आज़ाद ज़िन्दगी के लिए ज़ालिम इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ ईरान की औरतों की बग़ावत

आनन्द

गत 16 सितम्बर को ईरान की राजधानी तेहरान में महसा अमीनी नामक कुर्द मूल की 22 वर्षीय ईरानी युवती की मौत के बाद शुरू हुआ आन्दोलन सत्ता के बर्बर दमन के बावजूद जारी है। ग़ौरतलब है कि महसा को 13 सितम्बर को ईरान की कुख्यात नैतिकता पुलिस ने इस आरोप में गिरफ़्तार करके हिरासत में लिया था कि उसने सही ढंग से हिजाब नहीं पहना था और उसके बाल दिख रहे थे। हिरासत में उसको दी गयी यंत्रणा की वजह से वह कोमा में चली गयी और तीन दिन बाद उसकी मौत हो गयी। हालाँकि ईरान की शिया इस्लामी कट्टरपन्थी हुकूमत ने यह साबित करने के लिए तमाम कहानियाँ गढ़ीं कि महसा की मौत बीमारी की वजह से हुई थी, लेकिन यह सफ़ेद झूठ लोगों के आक्रोश को शान्त न कर सका। ईरान के लगभग सभी प्रमुख शहरों में बड़ी संख्या में औरतों ने विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू कर दिया जिसमें बाद में पुरुष भी शामिल होते गये। औरतों ने हिजाब सहित अपने ऊपर थोपी गयी तमाम पाबन्दियों के विरोध में अपने हिजाब जलाये और सार्वजनिक रूप से अपने बालों को काटा। ये प्रदर्शन जंगल की आग की तरह समूचे ईरान में फैलते चले गये और जल्द ही वे समूचे निज़ाम के ख़िलाफ़ एक देशव्यापी आन्दोलन में तब्दील हो गये। अयातुल्लाह खमेनी की सत्ता द्वारा बर्बरता से दमन करने की कोशिशों के बावजूद आन्दोलन नहीं थमा। ईरान में सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित न्यूज़ एजेंसी एचआरएएनए के अनुसार 20 अक्टूबर तक सरकार के दमन की वजह से 244 प्रदर्शनकारियों की मौत हो चुकी थी जिसमें 32 किशोर भी शामिल हैं। इसके अलावा 114 शहरों व गाँवों के 82 विश्वविद्यालयों में 12,500 से भी अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। इस आन्दोलन को फैलने से रोकने के लिए इण्टरनेट व सोशल मीडिया पर तमाम प्रतिबन्ध लगाये जा रहे हैं। यह सब दिखाता है कि खमेनी की ज़ालिम सत्ता इस आन्दोलन से कितनी ख़ौफ़ज़दा है।
ईरान में जारी यह आन्दोलन वहाँ की औरतों की घुटन-भरी ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ बग़ावत और आज़ाद ज़िन्दगी जीने की उनकी चाहत की अभिव्यक्ति है जो उनके नारे ‘जान (औरतें), ज़़ेन्दगी, आज़ादी’ में भी झलकता है। 1979 में ईरान की तथाकथित इस्लामी क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आये शिया इस्लामी कट्टरपन्थी निज़ाम ने इस्लामी क़ानून शरिया लागू करते हुए महिलाओं पर बेइन्तहा पाबन्दियाँ थोपी हुई हैं। सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें हिजाब के बिना जाने की मनाही है। यही नहीं, राज्यसत्ता यह भी तय करती है कि उन्हें किस तरह का हिजाब पहनना है और कैसे पहनना है। हिजाब पहनने के बाद उनके बाल नहीं दिखने चाहिए और उन्हें ढीली-ढाली हिजाब ही पहननी होती है। अगर वे टाइट हिजाब पहनती हैं या अगर वे हिजाब इस तरह से पहनती हैं कि उनके बाल नज़र आते हैं तो सड़कों पर मौजूद नैतिकता पुलिस के सिपाही उनके साथ बदतमीज़ी-भरी अपमानजनक पूछताछ करते हैं और उन्हें हिरासत में भी ले सकते हैं, जैसाकि महसा अमीनी के मामले में हुआ। हिजाब न पहनने या सही ढंग से हिजाब न पहनने पर ईरानी औरतों को दो महीने तक हिरासत में रहना पड़ सकता है और उन्हें 5 लाख रियाल (ईरानी मुद्रा) तक का दण्ड देना पड़ सकता है या फिर उन्हें 74 कोड़ों की सज़ा मिल सकती है।
हिजाब सम्बन्धी यह बर्बर क़ानून ईरान में महिलाओं के साथ होने वाले अपमानजनक भेदभाव व अत्याचार की बस एक बानगी है। इसके अलावा सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के पहनावे व मेकअप सम्बन्धी तमाम बन्दिशें हैं। उन्हें अकेले घूमता देख नैतिकता पुलिस कभी भी उनके आईडी कार्ड चेक कर सकती है। उन्हें विदेश जाने के लिए अपने पति या पिता की अनुमति लेनी होती है। साधारण परिस्थितियों में वे अपने पति को तलाक़ नहीं दे सकती हैं। ईरान में लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र मात्र 13 वर्ष है। वहाँ लड़कियाँ अपनी पसन्द से शादी नहीं कर सकती हैं, उन्हें शादी के लिए अपने पिता या दादा की अनुमति लेनी होती है। मुस्लिम महिलाएँ ग़ैर-मुस्लिम से शादी नहीं कर सकती हैं। विधवा महिलाओं को उनके मृत पति की समूची सम्पत्ति नहीं मिलती है जबकि विधुर पुरुषों को उनकी मृतक पत्नी की पूरी सम्पत्ति मिल जाती है।
ईरानी औरतों पर ज़ालिम इस्लामी कट्टरपन्थी सत्ता द्वारा थोपी गयी उपरोक्त पाबन्दियों व बन्दिशों के ख़िलाफ़ वहाँ समय-समय पर प्रतिरोध होते रहे हैं। महसा अमीनी की मौत के बाद शुरू हुई ईरानी औरतों की बग़ावत इस प्रतिरोध के सिलसिले की नवीनतम कड़ी है। इस बग़ावत की ख़ासियत यह है कि इसमें बड़ी संख्या में पुरुष भी महिलाओं के कन्धे से कन्धा मिलाकर महिलाओं की आज़ादी के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं। ईरान के तमाम शहरों में विश्वविद्यालयों के छात्र भी बड़ी संख्या में शामिल हो रहे हैं। यही नहीं, कई शहरों में औद्योगिक मज़दूरों व ट्रेड यूनियनों ने भी इस आन्दोलन को अपना समर्थन दिया है। औरतों की आज़ादी की माँग को लेकर शुरू हुए इस स्वत:स्फूर्त आन्दोलन के बर्बर दमन के बाद यह आन्दोलन अयातुल्लाह खमेनी की हुकूमत के ख़िलाफ़ एक देशव्यापी जनान्दोलन में तब्दील हो गया।
मौजूदा आन्दोलन के व्यापक स्वरूप से यह स्पष्ट है कि यह औरतों के ऊपर हो रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ बग़ावत के साथ ही साथ समूचे इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ लोगों के आक्रोश को भी अभिव्यक्त कर रहा है। ग़ौरतलब है कि ईरान में इस्लामी निज़ाम के आवरण में एक महाभ्रष्ट पूँजीवादी तंत्र अस्तित्वमान है जिसकी बागडोर अयातुल्लाह खमेनी के नेतृत्व में कट्टरपन्थी मुल्लों और तथाकथित ‘रिवोल्यूशनरी गार्ड’ के हाथों में है जिनके तार वहाँ के सैन्य औद्योगिक आर्थिक संकुल (मिलिटरी इण्डस्ट्रियल इकोनॉमिक कॉम्पलेक्स) से जुड़े हैं और जो वहाँ की अर्थव्यवस्था के प्रमुख सेक्टरों पर क़ाबिज़ हैं। साढ़े आठ करोड़ की जनसंख्या वाले ईरान में यह छोटा-सा तबक़ा वहाँ बुनियाद नामक ट्रस्टों के तहत तमाम अनुबन्धों और परमिटों को हासिल करके अकूत मुनाफ़ा कूट रहा है। ईरान की अर्थव्यवस्था का आधारभूत स्तम्भ वहाँ के तेल व गैस संसाधन हैं। दुनिया के कुल तेल उत्पादन का 10 फ़ीसदी व कुल गैस उत्पादन का 15 फ़ीसदी अकेले ईरान में होता है। तेल व गैस के निर्यात से प्राप्त अकूत सम्पत्ति हड़पकर वहाँ ईरान का शासक तबक़ा विलासिता-भरी ज़िन्दगी बिता रहा है। वहीं दूसरी ओर वहाँ की बहुसंख्य मेहनतकश आबादी मुफ़लिसी और ज़िल्लत-भरी ज़िन्दगी बिताने को मजबूर है। ख़ास तौर पर 1990 के दशक में राष्ट्रपति रफ़संजानी के शासन में शुरू किये गये नवउदारवादी सुधारों के बाद से ईरानी समाज की ग़ैर-बराबरी में बेइन्तहा बढ़ोत्तरी हुई है जिसकी वजह से वहाँ के आम लोगों में खमेनी हुकूमत के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त आक्रोश है। अमेरिका व अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों द्वारा ईरान पर लगाये गये प्रतिबन्धों ने वहाँ के हुक्मरानों पर तो ज़्यादा असर नहीं डाला, लेकिन उन्होंने आम लोगों की ज़िन्दगी के हालात को और बिगाड़ने का काम किया है। ग़ौरतलब है कि 2019-20 में कोरोना महामारी के पहले भी पेट्रोल की क़ीमतों में भीषण बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ ईरान में एक देशव्यापी जुझारू आन्दोलन हुआ था जिसके निशाने पर समूचा धार्मिक कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम था। कोरोना के बाद वहाँ के आर्थिक हालात बदतर हुए हैं। महँगाई की दर 30 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हो चुकी है और बेरोज़गारी भी बढ़ी है। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि हिजाब के मुद्दे पर शुरू हुआ आन्दोलन कैसे समूचे निज़ाम के ख़िलाफ़ आन्दोलन में तब्दील हो गया। इस आन्दोलन का असर ईरान के कुर्द व बलूची अल्पसंख्यकों के इलाक़ों में सबसे ज़्यादा हुआ है क्योंकि इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम की वजह से ईरान में क्षेत्रीय असमानता भी तेज़ी से बढ़ी है और अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के इलाक़े अन्य इलाक़ों से बहुत पीछे हैं। ग़ौरतलब है कि महसा अमीनी अल्पसंख्यक कुर्द मूल की थी जिनके साथ ईरान में ज़बर्दस्त भेदभाव होता है।
कुछ लोग ईरान में जारी आन्दोलन को पूरी तरह से पश्चिम द्वारा प्रायोजित बता रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पश्चिमी मीडिया ईरान में जारी आन्दोलन को ज़बर्दस्त कवरेज दे रहा है क्योंकि साम्राज्यवादी लुटेरे भी ईरान में सत्ता परिवर्तन करके अपने अनुकूल सरकार लाना चाह रहे हैं। यह भी सच है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के हुक्मरानों ने ईरान में औरतों पर हो रहे ज़ुल्मों पर घड़ियाली आँसू भी बहाये हैं। ईरान के पूर्व बादशाह मोहम्मद रेज़ा शाह पहलवी के बेटे रेज़ा पहलवी ने भी खमेनी की सत्ता को बदलने की अपील की है और साम्राज्यवादियों के सामने ईरान में खमेनी की सत्ता के विकल्प के रूप में ख़ुद की दावेदारी पेश करने की क़वायद शुरू कर दी है। लेकिन समूचे आन्दोलन को पश्चिम द्वारा प्रायोजित बताने का कोई प्रमाण नहीं है। वैसे भी ऐसा विश्लेषण हमें ‘कॉन्सपिरेसी थियरी’ के गड्ढे में ले जायेगा क्योंकि यह ईरानी समाज के अन्दरूनी अन्तरविरोधों की अनदेखी कर बाहरी अन्तरविरोध को प्रधानता देता है।
सच तो यह है कि यह आन्दोलन औरतों पर लगातार हो रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ औरतों के स्वत:स्फूर्त विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था जिसमें बाद में अन्य तबक़े जुड़ते चले गये। लेकिन इस आन्दोलन की स्वत:स्फूर्तता इसकी कमज़ोरी भी है क्योंकि एक संगठित नेतृत्व के अभाव में इसे व्यापक आधार वाले व सत्ता को चकनाचूर करने में सक्षम जनान्दोलन में तब्दील करना मुश्किल है। ऐसे सांगठनिक नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी व सत्ता द्वारा बर्बर दमन करने की सूरत में यह आन्दोलन भले ही तात्कालिक तौर पर खमेनी की सत्ता को उखाड़ न पाये, लेकिन इतना तो तय है कि ईरान की औरतों द्वारा छेड़ी गयी यह ऐतिहासिक बग़ावत इस ज़ालिम निज़ाम के ताबूत की एक कील साबित होगी।
हम भारतीय मज़दूरों-मेहनतकशों को भी ईरान के इस जनान्दोलन को पूरा समर्थन देना चाहिए। लेनिन ने बताया था कि हर देश का मज़दूर वर्ग अपने दुश्मन पूँजीपति वर्ग का मुक़ाबला राजनीतिक तौर पर तभी कर सकता है, जबकि वह शोषण, उत्पीड़न और अन्याय की हर घटना के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करे, चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने में घटित हो। केवल तभी मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित हो सकता है और केवल तभी वह पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने और अपनी राजनीतिक सत्ता को स्थापित करने का लक्ष्य पूरा कर सकता है।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments