योगी के रामराज्य में इलाज बिना मरते मेहनतकश

लालचन्द्र

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार हर ज़िले में मेडिकल कॉलेज खोलने जैसे बड़े-बड़े दावे कर रही है लेकिन वहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत इतनी ख़राब है कि ग़रीब आदमी बीमारी की तकलीफ़ से मुक्ति पाने के लिए मौत चुनने पर मजबूर हो जाये। बात सुनने में भयानक लगेगी लेकिन योगी के “रामराज्य” का सच यही है।
इसी महीने फ़तेहपुर ज़िले के पंकज ने ज़हर खाकर अपनी जान दे दी। उसके गुर्दे में पथरी थी जिसका सही इलाज न होने से दर्द बढ़ता जा रहा था। पथरी का इलाज या ज़्यादा बढ़ जाने पर ऑपरेशन करके पथरी निकाल देना आज एक सामान्य बात है, हर शहर में दर्जनों डॉक्टर और अस्पताल हैं इसके लिए। लेकिन वे सबके लिए नहीं हैं। पंकज एक ग़रीब मज़दूर था। देश के संविधान, जिसकी सभी नेता क़समें खाते हैं, में लिखा है कि हर नागरिक को समान अधिकार मिले हैं। हर नागरिक का जीने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। लेकिन ग़रीब और मज़दूर अपने अनुभव से जानते हैं कि ये बातें सिर्फ़ किताबों और भाषणों में अच्छी लगती हैं।
सरकारी अस्पताल के चक्कर लगा-लगाकर और महीनों बाद की तारीख़ें ले-लेकर पंकज थक गया था। प्राइवेट अस्पताल में जाने की वह सोच भी नहीं सकता था। अपनी मेहनत के सिवा उसके पास बेचने को भी कुछ नहीं था। ऑपरेशन के लिए क़र्ज़ लिया पर दर्द इतना ज़्यादा था कि मज़दूरी भी नहीं कर सकता था। सारे पैसे घर बैठे दवाओं में ही खप गये। क़र्ज़े का बोझ ऊपर से आ गया। पिता से दर्द की दवा के लिए पैसे लिये और उससे ज़हर खाकर दर्द से हमेशा के लिए मुक्ति पा ली।
यह किसी एक मज़दूर की कहानी नहीं है। हर ज़िले में ऐसी दर्दभरी कहानियाँ मिल जायेंगी। जो ख़ुद अपनी जान नहीं लेते वे तकलीफ़ें सह-सहकर किसी तरह जीते हैं और फिर किसी सरकारी अस्पताल के फ़र्श पर या अपनी झोपड़ी में चुपचाप मर जाते हैं।
तमाम सरकारी दावों और सैकड़ों करोड़ ख़र्च करके किये गये प्रचार के विपरीत उत्तर प्रदेश में आम लोगों को उपलब्ध स्वास्थ्य व्यवस्था बेहद ख़स्ताहाल है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों से लेकर स्टाफ़ तक की भारी कमी है। उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज, राजधानी लखनऊ में स्थित केजीएमयू में तीन-चार साल पहले एक विभाग बन्द करने की नौबत आ गयी थी क्योंकि उस विभाग के सभी डॉक्टर प्राइवेट अस्पतालों में चले गये। आये दिन मरीज़ों व तीमारदारों से अभद्रता, समय पर इलाज न मिलने से होने वाली मौतें, इलाज के दौरान जाँच के नाम पर खुलेआम लूट, सरकारी अस्पतालों में प्राइवेट अस्पतालों के दलालों की धमाचौकड़ी जैसी बातें आम हो चुकी हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत यह है कि एम्बुलेंस नहीं मिलने की वजह से कभी कोई पिता अपने बच्चे के शव को कन्धे पर लादकर ले जाता है तो कभी कोई पति अपनी पत्नी के शव को साइकिल पर ले जाने को मजबूर होता है। कहीं सड़क इतनी ख़राब है कि एम्बुलेंस उसमें फँस जाती है और गर्भवती महिला का उसी में प्रसव हो जाता है।
पिछले दिनों प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक एक सरकारी दवा गोदाम के निरीक्षण के लिए पहुँचे तो योगी सरकार के स्वास्थ्य पर किये जा रहे बड़े-बड़े दावों की पोल अचानक खुल गयी। गोदाम में 16.40 करोड़ रुपये की एक्सपायर हो चुकी दवाओं का स्टॉक पाया गया, जिन्हें समय पर सरकारी अस्पतालों में भेजा ही नहीं गया था। ज़िम्मेदारों पर कोई कार्रवाई हुई, ऐसा सुनने में नहीं आया। दरअसल दवाएँ इसलिए नहीं भेजी गयी थीं ताकि अस्पताल में दवा न होने के कारण बाहर के मेडिकल स्टोरों पर बिकने वाली महँगी ब्राण्डेड दवाओं का धन्धा चमकता रहे। ऐसे घोटाले हर शहर में चलते रहते हैं।
“सतह से शिखर तक अन्त्योदय” की लफ़्फ़ाज़ी कर रही भाजपा सरकार “एक ज़िला–एक मेडिकल कॉलेज” का शिगूफ़ा छोड़ रही है, लेकिन नीयत का खोट यह है कि इस योजना के तहत बन रहे मेडिकल कॉलेज (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) पीपीपी मॉडल पर बनेंगे। इसका सीधा मतलब है कि संसाधन और बुनियादी ढाँचा जनता की गाढ़ी कमाई से खड़ा होगा और मुनाफ़ा बड़े-बड़े पूँजीपतियों का। ज़ाहिरा तौर पर, स्वास्थ्य का यह ढाँचा आम जनता के लिए सस्ता-सुलभ इलाज मुहैया करने का नहीं बल्कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी पूँजी की घुसपैठ बढ़ाने का एक ज़रिया है। आम ग़रीब मेहनतकश इन महँगे प्राइवेट अस्पतालों में घुस भी नहीं सकते, इलाज तो दूर की बात है।
पहले के बने हुए सरकारी अस्पतालों की सूरत भी अब जनकल्याणकारी नहीं रह गयी। यूपी के लखनऊ स्थित लोहिया अस्पताल में एकल खिड़की पॉलिसी लागू कर इलाज मँहगा कर दिया गया है। अब एक रुपये का पर्चा सौ रुपये में बनेगा। दवाओं और बेड के दाम बढ़ा दिये गये हैं, जाँच पर भी अतिरिक्त शुल्क भरना पड़ेगा। बीएचयू के सर सुन्दरलाल अस्पताल में भी यही हुआ है। ये दोनों अस्पताल ही यूपी के बड़े अस्पताल हैं जिनमें ग़रीब लोग तक अपना इलाज करवाने दूर-दूर से आते हैं, उनका क्या होगा, इसकी फ़िक्र करना इसके ज़िम्मेदारों को ज़रूरी नहीं लगता। जून 2019 में नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में दिखाया कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य मामले में दूसरे 21 बड़े राज्यों की सूची में सबसे निचले स्थान पर है। राज्य की ख़राब स्थिति का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2018 में यूपी का कम्पोज़िट इण्डेक्स स्कोर 33.69 था जो वर्ष 2019 में 5.28 अंक घटकर 28.61 रह गया था। संसद में पूछे गये एक सवाल के जवाब में इन्हीं के ही स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. मनसुख माँडलिया ने बताया कि प्रदेश में 59 नहीं बल्कि 35 मेडिकल कॉलेज हैं, और इन कॉलेजों में भी स्टाफ़ पूरा नहीं है। वहीं, एक पत्रकार दीपक लावनिया की आरटीआई रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में शिक्षकों और डॉक्टरों के 28.52 प्रतिशत पद ख़ाली पड़े हैं। 26 प्रतिशत डॉक्टरों की नियुक्ति पक्की नहीं है बल्कि एक अनुबन्ध के आधार पर है। राज्य में मेडिकल कॉलेजो में शिक्षकों और डॉक्टरों के कुल स्वीकृत पदों की संख्या 2,791 है, जिसमें से 796 ख़ाली हैं और 727 ठेके पर हैं। क्लर्कों के 477 पदों में से 277 पर ही नियुक्ति हुई है। नॉनटेक्निकल व क्लर्क के कार्य हेतु 30 पदों पर नियुक्ति आउटसोर्सिंग के ज़रिए हुई है। टेक्निकल-नॉनटेक्निकल, क्लर्क, स्टेनोग्राफ़र आदि ग्रुप सी के 56.7 प्रतिशत यानी आधे से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के गृहजनपद गोरखपुर व रायबरेली में एम्स के हालात भी ख़राब हैं। यहाँ पर भी शिक्षकों के आधे से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं।
उपरोक्त हालात यह दिखाने के लिए काफ़ी हैं कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार स्वास्थ्य ढाँचे को मज़बूत करने के चाहे जितने भी दावे कर ले पर वह आम जनता को सस्ती व सुलभ स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराने में फिसड्डी साबित हुई है। क्योंकि उसका पूरा ज़ोर स्वास्थ्य क्षेत्र में भी निजीकरण को बढ़ावा देने का है।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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