आज़ादी के अमृत महोत्सव में सड़कों पर तिरंगा बेचती ग़रीब जनता

भारत

इस बार आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर अमृत महोत्सव मनाया गया। यह दीगर बात है कि पिछले 75 वर्षों में देश की व्यापक मेहनतकश जनता के सामने यह बात अधिक से अधिक स्पष्ट होती गयी है कि यह वास्तव में देश के पूँजीपति वर्ग और धनिक वर्गों की आज़ादी है, जबकि व्यापक मेहनतकश जनता को आज़ादी के नाम पर सीमित अधिकार ही हासिल हुए हैं। दाग़दार आज़ादी का उजाला हमारे सामने अँधेरा बनकर मँडरा रहा है। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी ने तो पहले ही हमारा दम निकाल रखा है। तो सबसे पहले तो यही सोचना चाहिए कि ये महोत्सव किसके लिए है? इसी दौरान मोदी सरकार ने अभियान लिया ‘घर-घर तिरंगा’ ताकि कुछ समय के लिए लोग रोज़ी-रोटी-रोज़गार भूलकर “राष्ट्रभक्ति” की भावना में लीन हो जायें। एक आबादी इस तिरंगा लहर में बह भी गयी। एक मध्यमवर्गीय आबादी जिनके पास सारी सुख-सुविधाएँ हैं, उनकी तो बड़े से ऊँचे तिरंगे को देखकर राष्ट्रभक्ति की भावना से छाती फूल जाती है। संघी कारकून इसे देशभक्ति के पैमाने के तौर पर पेश कर रहे हैं, यानि जो अपने घर पर तिरंगा न लगाये वो देशद्रोही है। पर पहला सवाल तो इनसे ही पूछा जाना चहिए कि इनका संगठन आरएसएस क्यों आज तक तिरंगे का विरोध करता आ रहा था? इसी बीच पता चलता है कि तिरंगे का 500 करोड़ का कारोबार भी हो गया। आख़िर राष्ट्रभक्ति और धन्धे का तो चोली दामन का साथ है।
‘घर-घर तिरंगा’ अभियान चला पर सबसे बड़ा मज़ाक़ देखिए, देश में 17,73,040 लोगों के पास घर ही नहीं है। अब ये लोग तिरंगा कहाँ लगायेंगे? राजधानी दिल्ली में ही क़रीब एक लाख लोग बेघर हैं, जो हर मौसम में खुले आसमान के नीचे अपनी रात गुज़ारते हैं। अब बात करते हैं मेहनतकश आबादी के उस हिस्से की जो सड़कों पर इस तिरंगे को बेच रही थी। उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के लिबासपुर के हाईवे पर बने रेडलाइट के पास गाड़ी, बस आदि रुकने पर दो बच्चे झण्डा बेच रहे थे। ये क़रीब 13 व 15 साल के थे इनका नाम भीम और ख़ुशी था। उन्होंने बताया कि पिछले साल कोरोना में इनके पिता की मृत्यु हो गयी, जो कि एक फ़ैक्टरी मज़दूर थे। अब अकेले इनकी माँ की कमाई से घर नहीं चल पाता जो एक घरेलू कामगार है। इसी कारण इन्हें भी काम करना पड़ रहा है। इससे पहले भाई-बहन दो काम और कर चुके हैं और अभी झण्डे का सीज़न चल रहा है तो झण्डा बेच रहे हैं। एक झण्डा बेचने पर उन्हें कुछ रुपये मिलते हैं। उन्होंने बताया कि रोज़ दोनों मिलकर 200 रुपये तक कमा लेते हैं। किसी तरह धीरे-धीरे कोरोना के समय का लिया हुआ क़र्ज़ा उतार रहे हैं, पर वो भी उतरता नज़र नहीं आता।
दिल्ली के सराय काले ख़ाँ के पास रहने वाले सरोज ने बताया कि पिछले जून में उनकी झुग्गी को अतिक्रमण के नाम पर तोड़ दिया गया था। 50 और झुग्गियों को तोड़ा गया। इस समय वो खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं और काम धन्धा भी छूट गया है। के सीज़न में वो भी तिरंगा बेच रहे हैं और उनके साथ 20-30 लोग भी यही काम कर रहे हैं, जिनकी झुग्गियाँ टूटी थीं। सुबह से लेकर रात तक हाईवे, सड़कों की ख़ाक छानकर बमुश्किल 300 रुपये कमा पाते हैं। इसके बाद पत्नी और एक बच्चे के साथ खुले आसमान के नीचे “आज़ादी” का लुत्फ़ उठाते हैं।
यह चन्द लोगों की बात नहीं, दिल्ली के लाखों और देश के करोड़ों मेहनतकशों के यही हालात हैं। आज़ादी के अमृत महोत्सव से हमें क्या मिला इसका जवाब यही नज़र आता है – कभी फ़ैक्टरी में आग लगने से मौत, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई, हमारी झुग्गियों तक का तोड़ा जाना। बाक़ी कोरोना काल में आपने असल (अ)“मृत” महोत्सव देखा ही होगा, जब गंगा तक इन्सानों की लाशों से अटी पड़ी थी।
भगतसिंह का जन्मदिवस भी इसी महीने पड़ रहा है। उन्होंने भी आज़ादी का सपना देखा था, पर उनकी आज़ादी का सपना ऐसी आज़ादी का नहीं था जो आज हम झेल रहे हैं। बल्कि उनका सपना था एक ऐसे समाज का जहाँ इन्सान द्वारा इन्सान का शोषण तक असम्भव हो जाये। ऐसी “आज़ादी” के बारे में उन्होंने पहले ही आगाह करते हुए कहा था – “कांग्रेस की समझौतापरस्त नीतियों से अगर आज़ादी मिल भी जायेगी तो आम जनता की जीवन स्थिति में कोई सुधार नहीं आयेगा। लॉर्ड इर्विन की जगह अगर सेठ पुरुषोत्तमदास टण्डन आ जाये तो इससे मेहनतकश लोगो की ज़िन्दगी में क्या फ़र्क़ आयेगा?” और अन्त में उनकी एक और बात याद आती है – “हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।”

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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