण को ध्यान में रखकर यह क़दम उठाया गया है। इसके ज़रिए एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की गयी है : आम तौर पर हिन्दू वोट, साथ में, पिछड़ा वोट, पटेल वोट, दलित वोट और यहाँ तक कि जनजातीय वोट। 
अब ये अपराधी बस खुलेआम ही नहीं बल्कि सीना चौड़ा कर घूमेंगे क्योंकि इनके रिहा होने पर इनका ऐसा सम्मान हुआ है जैसा समाज के लिए किसी क़ुर्बानी देने वाले का होता है। यह घटना भाजपा की राजनीति और इसके कार्यकर्ताओं के चरित्र का भी बयान करती है। यह बलात्कारियों, हत्यारों और लम्पटों की पार्टी है, तभी यह उनको संरक्षण देती है। जिस कमेटी ने इन्हें रिहा किया है उनका कहना है कि चूँकि ये ब्राह्मण हैं, ब्राह्मणों के संस्कार अच्छे होते हैं इ‍सलिए इन्हें रिहा किया जा रहा है। 14 लोगों की हत्या कर और उनमें से कई का बलात्कार कर तथा तीन साल की मासूम बच्ची का क़त्ल कर इन फ़ासीवादी ब्राह्मणवादी हत्यारों ने निश्चित ही अपने संस्कार का प्रदर्शन किया है। आरएसएस और भाजपा ब्राह्मणवादी व सवर्णवादी राजनीति करने वाली पार्टी है। देश में पहले से पैठे जातिवाद को और हवा देकर भयंकर जातिवादी राजनीति कर रही है।
इन अपराधियों को रिहा करने के लिए आनन-फ़ानन में एक कमेटी का निर्माण कर सभी को माफ़ी दे दी गयी। इस कमेटी में लगभग सभी भाजपा के लोग हैं। इसमें भाजपा के दो एमएलए शामिल हैं जिसमें एक महिला एमएलए सुमन चौहान है, एक अन्य महिला भाजपा कार्यकर्ता स्नेहाबेन भाटिया भी है। इसका उल्लेख ज़रूरी है क्योंकि अक्सर किसी महिला, दलित या किसी अन्य उत्पीड़ि‍त पहचान के व्‍यक्ति के उच्च पद पर आसीन होने पर उसे नारी मुक्ति और महिला सशक्तिकरण या दलित मुक्ति से जोड़कर देखने की लोगों की आदत होती है। हम मज़दूर भी अपने राज्य, क्षेत्र या जाति के लोगों के उच्च पद पर होने से ख़ुश हो जाते हैं। लेकिन पहचान चाहे कुछ भी हो वह व्‍यक्ति और महिला जिस फ़ासीवादी या प्रतिक्रियावादी विचारधारा और राजनीति से जुड़े होते हैं वह उसी राजनीति को स्थापित करते हैं। उनकी व्‍यक्तिगत पहचान से उनकी राजनीति में कोई परिवर्तन नहीं आता। नहीं तो आज या पहले भी स्मृति ईरानी, निर्मला सीतारमन, मीनाक्षी लेखी व भाजपा की अन्य महिला मंत्री बलात्कार और महिला उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सड़कों पर होतीं। ख़ैर, अभी देश में आदिवासी पहचान की महिला राष्ट्रपति बनने पर पढ़े-लिखे लिबरल तबक़े में ख़ुशी की लहर है मानो अब सारे आदिवासियों का कल्याण होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसके पहले देश के राष्ट्रपति दलित पृष्ठभूमि से थे। पाँच साल तक देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बाद भी देश में दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। भाजपा की ब्राह्मणवादी और सवर्णवादी राजनीति से दलितों की स्थिति और बदतर हुई है। जालौर के 8 साल के बच्चे इन्द्र मेघवाल को बस पानी का घड़ा छूने के लिए अपनी जान गवानी पड़ी। वह मासूम बच्चा बर्बर पिटाई के बाद 23 दिनों तक दर्द में तड़पता रहा और आख़िर में उसने दम तोड़ दिया। वह शिक्षक इतनी हैवानियत करने के बाद भी बच निकलने के बारे में आश्‍वस्त था क्योंकि उसे पता है अभी चारों ओर संघ की राजनीति का बोलबाला है। संघ ऐसे सभी जातिगत उत्पीड़कों को संरक्षण दे रहा है। वहीं देश के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला के होने पर भी हम बि‍लकिस बानो के साथ हो रहे अन्याय पर उनके एक शब्‍द नहीं सुनेंगे। इसी दौर में, भाजपा की एक नेता सीमा पात्रा का मामला भी सामने आया जिसमें पता चला कि उसने अपने यहाँ काम करने वाली आदिवासी घरेलू कामगार की बेरहमी से पिटाई की, उसके दाँत लोहे की रॉड से तोड़ डाले, उसकी हड्डी तोड़ दी और उसे बन्दी बनाकर रखा।
इन 11 अपराधियों को सज़ा तक पहुँचाने का पूरा दौर बिलकिस के लिए यंत्रणादायी और जोखिम-भरा था। बार-बार अदालत में उस  हौलनाक मंज़र को बयान करना आसान नहीं होगा। शुरू से ही यह जंग कठिनाइयों से भरी थी। राज्य के संरक्षण में हो रहे दंगों में पुलिस और अधिकारियों से किसी मदद की तो कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन थाना पुलिस और पुलिस के अधिकारियों ने दंगा पीड़ि‍तों को डराया-धमकाया। जब बिलकिस बानो अपने साथ हुए अन्याय की रिपोर्ट लिखाने पुलिस के पास पहुँची, तो थाने में उसे डराया-धमकाया गया ताकि वह एफ़आईआर न करे। सबूत मिटाये गये और मृतकों को बिना किसी पोस्टमार्टम के दफ़ना दिया गया। जिस डॉक्टर ने बि‍लकिस की जाँच की उसने बलात्कार होने से साफ़ इन्कार कर दिया। बिलकिस को लगातार हत्या की धमकियाँ दी गयीं। पुलिस और अधिकारी आरोपियों को संरक्षण देते रहे। बिलकिस बानो का केस गुजरात नरसंहार के दौरान सबसे बर्बर घटनाओं में से एक था इसलिए इसे लेकर लोग समर्थन में उतरे। गुजरात दंगों से सम्बन्धित किसी भी मामले में बार-बार सरकार के शामिल होने की बात सामने आती रही। हर मामले में यह स्पष्ट होता गया कि दंगाइयों को गुजरात पुलिस और अधिकारी संरक्षण दे रहे थे। व्‍यापक जनदबाव में केस को गुजरात से महाराष्ट्र भेज दिया गया। एक लम्बे संघर्ष के बाद 2008 में इन आरोपियों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। इस दौर से गुज़रने के बाद जो न्याय बिलकिस को मिला आज वह छिन गया है। केन्द्र सरकार और न ही गुजरात सरकार या सुप्रीम कोर्ट ने इतना ज़रूरी समझा कि इस निर्णय के बारे में बिलकिस बानो को सूचित कर दे। एक बार फिर वह ख़ौफ़ के साये में जी रही है। इतनी मानस‍िक यंत्रणा से गुज़रने के बाद पल भर में सारी जद्दोजहद ख़ाक हो गयी और बिलकिस बानो वही पहुँच गयी जहाँ व‍ह 2002 मार्च में खड़ी थी। टूटी, हताश और नाउम्मीद।
गुजरात दंगों से जुड़े मामलों का इतिहास और हश्र देश में न्यायपालिका और राज्य के अन्य स्तम्भों में फ़ासीवाद के मज़बूत होते शिकंजे का उदाहरण है। गुजरात दंगों के बाद देश में मोदी सरकार और केन्द्र में वाजपेयी सरकार की कड़ी निन्दा होने लगी। दंगों की निष्पक्ष जाँच की माँग उठने लगी। अभी देश में फ़ासीवाद अपने पैर फैला ही रहा था। राज्य मशीनरी में बुर्जुआ जनवाद के अंश बचे हुए थे। हालाँकि बुर्जुआ जनवाद कितना भी जनवादी हो वह आम मज़दूर और मेहनतकश के लिए तानाशाही ही होता है। लेकिन फिर भी, भारी जनदबाव और बुर्जुआ राज्य के स्तम्भों में बचे-खुचे जनवादी पक्ष ने कुछ कमेटियों का गठन किया। इन कमेटियों की रिपोर्टें भी बुर्जुआ राज्य के चरित्र में हो रहे फ़ासीवादी बदलाव को दर्शाती हैं। कई रिपोर्टों में मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार को दंगों के लिए दोषी ठहराया तो कई रिपोर्टों में मोदी को पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया गया। उदाहरण के लिए राजू रामचन्द्रन ने अपनी रिपोर्ट में मोदी सरकार को दंगों के लिए सीधे तौर पर दोषी ठहराया था। राजू रामचन्द्रन ‘अमेकस क्यूरे’ यानी जाँच में अदालत की सहायता करने वाली कमेटी थी। राजू रामचन्द्रन के अनुसार मोदी द्वारा 1 मार्च को टीवी पर दिया गया भाषण साम्प्रदायिकता फैलाने वाला था जिसमें मोदी ने न्यूटन को उद्धृत करते हुए कहा था कि “हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है”। इसके अलावा मोदी के बंगले पर 27 फ़रवरी की अपात बैठक जिसमें मोदी ने गुजरात पुलिस और आला अधिकारियों से कहा था कि वह हिन्दुओं को अपना ग़ुस्सा निकालने दें। इसे रोकने का प्रयास नहीं करें। इस बैठक में संजीव भट्ट की उपस्थिति के दावे को भी रामचन्द्रन की रिपोर्ट पुष्ट करती थी। चूँकि संजीव भट्ट मोदी के ख़िलाफ़ गवाही दे रहे थे तो मोदी का यह दावा है कि यह बैठक हुई ही नहीं और अगर कोई बैठक हुई भी तो उसमें भट्ट उपस्थित नहीं थे। तीस साल पहले हिरासत में हुई मौत के लिए आज संजीव भट्ट सलाख़ों के पीछे हैं। इस मामले में 11 और लोग शामिल हैं लेकिन गिरफ़्तारी बस भट्ट की हुई है।
राजू रामचन्द्रन की रिपोर्ट के उलट दंगों की जाँच के लिए बना नानावती-मेहता आयोग मोदी को हर आरोप से बरी करता है। 2008 में रिपोर्ट के पहले हिस्से को जारी करते नानावटी-मेहता आयोग ने गोधरा काण्‍ड को मुसलमानों का षड्यंत्र बताया और मोदी सरकार को इससे पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया। साथ ही आयोग ने यह भी रिपोर्ट दी कि किसी भी रूप में दंगे मोदी सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं थे। इतना ही नहीं इस आयोग ने उन आईएएस अधि‍कारियों का नाम लेते हुए उन पर भी सवाल उठाये जिन्होंने दंगों में मोदी सरकार के शामिल होने की बात कही थी। ये अधिकारी हैं संजीव भट्ट, राहुल शर्मा और आर.बी. श्रीकुमार। लेकिन लालू यादव मंत्रायल द्वारा बनायी गयी यू.सी. बनर्जी की रिपोर्ट के अनुसार गोधरा ट्रेन काण्‍ड एक दुर्घटना थी जिसमें किसी तरह के षड्यंत्र की बात नहीं आती है। हम देख सकते हैं कि विशेष तौर पर गुजरात दंगों के बाद राज्य के स्तम्भों में फ़ासीवाद के पैर किस तेज़ी से फैल रहे थे। आज मोदी-शाह को तीन तिकड़म कर, आयोगों के अधिकारियों की सिफ़ारिश करने या सबूतों व गवाहों को रास्ते से साफ़ करने की ज़रूरत नहीं है। अब यह काम एसआईटी, न्यायपालिका, पुलिस, सीबीआई, मीडिया व अन्य संस्थान स्वयं कर रहे हैं। जज लोया की संदिग्‍ध स्थिति में मौत बताती है कि किस तरह फ़ासीवाद मज़बूत हो रहा है। कोई जज यदि आज फ़ासीवाद के ख़‍िलाफ़ बोलता नज़र आता है तो लोग कहते हैं कि उसका भी ‘लोया हो जायेगा’। मतलब यह एक खुला रहस्य है कि लोया की मौत मोदी के  ख़िलाफ़ बोलने की वजह से हुई थी। तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी भी दिखाती है कि अब न्यायपालिका खुले तौर पर फ़ासीवाद के लिए काम कर रही है। सभी जगहों पर संघ ने अपने लोगों को नियुक्त किया है या उन्हें अपने नियंत्रण में ले लिया है। इसलिए बिलकिस बानो केस के अपराधियों को सभी नियम-क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर रिहा करने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने बस गुजरात सरकार को हल्की-सी झिड़की दी है।
हमें बिलकिस बानो केस या ज़ाकिया जाफ़री के मामले के पीछे छुपे फ़ासीवादियों के मंसूबों को समझना होगा। मोदी और अमित शाह के दामन पर लगे गुजरात दंगों के धब्‍बे बहुत बड़े और गहरे हैं। इन्हें मिटाने और अपनी छवि सुधारने के लिए मोदी-अमित शाह की जोड़ी पूरे गुजरात नरसंहार को ही इतिहास के पन्नों से मिटाना चाहती है। इसलिए इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि आज स्कूल की पाठ्यपुस्तकों से गुजरात दंगों से जुड़े सारे अध्याय और सन्दर्भ हटा दिये गये हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज कर पहले ही मोदी और अमित शाह को दंगों में शामिल होने से बरी कर दिया है। अब इन 11 अपराधियों को रिहा कराकर गुजरात दंगों का उल्लेख ही समाप्‍त कर दिया जाना है। आने वाली पीढ़ी को इसके बारे में कुछ ख़बर ही नहीं होगी कि गुजरात में विशेष तौर पर तीन दिनों तक साम्प्रदायिक उन्माद की आग लगाकर मोदी-शाह की जोड़ी ने अपने राजनीतिक भविष्य का निर्माण किया था। गुजरात दंगे पूँजीपतियों के सामने सर्टिफ़िकेट था कि उनके हितों की रक्षा के लिए यह जोड़ी किसी भी सीमा को पार कर सकती है।  पूरी राज्य मशीनरी को अपने इशारों पर नचाकर पूँजीपतियों का हित साध सकती है। पूँजीपतियों को भी फ़ासीवाद का यह नया तानाशाह व्‍यक्तित्व भाया और तथाकथित गुजरात मॉडल संकट से उबरने का एक रास्ता समझ आया। पानी की तरह पैसा बहाकर पूँजीपतियों ने 2014 में मोदी को चुनावों में जीत दिलायी और आज अपनी पाई-पाई की क़ीमत सूद समेत वसूल रहे हैं। औने-पौने दामों में पूँजीपति सार्वजनिक उपक्रम ख़रीद रहे हैं, इन्हें टैक्स से छुट्टी दी जा रही है और इनके लोन माफ़ किये जा रहे हैं। बिरले ही लागू होने वाले श्रम क़ानूनों को कचरा पेटी के हवाले करने की तैयारी नये मज़दूर-विरोधी लेबर कोड के तहत कर ली गयी है। सरकारी ज़मीन, मिल, खान, बिजली सब पूँजीपतियों को कौड़ी के भाव मिल रहे हैं।
लेकिन देश-विदेश में अभी भी मोदी-शाह को गुजरात नरसंहार के लिए शर्मिन्दा होना पड़ता है। विदेशों में मोदी के स्वागत आयोजनों में बाहर भारी भीड़ गुजरात नरसंहार की तख्‍़ती लेकर, ख़ूनी मोदी के नारे लगाती है। इसलिए इन दोनों की जोड़ी हर क़ीमत पर गुजरात नरसंहार को इतिहास के पन्नों से मिटाना चाहते हैं। यह लोगों के बीच से गुजरात दंगों की स्मृति को मिटाना चाहती है। लेकिन हमें इन फ़ासीवादियों को उनके मंसूबों में कामयाब नहीं होने देना है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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