शेखर जोशी की याद में

हमारे समय के सबसे बड़े कथाकारों में से एक, शेखर जोशी का इसी महीने की 4 तारीख़ को निधन हो गया। वे 91 वर्ष के थे और अब भी सक्रिय थे। वे हिन्दी के उन बिरले कहानीकारों में से थे जिन्होंने मज़दूरों, ख़ासकर औद्योगिक मज़दूरों के जीवन को अपनी कहानियों का विषय बनाया। उनकी याद में हम यहाँ उनके संस्मरणों के कुछ अंश दे रहे हैं जो बताते हैं कि मज़दूरों की जीवन और उनके संघर्षों की उनकी समझ एक श्रमिक के रूप में ख़ुद उनके जीवन से आयी थी। इन अंशों को हमने वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी के ‘आजकल’ में प्रकाशित लेख से साभार लिया है। ‘मज़दूर बिगुल’ में हमने शेखर जी की कहानियाँ पहले प्रकाशित की हैं और अपने पाठकों के लिए हम श्रमिक जीवन के इस चितेरे की और रचनाएँ आगामी अंकों में प्रस्तुत करेंगे। – सं.
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कारख़ाने की नौकरी के शुरुआती दिनों के बारे में शेखर जोशी ने लिखा है :
“कामकाजी दुनिया से यह मेरा पहला साक्षात्कार था। बल्कि यह कहना अधिक संगत होगा कि मैं अब इस दुनिया का एक हिस्सा बन गया था। अब तक की मेरी दुनिया बहुत सीमित रही थी। अपना कहने को घर-परिवार और नाते-रिश्ते के ही लोग थे। शेष दुनिया मेरे लिए बाहरी थी। जो कामकाजी लोग थे, जो हल चलाते, मकानों की चिनाई करते, बढ़ईगीरी करते, लोहा पीटते, बर्तन बनाते, वे हमारे लिए अस्पर्श्य थे। यहाँ तक कि दैनन्दिन जीवन में उनका स्पर्श हो जाने के बाद घर में प्रवेश करने से पहले हमें पानी के छींटे देकर शुद्ध किया जाता। अब मैं स्वयं उनमें से एक था। मोची, लोहार, बढ़ई, वैल्डर, मोल्डर, ठठेर, खरादिए, मिस्त्री, रंगसाज़ मेरे गुरु थे। मैंने उनसे दीक्षा ली थी। मुझे याद आता है, अपहोल्स्टर शॉप में जहाँ कैनवास और चमड़े का सामान बनता था, वहां एक सप्ताह के प्रशिक्षण के दौरान मेरा पहला शिक्षक एक बूढ़ा मोची था जिसने चमड़े के रोल में से एक लम्बी पट्टी काटकर उसमें रांपी से एक सीधी लकीर खींचकर सुए और तागे से सीधी सिलाई (गँठाई) करने की जब मुझे शिक्षा दी तब मैंने कैसा थ्रिल अनुभव किया था। उस्ताद की पैनी निगाह मेरे काम पर टिकी थी और सिलाई के एक भी टाँके के लीक से बाहर होने पर कैसी असन्तुष्ट आवाज़ उनके गले से निकल पड़ती थी!” (‘जुनून’, स्मृति में रहें वे, पृष्ठ 142)
कारखाने का वह जो जीवन था, वह इस कथाकार के भीतर कैसे उतर रहा था, कैसी छवियां गढ़ रहा था, कैसे रूपक और बिम्ब बना रहा था, कैसे हुनर और रिश्तों के पेच सीख रहा था, श्रम के सौन्दर्य की कैसी-कितनी परतें उसके सामने खुल रही थीं, शोषण और उसके कितने रूप वह देख रहा था, उसका जायज़ा लेने के लिए यहाँ एक लम्बा उद्धरण देना चाहूँगा :
“अपनी ढीली डांगरी पहनकर हम लोग वर्कशॉप के अलग-अलग विभागों में बिखर जाते। एक अद्भुत विस्मयकारी दुनिया हमारे चारों ओर फैली हुई थी। … आर्मर शॉप के दूसरी ओर आरा मिल, बढ़ई शॉप और सिलाई शॉप थी और दूसरी ओर पेण्ट शॉप। लम्बे भारी लकड़ी के स्लीपर आरा मशीन के ऊपर मिनटों में चिरान होकर सुडौल तख़्तों में बदल जाते। दाँतेदार तवों या लम्बी दाँतेदार पट्टियों वाली ये दैत्याकार मशीनें पलक झपकते ही उन भारी स्लीपरों को डबलरोटी की तरह काट देतीं और आरी के दोनों ओर लकड़ी का बुरादा आटे के ढेर में परिवर्तित हो जाता। लकड़ी के चिरान की भी अपनी एक सौंधी गन्ध होती है—तवे में सेंकी जाती रोटियों की ख़ुशबू की तरह, और आरा मशीन का अपना संगीत होता है—किसी पहाड़ी झरने की झिर्र-झिर्र-सा। … पेण्ट शॉप में स्प्रे मशीन से उठती सतरंगी फुहारों के बीच बदरंग काठ-कबाड़ को नया रूप मिलता। जो लोहा-लंगड़ कुछ समय पहले मुरझाए, बदरंग रूप में एक कोने में उपेक्षित-सा पड़ा रहता, वही रंगों का स्पर्श पाकर नयी दुलहन-सा खिल उठता। नाक-मुँह और सिर पर कपड़ा लपेटे आरा मिल के कारीगर और पेण्ट शॉप के रंगसाज़ अपनी नकाबपोशी में रहस्यमय लगते।
… यार्ड के बाद मशीन शॉप थी जहाँ बीसियों खराद, मिलिंग, होनिंग, बोरिंग, ग्राइण्डर, ड्रिलिंग और दूसरी कई तरह की मशीनें कतारों में स्थापित की गयी थीं। हर मशीन का अपना संगीत चलता रहता और जब प्राय: सभी मशीनें चालू हालत में होतीं तो पूरे शेड में एक अद्भुत आर्केस्ट्रा बज उठता। हर धातु का अपना सरगम होता है। उसी खराद पर अगर लोहा कट रहा हो तो उसकी कर्कशता काँसे या पीतल की खनकदार आवाज से बहुत भिन्न होती है। ग्राइण्डर पर कच्चे लोहे और ऊँचे किस्म के स्टील की रगड़ से पैदा होने वाली आवाज़ ही अलग नहीं होती, बल्कि उनकी फुलझड़ियों की चमक भी अलग-अलग रंगत की होती है। … एसेम्बली लाइन में जहाँ अलग-अलग स्टेज पर विभिन्न कलपुर्जे गाड़ियों की चेसिस में जुड़ते, वहाँ इलेक्ट्रिक शॉप के अपेक्षाकृत शान्त वातावरण में विभिन्न प्रकार के बिजली उपकरणों का काम होता था। मशीनों का संगीत यहाँ भी था लेकिन मद्धिम सुर में। वह भले डायनामो की धूँ-धूँ हो या बीच-बीच में हॉर्न की पिपहरी।
… ढलाईघर का अपना विशेष आकर्षण था। लोहे की चौखटों में शीरे में गुँथी रेत के बीच लकड़ी के पैटर्न बिठाकर विभिन्न आकार में साँचे बनाये जाते और उन चौखटों में धातुओं को पिघलाकर डाल देने पर उन साँचों के आकार की वस्तुएँ तैयार हो जातीं। धातुओं को पिघलते और तरल होकर पानी की तरह बहते देखना कम रोमांचक नहीं होता। विशेष रूप से तब, जब उस पिघले पदार्थ से साँचे के गर्भ में एक नई आकृति का जन्म हो रहा हो। धातु के ठण्डा हो जाने पर चौखटों को खोलते हुए कारीगर को वैसी ही उत्सुकता होती है जैसे प्रसूतिगृह में किसी बच्चे के जन्म के समय माँ को होती होगी क्योंकि इस प्रक्रिया में जरा सी असावधानी आकृति को विरूपित कर सकती है, हवा का प्रवेश आकृति के शरीर में छिद्र पैदा कर सकता है और अपर्याप्त तरल पदार्थ उसे विकलांग कर सकता है।
… वेल्डिंग शॉप से ही सटा हुआ लोहारख़ाना था जहाँ दसियों छोटी-बड़ी भट्टियों में आँच धधकती रहती और ठण्डा काला लोहा गर्म होकर नारंगी रंग में बदल जाता। निहाई पर सँड़सी की गिरफ़्त में और घनों की लगातार चोटों के बीच लोहार द्वारा इधर-उधर घुमाये जाने के बाद वह लौह पिण्ड एक इच्छित आकार ले लेता। भारी घन चलाते हुए दो-दो लोहारों का क्रमश: एक ही लक्ष्य पर अचूक चोट करना और उन्हीं चोटों के बीच तीसरे व्यक्ति द्वारा लौह पिण्ड को अपनी इच्छानुसार संचालित करते देखना भी एक अनोखा अनुभव होता। इस लय-ताल में थोड़ा भी असन्तुलन बहुत महँगा पड़ सकता है लेकिन यही कारीगरी है जो दर्शक को एक युगल-नृत्य का आभास कराती है।” (‘हमारा कोहिनूर’, स्मृति में रहें वे, पृष्ठ 155-56)
इस ‘अद्भुत’ वातावरण में कहानीकार रोजी-रोटी के वास्ते ही पहुंचा था। और कोई विकल्प होता तो वह साहित्य से बहुत दूर की इस दुनिया को छोड़ने को तैयार भी था। प्रशिक्षण के लिए चयन के समय भरे गए बॉण्ड को तोड़ने की ऐवज में चुकाने के लिए चार हजार रुपए होने का सवाल ही न था। लिहाजा सुबह जल्दी तैयार होकर भागने, दिन भर कारखाने की नौकरी करने और देर शाम लौटने का यह सिलसिला जारी रहा। इसी के बीच समय निकालकर लेखन भी चलता रहा। जब भैरव जी के कहने पर कारखानों और मजदूरों के जीवन पर लिखना शुरू किया तो यह पूरा वातावरण उनके भीतर जीवंत हो उठा। दिल्ली में होटल वर्कर्स यूनियन के सानिध्य में जो वर्गीय चेतना प्रस्फुटित हुई थी, उसने मशीनों के पीछे के तेल-कालिख पुते चेहरों और दफ्तरों की कुर्सियों में धंसे गोरे-चमकदार चेहरों को पढ़ना सिखाया। यहीं उन्हें कथा-सूत्र मिलते गए और एक से एक चरित्र भी
“… तेल और कालिख से सने कपड़ों में ऐसी विभूतियाँ छिपी थीं, जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी को नया ही अर्थ दे दिया। यह मेरा एक आत्मीय संसार बन गया। हमारी रचनात्मकता, हमारे संघर्ष, हमारी ख़ुशी और हमारा दर्द सब साझा था। यहीं मुझे ‘उस्ताद’ मिले जो न चाहते हुए भी अन्तिम क्षणों में अपने शागिर्द को काम का गुर सिखाने को मजबूर थे, यहीं हाथों की ‘बदबू’ में मैंने जिजीविषा की तलाश की। यहीं ईमानदार लेकिन ‘मेंटल’ करार दिये गए लोग थे, यहीं विरोध की चिंगारी लिये ‘जी हजूरिया’ क़िस्म के लोग थे, यहीं ‘नौरंगी मिस्त्री’ था और यहीं मैंने श्यामलाल का ‘आशीर्वचन’ सुना और इन सबको अपनी कहानियों में अंकित कर पाया।” (“डांगरीवाले’ संग्रह की भूमिका, 1994)

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022


 

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