सिडकुल, हरिद्वार में मज़दूरों की हड्डियाँ कैसे निचोड़ी जाती हैं
एक फ़ैक्टरी से रिपोर्ट

फ़ेबियन

हरिद्वार स्थित सिडकुल में पंखे बनाने वाली एक कम्पनी है, के.के.जी. इण्डस्ट्रीज लिमिटेड! पंखे बनाने वाली इस कम्पनी के मज़दूर ख़ुद गर्मी और घुटन-भरे माहौल में 12 घण्टे से लेकर 15-16 घण्टे तक काम करते हैं। यहाँ काम की स्थितियाँ बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण हैं। ये कम्पनी हैवेल्स, ओरिएण्ट, पोलर, लूमिनस, गोदरेज, सूर्या, एंकर (पैनासोनिक) आदि कम्पनियों की वेण्डर कम्पनी है। इन सभी के पंखे के.के.जी. में बनते हैं। यह सिडकुल की उन कम्पनियों में शामिल है जहाँ न्यूनतम मज़दूरी बहुत ही कम है और काम के न्यूनतम घण्टे 12 हैं।
के.के.जी. कम्पनी में दिसम्बर-जनवरी से लेकर जून तक प्रोडक्शन की गति बहुत तेज़ होती है। इस दौरान इस कम्पनी में क़रीब 1000 मज़दूर काम करते हैं। लेकिन जुलाई से नवम्बर तक माँग के अनुसार प्रोडक्शन धीमा कर दिया जाता है। इस दौरान कम्पनी में महज़ 400 मज़दूर ही काम करते हैं। यानी लगभग 60 प्रतिशत मज़दूरों की छँटनी कर दी जाती है। मज़दूरों की छँटनी में कोई विघ्न-बाधा न पैदा हो, इस कारण प्रोडक्शन के ज़्यादातर काम ठेके व पीस रेट पर कराये जाते हैं। कम्पनी के ज़्यादातर मज़दूरों को लगता है कि कम्पनी मज़दूरों की पर्मानेण्ट भर्ती इस कारण नहीं करती है क्योंकि यहाँ सीज़न के हिसाब से काम होता है। लेकिन ऐसा है नहीं। कम्पनी अगर चाहे तो मज़दूरों की एक तय संख्या से आसानी से सालभर प्रोडक्शन जारी रख सकती है और अपने ऑर्डर की पूर्ति कर सकती है। लेकिन कम्पनी मज़दूरों के प्रति अपनी जवाबदेही को ख़त्म करने यानी सभी श्रम क़ानूनों को लागू न करने तथा ई.एस.आई., पी.एफ़. आदि की सुविधा न देने के लिए ही ठेका और पीस रेट से काम कराती है। ठेका और पीस रेट से उसे मनचाहा मुनाफ़ा भी ख़ूब हासिल होता है। सीज़न के समय मज़दूरों से 15-17 घण्टे तक काम लिया जाता है। अगर कम्पनी सालभर प्रोडक्शन की एक सामान्य रफ़्तार को बनाये रखे तो कोई वजह नहीं है कि मज़दूरों से सीज़न के समय 15-17 घण्टों तक काम लिया जाये। ठेके और पीस रेट से काम कराने के कारण कम्पनी अपनी ज़रूरत के हिसाब से जब चाहे तब मज़दूरों की भर्ती और छँटनी कर सकती है।
आइए, कम्पनी में काम की स्थितियों, मज़दूरों के हालात और उनकी मासिक आमदनी को जानने के लिए कम्पनी की प्रोडक्शन प्रक्रिया को समझते हैं। इस कम्पनी में अलग-अलग चरणों में प्रोडक्शन के 9 डिपार्टमेण्ट हैं। सबसे पहले स्टोर डिपार्टमेण्ट से कच्चा माल मोल्डिंग सेक्शन में आता है। यहाँ पंखे के मोटर को छोड़कर सारे पुर्ज़े बनते हैं। इस सेक्शन में 20-25 मज़दूर काम करते हैं। उनकी मज़दूरी 12 घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से 30 दिन की मात्र 12000/- रुपये है। इस कम्पनी में मज़दूरों को सीधे 12 घण्टे 30 दिन की ही मज़दूरी बतायी जाती है न कि 8 घण्टे 26 दिन की। इस मज़दूरी में आठ घण्टे के बाद चार घण्टे का ओवर टाइम रेट भी जुड़ा हुआ है जो कि सिंगल रेट से दिया जाता है न कि डबल रेट से। अगर इस मज़दूरी को आठ घण्टे के हिसाब से बनाया जाये तो यह न्यूनतम वेतन से बहुत ही कम होगी। आगे जहाँ कहीं भी आप इस रिपोर्ट में 12 घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से मज़दूरी पढ़ें, तो समझ जाइएगा कि यह आठ घण्टे के न्यूनतम वेतन में सिंगल रेट से ओवर टाइम जोड़कर बताया गया है।
मोल्डिंग सेक्शन के बाद प्रेस सेक्शन आता है। इस सेक्शन में पंखे के ब्लेड, बॉडी कवर आदि पार्ट्स तैयार किये जाते हैं। इस सेक्शन के मज़दूरों को पतली व धारदार किनारों वाली मेटल शीट को उठाकर डाई मशीन में सेट करना होता है। लेकिन हाथों में सुरक्षा के नाम पर फ़ैक्टरी से उन्हें सस्ते ऊनी दस्ताने ही मिलते हैं जो काफ़ी पुराने और फटे होते हैं। मज़दूर जैसे-तैसे करके मेटल शीट्स को उठाते हैं। इस सेक्शन में भी 25-30 मज़दूर काम करते हैं जिन्हें 12 घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से 30 दिन की मात्र 13500/- रुपये ही मज़दूरी दी जाती है।
प्रेस सेक्शन में तैयार किया गया माल पाउडर कोटिंग सेक्शन में भेज दिया जाता है। जिन पार्ट्स की वेल्डिंग होनी होती है उन्हें वेल्डिंग सेक्शन में भेजा जाता है। वेल्डिंग सेक्शन के दो हिस्से हैं। आयरन वेल्डिंग और कॉपर वेल्डिंग सेक्शन। इसमें पंखों के जालीदार कवर और कुछ अन्य पुर्ज़ों को वेल्ड किया जाता है। यह काम कम्पनी पीस रेट पर कराती है। इस सेक्शन के कारीगर मज़दूरों के काम के घण्टे निश्चित नहीं होते हैं। उन्हें अलग-अलग पार्ट्स तय टार्गेट के हिसाब से देने होते हैं। इन्हें पूरा करने में ही मज़दूरों को 12 घण्टे से 15-16 घण्टे तक लग जाते हैं। पीस रेट पर काम करने वाले इन कारीगर मज़दूरों को यह भ्रम रहता है कि वे ज़्यादा से ज़्यादा माल तैयार करके ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरी हासिल कर लेंगे। लेकिन 15-16 घण्टे काम करने के बावजूद भी वह औसतन 15000/- से लेकर 16500/- तक ही कमा पाते हैं। वह भी साल के कुछ ही महीने! ये मज़दूर यह नहीं देख पाते कि जो मज़दूरी वो ज़्यादा पा रहे हैं वह बाक़ी मज़दूरों की अपेक्षा काम के ज़्यादा घण्टे देकर ही आ रही है। कुल ले-देकर उनकी भी मज़दूरी बाक़ी के मज़दूरों के बराबर ही रहती है।
प्रेस सेक्शन और वेल्डिंग सेक्शन के बाद पाउडर कोटिंग सेक्शन आता है। इस सेक्शन में लगभग 150 मज़दूर काम करते हैं। इस सेक्शन में पंखों के पार्ट्स पर पेंट व पाउडर कोटिंग की जाती है। यहाँ मज़दूर 12 घण्टे पेंट व पाउडर के घुटन-भरे माहौल में काम करते हैं। कम्पनी द्वारा उन्हें मास्क तक मुहैया नहीं कराया जाता है। मज़दूर अपने मास्क का ख़ुद ही इन्तज़ाम करते हैं। इस सेक्शन में ज़्यादातर महिलाएँ काम करती हैं। इन्हें 12 घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से 30 दिन के महज़ 8500/- रुपये ही दिये जाते हैं।
इसके बाद वाइंडिंग सेक्शन आता है जहाँ कॉपर वाइंडिंग तैयार किया जाता है। यह एक महीन काम है और इसे भी पीस रेट के हिसाब से कराया जाता है। इसके बाद असेम्बली सेक्शन में पंखा असेम्बल करके उसे पैक किया जाता है। इस सेक्शन में 9 असेम्बली लाइन चलती हैं। एक लाइन में क़रीब 70 मज़दूर काम करते हैं। इस सेक्शन में महिला मज़दूरों को 12 घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से 30 दिन के 9000/- रुपये और पुरुष मज़दूरों को 10000/- रुपये मज़दूरी दी जाती है। स्त्री और पुरुष मज़दूरों के बीच वेतन के अन्तर को कम्पनी यह कहकर देती है कि महिला मज़दूर पुरुषों की तुलना में हल्के काम करती हैं और प्रोडक्शन भी कम देती हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि महिला और पुरुष मज़दूर एक जैसे काम ही करते हैं। कम्पनी अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ही इस सेक्शन में ज़्यादातर महिला मज़दूरों को ही रखती है। असेम्बली सेक्शन में तैयार माल को ऑर्डर देने वाली कम्पनियों में भेजने के लिए डिस्पैच सेक्शन में भेज दिया जाता है। इस सेक्शन में क़रीब 15 मज़दूर लगातार काम करते हैं। इस सेक्शन में ही माल की लोडिंग की जाती है।
के.के.जी. में मज़दूरों की काम करने की परिस्थितियाँ बेहद कठिन हैं और सुविधाएँ न के बराबर हैं। कम्पनी में 12-12 घण्टे की शिफ़्ट चलने के बावजूद यहाँ कोई कैण्टीन नहीं है। मज़दूरों को खाना खाने के लिए मात्र आधे घण्टे का ब्रेक दिया जाता है और उसे भी मज़दूरी में से काट लिया जाता है। यहाँ तक कि इस कम्पनी में चाय का ब्रेक भी नहीं दिया जाता है। चाय मज़दूरों को ख़ुद ख़रीदकर काम करने की जगह पर ही पीनी होती है। यहाँ काम करने की जगह बहुत थोड़ी और तंग है। पूरी फ़ैक्टरी का कम्पाउण्ड कच्चे माल, लोहे की चादरों, गत्ते आदि से भरा रहता है। कम्पनी में दो फ़्लोर ऐसे हैं जो लोहे के बीम और चादर से बनाये गये हैं। जिस वजह से यहाँ गर्मियों में बहुत गर्मी और सर्दियों में बहुत ठण्ड रहती है। पूरा ढाँचा लोहे का होने के कारण यहाँ शोर भी बहुत होता है।
सिडकुल की फ़ैक्टरियों में मज़दूरों को सुरक्षा के उपकरण मिल रहे हैं या नहीं, श्रम क़ानून लागू हो रहे हैं या नहीं, इसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए सिडकुल में ही श्रम विभाग का कार्यालय भी है। लेकिन श्रम विभाग के अधिकारी, लेबर इंस्पेक्टर आदि सालभर कुम्भकर्णी नींद में सोये रहते हैं। साल में कभी एक दो बार यह जाग भी गये तो केवल खानापूर्ति के लिए ही फ़ैक्टरी में आते हैं। आने से पहले ये अपने मेजबान (फ़ैक्टरी मालिक) को पूर्वसूचना दे देते हैं। उसके बाद फ़ैक्टरी में इनके स्वागत की सारी तैयारियाँ पूरी कर ली जाती हैं। मज़दूरों को यह सिखा-पढ़ा दिया जाता है कि उन्हें जाँच अधिकारी से क्या बोलना है। मज़दूर भी काम छूटने के डर से मालिक द्वारा सिखायी गयी बात को ही बताते हैं। लेबर इंस्पेक्टर कभी भी फ़ैक्टरी का औचक निरीक्षण नहीं करते हैं। वे आकर मज़दूरों से पूछते हैं कि आपको दस्ताने, मास्क और सुरक्षा के उपकरण मिलते हैं या नहीं? सुपरवाइज़र और फ़ैक्टरी मालिक का व्यवहार आपके प्रति कैसा होता है? न्यूनतम मज़दूरी मिलती है या नहीं? और इन सभी सवालों के जवाब मालिकों और सुपरवाइज़रों द्वारा पहले से ही मज़दूरों को बता दिये जाते हैं। जवाब सुनकर और सन्तुष्ट होकर लेबर इंस्पेक्टर या जाँच अधिकारी मालिक के चैम्बर में मिठाइयों और पकवानों का लुत्फ़ उठाने चले जाते हैं। ये जाँच-पड़ताल की नौटंकी के.के.जी. में भी चलती रहती है।
यह कम्पनी बहुत ही चालाकी से अपने मुनाफ़े को बढ़ाते हुए और ठेका व पीस रेट के कारण मज़दूरों को बाँटने में सफल हुई है। एक ही कम्पनी के अलग-अलग सेक्शनों में मज़दूरी का अन्तर जानबूझकर किया गया है ताकि मज़दूरों के बीच एकता न बनने पाये और कम्पनी इसमें सफल भी हुई है। जो मज़दूर सबसे कम मज़दूरी पाते हैं वो अपने से ज़्यादा मज़दूरी पाने वालों से जलते हैं और जो ज़्यादा पाते हैं उन्हें लगता है कि उनकी स्थिति कम पाने वालों से थोड़ी बेहतर है। लेकिन मज़दूरों को यह समझना होगा कि मज़दूरी के इस मामूली अन्तर से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता है। फ़ैक्टरी मालिक मज़दूरों को आपस में बाँटने के लिए बहुत सारे हथकण्डे अपनाते हैं, जिनमें एक ही काम के लिए और एक ही फ़ैक्टरी के अलग-अलग सेक्शनों में मज़दूरों को अलग-अलग मज़दूरी देना भी इस हथकण्डे में शामिल है। फ़ैक्टरी मालिक मज़दूरी के अन्तर के साथ ही पीस रेट, ठेका मज़दूर और परमानेण्ट मज़दूरों में भी मज़दूरों को बाँटने का काम करते हैं। मज़दूर किसी भी तरह से एकजुट न हो सकें, इसलिए असेम्बली लाइन को भी बिखरा दिया गया है। ख़ुद के.के.जी. में ही साल के कुछ महीने एक हज़ार मज़दूर काम करते हैं और कुछ महीने चार सौ के क़रीब। ऐसे में मज़दूरों की यूनियन बनना और उनका एकजुट होना बहुत ही मुश्किल है। अगर आप बिगुल के पाठक रहे हैं तो आपको पता ही होगा कि बिगुल के अलग-अलग लेखों में यह बात सालों से की जा रही है कि आज फ़ैक्टरी आधारित यूनियन बनाना और केवल एक फ़ैक्टरी के आन्दोलन को विजय तक पहुँचाना कितना कठिन हो गया है। इसलिए आज के दौर में अगर मज़दूरों को अपने हक़-अधिकार की लड़ाई लड़नी है और उसे जीत के मुक़ाम तक पहुँचाना है तो हमें पेशा आधारित और इलाक़ा आधारित यूनियन बनाने पर ज़ोर देना होगा। यह बात के.के.जी. के साथ ही पूरे सिडकुल की कम्पनियों पर लागू होती है। सिडकुल की ज़्यादातर कम्पनियों में कोई यूनियन नहीं है। अगर किसी कम्पनी में है भी तो केवल खानापूर्ति के लिए! ज़्यादातर यूनियन मालिकों की जेबी यूनियन हैं जो मज़दूरों के बहुतायत का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। इसलिए आज यह ज़्यादा ज़रूरी है कि मज़दूर नये सिरे से पेशागत और इलाक़ागत यूनियन बनाने की तरफ़ आगे बढ़ें। के.के.जी. सहित सिडकुल की लगभग सभी कम्पनियों के मज़दूरों की माँगें, मुद्दे और नारे एक ही हैं। इसके साथ ही सभी मज़दूर चाहे वो ठेका के तहत हों, पीस रेट से काम करते हों या फ़ैक्टरी के परमानेण्ट मज़दूर हों, एक ही इलाक़े में, एक ही जीवन-परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर भी हैं।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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