क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-7 : मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास: एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 2 (डेविड रिकार्डो)

अभिनव

अब तक हमने क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के पिता एडम स्मिथ के महत्वपूर्ण योगदानों और कमियों को देखा। हमने देखा कि किस प्रकार एक ओर एडम स्मिथ ने मूल्य का श्रम सिद्धान्त दिया और बताया कि हर माल का मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से तय होता है। दूसरे शब्दों में, हर माल का मूल्य उसमें लगे उत्पादन के साधनों के उत्पादन में ख़र्च हुए श्रम की मात्रा और स्वयं उस माल के उत्पादन में प्रत्यक्ष तौर पर लगे श्रम की मात्रा के योग से तय होता है। इस खोज को एडम स्मिथ के योग्य उत्तराधिकारी डेविड रिकार्डो ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के सबसे अहम सिद्धान्तों में गिना। लेकिन एडम स्मिथ अपने इस सिद्धान्त को साधारण माल उत्पादन पर ही सुसंगत रूप में लागू कर सके, यानी माल उत्पादन के उस दौर पर जब अभी उत्पादन के साधनों का स्वामी स्वयं प्रत्यक्ष उत्पादक ही है; यानी, जब तक पूँजीवादी माल उत्पादन का दौर शुरू नहीं हुआ था।
पूँजीवादी माल उत्पादन में उत्पादन के साधनों का स्वामी पूँजीपति बन जाता है (जिसके पीछे एक ज़ोर-ज़बर्दस्ती और हिंसा की ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसे आदिम पूँजी संचय के नाम से जाना जाता है) जबकि प्रत्यक्ष उत्पादक से उत्पादन के साधन छीन लिये जाते हैं और वह अपनी श्रमशक्ति को बेचने को बाध्य एक उजरती मज़दूर में तब्दील हो जाता है। पहले प्रत्यक्ष उत्पादक के श्रम से पैदा होने वाला नया मूल्य पूरी तरह प्रत्यक्ष उत्पादक के हिस्से जाता था। तब तक एडम स्मिथ के समक्ष सापेक्षिक दाम या विनिमय मूल्य तय करने में कोई समस्या या बाधा नहीं थी। लेकिन अब यह नया मूल्य दो हिस्सों में विभाजित होता है: मज़दूरी और मुनाफ़ा। ऐसे में, एडम स्मिथ के समक्ष दो समस्याएँ उपस्थित हुईं: पहला, मज़दूर और पूँजीपति के बीच विनिमय को विनिमय की समानता के सिद्धान्त के ज़रिए व्याख्यायित करना स्मिथ के लिए मुश्किल हो गया। क्योंकि मज़दूर का प्रत्यक्ष श्रम जितना नया मूल्य पैदा कर रहा था वह पूरा मज़दूर को नहीं मिल रहा था, बल्कि उसका एक हिस्सा मुनाफ़े के तौर पर पूँजीपति के पास जा रहा था और इसलिए मज़दूर और पूँजीपति के बीच के विनिमय को विनिमय की समतुल्यता के सिद्धान्त के ज़रिए व्याख्यायित नहीं किया जा सकता था। दूसरा, यदि हर पूँजीवादी उत्पादक के उद्यम में नये उत्पादित मूल्य का मज़दूरी और मुनाफ़े में समान अनुपात में बँटवारा नहीं होता और यदि हर उद्यम में पूँजी और श्रम का अनुपात समान नहीं है, तो फिर माल के मूल्य और माल के दाम में अन्तर आ जाता है और स्मिथ इस अन्तर को अपने मूल्य के श्रम के सिद्धान्त से व्याख्यायित नहीं कर पाते हैं। एक मिसाल से हम इस बात को समझते हैं।
स्मिथ इस सच्चाई को समझते हैं कि साधारण माल उत्पादन के युग में भी अलग-अलग सेक्टरों में प्रति घण्टा श्रम पर होने वाली आमदनी का समतुलन हो जाता है क्योंकि यदि पहले सेक्टर में एक घण्टे के श्रम पर साधारण माल उत्पादक को रु. 10 की आमदनी होती है और दूसरे सेक्टर में एक घण्टे के श्रम पर साधारण माल उत्पादक को रु. 12 की आमदनी होती है, तो फिर पहले सेक्टर से कुछ उत्पादक दूसरे सेक्टर में जाएँगे और इस प्रक्रिया के कारण दूसरे सेक्टर में माँग और आपूर्ति के समीकरण बदलने के कारण मालों की दाम में कुछ गिरावट आयेगी और प्रति घण्टा श्रम पर होने वाली आमदनी में भी कमी आयेगी। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहेगी जब तक कि दोनों सेक्टरों में प्रति घण्टा श्रम पर होने वाली आमदनी का समतुलन नहीं हो जाता है। यह प्रक्रिया स्मिथ के अनुसार पूरी अर्थव्यवस्था में चलती है, जिसमें प्रतिस्पर्द्धा मौजूद हो।
इसलिए साधारण माल उत्पादन में हर सेक्टर में माल के सापेक्षिक दाम या विनिमय मूल्य उनमें लगे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से तय होगा। स्मिथ के उदाहरण के ही आधार पर हम नीचे तालिका-1 में दिये उदाहरण से इसे समझते हैं :
तालिका – 1

जब तक प्रत्यक्ष उत्पादक ही उत्पादन के साधनों का स्वामी है (जिसे वह उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाले माल उत्पादक से उपरोक्त नियमों से निर्धारित होने वाली सापेक्षिक दाम पर ही ख़रीदता है) तब तक मालों के मूल्य के श्रम की मात्रा द्वारा निर्धारण में स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त पूरी तरह से सक्षम है। लेकिन अब हम उस स्थिति की कल्पना करते हैं, जिसमें कि पूँजीवादी माल उत्पादन की शुरुआत हो चुकी है, प्रत्यक्ष उत्पादक को उत्पादन के साधनों से वंचित किया जा चुका है और वह श्रमशक्ति को बेचने वाला उजरती मज़दूर बन चुका है, जबकि पूँजीपति के पास उत्पादन के साधनों का मालिकाना आ चुका है। अब उत्पादन के साधनों का दाम तो पहले के ही समान माल के मूल्य में स्थानान्तरित हो जाता है, लेकिन अब प्रत्यक्ष श्रम के हर घण्टे से होने वाली आय या उससे पैदा होने वाला मूल्य अब पूँजीपति और उजरती मज़दूर में मुनाफ़े और मज़दूरी के रूप में विभाजित हो जाता है। जाहिर है, समूची अर्थव्यवस्था में अलग-अलग पूँजीवादी माल उत्पादकों द्वारा उत्पादन के साधनों पर हुआ ख़र्च और श्रमशक्ति ख़रीदने पर हुआ ख़र्च समान अनुपात में नहीं होता है। ऐसे में, मसले को गहराई से समझने के लिए एक दूसरे उदाहरण पर ग़ौर करते हैं। स्मिथ के अनुसार हम मान लेते हैं कि प्रत्यक्ष श्रम से पैदा हुआ मूल्य दोनों ही पूँजीपतियों के मामले में बराबर अनुपात में विभाजित होता है। हम यह भी मान लेते हैं कि उत्पादन के एक चक्र में ही उत्पादन के साधन पूर्णत: ख़र्च हो जाते हैं। ऐसे में स्थिति कुछ ऐसी होगी जैसी तालिका-2 में दिखायी गयी है:
तालिका – 2

पहले पूँजीपति के लिए मुनाफ़े की दर = मुनाफ़ा / कुल निवेश x 100
= (100 / 200) x 100
= 50 प्रतिशत
दूसरे पूँजीपति के लिए मुनाफ़े की दर = मुनाफ़ा / कुल निवेश x 100
= (150 / 350) x 100
= 43.16 प्रतिशत
यहाँ नये मूल्य के दोनों ही पूँजीपतियों के मामले में मुनाफ़े और मज़दूरी में समान अनुपात में विभाजित होने के बावजूद दोनों पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़े की दर अलग है। इसका कारण यह है कि बेशी मूल्य की दर (यानी वैयक्तिक पूँजीपति के लिए मुनाफ़े और मज़दूरी का अनुपात) समान होने के बावजूद, दोनों का उत्पादन के साधनों पर निवेश और मज़दूरी पर निवेश का अनुपात, यानी पूँजी और श्रम का अनुपात अलग-अलग है और मुनाफ़े की दर मुनाफ़े और कुल पूँजी निवेश का अनुपात होता है। ऐसे में, दोनों पूँजीपतियों के लिए बेशी मूल्य की दर समान होने के बावजूद मुनाफ़े की दर अलग-अलग होगी। लेकिन यदि दो सेक्टरों में पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में अन्तर है तो क्या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में यह स्थिति बनी रह सकती है? नहीं। ऐसे में, प्रतिस्पर्द्धा के कारण जिस सेक्टर में मुनाफ़े की दर कम है, उससे अधिक मुनाफ़े की दर वाले सेक्टर में पूँजी का प्रवाह होगा जो कि अधिक मुनाफ़े की दर वाले सेक्टर में आपूर्ति को बढ़ायेगा, दाम को नीचे लायेगा जबकि कम मुनाफ़े की दर वाले सेक्टर में आपूर्ति घटेगी और दाम बढ़ेगा। इस प्रक्रिया में दोनों सेक्टरों में मुनाफ़े की दर का समतुलन एक प्रक्रिया के रूप में घटित होगा। हर पूँजीपति कम-से-कम अर्थव्यवस्था की औसत मुनाफ़े की दर प्राप्त करने पर ही सन्तोष करेगा। यहाँ पर औसत मुनाफ़े की दर क्या है?
अर्थव्यवस्था की औसत मुनाफ़े की दर = कुल मुनाफ़ा/कुल निवेश
= (250/550) x 100
= 45.45 प्रतिशत

यदि हर पूँजीपति को मिलने वाला मुनाफ़ा एक सतत् जारी प्रक्रिया के रूप में और एक रुझान के तौर पर औसत मुनाफ़े के क़रीब जायेगा, तो उसके माल की कीमत होगी: ‘उत्पादन के साधनों का दाम + मज़दूरी + औसत मुनाफ़ा’।
लेकिन उस सूरत में हर माल का सापेक्षिक दाम उसके श्रम-मूल्य से विचलन करेगा। एडम स्मिथ का मूल्य का श्रम सिद्धान्त इस परिघटना की व्याख्या नहीं कर पाता है। जब एडम स्मिथ इस परिघटना की व्याख्या नहीं कर पाते, तो वह अपने मूल्य के श्रम सिद्धान्त का ही परित्याग कर देते हैं और मूल्य की उत्पादन-लागत सिद्धान्त पर आ जाते हैं, जिसका हमने पहले भी ज़िक्र किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार, मज़दूरी की एक नैसर्गिक दर होती है और मुनाफ़े की भी एक नैसर्गिक दर होती है। इन दरों के अनुसार, स्मिथ मज़दूरी और मुनाफ़े का आकलन करते हैं और उत्पादन के साधनों पर हुए निवेश में उसे जोड़कर माल की कीमत निकाल लेते हैं और इस प्रकार माल के सापेक्षिक दाम की गणना उसमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से करने के अपने सिद्धान्त का परित्याग कर देते हैं। लेकिन हम सभी जानते हैं कि मज़दूरी और मुनाफ़े की ऐसी नैसर्गिक दर की कल्पना कर लेना वास्तव में उस चीज़ की कल्पना कर लेने की समान है, जिसकी व्याख्या करने की उम्मीद राजनीतिक अर्थशास्त्र से की गयी थी। इसकी वजह यह है कि स्मिथ न तो मज़दूर और पूँजीपति के बीच होने वाले विनिमय को समझ पाते हैं और न ही पूँजीवादी माल उत्पादन में होने वाली प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप पैदा होने वाली उत्पादन के दाम (prices of production) को सुसंगत रूप में समझ पाते हैं। नतीजतन, अन्तरविरोधों में घिरकर वे अपने वैज्ञानिक मूल्य के श्रम सिद्धान्त का परित्याग कर देते हैं। वह मूल्य के श्रम सिद्धान्त की रक्षा के लिए बस दो शर्तें रख देते हैं जो किसी भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में कभी पूरी नहीं होती और न ही हो सकती है: पहली शर्त, हर उद्यम में नया मूल्य समान अनुपात में मज़दूरी और मुनाफ़े में विभाजित हो और दूसरी शर्त, हर उद्यम में पूँजी और श्रम का अनुपात समान हो। यदि ये दो शर्तें पूरी नहीं होतीं, तो स्मिथ मूल्य के उत्पादन-लागत सिद्धान्त पर चले जाते हैं।
रिकार्डो स्मिथ की इस दुविधा को दूर करते हैं। रिकार्डो जो सबसे पहली महत्वपूर्ण बात कहते हैं वह यह है कि पूँजीवादी माल उत्पादन मूल्य के श्रम सिद्धान्त को ख़ारिज नहीं करता बल्कि उसे परिवर्धित करता है। मूल्य का श्रम सिद्धान्त पूँजीवादी माल उत्पादन की स्थितियों में भी सही है और वही मालों के सापेक्षिक दाम की सही तरीक़े से व्याख्या कर सकता है। इसे सिद्ध करने के लिए पहले रिकार्डो स्मिथ का ही उदाहरण लेते हैं और कहते हैं कि हम माल उत्पादन की एक ‘आदिम अवस्था’ की कल्पना करते हैं, जिसे हमने ऊपर तालिका 1 में चित्रित किया है। उसके बाद, रिकार्डो उसमें पूँजीवादी माल उत्पादन की एक ऐसी स्थिति को जोड़ते हैं जिसमें कि स्मिथ द्वारा बतायीं गयीं दोनों शर्तें, यानी नये मूल्य का मुनाफ़े और मज़दूरी में समान अनुपात में बँटवारा होना और सभी पूँजीवादी उद्यमों में पूँजी व श्रम का समान अनुपात होना, पूरी हो रही हैं। वह स्थिति कैसी होगी? नीचे दी गयी तालिका-3 से समझें :
तालिका – 3

जैसा कि हम ऊपर के उदाहरण में देख सकते हैं, अब एक घण्टे का श्रम जो रु. 10 की आमदनी देता है, वह मुनाफ़े और मज़दूरी में विभाजित हो रहा है। अब एक घण्टे के श्रम के बदले मज़दूर को रु. 4 मज़दूरी मिलती है, जबकि बाक़ी के रु. 6 पूँजीपति के पास मुनाफ़े के रूप में चले जाते हैं। साथ ही, एक घण्टे में दोनों पूँजीपतियों के उपक्रमों में रु. 60 के बराबर के उत्पादन के साधन ख़र्च होते हैं। यानी प्रति घण्टा पैदा होने वाला माल का मूल्य है: ‘प्रति घण्टा पूँजी व्यय + प्रति घण्टा मुनाफ़ा’ जो कि उपरोक्त दोनों पूँजीपतियों के मामले में रु. 60 + रु. 6, यानी रु. 66। ध्यान रहे, निवेशित पूँजी में मज़दूरी शामिल है, जो पूँजीपति अपनी पूँजी के एक हिस्से से मज़दूरों को देता है। मुनाफ़े की दर है : प्रति घण्टा मुनाफ़ा/प्रति घण्टा पूँजी व्यय। इस मामले में मुनाफ़े की दर = रु. 6/रु. 60 यानी 10 प्रतिशत। यानी, दोनों ही पूँजीपतियों के उद्यमों में पूँजी-श्रम का अनुपात समान है और नये मूल्य का मुनाफ़े और मज़दूरी में विभाजन का अनुपात समान है। इसलिए दोनों के लिए मूल्य और दाम में अन्तर नहीं है।
अब दूसरा मामला लेते हैं। यहाँ पूँजी और श्रम का अनुपात अलग है। लेकिन हमें यह मानकर चलना होगा कि दोनों के लिए मुनाफ़े की दर समान है, क्योंकि यदि यह असमान होगी तो पूँजी का कम मुनाफ़े की दर वाले सेक्टर से ज़्यादा मुनाफ़े की दर वाले सेक्टर में तब तक प्रवाह होगा जब तक एक प्रक्रिया के रूप में मुनाफ़े की दर का समतुलन न हो। जाहिर है, रिकार्डो भी जानते थे कि वास्तव में किसी भी दिये गये क्षण में सभी पूँजीपतियों को औसत मुनाफ़ा नहीं मिलता है और मुनाफ़े का औसतीकरण एक सतत् जारी प्रक्रिया के रूप में ही मौजूद होता है। लेकिन इस आर्थिक गति को समझने और मूल्य और दाम में अन्तर पैदा होने की परिघटना को समझने के लिए हमें दोनों पूँजीपतियों के लिए श्रम और पूँजी के अनुपात को अलग लेकिन मुनाफ़े की दर को लगभग समान मानना होगा और यही किसी परिघटना को समझने का वैज्ञानिक तरीका भी होता है। आइए देखते हैं कि इस सूरत में क्या होगा।
नीचे दी गयी तालिका-4 को समझने की युक्ति यह है कि आप पहले इसे सातवें कॉलम से पहले कॉलम की ओर पढ़ें, क्योंकि सबसे पहले हमें दोनों पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़े की दर को समान मानना होगा। और उसके बाद दोबारा तालिका-4 को पहले कॉलम से नौवें कॉलम तक पढ़ें।
तालिका – 4

यहाँ हम देख सकते हैं कि दोनों पूँजीपतियों के उद्यमों में श्रम और पूँजी का अनुपात समान नहीं है क्योंकि एक घण्टे के श्रम में पहले पूँजीपति के उद्यम में रु. 30 का पूँजी व्यय हो रहा है, जबकि दूसरे पूँजीपति के उद्यम में यह व्यय रु. 90 है। लेकिन प्रतियोगिता के कारण मुनाफ़े का औसतीकरण होता है और इसलिए दोनों के लिए मुनाफ़े की दर समान मानी गयी है। ऐसे में, पहले पूँजीपति के उपक्रम में प्रति घण्टा 3 रु. का मुनाफ़ा हो रहा है क्योंकि प्रति घण्टा पूँजी व्यय रु. 30 है जबकि मुनाफ़े की दर 10 प्रतिशत है। दूसरे पूँजीपति के उपक्रम में प्रति घण्टा 9 रु. का मुनाफ़ा हो रहा है क्योंकि प्रति घण्टा पूँजी व्यय रु. 90 है जबकि उसके लिए भी मुनाफ़े की दर 10 प्रतिशत है। चूँकि प्रति घण्टा पैदा होने वाला माल का मूल्य 1 घण्टे में प्रत्यक्ष श्रम द्वारा पैदा नये मूल्य और उत्पादन के साधनों पर एक घण्टे में हुए व्यय (जो यहाँ कुल पूँजी व्यय और भुगतान की गयी मज़दूरी के अन्तर के बराबर, यानी रु. 26 है) के बराबर है इसलिए पहले पूँजीपति के लिए हर घण्टे पैदा होने वाला माल का मूल्य है रु. 10 + रु. 26 = रु. 36 जबकि उसके लिए दाम है रु. 3 (औसत मुनाफ़ा) + रु. 33 (कुल पूँजी व्यय)। इसी प्रकार, दूसरे पूँजीपति के लिए मूल्य सृजन/घण्टा है रु. 96 और दाम है रु. 99। दोनों पूँजीपतियों के उपक्रमों में जीवित/प्रत्यक्ष श्रम द्वारा हर घण्टे पैदा होने वाला मूल्य रु. 10 ही है क्योंकि एक घण्टे का श्रम रु. 10 का मूल्य ही पैदा कर रहा है। दोनों उपक्रमों में प्रत्यक्ष श्रम द्वारा हर घण्टे कुल मिलाकर अभी भी उतना ही नया मूल्य (रु. 20) पैदा हो रहा है जितना पहले, यानी तालिका 3 में, हो रहा था। दोनों उपक्रमों में कुल मुनाफ़ा भी अभी उतना ही है (कुल रु. 12) जितना कि पहले, यानी तालिका 3 में, पैदा हो रहा था, लेकिन यह नया मूल्य और मुनाफ़ा अब दोनों पूँजीपतियों के बीच अलग रूप में पुनर्वितरित हो रहा है। इसकी वजह यह है कि दोनों उपक्रमों में पूँजी व श्रम के बीच का अनुपात अलग-अलग है और इसकी वजह से दोनों में मुनाफ़े की दर अलग-अलग हैं, लेकिन चूँकि हर पूँजीपति अपनी पूँजी के आकार के अनुसार कम-से-कम औसत मुनाफ़ा हासिल करने की अपेक्षा रखते हैं और ऐसा न होने पर पूँजी का कम मुनाफ़े की दर वाले सेक्टरों से अधिक मुनाफ़े की दरों वाले सेक्टरों की ओर प्रवाह होता है, इसलिए एक प्रवृत्ति के तौर पर औसत मुनाफ़ा की दर का सृजन होता है।
रिकार्डो का योगदान यह था कि उन्होंने बताया कि माल के मूल्य और माल के दाम के बीच जो अन्तर पैदा होता है, वह कभी भी 7 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हो सकता। इसे ‘रिकार्डो के 7 प्रतिशत के नियम’ के नाम से भी जाना जाता है। जैसे ही यह अन्तर 7 प्रतिशत से अधिक होता है, वैसे ही एक उल्टी प्रक्रिया शुरू होती है जो कि मूल्य और दाम के बीच के अन्तर को विपरीत दिशा में मोड़ देते हैं। इसलिए रिकार्डो कहते हैं कि एक प्रक्रिया के तौर पर देखें तो दाम के लिए श्रम की मात्रा से पैदा होने वाला मूल्य एक गुरुत्व केन्द्र या गुरुत्वाकर्षण के तौर पर काम करता है और दाम श्रम-मूल्य के इसी गुरुत्व केन्द्र के इर्द-गिर्द मण्डराते रहते हैं। इसलिए अगर हम साधारण माल उत्पादन के बजाय पूँजीवादी माल उत्पादन का भी विश्लेषण करें, तो वह मूल्य के श्रम सिद्धान्त को ख़ारिज नहीं करता है, बल्कि केवल उसे परिवर्धित करता है, या उसमें एक परिवर्तन लाता है। अभी भी मालों का सापेक्षिक दाम इस 7 प्रतिशत के अधिकतम अन्तर के साथ उनके श्रम-मूल्य के गुरुत्व केन्द्र के इर्द-गिर्द ही मण्डराता है और उनकी व्याख्या करने के लिए हमें मालों के सापेक्षिक दाम के उत्पादन-लागत सिद्धान्त पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, जैसा कि स्मिथ ने किया और जो उनके सिद्धान्तों का वह हिस्सा है जिसे मार्क्स ने अवैज्ञानिक कहा था।
इस प्रकार रिकार्डो एडम स्मिथ से एक क़दम आगे जाते हैं और एडम स्मिथ के मूल्य के श्रम सिद्धान्त को एडम स्मिथ के ही अन्तरविरोधों से बचाते हैं और दिखलाते हैं कि यह पूँजीवादी माल उत्पादन के युग में भी बिना किसी शर्त पूर्णत: वैध है। बाद में, आनुभविक अध्ययनों ने इस बात को सही सिद्ध किया कि पूँजीवादी माल उत्पादन, पूँजीपति, निजी स्वामित्व व मुनाफ़े की श्रेणी के आने से मूल्य के श्रम सिद्धान्त का परित्याग करने की कोई आवश्यकता नहीं है, बस उसे परिवर्धित करने की आवश्यकता है। पूँजीवादी माल उत्पादन मूल्य के श्रम सिद्धान्त को ख़ारिज नहीं करता है, बल्कि उसे परिवर्धित रूप में पुष्ट ही करता है।
लेकिन स्मिथ के समान ही रिकार्डो भी यह नहीं समझ पाये कि पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के मूल इस बात में निहित है कि मज़दूर की श्रमशक्ति स्वयं एक माल बन जाती है। पूँजीपति और मज़दूर के बीच विनिमय श्रम और मज़दूरी का नहीं बल्कि श्रमशक्ति और मज़दूरी का होता है और यह श्रमशक्ति अपने उत्पादक उपभोग की प्रक्रिया में अपने मूल्य से अधिक मूल्य सृजित करने की क्षमता रखने वाला एक विशिष्ट माल है। इसलिए बेशी मूल्य के सिद्धान्त तक सिमथ और रिकार्डो या मार्क्स के पहले का कोई भी राजनीतिक अर्थशास्त्री नहीं पहुँच पाया। साथ ही, मार्क्स से पहले का क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र मूर्त व अमूर्त श्रम के बीच के अन्तर तथा मज़दूरी पर लगने वाली परिवर्तनशील पूँजी (variable capital) और एक बार में माल अपना मूल्य स्थानान्तरित करने वाले उत्पादन के कारकों पर लगने वाली चल पूँजी (circulating capital) के बीच के अन्तर को भी स्पष्ट तौर पर नहीं समझ पाया था।
इसके अतिरिक्त, स्मिथ और रिकार्डो भू-लगान व अन्तरराष्ट्रीय व्यापार तथा मुद्रा के विषय में भी जो सिद्धान्त देते हैं वे अधूरे, त्रुटिपूर्ण और कई भ्रमों का शिकार हैं, जिनकी आलोचना पेश करते हुए मार्क्स ने भू-लगान, अन्तरराष्ट्रीय व्यापार व मुद्रा के वैज्ञानिक सिद्धान्त पेश किये। लेकिन उन पर हम आगे के अध्यायों में विचार करेंगे। अभी हमारा मक़सद सिर्फ़ संक्षेप में यह दिखलाना था कि मार्क्स से पहले क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र द्वारा मूल्य के श्रम सिद्धान्त का किस प्रकार विकास हुआ था और मार्क्स ने किस प्रकार उसकी कमियों को दूर करते हुए बेशी मूल्य का सिद्धान्त विकसित किया, पूँजीवादी समाज में मज़दूर वर्ग के शोषण को सम्पूर्णता में और वैज्ञानिक तौर पर समझा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2022


 

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