‘आधुनिक रोम’ में ग़ुलामों की तरह खटते मज़दूर

सनी

गुड़गाँव के इफ़्को चौक मेट्रो स्टेशन से गुड़गाँव शहर (या भाजपा द्वारा किये नामकरण के अनुसार गुरुग्राम) को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आप किसी जादुई नगरी में आ गये हों।
आधुनिक स्थापत्यकला (तकनीकी भाषा में कहें तो ‘उत्तरआधुनिक स्थापत्यकला’) के एक से एक नमूनों में शीशे-सी जगमगाती मीनारों की आड़ी-तिरछी आकृतियों से शहर की रंगत अलग ही लगती है। पर इस जगमग शहर की सड़कों पर मज़दूरों को अपने परिवारों के साथ घूमने की इजाज़त नहीं, इस शहर के पार्कों में हम जा नहीं सकते, भले ही सड़कों को चमकाने और पार्कों को सुन्दर बनाने की ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर ही आती हो। अपार्टमेण्ट-शॉपिंग मॉलों, आईटी पार्क, सॉफ़्टवेयर कम्पनियों की इमारतों में भी हमारे मज़दूर भाई ही खटते हैं। उनमें से अधिकतर भी इस ‘आधुनिक रोम’ के उजरती ग़ुलाम ही हैं। मेट्रो से उतरकर मज़दूरों को ईको गाड़ियाँ और तिपहिया वाहन मवेशियों की तरह ठूँसकर उन इलाक़ों में ले जाते हैं जहाँ औद्योगिक इलाक़ा शुरू होता है। इसके आसपास के गाँवों में मज़दूरों के लिए रहने के लॉज हैं। हरियाणा से राजस्थान तक फैली उद्योग पट्टी पर जो गाँव बसते थे वहीं अब मज़दूरों की आधुनिक बस्तियाँ हैं।
इफ़्को चौक मेट्रो स्टेशन दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर पड़ता है। इस राजमार्ग के साथ-साथ ही आधुनिक उद्योगों की पट्टी फैली है जो जयपुर से भी आगे मुम्बई तक चली जाती है। मज़दूरों की बड़ी आबादी इस औद्योगिक पट्टी में अपनी क़िस्मत आज़माने के लिए आती है। नौजवानों की आशा रहती है कि अपने तरुण शरीर को मशीनों में झोंककर वे अपने जीवन के नर्क से मुक्ति पायेंगे। कुछ सोचते हैं कि गाँव में एक घर और दुकान बना लेंगे। कई मज़दूर शहर में मकान लेने और फिर अपना ही धन्धा शुरू करने का सपना देखते हैं। पर ये सपने टूटते और बिखरते रहते हैं। लगातार ये सपने मशीन रोलर पर चपटी होती स्टील की पट्टी की तरह चपटे होते रहते हैं। यह तरुणाई केवल मालिकों के धन में तब्दील होती रहती है। अधिकतर मज़दूर अकेले अपने दम पर आज़ाद होने का सपना देखते हैं पर गुडगाँव के शक्ति नगर, हरिनगर से लेकर मानेसर, धारूहेड़ा और इस औद्योगिक पट्टी के नये केन्द्रों के आसपास बसे लॉजों में सालों-साल के लिए फँस जाते हैं जबतक कि उनका शरीर और पिसने लायक़ नहीं रह जाता। इन सस्ते लॉजों में भी लॉज मालिक और दुकानदार मज़दूरों से ग़ुलामों सरीखा व्यवहार करते हैं। इन लॉज मालिकों और फ़ैक्टरी मालिकों में भी आपसी एकता होती है।
इस औद्योगिक पट्टी में ऑटोमोबाइल सेक्टर की प्रमुख भूमिका है। ऑटो उद्योग का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 7.1 प्रतिशत और मैन्युफ़ैक्चरिंग में 49 प्रतिशत योगदान है। कुल ऑटो सेक्टर का 50 प्रतिशत उत्पादन हरियाणा की औद्योगिक पट्टी में ही होता है। मारूति, हीरो, होण्डा और तमाम ऑटो कम्पनियों के प्लाण्ट भिवाड़ी से लेकर धारूहेड़ा, गुडगाँव तक फैले हैं। नीमराना में बाक़ायदा एक जापानी ज़ोन है और घिलोठ में कोरियन ज़ोन है जहाँ इन देशों की कम्पनियों को ही निवेश का अधिकार दिया गया है। ऑटो सेक्टर में उत्पादन की प्रणाली में भी पहले के मुक़ाबले अन्तर आया है। मदर कम्पनी के मातहत काम करने वाली सैकड़ों वेण्डर कम्पनियाँ होती हैं। एक चार पहिया गाड़ी में 2000 से भी ऊपर पार्ट्स होते हैं। यही पार्ट्स मारूति, हीरो और होण्डा सरीखी मदर कम्पनी के लिए उनके मातहत काम करने वाली वेण्डर कम्पनियाँ बनाती हैं। मसलन, मारूति के नीचे ऑटोफ़िट, सनबीम, रिको, मुन्जल शोवा सरीखी बडी वेण्डर कम्पनियाँ हैं। पहले संस्तर की वेण्डर कम्पनियों के नीचे भी उनसे निचले स्तर की कई वेण्डर कम्पनियाँ मौजूद हैं। सबसे नीचे के पायदान पर आने वाली वेण्डर कम्पनियों में 20-30 मज़दूर भी काम करते हैं और यहाँ मज़दूरों के काम करने की स्थितियाँ सबसे भयंकर हैं। सबसे निचले पायदान की वेण्डर कम्पनियों को कच्चे माल की आपूर्ति करने वाली कम्पनियाँ सिर्फ़ गुड़गाँव में ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तान में फैली हैं। सस्ती श्रमशक्ति को निचोड़ने व सस्ते कच्चे माल और मज़दूरों की कारख़ाना आधारित एकता को तोड़ने के लिए ही दुनियाभर के पूँजीपतियों ने उत्पादन की प्रक्रिया को बिखरा दिया है और बड़ी फ़ैक्टरियों को तोड़कर छोटी-छोटी फ़ैक्टरियों में बिखरा दिया है। एक कार बनाने वाले कारख़ाने के नीचे सैकड़ों वेण्डर कम्पनियों के मज़दूर काम करते हैं जो शायद यह भी ठीक से नहीं जानते कि उनके कारख़ाने में बने कल-पुर्ज़े मारूति, होण्डा, टाटा, हीरो में से किसकी गाड़ियों में लगे हैं। गुडगाँव मानेसर-धारूहेड़ा-खुशखेड़ा तक फैली उद्योग पट्टी में ऑटो सेक्टर में 1000 से भी ऊपर इकाइयों में 10 लाख से भी ऊपर मज़दूर काम करते हैं।
मोदी सरकार ने पब्लिक सेक्टर को तबाह कर निजीकरण की आँधी चलायी है तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस सरकार के काल में शुरू की गयी दिल्ली-मुम्बई औद्योगक पट्टी को और अधिक व्यवस्थित किया है। 2014 से ही इस पट्टी में देशी और विदेशी पूँजी का निवेश बढ़ता रहा है। 2022 में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में दिल्ली-मुम्बई औद्योगिक पट्टी के तहत 754 एकड़ के 138 प्लॉट कम्पनियों को बाँटे गये हैं जिन्होंने यहाँ 16 हज़ार करोड़ से अधिक के निवेश का वायदा किया है। इनमें अमूल व टाटा केमिकल्स जैसी देशी कम्पनियों के साथ रूस, चीन और दक्षिणी कोरिया की कम्पनियाँ भी हैं। देशभर में ऐसी कई औद्योगिक पट्टियाँ बनायी जा रही हैं। बेंगलूरु-मुम्बई इण्ड‍स्ट्रियल कॉरिडोर, चेन्नई-बेंगलूरु इण्ड‍स्ट्रियल कॉरिडोर, अमृतसर-कोलकाता इण्ड‍स्ट्रियल कॉरिडोर, विशाखापत्तनम-चेन्नई इण्ड‍स्ट्रियल कॉरिडोर भी विकसित हो रहे हैं। ये देशी और विदेशी पूँजी के लिए मज़दूरों की श्रम शक्ति का दोहन करने के लिए बसाये जा रहे आधुनिक क्षेत्र हैं। ये ग्लोबल वैल्यू चेन का एक बड़ा हिस्सा हैं यानी ग्लोबल असेम्बली लाइन का एक हिस्सा हैं।
कोविड काल में पूँजीपति वर्ग के नुक़सान की भरपाई के लिए भी मोदी सरकार इस तरह के क़दम अब तेज़ी से उठा रही है। कोविड के बाद से उत्पादन अब फिर से महामारी से पहले के स्तर पर पहुँच रहा है। कोविड काल में छायी मन्दी को तोड़ते हुए ऑटो उद्योग में भी तेज़ी आयी है। भारत के ऑटो सेक्टर में अप्रैल 2021 से मार्च 2022 तक 2 करोड़ 93 लाख वाहन निर्मित हुए। यह पिछले साल के मुक़ाबले अधिक है। मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए ऑटो कम्पनियों ने भी लोहे के हाथों से मज़दूरों को ‘अनुशासित’ किया है। जेएनएस, सनबीम, बेलसोनिका, मुन्जाल शोवा से लेकर नपीनो और दर्जनों कम्पनियों में पूँजीपतियों और उनके प्रबन्धन ने मज़दूरों के माँगपत्रकों को मानने से इन्कार किया है, छँटनी की है और यूनियनों को तोड़ने का काम किया है। हर बड़ी औद्योगिक कम्पनी और वेण्डर कम्पनी ने यह किया है। मारूति से लेकर हीरो तक और रीको से लेकर सनबीम तक यह प्रक्रिया जारी है। मारूति और उसकी 500 से अधिक वेण्डर कम्पनियाँ हों या होण्डा और उसकी वेण्डर कम्पनियाँ हों, सभी जगह यही हालत है। गुड़गाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, खुशखेड़ा से लकर भिवाड़ी, नीमराना का भी क़िस्सा यही है। इन फ़ैक्टरियों में मज़दूरों को किस तरह निचोड़ा जाता है, ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन की एक रिपोर्ट में इसकी एक झलक मिलती है : 
“पूरे ऑटो सेक्टर के मुनाफ़े में मज़दूरी का हिस्सा नगण्य है क्योंकि मौजूदा तकनीक के हिसाब से आज ऑटो मज़दूर अपने 8 घण्टे के कार्यदिवस में केवल 1 घण्टे 12 मिनट के काम का वेतन पाता है। बाक़ी 6 घण्टे 48 मिनट का काम वह पूँजीपतियों के लिए बिना भुगतान के करता है। इसी से साफ़ होता है कि आज एक मज़दूर की उत्पादकता की दर कितनी बढ़ चुकी है और पूँजीपतियों द्वारा मज़दूरों का किस क़दर शोषण किया जाता है। वहीं दूसरी तरफ़ इनकी कार्यस्थितियाँ बेहद कठिन होती हैं जिसमें सबसे बड़ी बात यह है कि वे एकदम तानाशाही जैसे माहौल में काम करते हैं। मशीनों की रफ़्तार बढ़ाकर उनसे बेतहाशा काम लिया जाता है। इसका एक उदाहरण मारूति सुज़ुकी का मानेसर प्लाण्ट है जहाँ इंजन शॉप की ब्लॉक लाइन में एक मज़दूर को अपने काम के लिए 46 से 52 सेकेण्ड में ही 13 अलग-अलग प्रक्रियाएँ पूरी करनी होती हैं। वहीं कम तनावयुक्त मानी जाने वाली सीट असेम्बली लाइन पर अलग-अलग कन्वेयर बेल्ट में आने वाली कारों पर सीट लगायी जाती है जिसमें 30 अलग-अलग मॉडलों की सीट लगानी होती है। सीट लगाने के लिए एक मज़दूर को कम्पनी द्वारा 36 सेकेण्ड तय किये गये थे किन्तु श्रमिकों के दबाव के कारण अब ये 50 सेकेण्ड हैं जिसमें लगभग 15 प्रक्रियाएँ पूरी करनी होती हैं। औसतन मज़दूर 8:30 घण्टे की शिफ़्ट में 530 कारों में सीट लगाते हैं, मतलब मज़दूरों को एक मशीन की तरह लगातार इन कामों को करना होता है, इन्हें दोहराते रहना होता है और गति बरक़रार रखनी होती है।”
इस तेज़ी के कारण ही मज़दूरों के साथ अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं जिनमें अंग-भंग भी हो जाते हैं। ‘सेफ़ इन इण्डिया’ नामक एनजीओ की रिपोर्ट बताती है कि फ़ैक्टरियों में होने वाली दुर्घटनाओं का शिकार हुए दो-तिहाई मज़दूरों के ईएसआई कार्ड नहीं बने थे और इस वजह से इन दुर्घटनाओं के बाद उन्हें और उनके परिवार वालों को ईएसआई की कोई सुविधा नहीं मिली जबकि उनके मालिकों ने इसका पैसा काटा था। इन दुर्घटनाओं का शिकार अधिकतर जवान मज़दूर ही होते हैं। रिपोर्ट के अनुसार 62 प्रतिशत मज़दूर 30 साल से कम उम्र के थे। वहीं युवा मज़दूर जो अपने शरीर की ताक़त के दम पर इस नर्क से बाहर निकलने का ख़्वाब देखते हैं उन्हें ही सबसे अधिक इस राक्षसी तंत्र का शिकार होना पड़ता है।
इस विशालकाय तंत्र में मज़दूर अकेला लड़कर जीत ही नहीं सकता है। इस तंत्र के ख़िलाफ़ हम अकेले नहीं जीत सकते हैं बल्कि सामूहिक संघर्ष ही है जिसके दम पर लड़कर हम जीत सकते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया के बिखरे होने की वजह से आज एक-एक कारख़ाने में चलने वाले संघर्षों को जीत पाना बेहद मुश्किल हो गया है। एक ही कारख़ाने में मज़दूरों को कई श्रेणियों में बाँट दिया गया है। परमानेण्ट, ठेका और कैज़ुअल में बँटे मज़दूर एकजुट नहीं हो पाते हैं। इन दोनों क़िस्म के विभाजन की दीवारों को तोड़कर ही आज का कार्यभार पूरा किया जा सकता है जो है कारख़ाना-केन्द्रित यूनियनों के अतिरिक्त पूरे के पूरे ऑटो सेक्टर के सभी मज़दूरों की एक सेक्टरगत–पेशागत यूनियन बनाना और ठेका–कैज़ुअल मज़दूरों और स्थायी मज़दूरों के बीच फ़ौलादी एकजुटता क़ायम करना।
आज पीछे मुड़कर 2005 में हुए होण्डा के मज़दूरों के आन्दोलन से अब तक के दौर को देखें तो 17 साल हो गये हैं। इतने साल यह सबक़ सीखने के लिए काफ़ी हैं कि जबतक हम अपनी आपसी एकता क़ायम नहीं करते हैं तब तक फ़ैक्टरी प्रबन्धन, श्रम विभाग और पुलिस-प्रशासन के गठजोड़ का मुक़ाबला नहीं कर सकते हैं। मज़दूरों के श्रम की लूट को और अधिक सुगम बनाने के मक़सद से ही मोदी सरकार श्रम क़ानूनों को हटाकर श्रम संहिताएँ लागू कर रही है। राजस्थान में गहलोत की सरकार आये या वसुन्धरा की, हरियाणा में खट्टर की सरकार बने या हुड्डा की, या यूपी में योगी आये या अखिलेश या बंगाल में ममता आये या मज़दूर वर्ग की ग़द्दार वाम मोर्चा की सरकार, सभी पूँजीपतियों की चाकरी करते हैं। इस या उस चुनावी मदारी के बहकावे में आना हमें छोड़ना होगा। मज़दूर आन्दोलन में मालिकों की दलाली करने वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें और अनेक ‘इन्क़लाबी और सहयोग’ केन्द्रों सरीखे अवसरवादी संगठनों को दरकिनार कर स्वतंत्र ट्रेड यूनियनों में सही नेतृत्व विकसित करना ही आज इस औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों के समक्ष एकमात्र रास्ता है। यही इस ‘आधुनिक रोम’ की दीवारों को गिराने की कुंजीभूत कड़ी है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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