क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-4 : सामाजिक अधिशेष के उत्पादन की शुरुआत और सामाजिक श्रम-विभाजन तथा वर्गों का उद्भव

अभिनव

पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत और मज़दूर वर्ग के शोषण को समझने के लिए हमें कुछ अन्य बातों को समझना होगा, मसलन, सामाजिक अधिशेष, सामाजिक श्रम विभाजन और वर्गों का उद्भव। इन बातों को समझने के साथ हमारे लिए मज़दूर वर्ग के शोषण और पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत को समझना आसान हो जायेगा। इसलिए हम इन मूलभूत अवधारणाओं से शरुआत करेंगे।
आदिम काल में जब मनुष्य क़बीलों में रहता था, तो उसकी उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर बेहद निम्न था। अभी खेती की शुरुआत नहीं हुई थी और क़बीले मुश्किल से उतना ही जुटा पाते थे और उतना ही शिकार कर पाते थे, जितना उनके जीवित रहने के लिए अनिवार्य था। कन्द-मूल एकत्र करने और शिकार पर निर्भर समाज के दौर में अनिश्चितता का तत्व काफ़ी ज़्यादा होता था क्योंकि ये आदिम क़बीले कभी इस बारे में सुनिश्चित नहीं हो सकते थे कि वे अपने जीवित रहने के लिए भोजन जुटा पायेंगे। मनुष्य अभी प्रकृति की अन्धी शक्तियों का ग़ुलाम था। हम इन्हें प्रकृति की अन्धी शक्तियाँ इसलिए कह रहे हैं क्योंकि मनुष्य अभी उनके पीछे काम करने वाली ताक़तों को नहीं समझता था। प्रकृति की शक्तियों के पीछे काम करने वाले कारणों, यानी प्रकृति के गति के नियमों को समझने के साथ ही मनुष्य स्वतंत्र होता गया क्योंकि अब वह प्रकृति की शक्तियों की अपनी बढ़ती समझदारी के अनुसार प्रकृति का अपनी आवश्यकताओं के अनुसार रूपान्तरण कर सकता था। यह समझदारी स्वयं मनुष्य के सामाजिक व्यवहार से बढ़ती गयी, यानी उत्पादन के लिए मनुष्य का संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग।
बहरहाल, आदिम क़बीलाई समाज के दौर में मनुष्य अभी बस प्रकृति द्वारा दी गयी चीज़ों को हासिल कर रहा था, लेकिन वह अभी प्रकृति को सचेतन तौर पर और योजनाबद्ध रूप में बदलकर कुछ पैदा नहीं कर रहा था, यानी उत्पादन नहीं कर रहा था, क्योंकि प्रकृति के बारे में उसका ज्ञान अभी बेहद अविकसित मंज़िल में था। इस वजह से ये आदिम क़बीले कन्द-मूल इकट्ठा करके या शिकार करके जितना और जो जुटा पाते थे, उसमें एक अनिश्चितता का तत्व रहता था और वे अपनी ज़रूरत से बेशी बिरले ही जुटा पाते थे। इसलिए क़बीले के सभी लोगों का जीवन के लिए संघर्ष की इन गतिविधियों में लगे रहना अनिवार्य था और अभी श्रम का कोई सामाजिक विभाजन होना और समाज में किसी प्रकार का ऊँच-नीच का बँटवारा पैदा होना सम्भव ही नहीं था। अभी श्रम का केवल लैंगिक विभाजन और आयु के तौर पर ही विभाजन हो सकता था, जो कि जैविक विशिष्टताओं के कारण होने वाला विभाजन था, न कि उत्पादन की बेशी मात्रा के पैदा होने के साथ अस्तित्व में आने वाला सामाजिक श्रम विभाजन। आदिम क़बीले में शिकार आदि की कार्रवाई में शारीरिक या मानसिक क्षमता के आधार पर नेतृत्व की भूमिका निश्चित व्यक्तियों को सौंपी जाती थी, लेकिन यह इन व्यक्तियों को कोई विशेषाधिकार नहीं देता था। यानी इस वजह से ये व्यक्ति ज़्यादा भोजन नहीं ले सकते थे। नेतृत्व की ज़िम्मेदारी तमाम अन्य ज़िम्मेदारियों की तरह एक ज़िम्मेदारी थी। चूँकि अभी ये आदिम क़बीले मुश्किल से अपने जीवन को न्यूनतम स्तर पर बनाये रखने योग्य भोजन व संसाधन ही जुटा पाते थे, इसलिए कोई भी व्यक्ति यदि अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं से ज़्यादा हड़पने का प्रयास करता तो क़बीले का अस्तित्व ही सम्भव नहीं रह जाता और क़बीला टूट जाता। इसलिए क़बीलाई समाज एक प्रकार का आदिम साम्यवादी समाज था, जिसमें अभाव और अज्ञान द्वारा आरोपित एक समानता थी।
नवपाषाण युग में, यानी आज से क़रीब 12,000 साल पहले, जब वर्तमान अरब जगत (फ़िलिस्तीन, सीरिया, लेबनॉन, आदि) के एक हिस्से में पहली बार खेती की शुरुआत हुई। खेती की शुरुआत के साथ पहली बार इन्सान ने सिर्फ़ प्रकृति द्वारा प्रदत्त चीज़ों को ग्रहण करने की बजाय प्रकृति को बदलकर अपनी आवश्यकता के अनुसार चीज़ों को पैदा करने की शुरुआत की। यह सदियों में प्रकृति के बारे में विकसित हुआ मनुष्य का ज्ञान ही था, जिसके कारण कृषि की शुरुआत हुई। इसके साथ, मनुष्य की प्रकृति की समझदारी और उसे अपनी आवश्यकतानुसार बदलने की शक्ति में एक गुणात्मक परिवर्तन आया। दूसरे शब्दों में, उसकी उत्पादक शक्तियों का एक गुणात्मक विकास हुआ। समाज में हर नया चरण अन्तत: उत्पादक शक्तियों में गुणात्मक परितर्वन के साथ आता है, हालाँकि यह प्रक्रिया अपने आप नहीं घटित होती बल्कि इसमें इन्सानों का सामाजिक व्यवहार केन्द्रीय भूमिका निभाता है। नवपाषाण युग में एक क्रान्ति हुई, जिसके साथ मनुष्य अपने सामाजिक विकास के एक नये स्तर पर छलाँग लगाने के लिए तैयार हो गया। कृषि की शुरुआत के साथ वह पूर्वशर्त पूरी हो गयी जिसके साथ मनुष्य पहली बार अपनी न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं से बेशी चीज़ें पैदा कर सकता था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि खेती की शुरुआत के साथ ही बेशी उत्पादन भी शुरू हो गया। खेती की शुरुआत के बाद भी लम्बे समय तक आदिम क़बीले घुमन्तू शिकारी व कन्द-मूल संग्राहकों के रूप में जीते रहे और खेती के विकास के एक निश्चित स्तर पर ही जाकर ये क़बीले घुमन्तू जीवन-पद्धति छोड़कर निश्चित इलाक़ों में बसने लगे। एक लम्बी प्रक्रिया में खेती उत्पादन समाज की न्यूनतम आवश्यकताओं से अधिक पैदा करने की स्थिति में पहुँचा।
लेकिन जैसे ही यह स्थिति आयी, वैसे ही क़बीलाई समाज के सामुदायिक और सामूहिकतावादी जीवन के ख़ात्मे की शुरुआत हो गयी। क्योंकि जब बेशी सामाजिक उत्पाद अस्तित्व में आता है, तभी इस बेशी सामाजिक उत्पाद पर क़ब्ज़े के लिए संघर्ष की शुरुआत होती है। यानी जब समाज में मनुष्यों की उत्पादक शक्तियों का विकास इस स्तर पर पहुँच जाता है कि वे नियमित तौर पर अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करने लगते हैं, तब इस बेशी उत्पादन को हड़पने का झगड़ा भी शुरू होता है। इससे पहले जो सामुदायिकता और सामूहिकता क़बीलाई समाज में मौजूद थी, वह अभाव और प्रकृति की समझदारी के बेहद आदिम स्तर पर होने की स्थितियों द्वारा थोपी गयी सामुदायिकता और सामूहिकता थी। लेकिन इसकी वजह से समाज में कोई ऊँच-नीच नहीं थी, शोषण और उत्पीड़न नहीं था और समानता थी। इसलिए जब मनुष्यों की उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ सामुदायिक क़बीलाई समाज का पतन हुआ, तो यह तात्कालिक तौर पर एक तकलीफ़देह प्रक्रिया थी, जिसने ग़ुलामी, पराधीनता और शोषण-उत्पीड़न को जन्म दिया। लेकिन ऐतिहासिक तौर पर यह एक अग्रवर्ती क़दम था। इस अधिशेष उत्पादन के बिना न तो समाज में कारीगर पैदा हो सकता था, न किसान, न कलाकार, न वैज्ञानिक और न ही दार्शनिक-चिन्तक। मनुष्य इसके बिना प्रकृति की अन्धी शक्तियों का ग़ुलाम ही बना रहता, असुरक्षा, अभाव और अनिश्चितता में अपना जीवन व्यतीत करता रहता। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ आदिम क़बीलाई समाज का विघटन और पहले वर्ग समाजों का उदय ऐतिहासिक तौर पर एक प्रगतिशील परिघटना थी, हालाँकि तात्कालिक तौर पर इसने सामुदायिकता और सामूहिकता की भावना को विघटित किया, जो कि आदिम समाज की पहचान थी। और वैसे भी इतिहास की यात्रा यहाँ रुकनी भी नहीं थी। उसे अभाव द्वारा थोपी गयी सामूहिकता से प्रचुरता द्वारा जन्मी उन्नत और सचेतन सामूहिकता की ओर जाना है, यानी समाजवाद के संक्रमण से होते हुए कम्युनिज़्म तक जाना है क्योंकि समाज का ज्ञान बताता है कि किसी भी इच्छा से स्वतंत्र यही समाज की गति की दिशा है, जैसा कि हम आगे तथ्यों और प्रमाणों के साथ देखेंगे।
बहरहाल, जब समाज में अधिशेष उत्पादन सम्भव हो जाता है, तो समाज का कुल श्रम महज़ अनिवार्य या आवश्यक श्रम की श्रेणी में नहीं आता है। आवश्यक श्रम वह श्रम होता है जो समाज के लोगों की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक या अनिवार्य होता है। अब जबकि समाज में उत्पादक शक्तियों का विकास इससे ऊपर की मंज़िल में पहुँच चुका है, तो ज़ाहिर है कि इस आवश्यक श्रम के अलावा, समाज के लोग अतिरिक्त श्रम भी कर रहे हैं, जो कि समाज की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक उत्पादन के ऊपर बेशी उत्पाद या सामाजिक अधिशेष को पैदा कर रहा है। यह अतिरिक्त श्रम समाज के एक हिस्से को उत्पादक श्रम करने और उत्पादन में हिस्सेदारी करने की अनिवार्यता से मुक्त कर सकता है और अन्तत: अनिवार्यत: ऐसा करता ही है। जो लोग क़बीलाई या किसी न किसी प्रकार के सामुदायिक समाज में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते थे या किसी रूप में विशिष्ट भूमिका में थे, उन्होंने इस अधिशेष पर क़ब्ज़ा करने की शुरुआत की। मसलन, कुछ सभ्यताओं में शुरू में क़बीले के प्रमुख या प्रधानों ने शुरू में अन्न के भण्डारग्रहों के रखवाले की भूमिका निभानी शुरू की। बाद में, वे इसके मालिक बन बैठे। उसी प्रकार, कुछ अन्य जगहों पर इस बेशी उत्पाद पर हिंसक तरीक़ों से क़ब्ज़े हुए। यह सामाजिक अधिशेष का पैदा होना ही था, जिसने समाज में शासक वर्गों को जन्म दिया। यह प्रक्रिया कई सौ सालों में घटित हुई और क़बीलाई समाज का विघटन हुआ। इसके साथ वर्ग समाज अस्तित्व में आया।
इस मंज़िल के आने के बाद से समाज के उत्पादक श्रम को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है : अनिवार्य श्रम और अतिरिक्त श्रम। अनिवार्य श्रम द्वारा जो उत्पाद पैदा होता है वह उत्पादक वर्गों के जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक उत्पाद है और उसे आवश्यक या अनिवार्य उत्पाद कहा जा सकता है। जबकि उत्पादक वर्ग जो अतिरिक्त श्रम करते हैं, उससे अतिरिक्त उत्पाद पैदा होता है, जिसे शासक वर्ग हड़प लेते हैं।
मिसाल के तौर पर, भारत में प्राचीन सोलह जनपदों के काल के ठीक पहले, यानी वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में, आज से क़रीब तीन हज़ार साल पहले, खेती का उत्पादन करने वालों से क़बीलाई सरदारों व पैदा हो रही राज्यसत्ता को चलाने वालों ने ‘स्वैच्छिक कर’ लेने की शुरुआत की थी। भारत में यही दौर लोहे के इस्तेमाल के साथ गंगा के मैदानों से जंगल की सफ़ाई का दौर था। इसी दौर में, गंगा के उपजाऊ मैदानों में खेती का विस्तार हो रहा था और अधिशेष उत्पादन बढ़ रहा था। इस दौर में, बलि नामक ‘स्वैच्छिक करों’ की शुरुआत हुई, जो कि प्रत्यक्ष खेतिहर उत्पादकों को अनिवार्यत: शासक वर्गों को देना पड़ता था। बाद में, यह अनिवार्य करों की व्यवस्था में तब्दील हो गया। आज से क़रीब 2600 साल पहले गंगा के मैदानों में जिन सोलह राज्यों का उदय हुआ, उनमें राज्यसत्ता और शासक वर्ग इन लगानों व करों के द्वारा प्रत्यक्ष उत्पादकों के अतिरिक्त श्रम को हड़पकर ही अपने वजूद को बनाये रख सकते थे। इन शासक वर्गों के प्रश्रय के आधार पर ही समाज का तत्कालीन बौद्धिक तबक़ा, यानी कलाकार, नाटककार, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, गणितज्ञ आदि-आदि भी अस्तित्व में आये जो कि आम तौर पर शासक वर्ग की सेवा में ही लगा हुआ था, हालाँकि ऐसे बौद्धिक भी पैदा हुए जो भौतिकवादी थे, ब्राह्मणों व क्षत्रियों के वर्चस्व को चुनौती देते थे, जो कि हर जगह शासक वर्ग की भूमिका में थे, और साथ ही जनता का पक्ष लेते थे। लेकिन ऐसे बौद्धिक भी समाज में सामाजिक अधिशेष उत्पादन, सामाजिक वर्ग विभाजन और वर्ग विभाजन के पैदा हुए बग़ैर नहीं पैदा हो सकते थे। बहरहाल, जैसे-जैसे लगानों और करों की यह समूची व्यवस्था विकसित हुई वैसे-वैसे इन शासक वर्गों ने कारीगरों और दस्तकारों पर भी कर लगाये। बलि, भाग, कर आदि नाम से तमाम ऐसे लगान व कर अब प्रत्यक्ष उत्पादक आबादी से वसूले जा रहे थे। इन सोलह जनपदों में से एक के, यानी मगध के विस्तार के साथ ही मौर्य साम्राज्य के पैदा होने की ज़मीन तैयार हुई। मौर्य समाज पहला राजवंश था और उसके पैदा होने के बाद राज्यसत्ता और भी अधिक विस्तारित हुई। पहली बार स्थायी सेना व नौकरशाही अस्तित्व में आयी, भूमि लगान व्यवस्था व्यवस्थित हुई, समान नाप व भार को परिभाषित किया गया, अर्थशास्त्र, दर्शन, साहित्य-कला का विकास एक नये स्तर पर पहुँचा, और इसी के साथ शासक वर्गों और उनकी सेवा में सन्नद्ध मध्यवर्गीय बौद्धिकों, कलाकारों, आदि का तबक़ा विस्तारित हुआ। इसी दौर में, उत्पादकता में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई। दास श्रम पहले ही अस्तित्व में आ चुका था, लेकिन भारतीय इतिहास में पहली बार दास श्रम का घरेलू इस्तेमाल करने के साथ-साथ उन्हें उत्पादक श्रम में भी लगाया गया। राज्यसत्ता के मालिकाने वाली ज़मीन (जिसे मौर्यकाल में सीता भूमि कहा जाता था) पर मुक्त किसानों को भूमि के टुकड़े आबण्टित करने के साथ, दास श्रम से भी खेती करवायी जाती थी। इसके साथ ही प्रत्यक्ष उत्पादकों से अतिरिक्त श्रम व उसके अतिरिक्त उत्पाद को हड़पने के तरीक़ों का भी विस्तार हुआ। नये-नये करों, लगानों आदि के ज़रिए अतिरिक्त उत्पाद को शासक वर्ग द्वारा हड़पा जाने लगा। भारतीय इतिहास में हम सामाजिक अधिशेष के पैदा होने, वर्ण (जो कि पैदा होने के समय वर्ग ही थे) के पैदा होने, राज्यसत्ता के पैदा होने की पूरी प्रक्रिया को हम स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं।
वास्तव में, शासक वर्ग किस प्रकार से अतिरिक्त श्रम और उससे पैदा होने वाले अतिरिक्त उत्पाद को हड़पते हैं, इसी से तय होता है कि समाज विकास की किस मंज़िल में है। मसलन, हम यदि पूँजीवाद से पहले की सामाजिक व्यवस्थाओं की बात करें, तो उसमें अतिरिक्त श्रम को किसी न किसी आर्थिकेतर तरीक़े से वसूला जाता था, यानी राजकीय नियम-क़ायदे, क़ानून, धर्म, सामाजिक परम्परा आदि के आधार पर। मिसाल के तौर पर, सोलह जनपदों के दौर में जातक कथाओं के द्वारा यह जानकारी प्राप्त होती है कि धार्मिक ग्रन्थों में ऐसे नियम-क़ायदे लिखे गये जिसके अनुसार किसानों (जो कि उस समय मुख्यत: वैश्य वर्ण की आबादी से आते थे), अधीनस्थ श्रमिकों व दास (जो कि उस समय मुख्यत: शूद्र वर्ण से आते थे) को कुछ विशिष्ट कर देने होते थे, कुछ विशिष्ट लगान देने होते थे, जिन्हें न दिये जाने पर उन्हें दण्डित किया जा सकता था। साथ ही, कई कर ऐसे होते थे जिन्हें ज़बरन वसूलने का अधिकार शासक वर्ग के पास था, जैसे कि तुण्डियाअकासिया नामक कर अधिकारियों द्वारा ज़बरन वसूले जाने वाले कर। उसी प्रकार, कारीगरों-दस्तकारों और साथ ही अधीनस्थ श्रमिकों को महीने के कुछ दिनों राजा व शासक वर्ग के लोगों के लिए काम करना पड़ता था। यानी आर्थिकेतर उत्पीड़न के ज़रिए भूदासों, निर्भर किसानों, या कारीगरों-दस्तकारों के अतिरिक्त श्रम और उसके अतिरिक्त उत्पाद को शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता द्वारा हड़पा जाता था। कहीं पर यह श्रम लगान या श्रम कर के रूप में होता था, जैसे कि सप्ताह या महीने के कुछ निश्चित दिनों प्रत्यक्ष उत्पादकों को शासक वर्ग के लिए मुफ़्त में काम करना पड़ता था, जिसके बदले उसे कुछ भी नहीं मिलता था। उसी प्रकार, यह उत्पाद का रूप ले सकता था, मसलन, किसानों को अपने उत्पाद का एक तिहाई या एक चौथाई राजा या भूस्वामी को देना पड़ता था। उस दौर में, ब्राह्मण-क्षत्रिय वर्ण मिलकर शासक वर्ग का निर्माण करते थे। और बाद के दौर में, लगान ने मुद्रा-रूप भी ग्रहण किया, जिसके अनुसार, प्रत्यक्ष उत्पादक को मुद्रा में निर्धारित एक निश्चित कर या लगान देना पड़ता था। पूँजीवाद के पहले के दौर की सभी वर्गीय व्यवस्थाओं में, चाहे वह दास समाज हो, मौर्यकाल की शूद्र व वैश्य वर्ण के प्रत्यक्ष उत्पादकों के श्रम पर आधारित किसान अर्थव्यवस्था हो, या फिर गुप्त काल के समय से शुरू हुई भारतीय सामन्ती व्यवस्था हो, सल्तनत काल और बाद में मुगल काल की निरंकुश सामन्ती व्यवस्था हो। उपनिवेशवाद के दौर में भी, गाँवों में किसानों से आर्थिकेतर उत्पीड़न के ज़रिए आर्थिक अधिशेष वसूलने के तंत्र को ब्रिटिश उपनिवेशिवादियों ने नहीं बदला, बस वे स्वयं उसके शीर्ष पर बैठ गये और सामन्तों, ज़मीन्दारों को अपने मातहत कर लिया।
हम ऊपर के उदाहरणों से अतिरिक्त श्रम और आवश्यक या अनिवार्य श्रम की अवधारणाओं को समझ सकते हैं। मौर्य राजवंश के शासन के दौर में जब कोई निर्भर या अधीनस्थ किसान तीन दिन अपने भूखण्ड पर खेती करता था और चार दिन ज़मीन्दार या फिर राज्यसत्ता की सीता भूमि पर खेती करता था, तो पहले तीन दिन वह आवश्यक या अनिवार्य श्रम करता था जो उसके जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक था, जबकि अगले चार दिन वह शासक वर्ग के लिए बिना किसी मेहनताने के अतिरिक्त श्रम करता था, जिसके बूते पर शासक वर्गों की राज्यसत्ता, उनके ऐशो-आराम, उन पर निर्भर बौद्धिक तबक़ों व उनके कारकूनों का जीवन चलता था। उसी प्रकार, सोलह जनपदों के दौर में जब किसी कारीगर को नियमत: महीने में चार दिन राजा के लिए काम करना पड़ता था, तो वह उसका अतिरिक्त श्रम था, जिसे धार्मिक व राजकीय नियम-क़ायदे-क़ानून के ज़रिए ज़ोर-ज़बर्दस्ती कर उससे हड़प लिया जाता था। आम तौर पर, सामाजिक अतिरिक्त उत्पाद कुल सामाजिक उत्पाद का वह हिस्सा है जो आवश्यक उत्पाद से बेशी होता है जो कि ख़र्च श्रमशक्ति (जो कि पूँजीवाद-पूर्व अवधि में माल नहीं बनी होती है) और उत्पादन के साधनों के पुनरुत्पादन हेतु आवश्यक है, और जो आवश्यक उत्पाद के ही समान प्रत्यक्ष उत्पादक वर्गों द्वारा पैदा तो किया जाता है, लेकिन जिसे शासक वर्गों द्वारा किसी न किसी तरीक़े से और किसी न किसी रूप में हड़प लिया जाता है। यह तरीक़ा कुछ भी हो सकता है और ये रूप कुछ भी हो सकते हैं, जैसे कि श्रम के रूप में, श्रम के उत्पाद के रूप में या श्रम के उत्पाद को बेचकर हासिल की गयी मुद्रा के रूप में।
अतिरिक्त मूल्य जो कि पूँजीवादी समाज में उद्यमी मुनाफ़े, लगान, ब्याज़ और व्यापारिक लाभ का स्रोत होता है, वास्तव में और कुछ नहीं बल्कि समाज के प्रत्यक्ष उत्पादकों, यानी सर्वहारा वर्ग, छोटे माल उत्पादकों, जैसे कि कारीगरों व छोटे किसानों के अतिरिक्त श्रम से पैदा होने वाले अतिरिक्त उत्पाद का ही एक निश्चित रूप है। अतिरिक्त उत्पाद का यह निश्चित रूप है मौद्रिक रूप, जिसे एक ख़ास तरीक़े से हड़पा जाता है। यह तरीक़ा आर्थिकेतर उत्पीड़न, प्रत्यक्ष हिंसा व ज़ोर-ज़बर्दस्ती पर आधारित नहीं है बल्कि यह आर्थिक शोषण पर आधारित है। यह अतिरिक्त मूल्य की एक बेहद आरम्भिक परिभाषा मात्र है, जिस पर आगे हम विस्तार से विचार करेंगे। लेकिन अभी इतना समझना अनिवार्य है : अतिरिक्त मूल्य और उसके विभिन्न रूपों में होने वाला विभाजन जैसे कि मुनाफ़ा, लगान, सूद आदि और कुछ नहीं है कि बल्कि प्रत्यक्ष उत्पादकों के श्रम के उत्पाद का वह हिस्सा है जिसे हमने ऊपर अतिरिक्त उत्पाद या सामाजिक अतिरिक्त उत्पाद कहा है। यानी यह और कुछ नहीं बल्कि प्रत्यक्ष उत्पादकों के जीवन के उत्पादन व पुनरुत्पादन को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक उत्पाद के ऊपर वह बेशी उत्पाद है, जिसके बूते आज का शासक वर्ग, यानी पूँजीपति वर्ग, उसकी सरकार, उसकी राज्यसत्ता, उसकी चाकरी करने वाले वर्ग और उनके ऐशो-आराम व ऐय्याशी चलती है। यह उत्पादक वर्गों के श्रम का वह हिस्सा है, जो कि वे मालिकों के लिए करते तो हैं, लेकिन जिसके बदले में उन्हें कोई मेहनताना या मज़दूरी नहीं मिलती है। यानी यह सामाजिक अतिरिक्त उत्पाद वह उत्पाद है जो उस श्रम से पैदा होता है, जो कि प्रत्यक्ष उत्पादक उत्पादन के साधन के मालिकों के लिए मुफ़्त में करता है।
इसलिए पूँजीपति वर्ग को प्राप्त होने वाला अतिरिक्त मूल्य और कुछ नहीं है बल्कि एक विशेष तरीक़े से, आर्थिक शोषण के तरीक़े से, हड़पा गया अतिरिक्त उत्पाद है जो कि आम तौर पर मुद्रा का रूप ग्रहण करता है, और जो मज़दूर वर्ग के उस अतिरिक्त श्रम की उपज है, जिसके बदले में उसे कुछ भी नहीं मिलता और जो श्रम वह मुफ़्त में, निशुल्क रूप में, पूँजीपति के लिए करता है। बस फ़र्क़ यह है कि किसी दास द्वारा या किसी सामन्ती निर्भर किसान द्वारा किये गये अतिरिक्त श्रम की तरह यह स्पष्ट तौर पर दिखलायी नहीं देता है। मसलन, किसान से ज़बरन उसकी उपज का एक हिस्सा ले लिया जाता था। या, दास या भूदास द्वारा तीन दिन ख़ुद को आबण्टित ज़मीन के टुकड़े पर काम किया जाना और चार दिन शासक वर्ग की ज़मीन पर अतिरिक्त श्रम करना। यहाँ अतिरिक्त श्रम और/या अतिरिक्त उत्पाद को साफ़ तौर पर दिक् और काल में अलग रूप में देखा जा सकता है। लेकिन पूँजीवाद में अतिरिक्त उत्पाद को हड़पे जाने की इस प्रक्रिया पर एक पर्दा गिर जाता है और वह छिप जाता है। अब इस शोषण को समझने के लिए हमें विश्लेषण की आवश्यकता होती है और यही विश्लेषण पहली बार कार्ल मार्क्स ने किया और दिखलाया कि पूँजीवादी शोषण का घृणित क्षुद्र रहस्य क्या है। मार्क्स द्वारा पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत को जिस सिद्धान्त द्वारा बेनक़ाब किया गया, उसी को हम अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त के रूप में जानते हैं। आगे हम अतिरिक्त मूल्य के इस सिद्धान्त को समझेंगे और जानेंगे कि पूँजीपति वर्ग हमें किस तरह से लूटता है, किस तरह से हमारा शोषण करता है और क्योंकि पहले की व्यवस्थाओं के विपरीत आज यह शोषण प्रत्यक्ष तौर पर सामने दिखता नहीं है, बल्कि उसे विश्लेषण के ज़रिए समझना पड़ता है। इस विश्लेषण की शुरुआत माल से होती है, क्योंकि यह माल ही है जिसमें पूँजीवादी समाज के समस्त अन्तरविरोध भ्रूण रूप में मौजूद हैं और जो रूप में पूँजीवादी समाज की समस्त सम्पदा का बहुलांश ग्रहण करता है। पूँजीवादी समाज में हर वस्तु, हर उत्पाद और हर सेवा माल का रूप ग्रहण करती जाती है, यहाँ तक कि स्वयं श्रमशक्ति, यानी एक उत्पादक की श्रम करने की क्षमता भी एक माल में तब्दील हो जाती है। इसीलिए पूँजीवादी समाज के वैज्ञानिक विश्लेषण की शुरुआत माल से ही हो सकती है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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