‘सीओपी’ से यदि पर्यावरण विनाश रुकना है तब तो विनाश की ही सम्भावना अधिक है!

सार्थक

पिछले महीने मिस्र के शर्म अल-शेख़ शहर में 6 नवम्बर से 20 नवम्बर तक जलवायु संकट पर ‘कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़’ का सत्ताइसवाँ सम्मलेन (सीओपी-27) आयोजित किया गया। एक बार फिर तमाम छोटे-बड़े देशों के प्रतिनिधियों ने अन्तरराष्ट्रीय मंच पर इकट्ठा होकर जलवायु संकट पर घड़ियाली आँसू बहाये, पर्यावरणीय विनाश पर शोक-विलाप किया, पृथ्वी को तबाही से बचाने की अपीलें की। इसके अलावा, जलवायु संकट के लिए कौन-से देश ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं और कौन इसके लिए आर्थिक भरपाई करेगा, इस मुद्दे पर भी लम्बी खींचातानी चली। लेकिन दो सप्ताह की नौटंकी के बाद इस सम्मेलन का भी वही हश्र हुआ जो इसके पहले के सम्मेलनों का हुआ था। यानी जलवायु संकट वहीं का वहीं बना हुआ है लेकिन विश्व पटल पर प्रकृति बचाने का नाटक खेल लिया गया। ‘सीओपी-27’ से भी कोई ठोस रणनीति या योजना हाथ नहीं लगी, बस जुमले, खोखले वायदे और झूठी तसल्लि‍यों का मुज़ाहिरा हुआ। हमें ऐसे सम्मेलनों से कुछ अधिक की उम्मीद भी नहीं थी हालाँकि इसे आयोजित करने में भले ही दुनिया के मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई को पानी की तरह बहाया गया होगा।
दुनियाभर के जलवायु विशेषज्ञ, वैज्ञानिक और पर्यावरणविद ‘सीओपी-27’ सम्मेलन से तीन मुख्य बिन्दुओं पर ठोस निर्णय की उम्मीद लगाये हुए थे। ये तीन मुख्य बिन्दु हैं – ग्लोबल वॉर्मिंग (पृथ्वी का तापमान बढ़ने) को 2015 के पेरिस समझौते के तहत तय 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के लिए एक ठोस रूपरेखा और कार्यदिशा अपनाना, ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की सालाना आर्थिक सहायता पर ठोस निर्णय लेना और जवाबदेही और तीसरे, जलवायु संकट की मार झेल रहे देशों के लिए एक हानि व क्षति कोष (‘लॉस एण्ड डैमेज फ़ण्ड’) का गठन करना। इन तीन बिन्दुओं में से सिर्फ़ तीसरे बिन्दु पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका है। निर्धारित समयसीमा के समाप्त होने के बाद दो दिनों तक चली लम्बी रस्साकशी के बाद महज़ हानि व क्षति कोष का गठन करने पर मंज़ूरी बन पायी। लेकिन इस कोष में कौन-सा देश कितना आर्थिक योगदान करेगा और कौन-से देश इस कोष का उपभोग कर पायेंगे, यह अब तक स्पष्ट नहीं है। इस मसले को अगले सम्मलेन तक टाल दिया गया है।
दुनियाभर का प्रभुत्वशाली मीडिया इस फ़ैसले को ‘सीओपी-27’ की एकमात्र सफलता के रूप में पेश कर रहा है। लेकिन यह असल में एक निरर्थक क़दम है क्योंकि दुनिया के दो प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देश – चीन और भारत ने ख़ुद को विकासशील देश बताते हुए इस कोष में योगदान करने से साफ़ मना कर दिया है। ऐसी स्थिति में इस बात की सम्भावना बहुत कम ही है कि अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और कुछ अन्य विकसित देश मिलकर एक स्थायी कोष का निर्माण करेंगे। जनता के दबाव से यह कोष अगर गठित हो भी जाता है, तो क्या इससे सभी विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही क्षति की पूरी भरपाई की जा सकती है? नहीं।
एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले पाकिस्तान में इस साल आयी बाढ़ से 30 अरब डॉलर की क्षति हुई है। इन सबसे परे सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जलवायु संकट के कारण लाखों की तादाद में हो रही मौतों की भरपाई यह कोष कर सकता है? क्या लोगों की ज़िन्दगियों को पैसे से तोला जा सकता है? क्या मरने वालों के परिवार को पैसे देकर उनके प्रियजन लौटाये जा सकते हैं? नहीं। पकिस्तान की बाढ़ में 1700 लोगों की मौत हो गयी। जब तमाम देशों के पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि ‘सीओपी-27’ की नौटंकी में शरीक थे, उसी समय सोमालिया की जनता एक भीषण सूखे और अकाल से जूझ रही थी। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (‘यूनिसेफ़’) के अनुसार सोमालिया के पाँच साल से कम आयु के पाँच लाख बच्चे इस सूखे और अकाल से मर सकते हैं। ‘लान्सेट’ वैज्ञानिक पत्रिका की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2000-2004 की तुलना में 2017-2021 की अवधि में भीषण गर्मी या सर्दी के कारण एक साल से कम आयु के बच्चों और 65 साल से अधिक आयु के वयस्कों की 68 प्रतिशत ज़्यादा मौतें हुई हैं। मोनाश विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये एक शोध के अनुसार 2000 से 2019 के बीच असामान्य गर्मी या सर्दी के कारण हर साल औसतन 50 लाख लोगों की मौत हुई है। क्या इन मौतों की भरपाई साम्राज्यवादी-पूँजीवादी देशों के चन्द टुकड़ों से हो सकती है? वह भी तब जब इस कोष की कोई ठोस रूपरेखा या भौतिक आधार नहीं है, बस हवा में बात उछाली गयी है। सिर्फ़ एक कोष के गठन का खोखला वायदा करके पूँजीपति वर्ग और भाड़े का मीडिया हमें इस ग़फ़लत में रखना चाहता है कि जलवायु संकट के प्रति उनका सरोकार गम्भीर है और वे इस ओर कुछ सकारात्मक क़दम उठा रहे हैं। लेकिन हम-आप अच्छे से जानते हैं कि वास्तविकता इससे मीलों दूर है।
2015 में ‘सीओपी-21’ में पेरिस समझौते के तहत औद्योगिक क्रान्ति के पहले ग्लोबल वॉर्मिंग का जो स्तर था उसकी तुलना में 1.5 डिग्री की बढ़ोत्तरी तक सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। उस समय दुनियाभर के प्रभुत्वशाली मीडिया ने इसे जलवायु संकट के समाधान की दिशा में एक मील-का-पत्थर क़रार दिया था। पेरिस समझौते के बाद छह ‘सीओपी’ सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह लक्ष्य हासिल कैसे किया जायेगा। इन सम्मेलनों में तमाम देशों ने कुछ वायदे, कुछ दावे ज़रूर किये, लेकिन कोई भी संजीदा जलवायु विशेषज्ञ या पर्यावरणविद इन वायदों और दावों को गम्भीरता से नहीं ले रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (‘यूएनईपी’) द्वारा पिछले महीने प्रकाशित रिपोर्ट में यह साफ़ लिखा गया है कि वर्तमान स्थिति के अनुसार सदी के अन्त तक 1.5 डिग्री के लक्ष्य को हासिल करने का कोई भी प्रामाणिक रास्ता नहीं दिख रहा है। रिपोर्ट के अनुसार अगर सभी देश उसी ढर्रे पर चलते रहे जैसा कि आज चल रहे हैं तो सदी के अन्त तक पृथ्वी का तापमान 2.8 डिग्री बढ़ जायेगा। अगर सभी देश अपने किये गये वायदों को पूरा भी करते हैं, जिसकी सम्भावना नहीं के बराबर है, तब भी पृथ्वी का तापमान 2.4 डिग्री तक बढ़ जायेगा। जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल के अनुसार यह काफ़ी हद तक सम्भव है कि अगले 18 सालों में ही हम 1.5 डिग्री सीमा को पार कर जायेंगे। आज जब ग्लोबल वॉर्मिंग 1.1 डिग्री है तब तो हमें भीषण लू, प्रलयंकारी बाढ़, सूखा, कड़ाके की सर्दी, साइक्लोन, जंगलों की आग आदि का नियमित सामना करना पड़ रहा है। दो दशक में जब यह बढ़कर 1.5 डिग्री हो जायेगी तब स्थिति कितनी भयंकर होगी उसकी कल्पना कर ही हम सिहर उठते हैं।
लेकिन ‘सीओपी-27’ में पहुँचे प्रतिनिधियों को देखकर लग रहा था कि उनके लिए ऐसी प्राकृतिक तबाही ज़्यादा गम्भीर बात नहीं है, तभी किसी ठोस निर्णय तक नहीं पहुँचा गया। जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल, डीज़ल आदि की खपत को किस तरह चरणबद्ध तरीक़े से ख़त्म करना है उस पर भी कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं बनायी गयी। कहा जाता है कि जब रोम जल रहा था तब रोम का बादशाह नीरो बाँसुरी बजा रहा था। दुनियाभर का पूँजीपति वर्ग और इसके तमाम राजनीतिक प्रतिनिधि जलवायु संकट के प्रति नीरो की ही तरह बेसुध और आत्ममुग्ध दिख रहे हैं। आज पृथ्वी विनाश के मुहाने पर खड़ी है लेकिन सभी देशों की सरकारें पूँजीपति वर्ग के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा सुनिश्चित करने के मक़सद से सारे नियम-क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर पूरी प्राकृतिक सम्पदा उनके पैरों में न्योछावर कर रही हैं। मुनाफ़े की हवस में पागल पूँजीपति न वर्तमान न भविष्य, कुछ भी नहीं देख रहे और सभी कुछ होम कर रहे हैं।
दो सप्ताह तक चले इस सम्मलेन में भी नफ़ा-नुक़सान ही मुद्दा बना रहा। ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने की रणनीति का मुद्दा तो कहीं डिनर टेबलों के नीचे या कु‍र्सियों के पीछे पड़ा रहा। बहस इस बात पर हो रही थी कि पर्यावरण को हो रहे नुक़सान की भरपाई कौन करेगा। इसके अलावा दूसरा प्रमुख मुद्दा यह बना कि विकासशील देशों में ‘ग्रीन तकनोलॉजी’ का उपयोग बढ़ाने के लिए विकसि‍त देशों द्वारा दिया जाने वाला अनुदान कितना हो। 2009 के कोपेनहेगेन सम्मलेन में यह तय हुआ था कि प्रति वर्ष विकसित देश ‘ग्रीन तकनोलॉजी’ के लिए 100 अरब डॉलर आर्थिक सहायता देंगे। पिछले साल विकसित देशों ने विकासशील देशों को क़रीब 80 अरब डॉलर की सहायता दी। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि जो पैसे विकासशील देशों को मिले उसका अधिकांश अनुदान के रूप में नहीं बल्कि क़र्ज़ के रूप में दिया गया है। आर्थिक सहायता का एक बड़ा हिस्सा तो काग़ज़ों पर किये वायदों की तरह है जिन्हें विकसित देशों ने कभी पूरा ही नहीं किया। स्पष्ट है कि विकसित देश ‘हरित तकनोलॉजी’ के विकास और कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह फेर रहे हैं। लेकिन इसे बहाना बनाकर सभी विकासशील देशों की सरकारें जिस तरह पर्यावरण संकट के समाधान के सवाल पर अपने हाथ खड़े कर रही हैं और अपनी बेबसी का रोना रो रही हैं वह सिर्फ़ उनकी चालबाज़ी की ही निशानी है। आज किसी भी देश में पर्यावरणीय विनाश के लिए उस देश का घरेलू पूँजीपति वर्ग उतना ही ज़िम्मेदार है जितना विदेशी पूँजीपति वर्ग। हम भारत के मज़दूरों को तो यह साफ़ समझ लेना चाहिए कि हमारे देश में प्रकृति का जो अन्धाधुन्ध दोहन हो रहा है उसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार यहाँ का घरेलू पूँजीपति वर्ग है। साल-दर-साल सभी देशों के पूँजीपति वर्गों की पार्टियाँ अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में जलवायु संकट का ठीकरा एक दूसरे के माथे फोड़ती रहती हैं, लेकिन इस संकट की मार तो हम मेहनतकशों को ही झेलनी पड़ती है।
पहले के छब्बीस ‘सीओपी’ की तरह यह ‘सीओपी-27’ भी एक नौटंकी से ज़्यादा और कुछ नहीं है। 1995 में ‘सीओपी’ का पहला सम्मेलन आयोजित हुआ था। उस समय वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड का संकेन्द्रण 362 पीपीएम था। आज यह बढ़कर 420 पीपीएम हो गया है। कहने का मतलब यह है कि पिछले 27 सालों में तमाम देशों के प्रतिनिधि प्रति वर्ष जलवायु संकट और पर्यावरणीय विनाश की दुहाई देते रहे हैं। लेकिन कार्बन उत्सर्जन तेज़ी से बढ़ता चला गया और जलवायु संकट बद से बदतर होता गया। अगर हम ग्लासगो में हुए ‘सीओपी-26’ की बारीकियों पर नज़र डालें तो बात और भी साफ़ हो जाती है। उदाहरण के लिए, इस सम्मलेन में 145 देशों ने 2030 तक जंगलों की पूरी कटाई को पूरी तरह से ख़त्म करने के प्रस्ताव पर रज़ामन्दी दी थी। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत और ब्राज़ील भी शामिल थे। लेकिन इस सम्मेलन के बाद दोनों देशों ने अन्धाधुन्ध जंगल काटे। ब्राज़ील में तो जनवरी से जून 2022 के बीच रिकॉर्ड-तोड़ जंगल काटे गये। महज़ छह महीनों में क़रीब चार लाख हेक्टेयर वर्षावन को साफ़ कर दिया गया। भारत में भी पिछले एक साल में क़रीब एक लाख हेक्टेयर जंगल काटा गया है। मोदी सरकार के 2014 में सत्ता में आने के बाद से भारत में 10 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा जंगल काट डाले गये हैं। हर साल देश में बाढ़ की समस्या बढ़ती जा रही है। जहाँ बाढ़ नहीं आती थी वहाँ बाढ़ आ रही है। बाढ़ पहले से ज़्यादा विनाशकारी और आक्रामक होती जा रही है। इसके पीछे भी मुख्य कारण पूँजीपतियों की मुनाफ़े की हवस के चलते जंगलों का सफ़ाया है।
एक ओर देश में पर्यावरण की यह बदहाल स्थिति और दूसरी ओर भारत के बड़बोले प्रधानमंत्री। अपनी आदत से मजबूर नरेन्द्र मोदी अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर भी बड़े-बड़े जुमले फेंक आते हैं। लेकिन यहाँ फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि ‘सीओपी’ सम्मेलन और इस जैसे तमाम अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर सिर्फ़ मोदी ही नहीं, लगभग सभी बड़े देशों के प्रतिनिधि जुमलेबाज़ी ही करते हैं। विश्व के जलवायु संकट और प्राकृतिक विनाश पर घड़ियाली आँसू ही बहाते हैं। ‘सीओपी-26’ में भारत और चीन दोनों ने कोयले की खपत को चरणबद्ध तरीक़े से धीरे-धीरे कम करते हुए समाप्त करने की बात कही थी। लेकिन सच्चाई यह है कि दुनियाभर में जितने भी नये कोयले से चलने वाले पावर प्लाण्ट बन रहे हैं, उसका लगभग 55 प्रतिशत चीन बना रहा है और 15 प्रतिशत भारत बना रहा है। ‘सीओपी’ जैसे सम्मेलन कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए कितने प्रतिबद्ध हैं इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘सीओपी-27’ में जीवाश्म ईंधन उद्योग से जुड़े 636 प्रतिनिधि शामिल थे। इन प्रतिनिधियों ने गैस और पेट्रोल के कम-से-कम 12 नये सौदे वहीं सम्मेलन में बैठे-बैठे कर लिये!
सम्मेलन के बाहर जलवायु संकट पर अन्तरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों के घड़ियाली आँसू और नाकारेपन का प्रतिरोध करने पर्यावरण कार्यकर्ता पहुँचे हुए थे। उन्हें सम्मेलन की जगह से मीलों दूर सेना की निगरानी में रखा गया था। मीडिया भी बेहद सीमित संख्या में वहाँ उपस्थित था। लेकिन इसके विपरीत बड़ी-बड़ी तेल कम्पनियों के मालि‍कों का लाल क़ालीन बिछाकर स्वागत हो रहा था। इनमें शेल, एक्सॉन, बीपी, अरामको आदि कम्पनियों के प्रतिनिधि आये थे। इससे पूरे सम्मेलन की गम्भीरता को समझा जा सकता है। ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने में कोयले के बाद सबसे बड़ा हाथ जीवाश्म ईंधनों, या‍नी पेट्रोल, डीज़ल आदि का है और उन पर नियंत्रण की जगह सम्मेलन में उनके सौदे किये जा रहे थे।
पर्यावरण बचाने के नाम पर दुनियाभर के पूँजीपतियों और उनकी चाकर सरकारों की नौटंकी हमारे सामने है। सवाल यह है कि हमें क्या करना है? विज्ञान हमें यह बताता है कि आपसी होड़ और मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों में रहकर जलवायु संकट का समाधान नामुमकिन है। आने वाले दिनों में मुनाफ़े की गिरती दर के कारण जब पूँजीवादी संकट और तीव्र होगा, तो पूँजीपतियों द्वारा श्रम का शोषण और प्रकृति का दोहन भी बढ़ेगा। इससे जलवायु संकट भी ज़्यादा भयानक रूप लेगा और हम एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जायेंगे जहाँ से वापस लौटना असम्भव होगा, पर्यावरण के विनाश को रोकना, लगभग नामुमकिन हो जायेगा। क्या आज हम हाथ पर हाथ धरे उस क़यामत के दिन का इन्तज़ार करेंगे? क्या हम मानवता को तेज़ी से विनाश की और बढ़ते चुपचाप देखते रहेंगे? हमें विश्वास है कि आम मज़दूर और मेहनतकश वर्ग चुपचाप नहीं बैठेगा। मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था को समाप्त करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी मज़दूर वर्ग के कन्धों पर है। वह जितनी जल्दी इस ज़िम्मेदारी को उठा लेगा उसके लिए, इन्सानियत के लिए और प्रकृति के लिए उतना ही अच्छा होगा। हमें विश्वास है कि पूँजीवाद द्वारा पृथ्वी को तबाह कर दिये जाने से पहले, मज़दूर वर्ग एक नयी समाजवादी व्यवस्था की नींव रखेगा और समूची इन्सानियत को पूँजीवाद के हाथों हो रही पर्यावरणीय तबाही और त्रासदी से बचायेगा। बढ़ते पर्यावरणीय संकट के साथ ही दुनियाभर की मेहनतकश जनता सड़कों पर उतर रही है और आगे यह प्रक्रिया और तेज़ होगी। इन आन्दोलनों में सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारियों को नेतृत्वकारी भूमिका अपनानी चाहिए और लोगों को यह समझा देना चाहिए कि पर्यावरणीय विनाश के लिए पूँजीवाद ज़िम्मेदार है। वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरण को बचाने की क़वायद करना बाग़बानी का शौक़ पूरा करने से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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