जी.एन. साईबाबा मामले की रोशनी में भारतीय पूँजीवादी न्याय व्यवस्था का सच
यह न्याय व्यवस्था नहीं है बल्कि व्यवस्थित अन्याय, शोषण व उत्पीड़न पर आधारित अन्यायी व्यवस्था है!

शिवानी

उच्चतम न्यायालय ने पिछले महीने अक्टूबर में बम्बई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के फ़ैसले को निलम्बित करते हुए ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के अन्तर्गत दर्ज माओवादियों से तथाकथित सम्बन्ध मामले में जी.एन. साईबाबा समेत पाँच अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई पर रोक लगा दी। ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय के इस आदेश से पहले बम्बई हाई कोर्ट ने जी.एन. साईबाबा व अन्य चार लोगों को रिहा करने का फ़ैसला सुनाया था। बम्बई उच्च न्यायालय ने अपना उक्त फ़ैसला 14 अक्टूबर को सुनाया था। उसी दिन, यानी 14 अक्टूबर को ही, बिना किसी देरी के महाराष्ट्र सरकार ने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित से सम्पर्क किया था। यह यू.यू. ललित वही शख़्सियत हैं जिन्होंने एक समय बतौर वकील सोहराबुद्दीन शेख़-तुलसी प्रजापति फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले में वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह की नुमाइन्दगी की थी जिसका तोहफ़ा उन्हें मोदी-शाह सरकार ने 2014 में सत्ता में आते ही उनकी सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर तत्काल नियुक्ति करके दिया था।

इसके बाद साईबाबा मामले में पूरा घटनाक्रम किसी “थ्रिलर” उपन्यास या फ़िल्म की तरह आगे बढ़ा जिसने “महान” भारतीय पूँजीवादी लोकतंत्र की उतनी ही “महान” न्यायिक व्यवस्था की पक्षधरता के विषय में रत्तीभर ग़लतफ़हमी भी नहीं रख छोड़ी। बचपन से नागरिक शास्त्र की पाठ्य पुस्तकों में न्यायपालिका के “निष्पक्ष” चरित्र की जो गल्प-कथाएँ हम पढ़ते और रटते आये हैं उसकी वास्तविकता तो सिर्फ़ इस एक अकेले मामले से ही सामने आने वाली थी। हालाँकि, हमारे देश की न्यायपालिका का चरित्र इसके पहले भी ऐसा कोई बेदाग़ या पाक-साफ़ नहीं रहा है और यह हक़ीक़त तो पिछले कुछ वर्षों में और अधिक खुलकर सामने आयी है।

बहरहाल, मुख्य न्यायाधीश ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई के उपरोक्त मसले को इतना “संगीन” पाया और “राष्ट्र” की “अखण्डता” व “सम्प्रभुता” के लिए इनकी रिहाई को इतना बड़ा “ख़तरा” समझा कि आव देखा न ताव, एक विशेष पीठ गठित कर दी जिसने शनिवार को, जी हाँ, उस दिन जिस दिन सुप्रीम कोर्ट आम तौर पर बन्द रहता है, इस मामले की विशेष सुनवाई की। साईबाबा व अन्य कार्यकर्ताओं की रिहाई रोकने के लिए राज्य जिस तत्परता के साथ आगे बढ़ा और जिस फुर्तीलेपन के साथ इस देश में “इन्साफ़” का सबसे बड़ा पहरुआ यानी कि सर्वोच्च न्यायालय हरकत में आया वह वाक़ई कई मायनों में अभूतपूर्व था।

इसके पश्चात सुप्रीम कोर्ट की इस विशेष पीठ ने आनन-फ़ानन में मामले पर विशेष सुनवाई की और दो घण्टे की लम्बी सुनवाई के बाद जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस बेला. एम. त्रिवेदी की पीठ ने महाराष्ट्र राज्य द्वारा दायर अपील पर नोटिस जारी करते हुए उपरोक्त आदेश पारित किया और साईबाबा व अन्य कार्यकर्ताओं की रिहाई पर रोक लगायी। यानी सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त फ़ैसला महाराष्ट्र सरकार व राज्य की अपील के जवाब में आया था। हमारे संविधान की अनूठी विशिष्टता के तौर पर कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के जिस सिद्धान्त का लच्छेदार व घुमावदार भाषा में इस्तेमाल संविधान में किया गया है (हालाँकि स्पष्ट तौर पर भारतीय संविधान में पृथक्करण शब्द इस्तेमाल नहीं किया गया है जो इस देश के संविधान की एक और ख़ासियत है कि यह अपने स्त्रोतों को स्पष्ट तौर पर ज़ाहिर नहीं होने देता है लेकिन सच्चाई यह है कि शक्तियों के पृथक्करण के इस सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु को अमेरिकी संविधान से ही उठा लिया गया था), उस शक्तियों के पृथक्करण का हुआ क्या? यह तो बुर्जुआ जनवादी लोकतंत्र की “ख़ासियत” थी और उसका दावा भी था न कि शक्तियों के पृथक्करण के ज़रिए वह राज्य को सर्वसत्तावादी होने से रोकता है, राज्य के सर्वाधिकारवादी बनने के विरुद्ध यह एक क़िस्म की संवैधानिक सुरक्षा प्रणाली मुहैया करवाता है और व्यक्ति (पढ़िए बुर्जुआ नागरिक) की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। तो फिर न्यायपालिका के निर्णयों में सरकारों का इतना हस्तक्षेप कैसे सम्भव हो पाया है? असलियत यह है कि ऐसा कोई पृथक्करण या चीन की दीवार पूँजीवादी राज्य की इन शाखाओं के बीच पहले भी कभी मौजूद नहीं थी और अनगिनत ऐसे मामले उदहारण के तौर पर गिनवाये जा सकते हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं। फ़र्क़ बस यह है कि फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में यह पर्देदारी भी पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है और पूँजीवादी राज्य व इसकी तमाम शाखाएँ अपने असली रंगरूप से सामने आ चुकी हैं।

लेकिन आख़िरकार साईबाबा मामले में उच्चतम न्यायलय की इस हड़बड़ी के पीछे क्या कारण था? और अदालतों द्वारा ऐसी हड़बड़ी कुछ विशेष मामलों के लिए ही क्यों आरक्षित होती है? जी.एन. साईबाबा व अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं के तत्काल रिहा होने से ऐसा कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता? क्या उनकी रिहाई से न्याय की हत्या हो जाती? अपने इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रो. साईबाबा जैसे लोग देश की “अखण्डता” और “सम्प्रभुता” के लिए ख़तरा हैं! उच्चतम न्यायलय ने अपने आदेश में यह भी कहा कि जहाँ तक आतंकवादी या ‘माओवादी’ गतिविधियों का सवाल है तो दिमाग़ अधिक “ख़तरनाक” होता है और इनमें प्रत्यक्ष भागीदारी ज़रूरी नहीं है यानी अगर कोई व्यक्ति प्रत्यक्षत: किसी साज़िश में शामिल न हो तो भी अपने दिमाग़ के ज़रिए वह ऐसी साज़िशों में शामिल होता है और उनके लिए मददगार होता है!

यह फ़ैसला बुर्जुआ न्यायालयों के अपने ही पिछले रिकॉर्ड और पैमाने से भी अभूतपूर्व है। यह रिकॉर्ड वैसे तो पहले ही इतना गया-बीता है कि हर ऐसा आदेश आने पर आश्चर्य होता है कि अब इसमें और कितनी गिरावट आ सकती है! बावजूद इसके भारतीय पूँजीवादी न्याय व्यवस्था हर बार अपने ही पिछले कीर्तिमानों को ध्वस्त करके विस्मृत करने की पूरी ताक़त रखती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले बम्बई हाई कोर्ट का आदेश भी वैसे तो कोई सराहनीय फ़ैसला नहीं था। हालाँकि प्रगतिशील-लिबरल तबक़ा उस फ़ैसले पर भी ऐसे भाव-विह्वल हो रहा था मानो कि इन्साफ़ की कितनी बड़ी मिसाल क़ायम की गयी हो। लेकिन इस पर आगे आयेंगे।

वैसे तो आम तौर पर भी लेकिन विशेषकर पिछले आठ वर्षों के भीतर जब से कि फ़ासीवादी मोदी सरकार शासन में है, न्यायपालिकाओं द्वारा इस प्रकार के फ़ैसले सुनाना कोई पूरी तरह से अप्रत्याशित बात भी नहीं रह गयी है। क्या आप हाल-फ़िलहाल में बिलकिस बानो मामले को भूल सकते हैं? जब इस साल 15 अगस्त को आज़ादी का “अमृत महोत्सव” मनाया जा रहा था, उसी दिन 2002 गुजरात नरसंहार के दौरान के बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार व हत्या मामले के 11 दोषियों को रिहा किया जा रहा था। क्या ये दंगाई और बलात्कारी  देश कीअखण्डताऔरसम्प्रभुताके दुश्मन नहीं थे? क्या न्यायालयों को तब इसकी चिन्ता नहीं सता रही थी कि ऐसे बर्बर अमानवीय कृत्यों को अंजाम देने वाले ये लोग समाज के लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं? क्या ऐसे लोगों के बाहर निकलने से इस देश की स्त्रियाँ और मुसलमान सुरक्षित महसूस कर पायेंगे? यह कौनसेराष्ट्रकी कैसीअखण्डताऔरसम्प्रभुताहै जिसे एक 80 प्रतिशत से अधिक विकलांग व्यक्ति के दिमाग़ से तो ख़तरा है लेकिन जो दंगाइयों, बलात्कारियों, हत्यारों के देश में छुट्टा घूमने से ज़रा भी खण्डित नहीं होती है? ज़रा सोचिए!

लेकिन क़ानूनी अन्धेरगर्दी का यह क़िस्सा यहीं ख़त्म नहीं होता है। 15 अक्टूबर को जहाँ एक ओर साईबाबा की रिहाई नामंज़ूर की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को 40 दिन की पैरोल पर रिहा किया जा रहा था। यह वही राम रहीम है जिसकी 2002 में दो पत्रकारों और 2021 में अपने आश्रम के प्रबन्धक की हत्या व 2017 में अपने ही आश्रम की दो स्त्री अनुयायियों के साथ बलात्कार के जुर्म में दोषसिद्धि हो चुकी है और इन संगीन जुर्मों के तहत वह अपराधी घोषित किया जा चुका है और 20 साल की सज़ा काट रहा है। लेकिन बावजूद इसके यह हत्यारा और बलात्कारी बाबा चैन से बाहर की हवा खा रहा है, वहीं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा साईबाबा के अधिवक्ता द्वारा उन्हें घर में नज़रबन्द किये जाने की अपील तक को ठुकरा दिया जाता है। इससे पहले भी इस साल फ़रवरी में राम रहीम को जेल से तीन हफ़्ते की छुट्टी मिली थी और कुल मिलकर वह अब तक छः बार जेल से बाहर आ चुका है।

बताते चलें कि पैरोल दरअसल सशर्त रिहाई होती है जो सरकार की मंज़ूरी के बग़ैर मिल ही नहीं सकती है। राम रहीम के मामले में यह प्राधिकार हरियाणा सरकार के पास था जहाँ पर कि “प्राचीन भारतीय संस्कृति”, “हिन्दू गौरव”, “संस्कारों” और “राष्ट्रभक्ति” की शिरोमणि संरक्षक और ठेकेदार भाजपा का शासन है। अब जिस पार्टी में बलात्कारियो, हत्यारों, भ्रष्टाचारियों, हिस्ट्रीशीटरों की स्वयं भरमार हो, जहाँ दंगाइयों के लिए पलक-पाँवड़े बिछाये जाते हों और मुसलमानों की लिंचिंग करने वालों का फूल मालाओं से स्वागत-सत्कार किया जाता हो, जिस पार्टी के नेता-मंत्री बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगे को लेकर रैलियाँ निकालते हों, वहाँ उसकी सरकार तो ऐसे बलात्कारी और हत्यारे “संस्कारी” बाबाओं को पैरोल पर रिहा करेगी ही! आख़िर चोर-चोर मौसेरे भाई जो ठहरे! राम रहीम के पैरोल के पीछे भाजपा के हरियाणा में चुनावी समीकरण भी काम कर रहे हैं, जहाँ उपचुनाव और पंचायत चुनाव होने वाले हैं और इसके ज़रिए भाजपा वोटों की फ़सल काटने की फ़िराक़ में है। लेकिन राम रहीम जैसों की रिहाई पर न्यायपालिका को कोई दिक़्क़त नहीं है। और न ही राम रहीम जैसे हत्यारे और बलात्कारी का पैरोल पर बाहर आना इस देश की अदालतों और न्यायाधीशों के दिमाग़ों में ख़तरे की घण्टी ही बजाता है। वहीं स्टैन स्वामी जैसे एक बेहद बुज़ुर्ग बीमार व्यक्ति को नक़ली व बेबुनियाद आरोपों और फ़र्ज़ी मुक़दमे में क़ैद कर लिया जाता है, स्वास्थ्य के आधार पर उनकी बेल तक नामंज़ूर कर दी जाती है और कोविड महामारी के दौरान हिरासत में ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है! और अब यह कहानी साईबाबा, गौतम नवलखा और वरवर राव जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ भी दुहरायी जा रही है। जी.एन. साईबाबा मामले के छठे अभियुक्त पाण्डु पोरा नरोते की इसी वर्ष अगस्त में मृत्यु हो चुकी है।

तो यह है पूँजीवादी न्याय व्यवस्था की असलियत! क्या अभी भी इस न्यायिक व्यवस्था की पक्षधरता और प्रतिबद्धता को लेकर कोई सन्देह बचा है? यह न्याय व्यवस्था नहीं है बल्कि आम मेहनतकशों-मज़दूरों, ग़रीबों, स्त्रियों, दलितों, मुसलमानों की लाशों की नींव पर खड़ी व्यवस्थित और संगठित अन्याय, शोषण और उत्पीड़न की व्यवस्था है जिसमें क़ानून की आँखों पर पूँजी के हितों की ही पट्टी बँधी हुई है जो इस वर्ग-विभाजित समाज में सम्पत्तिधारी व शोषणकारी वर्गों के प्रति क़ानून और न्यायपालिका की प्रतिबद्धता में ज़ाहिर होती है।

दरअसल पूँजीवादी न्याय व्यवस्था का भी एक स्पष्ट वर्ग चरित्र है। व्यवस्था की उत्तरजीविता बढ़ाने और पूँजीपतियों, पूँजीवादी दलों, सरकारों की नंगी लूट और तानाशाही पर पर्दा डालने के लिए बीच-बीच में न्यायपालिका कुछेक आभासी और औपचारिक तौर पर जनपक्षधर फ़ैसले देती है जिसके कारण इसके वास्तविक चरित्र को लेकर आम लोगों में भी विभ्रम बना रहता है। लेकिन आज के दौर में तो यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुकी है कि न्यायपालिका न सिर्फ़ पूँजी के हितों की सेवा कर रही है, जोकि वह आम तौर पर भी करती है बल्कि फ़ासीवादी संघ परिवार, भाजपा और मोदी-शाह के इशारों पर भी काम कर रही है। क्या कारण है कि फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ हर क़िस्म के राजनीतिक प्रतिरोध की ताक़तों व व्यक्तियों को क़ानूनी-संवैधानिक दायरे में औपचारिक तौर पर भी कोई राहत नहीं मिल पा रही है? स्पष्ट है कि न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण की दीर्घकालिक लम्बी प्रक्रिया अपने मुक़ाम पर पहुँच चुकी है।

पूँजीवादी विधिक अधिरचना यानी क़ानून, संविधान, न्यायपालिका, विधिक प्रणाली इत्यादि, अन्तिम विश्लेषण में, पूँजीवादी आर्थिक आधार, यानी पूँजीवादी निजी सम्पत्ति, पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों व पूँजीवादी वितरण सम्बन्धों की ही विधिक तौर पर हिफ़ाज़त करती है, इन सम्बन्धों को विधिक-संवैधानिक रूपों में रेखांकित करती है, उन्हें क़ायम रखने का काम करती है, उन्हें क़ानूनी मान्यता और वैधीकरण देती है और क़ानून के दायरे में इन सम्बन्धों का उत्पादन और पुनरुत्पादन भी करती है। लेकिन साथ ही, इस विधिक अधिरचना की आर्थिक मूलाधार से सापेक्षिक स्वायत्तता भी होती है जो ठीक इसी कारण से इसे अधिक वर्चस्वकारी बनाती है। यह अनायास नहीं है कि आम जनता के हिस्सों में भी प्रायः बिना किसी सचेत राजनीतिक चेतना के पूँजीवादी दलों, सरकारों, अफ़सरशाही, नौकरशाही, पुलिस आदि को कोसते हुए कई लोग मिल जाते हैं, उनकी असलियत को एक हद तक पहचानते और समझते हुए दिख जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका के विषय में अक्सर लोगों के बीच में भ्रम रहता है कि कहीं और इन्साफ़ मिले न मिले, अदालतों में न्याय अवश्य मिलेगा। यह भ्रम न्यायपालिका के वर्चस्वकारी चरित्र से ही पैदा होता है जो आम तौर पर, बुर्जुआ जनवाद के दौर में कुछेक ‘लैण्डमार्क” निर्णयों या आदेशों के तौर पर सामने आता भी रहता है। लेकिन यही सापेक्षिक स्वायत्तता फ़ासीवादी उभार के दौर में उतनी सापेक्षिक नहीं रह जाती है। यह पूँजीवाद की सेहत के लिए भी गुणकारी नहीं है कि न्यायपालिका सीधे और प्रत्यक्ष तौर पर पूँजी के हितों से, राज्य के अन्य अंगों-उपांगों से और राजनीतिक दलों से सम्बद्ध दिखलाई पड़े इसलिए ही तो शक्तियों के पृथक्करण का संवैधानिक स्वांग रचा जाता है। हालाँकि फ़ासीवाद के दौर में बुर्जुआ जनवाद का यह वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म ठीक से काम करना बन्द कर देता है। बड़ी एकाधिकारी पूँजी की नग्न तानाशाही अब अदालतों में भी खुलकर सामने आती है। कहना न होगा कि बुर्जुआ जनवादी लोकतंत्र के दौर में भी न्यायपालिकाओं का वास्तविक चरित्र उजागर होता ही रहता है।

अभी हम उन दैनन्दिन के अदृश्य अनगिनत मसलों की बात भी नहीं कर रहे हैं जो पूँजीवादी न्याय व क़ानून व्यवस्था की जनद्रोही प्रकृति और चरित्र को एक आम ग़रीब अधिकारविहीन मज़दूर के आगे उघाड़कर रख देता है। इस देश का आम मेहनतकश-मज़दूर या ग़रीब इन्सान तो इन्साफ़ पाने के लिए उच्चतम न्यायलय तक पहुँचने का सपना भी नहीं देख सकता है। हम उन असंख्य मामलों की बात भी यहाँ नहीं कर रहे हैं जिनमें अदालतों ने सीधे तौर पर या तो मज़दूर-विरोधी फ़ैसले सुनाये हैं या फिर मज़दूर-विरोधी रवैया अपनाया है; चाहे वह मारुति मज़दूरों का मामला रहा हो या फिर दिल्ली की आन्दोलनरत आंगनवाड़ीकर्मियों का मसला हो। हम यहाँ अभी ऐसे सारे संख्यातीत मामलों का ज़िक्र तक नहीं कर रहे हैं। लेकिन फिर भी वर्तमान उपस्थित मामले में भी यह बात क्या अपने आप में ही पूँजीवादी अदालतों और न्याय व्यवस्था की पोल नहीं खोल देती है कि पाँच साल तक एक ऐसे व्यक्ति को जेल में रखा जाता है जो कि 80 प्रतिशत से ज़्यादा विकलांग है और अपने पैरों पर चल भी नहीं सकता, यही नहीं उस व्यक्ति को अपनी क़ैद की एक लम्बी अवधि अमानवीय ‘अण्डा सेल’ में बितानी पड़ी है? स्वास्थ्य के आधार पर उनकी ज़मानत की सभी अपीलें बार-बार ख़ारिज की जाती रही हैं और हाल में ही जेल की जगह घर में नज़रबन्द किये जाने की अपील भी ख़ारिज कर दी गयी है। उपरोक्त मामले में जी.एन. साईबाबा के अलावा, प्रशान्त राही, हेम मिश्रा, विजय तिकरी और महेश तिकरी भी कई वर्ष जेलों में बिता चुके हैं और कई यातनाओं से गुज़र चुके हैं। यही नहीं, इस वक़्त भी ना जाने कितने ही राजनीतिक क़ैदी, बिना दोषसिद्धि, के जेलों में क़ैद हैं और इन्साफ़ की उम्मीद ही छोड़ चुके हैं। सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ हुए आन्दोलन के बाद चले दमनचक्र में कई बेक़सूर मुसलमान युवक, नागरिक व अन्य राजनीतिक-सामिजिक कार्यकर्ता भी यूएपीए जैसे काले क़ानून के अन्तर्गत दर्ज फ़र्ज़ी मामलों में सलाख़ों के पीछे हैं। उसके पहले यलगार परिषद् मामले में भी यही कथानक दुहराया जा चुका था।

लेकिन सत्ता पक्ष यानी फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े या संरक्षण प्राप्त दंगाइयों, बलात्कारियों-व्याभिचारियों, भ्रष्टाचारियों व हत्यारों को कोई सज़ा नहीं मिलती है। फ़र्ज़ी मुठभेड़ करवाने और करने वालों को, झूठे आरोप व साक्ष्य गढ़ने वालों को, फ़र्ज़ी मुक़दमे चलाने वालों के ख़िलाफ़ अदालतें और न्यायाधीश चूं तक नहीं करते हैं। आडवाणी, अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर प्रज्ञा सिंह ठाकुर, संगीत सोम, असीमानन्द “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात काफ़ूर हो जाते हैं। दरअसल, फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में इस देश की न्यायिक व्यवस्था भी नहीं चाहती है कि उसके चरित्र को लेकर कोई भ्रम या मुग़ालता पाला जाये!

अब अन्त में थोड़ी-सी बात इस देश के प्रगतिशील-लिबरल तबक़े पर भी। साईबाबा मामले में बम्बई हाई कोर्ट के आदेश पर लहालोट हो उठे इस देश के प्रगतिशीलों, उदारवादियों को सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये से ख़ासा धक्का पहुँचा है। दरअसल बम्बई उच्च न्यायलय का फ़ैसला भी मुक़दमे की कार्रवाई में अभियोजन पक्ष की ओर से की गयी तकनीकी चूकों पर आधारित था न कि मौलिक विधि सम्बन्धी प्रश्नों मसलन साक्ष्यों, मानवाधिकारों या संवैधानिक अधिकारों की सही व्याख्या पर। यानी उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर जिनके दिल बल्लियों उछल रहे थे वे बेजा ही ख़ुशियाँ मना रहे थे। वास्तव में, इन डूबतों को तिनके का सहारा मिल गया था! यह “प्रगतिशील” तबक़ा वही है जिसे जनता की ताक़त में कोई भरोसा नहीं है, उल्टे जनता इसे हर दम निराश ही करती है। इन “प्रबुद्ध” नागरिकों की नज़रों में जनता अपढ़, गंवार, अपने भले-बुरे की पहचान करने की क्षमता से रिक्त झुण्ड है, एक ‘मॉब’ है जो किसी राह चल सकती है! और फ़ासीवादी उभार के ख़िलाफ़ बतौर प्रतिरोध इस तबक़े को कभी राहुल गाँधी, ममता बैनर्जी, अरविन्द केजरीवाल तो कभी नितीश कुमार उम्मीद की किरण के तौर पर नज़र आते हैं या फिर कभी इसे धनी किसानों-कुलकों के द्वारा एमएसपी यानी बेशी मुनाफ़े के लिए किया गया आन्दोलन मोदी-शाह और फ़ासीवाद को चुनौती देता हुआ नज़र आता है। इतिहासदृष्टि से रिक्त इस तबक़े की स्थिति इस वक़्त सबसे ज़्यादा दयनीय है। मुख्य सवाल तो यह है कि क्या वाक़ई में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में कोई ताज्जुब करने की बात है? क्या विशेषकर पिछले 8 साल का न्यायिक इतिहास यह साफ़ नहीं कर देता है कि उच्चतम न्यायालय से लेकर निचली अदालतों तक न्याय व्यवस्था की क्या गत बन चुकी है? फ़ासीवाद के भारतीय संस्करण के उभार के लम्बे ऊष्मायन काल में भारतीय फ़ासिस्टों ने तमाम बुर्जुआ संस्थानों में तफ़सील के साथ व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है जिसके परिणाम आज सभी के सामने हैं। “महान” भारतीय पूँजीवादी लोकतंत्र का ऐसा कोई भी निकाय आज बचा नहीं है जो फ़ासीवादीकरण की प्रक्रिया से अछूता रहा हो और यह काम भारतीय फ़ासिस्टों ने “महान” भारतीय संविधान से बिना किसी प्रत्यक्ष छेड़छाड़ के अंजाम दिया है। बावजूद इसके यह “प्रगतिशील”, “प्रबुद्ध” नागरिक “महान” बुर्जुआ लोकतंत्र की “महान” न्याय व्यवस्था में अपनी श्रद्धा बरक़रार रखेंगे!

हमें इन “प्रगतिशीलों”, उदारवादियों को इनके हाल पर छोड़ देना चाहिए जो हर ऐसे छद्म आशावाद के बाद और गहरी निराशा में डूबते हैं और विलाप-प्रलाप करते हुए पाये जाते हैं। तो आज किस चीज़ की ज़रूरत है? आज इस देश की मज़दूर-मेहनतकश जमातों और हर उस इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को समझना होगा कि यह न्यायिक व्यवस्था, ये क़ानून-संविधान, ये कोर्ट-कचहरियाँ उनके लिए नहीं है, यह व्यवस्था ही उनके लिए और उनकी नहीं है। यह भ्रम जितनी जल्दी टूटेगा उतनी ही जल्दी सच्चे न्याय और सच्ची समानता पर आधारित व्यवस्था, जो महज़ औपचारिक तौर पर काग़ज़ों में दर्ज-मात्र नहीं होगी, स्थापित और बहाल करने की जंग शुरू की जा सकेगी और फ़ासीवाद के विरुद्ध भी कोई कारगर जुझारू मोर्चा खुल पायेगा। इस बर्बर शोषक दमनकारी व्यवस्था और इसके अंगों-उपांगों को बनाये और बचाये रखने में शोषकों और उत्पीड़कों का हित है, मज़दूरों-मेहनतकशों का नहीं।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments