समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

आनन्द

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का मामला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। गत 9 दिसम्बर को भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीना ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल प्रस्तुत किया जिसमें पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही गयी है। इससे पहले नवम्बर-दिसम्बर के विधानसभा चुनावों के पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की भाजपा सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की मंशा ज़ाहिर की थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करने के पीछे विभिन्न धर्म की महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक चाल काम कर रही है। विपक्षी पार्टियों ने भाजपा द्वारा फेंके गये इस कूटनीतिक-राजनीतिक जाल में फँसते हुए तुरन्त समान नागरिक संहिता का सिरे से विरोध किया। ऐसे में यह सवाल मौजूँ हो जाता है कि मज़दूरवर्गीय ताक़तों को इस मामले पर क्या अवस्थिति अपनानी चाहिए। इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें समान नागरिक संहिता का अर्थ और भारत की ठोस परिस्थिति में ऐतिहासिक रूप से उसके विकास की प्रक्रिया को समझना होगा।

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का अर्थ क्या है?

समान नागरिक संहिता का मतलब ऐसे क़ानूनों से है जो कि विवाह, तलाक़, तलाक़ के बाद दिया जाने वाला गुज़ारा-भत्ता, सम्पत्ति का उत्तराधिकार और बच्चा गोद लेने या बच्चों के अभिभावक बनने की प्रक्रिया से सम्बन्धित होते हैं और जो सभी धर्मों व सम्प्रदायों पर समान रूप से लागू होते हैं। ग़ौरतलब है कि भारत में इस समय उपरोक्त मामलों में विभिन्न धर्मों के अपने-अपने क़ानून लागू होते हैं जिन्हें पर्सनल लॉ कहा जाता है। समान नागरिक संहिता के प्रश्न पर भारत की संविधानसभा में तीखी बहस हुई थी, लेकिन आम सहमति न होने की वजह से उसे मौलिक अधिकार के अध्याय के बजाय राज्य के नीति निदेशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रखा गया जो राज्य को यह निर्देश देता है कि वह पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा। परन्तु वोटबैंक की बुर्जुआ राजनीति के दाँवपेंच की वजह से संविधान के लागू होने के 7 दशक बाद भी कई अन्य नीति निदेशक तत्वों की ही तरह यह प्रावधान भी संविधान की धूल फाँक रहा है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि आज़ादी के बाद हालाँकि हिन्दू धर्म के पर्सनल लॉ में 1954-56 के बीच हिन्दू कोड बिल पास होने के बाद महत्वपूर्ण प्रगतिशील सुधार हुए जिसे सिख, जैन व बौद्ध समुदायों पर भी लागू किया जाता है, परन्तु मुस्लिम पर्सनल लॉ में अभी तक कोई सुधार नहीं हुआ है। कांग्रेस व अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के इस दोमुँहेपन का लाभ उठाकर भाजपा लम्बे समय से समान नागरिक संहिता का मुद्दा उछालती आयी है।

भारत में समान नागरिक संहिता की अवधारणा का ऐतिहासिक विकास

वैसे तो किसी भी आधुनिक बुर्जुआ लोकतंत्र में सभी नागरिकों के लिए सभी मामलों में एक ही धर्मनिरपेक्ष क़ानून होना स्वाभाविक-सी बात है, लेकिन भारत में ऐतिहासिक कारणों से पर्सनल लॉ से जुड़े मामलों में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। ग़ौरतलब है कि दुनिया के अधिकांश बुर्जुआ लोकतांत्रिक देशों में सभी नागरिकों के लिए सभी मामलों के लिए एक ही क़ानून विद्यमान है। यह बात न सिर्फ़ पश्चिमी बुर्जुआ लोकतांत्रिक देशों पर लागू होती है बल्कि पूर्व के देशों में भी 19वीं सदी से ही समान नागरिक संहिता के होने को आधुनिकता की परियोजना के अभिन्न हिस्से के रूप में देखा जाता रहा है। जापान में 1896 में, थाईलैण्ड में 1925 में, तुर्की में 1926, चीन में 1929-31 से ही समान नागरिक संहिता लागू हो चुकी थी। तुर्की के अतिरिक्त ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया, अल्जीरिया और अज़रबैजान जैसे मुस्लिम बहुसंख्या वाले देशों में भी समान नागरिक संहिता लागू है या किसी समय लागू थे। भारत में समान नागरिक संहिता न लागू होने के कारणों को जानने के लिए हमें औपनिवेशिक व उत्तर-औपनिवेशिक काल के दौरान क्रमशः ब्रिटिश व भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ताओं के आचरण के इतिहास पर नज़र दौड़ानी होगी।
औपनिवेशिक काल में भारत में आधुनिक बुर्जुआ क़ानून व प्रशासनिक ढाँचे का निर्माण और पर्सनल लॉ का संहिताबद्धीकरण
भारत के औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक बुर्जुआ क़ानून व प्रशासनिक ढाँचे की आधारशिला रखी, परन्तु वे यहाँ के निवासियों के परिवार सम्बन्धी धार्मिक क़ानूनों में फेरबदल करने से बचते रहे। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें ये डर सताता था कि इन क़ानूनों में फेरबदल करने से उन्हें स्थानीय लोगों के आक्रोश का सामना करना पड़ेगा जिससे औपनिवेशिक सत्ता के अस्तित्व पर ख़तरा आ सकता था, और उपनिवेशवादियों को यह जोखिम लेने की कोई आवश्यकता नहीं थी। वे भारत में प्रबोधन और उद्धार करने नहीं आये थे, जैसा कि अम्बेडकर जैसे व्यवहारवादियों को लगता था। उल्टे वे केवल और केवल भारत की साम्राज्यवादी लूट के प्रति चिन्ता रखते थे। औपनिवेशिक भारत में दीवानी (सिविल) और फ़ौजदारी (क्रिमिनल) अदालतों की स्थापना 1772 में वारेन हैस्टिंग्स के गवर्नर जनरल पद पर रहने के दौरान हुई। लेकिन इन अदालतों में विवाह, तलाक़ व उत्तराधिकार जैसे मामलों को स्थानीय आबादी के पर्सनल लॉ के तहत सुनवाई होती थी। इन अदालतों की सुनवाई में मदद के लिए स्थानीय पण्डितों और मौलवियों की नियुक्ति की गयी जो किसी मामले में स्थानीय पर्सनल लॉ की जानकारी देते थे। बाद में विलियम जोन्स, एच.टी. कोलब्रुक और नील बैली जैसे प्राच्यशास्त्रियों ने वेदों, पुराणों, स्मृतियों सहित तमाम ब्राह्मणवादी शास्त्रों और कुरान, हदीस, अल-हिदाया, अल-सिराजिया और फ़तवा-ए-आलमगीर जैसे इस्लामी ग्रन्थों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और करवाया। उसके बाद अदालतों में पर्सनल लॉ के मामलों में इन ग्रन्थों के आधार पर फ़ैसले दिये जाते थे। इस प्रक्रिया में हिन्दू और मुस्लिम की एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक सख़्त अस्मिताओं का निर्माण हुआ। अस्मिताओं के निर्माण की यह प्रक्रिया शुरू से ही दोषपूर्ण रही क्योंकि अंग्रेज़ों के भारत में आने से पहले हिन्दू और मुस्लिम अस्मिताओं के बीच इतना कठोर विभाजन मौजूद नहीं था। उदाहरण के लिए खोजा, मोपिला और मेमन जैसे मुस्लिम परम्परागत रूप से हिन्दुओं के परिवार सम्बन्धी क़ानूनों को मानते थे। इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम फ़्रण्टियर प्रॉविन्स में मुस्लिम बाहुल्य आबादी होने के बावजूद वहाँ शरिया क़ानून लागू नहीं होता था। विभाजन के बाद जब यह इलाक़ा पाकिस्तान में चला गया तब जाकर वहाँ शरिया क़ानून लागू हुआ। अधिकांश स्थानों पर हिन्दू और मुस्लिम एक ही ग्रामीण समुदाय का हिस्सा हुआ करते थे और अक्सर उनके रीति-रिवाज़ और भाषा भी साझा हुआ करती थी। लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध किसी संहिताबद्ध क़ानून की बजाय अक्सर परम्पराओं व रीति-रिवाज़ों के आधार पर स्थापित होते थे। अंग्रेज़ों के शासन के पहले ऐसे तमाम सम्प्रदाय हुआ करते थे जिन्हें सटीक रूप से हिन्दू या मुसलमान के रूप में चिह्नित करना मुश्किल था। यहाँ तक कि इस्लाम के भीतर भी सल्तनत और मुग़ल साम्राज्यों के दौरान इस्लामी क़ानून शरिया का कोई एक संस्करण हर जगह नहीं लागू होता था क्योंकि अलग-अलग जगहों की परम्पराएँ और रीति-रिवाज़ एक-दूसरे से अलग हुआ करते थे।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन जैसे-जैसे मज़बूत होता गया वैसे-वैसे हिन्दू और मुसलमान की पृथक अस्मिताएँ भी मज़बूत होती गयीं। 1870 में क्रिमिनल प्रोसीजर एक्ट और 1872 में इण्डियन एविडेंस एक्ट के पारित होने के बाद आपराधिक मामलों में आधुनिक प्रक्रिया स्थापित हुई, लेकिन पारिवारिक मामलों में पर्सनल लॉ का इस्तेमाल जारी रहा। 1871 में शुरू हुई जनगणना के बाद हिन्दू और मुस्लिम अस्मिताओं के बीच का कठोर विभाजन और मज़बूत हुआ क्योंकि सेना में नौकरी, सरकारी नौकरी व राज्य की सुविधाओं का उपयोग करने के लिए हर किसी को अपना धर्म बताने की ज़रूरत होती थी। अंग्रेज़ों ने पृथक निर्वाचक मण्डल जैसी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीतियों के ज़रिए इस विभाजन को और सख़्त बनाया। इस प्रकार अंग्रेज़ जहाँ एक ओर ब्रिटेन के भीतर व्यक्ति की स्वतंत्रता पर ज़ोर देने वाले क़ानून व प्रशासनिक व्यवस्था को स्थापित कर रहे थे वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारत में धार्मिक व जातीय समुदाय आधारित क़ानून व प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी और आबादी को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में बाँटकर इन समुदायों के हितों की पृथकता पर ज़ोर दिया।
हिन्दू समुदाय के भीतर अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रसार की वजह से एक बुद्धिजीवी वर्ग पैदा हुआ जिसने अंग्रेज़ों से उदारता की अपील करते हुए हिन्दू कुरीतियों के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने का आग्रह किया। उदाहरण के लिए राजा राम मोहन रॉय ने सती प्रथा के ख़िलाफ़ क़ानून बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए क़ानून बनवाने का काम किया। इसी प्रकार विवाह के लिए लड़के और लड़की की न्यूनतम क़ानूनन आयु सुनिश्चित करने की मुहिम भी चली जिसका नतीजा अन्ततः 1929 में शारदा क़ानून पास करने के रूप में सामने आया।
हिन्दू धर्म के भीतर चले धर्म सुधार आन्दोलनों में पुरातनपन्थी व प्रगतिशील दोनों धाराएँ मौजूद थीं जिसकी वजह से औपनिवेशिक काल में ही पर्सनल लॉ में बदलाव आने की शुरुआत हो चुकी थी। परन्तु इस्लाम के भीतर यह प्रक्रिया नहीं शुरू हो पायी। इस्लाम में जो धर्मसुधार आन्दोलन चले भी उनका चरित्र (उदाहरण के लिए बरेलवी और देवबन्दी) प्रायः पुनरुत्थानवादी था जिसकी वजह से उन्होंने इस्लामी क़ानून में सुधार की बजाय उसे कठोरता से लागू करने की वकालत की। यहाँ तक सर सैय्यद अहमद के नेतृत्व वाला अलीगढ़ आन्दोलन मुस्लिमों के बीच अंग्रेज़ी माध्यम में आधुनिक शिक्षा अर्जित करने पर ज़ोर देने के बावजूद विचारधारात्मक रूप से पुनरुत्थानवादी ही था और इसलिए उसने भी इस्लामी क़ानून में बदलाव करने पर ज़ोर नहीं दिया।
अंग्रेज़ों ने अपने बर्बर शासन के ख़िलाफ़ उठने वाले जनान्दोलनों को कमज़ोर करने के लिए हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों की रूढ़िवादी एवं कट्टरपन्थी ताक़तों को बढ़ावा दिया जिसका नतीजा हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसी संस्थाओं के अस्तित्व के रूप में सामने आया। 1930 के दशक में मुस्लिम लीग के प्रस्ताव पर ही अंग्रेज़ों ने 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया) एप्लिकेशन एक्ट पारित किया जिसमें यह प्रावधान किया गया कि मुसलमानों के विवाह, तलाक़, गुज़ारा-भत्ता, उत्तराधिकार जैसे मामले शरिया के अनुसार ही निपटाये जायेंगे। 1939 में क़ानून विवाह विच्छेद से सम्बन्धित क़ानून भी पारित किया गया जिसमें मुस्लिम महिलाओं द्वारा उस स्थिति में तलाक़ के आधार दिये गये हैं जब उनका विवाह बचपन में हुआ हो। आज भी मुस्लिमों के पर्सनल लॉ सम्बन्धी क़ानून को वैधता इन्हीं दो क़ानूनों से मिलती है।
उत्तर-औपनिवेशिक काल में भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता द्वारा पर्सनल लॉ के मामले में औपनिवेशिक परिपाटी को बरक़रार रखना
भारत में औपनिवेशिक शासन के अन्तिम दिनों में बनी संविधान सभा में विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ को समान नागरिक संहिता द्वारा प्रतिस्थापित करने को लेकर तीखी बहस हुई थी। इस बहस में अधिकांश मुस्लिम सदस्यों ने समान नागरिक संहिता का ज़बर्दस्त विरोध किया जिसकी वजह से समान नागरिक संहिता पर आम सहमति नहीं बन पायी और उसे मूलभूत अधिकारों की बजाय राज्य के नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया। 1950 में जब हिन्दू पर्सनल लॉ को महिलाओं के पक्ष में सुधार लाने के लिए हिन्दू कोड बिल का प्रस्ताव लाया गया तो कांग्रेस के भीतर पटेल, पन्त, राजेन्द्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी जैसे दक्षिणपन्थियों ने इस पर घोर आपत्ति की। ग़ौरतलब है कि हिन्दू कोड बिल पर तीखी आपत्ति जताने वालों में हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे जो उस समय नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे। नेहरू हिन्दू पर्सनल लॉ में सुधार के पक्षधर थे लेकिन कांग्रेस के भीतर एकमत न होने की वजह से उन्होंने भी ढुलमुल रवैया अपनाया। इन सबसे नाराज़ होकर ही अम्बेडकर ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफ़ा दिया था। लेकिन यह भी सच है कि हिन्दू कोड बिल में ही सिख, जैन व बौद्ध समुदायों को शामिल करने का प्रावधान भी अम्बेडकर की मर्ज़ी से हुआ जिसके अनुसार हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह सोच वैधीकृत होती थी कि इस्लाम व ईसाई धर्म को छोड़कर अन्य धर्म हिन्दू सभ्यता का हिस्सा हैं और एक प्रकार से हिन्दू धर्म की ही प्रोटेस्टेण्ट धाराएँ हैं! पहली लोकसभा के चुनाव के बाद नयी सरकार बनने के बाद 1955-56 के बीच हिन्दू कोड बिल के अधिकांश प्रावधानों को कई अधिनियमों, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और हिन्दू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम 1956 और हिन्दू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम के रूप में पारित करके हिन्दू पर्सनल लॉ में सुधार की दिशा में क़दम उठाया गया। हालाँकि अभी भी हिन्दू पर्सनल लॉ में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए कई सुधारों की ज़रूरत है, फिर भी उन्हें काफ़ी हद तक आधुनिक बनाया जा चुका है।
आज़ादी के बाद कांग्रेस सहित सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार करने या समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने जो सख़्त मुस्लिम अस्मिता की नींव रखी उसे आज़ादी के बाद भारत के बुर्जुआ शासकों ने वोटबैंक की अपनी घृणित राजनीति के मद्देनज़र और मज़बूत बनाने का काम किया। मुस्लिम समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर अंग्रेज़ों ने जो लगाम लगायी थी उसे आज़ादी के बाद बुर्जुआ शासकों ने ढीला करने की बजाय कई मायनों में और कसने का काम किया। मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी भी प्रकार के बदलाव को रोकने के लिए 1972 में गठित ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन हुआ जिसने इस्लाम के उलेमाओं (मिसाल के लिए देवबन्दी उलेमा) के साथ मिलकर आम मुस्लिम आबादी को धर्म के चंगुल में कसकर बाँधने का प्रयास किया और कांग्रेस सहित सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने उनकी मदद से आम मुस्लिम आबादी को महज़ वोटबैंक में तब्दील करने का काम किया। यह सच्चाई 1980 के दशक में प्रसिद्ध शाह बानो प्रकरण में नंगे रूप में सामने आयी जब राजीव गाँधी सरकार ने अपना मुस्लिम वोटबैंक बचाने के लिए शाह बानो नामक एक तलाक़शुदा मुस्लिम वृद्ध महिला के गुज़ारे-भत्ते सम्बन्धी उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले को ख़ारिज करने के लिए संसद से एक क़ानून पारित करवाया। ग़ौरतलब है कि उस समय तमाम उदारवादी मुस्लिम पर्सनल लॉ की बजाय उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले को तरजीह देते हुए राजीव गाँधी सरकार से आग्रह कर रहे थे कि वो ऐसा क़ानून न पारित करे। परन्तु कांग्रेस को उस समय महिलाओं के अधिकार और मुस्लिमों में आधुनिकता को बढ़ावा देने की नहीं बल्कि अपने वोट बैंक की परवाह थी क्योंकि उसको लगता था कि बहुसंख्यक आम मुस्लिम आबादी ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमाओं के शिकंजे में है। मुस्लिम कट्टरपन्थियों के इस तुष्टिकरण का सीधा फ़ायदा हिन्दू हितों की बात करने वाली फ़ासीवादी भाजपा को हुआ और उसने कांग्रेस को छद्म-धर्मनिरपेक्ष बताते हुए समान नागरिक संहिता के मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया। ग़ौरतलब है कि शाह बानो प्रकरण के तुरन्त बाद राजीव गाँधी सरकार ने संघ परिवार के हिन्दू कट्टरपन्थियों का तुष्टिकरण करते हुए राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने का आदेश दिया जिसका जमकर फ़ायदा उठाते हुए राम मन्दिर आन्दोलन तेज़ कर दिया।

भाजपा समान नागरिक संहिता का मुद्दा क्यों उठा रही है?

हम ऊपर देख चुके हैं कि 1950 के दशक में संघ परिवार ने अपनी ब्राह्मणवादी और घोर स्त्री-विरोधी मानसिकता का परिचय देते हुए हिन्दू कोड बिल का पुरज़ोर विरोध किया था। इस परिवार के अनुषंगी संगठनों ने हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में प्रस्तावित बदलावों के ख़िलाफ़ कई विरोध-प्रदर्शन भी आयोजित किये थे। हिन्दू औरतों को बराबरी का दर्जा दिलाने का कट्टर-विरोधी यही फ़ासिस्ट परिवार आजकल निहायत ही बेशर्मी के साथ मुस्लिम औरतों की बराबरी की बात कर रहा है और समान नागरिक संहिता की वकालत कर रहा है। दरअसल संघ परिवार द्वारा यह मुद्दा धर्मनिरपेक्षता या स्त्री-अधिकारों के समर्थन में नहीं बल्कि मुस्लिमों को पिछड़ा साबित करने की उसकी घृणित साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के हिस्से के रूप में उठाया जा रहा है।
अगर वाक़ई इन्हें आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और स्त्री-समानता की ज़रा भी फ़िक्र होती तो आज़ादी के बाद से वे लगातार पुरातनपन्थी, धार्मिक कट्टरपन्थी और पितृसत्तात्मक मूल्यों और विचारों की समाज में बौछार न करते। ये वही संघ परिवार है जिसके सदस्यों ने 1980 के दशक में रूपकँवर के सती होने को हिन्दू धर्म की परम्परा का हिस्सा बताते हुए उसके पक्ष में लोगों को लामबन्द करने का प्रयास किया था। ये वही संघ परिवार है जिसके सदस्य भँवरी देवी से लेकर आसिफ़ा और बिल्किस बानो के बलात्कारियों के समर्थन में बेशर्मी से उतरते आये हैं। यह फ़ासिस्ट परिवार समान नागरिक संहिता का मुद्दा शुरू से नहीं उठा रहा था, बल्कि इन्होंने यह मुद्दा तब उठाना शुरू किया जब इनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हिन्दू कोड बिल पास हो गया और हिन्दू महिलाओं को एक हद तक बराबरी का दर्जा मिल गया। उसके बाद इन्होंने यह कहना शुरू किया कि केवल हिन्दू धर्म के पर्सनल लॉ में बदलाव क्यों हुए, इस्लाम में क्यों नहीं!
स्पष्ट है कि समान नागरिक संहिता पर इनकी अवस्थिति शुरू से ही प्रतिक्रियावादी रही है। वास्तव में अभी भी ये समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर गम्भीर नहीं हैं क्योंकि ये जानते हैं कि समान नागरिक संहिता का मतलब यह भी होगा कि हिन्दू धर्म की महिलाओं को भी सम्पत्ति में पूरी तरह बराबरी का अधिकार देना होगा और हिन्दू अविभाजित परिवार जैसी धारणा ख़त्म हो जायेगी जिससे हिन्दू धन्नासेठों को करों में मिलने वाली भारी छूट भी ख़त्म हो जायेगी। इन धन्नासेठों के हितों की सबसे पुरज़ोर ढंग से नुमाइन्दगी करने वाली भाजपा वास्तव में समान नागरिक संहिता को वास्तव में अमल में लाने में आनाकानी करेगी। उसके लिए यह मुद्दा मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के एक हथकण्डे से ज़्यादा कुछ नहीं है।
संघ परिवार के फ़ासिस्टों का पर्दाफ़ाश करते हुए जनता के सामने यह सच्चाई उजागर करनी चाहिए कि अगर भाजपा को धर्मनिरपेक्षता और समान नागरिक संहिता की इतनी चिन्ता होती तो वह सीएए जैसा धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला क़ानून क्यों लेकर आयी। अगर उन्हें मुस्लिम महिलाओं की इतनी फ़िक्र है तो उन्होंने बिल्किस बानो के बलात्कारियों को रिहा करने में एड़ीचोटी का ज़ोर क्यों लगाया। अगर उन्हें वास्तव में धर्मों की दीवार तोड़ने की चिन्ता है तो वे समय-समय पर लव-जिहाद जैसा फ़र्ज़ी मुद्दा क्यों उछालते हैं जो हिन्दुओं और मुस्लिमों की धार्मिक संकीर्णताओं को क़ायम रखने का काम करता है।

समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया

अब तक के मानव इतिहास का सबसे उन्नत वर्ग होने के नाते मज़दूर वर्ग को समाज के हर क्षेत्र में आधुनिक मूल्यों, मान्यताओं, विधि-विधानों के समर्थन में पुरज़ोर ढंग से खड़ा होना चाहिए। पूँजीवादी समाज में आधुनिकता को बढ़ावा मिलेगा तो समाजवादी समाज के निर्माण का आधार मज़बूत होगा। साथ ही मज़दूर वर्ग को महिलाओं सहित सभी उत्पीड़ित लोगों के पक्ष में भी खड़ा होना चाहिए क्योंकि तभी वह यह उम्मीद कर सकता है कि उत्पीड़ित लोग शोषण के विरुद्ध उसकी लड़ाई में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ेंगे। ग़ौरतलब है कि शरिया जैसे धार्मिक क़ानून की उत्पत्ति सातवीं सदी में अरब प्रायद्वीप के क़बीलाई समाज के दौर में हुई थी जो आज के आधुनिक पूँजीवादी युग की जटिलताओं से निपटने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं है और उस दौर के अनुसार भी यह क़ानून स्त्रियों को कभी भी समान अधिकार नहीं दे सकता था क्योंकि उन समाजों में पितृसत्ता स्थापित हो चुकी थी।
यही वजह है कि बाद में कई इस्लामी देशों ने भी इन शरिया क़ानूनों से किनारा कर लिया और तमाम इस्लामी देशों ने उनमें आमूलचूल फेरबदल किये हैं। भारत की बुर्जुआ राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक आज़ादी के नाम पर इन पुरातनकालीन क़ानूनों को बरक़रार रखने की जो परिपाटी चल पड़ी है वह आम मुस्लिम आबादी और ख़ासकर मुस्लिम महिलाओं के हितों के ख़िलाफ़ है और इसलिए यह मज़दूर वर्ग के भी हितों के ख़िलाफ़ है। इसका फ़ायदा मुस्लिम समुदाय के वक़्फ़ बोर्डों व ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पदाधिकारियों और उलेमाओं और इस्लामी कट्टरपन्थ की राजनीतिक कर रहे नेताओं के एक छोटे से तबक़े को ही होता है। साथ ही इसका सीधा लाभ भाजपा व संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी राजनीति को होता है।
आज अगर संघ परिवार किसी भी मुद्दे में हिन्दू-मुस्लिम कोण ढूँढ़ने में सफल हो पाता है तो इसका एक कारण ग़ैर-भाजपा पार्टियों द्वारा आज़ादी के बाद से ही मुस्लिम अस्मितावादी राजनीति को बढ़ावा देना रहा है। मज़दूर वर्ग की ग़द्दार संशोधनवादी पार्टियों ने भी वर्गीय राजनीति की बजाय अस्मितावादी राजनीति को ही बढ़ावा दिया और अभी भी दे रही हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि समान नागरिक संहिता जैसा मुद्दा जो क़ायदे से वामपन्थ द्वारा उठाया जाना चाहिए था उसे भाजपा अपनी फ़ासिस्ट रणनीति के तहत उठा रही है।
समान नागरिक संहिता के मुद्दे को कांग्रेसी, समाजवादी और संशोधनवादी नेता और बुद्धिजीवी अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में प्रचारित करते आये हैं। उनका यह कहना होता है कि पर्सनल लॉ में फेरबदल करना मुस्लिमों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला होगा। लेकिन अगर मुस्लिमों की धार्मिक स्वतंत्रता का पैमाना शरिया क़ानूनों की मौजूदगी है तब तो उन्हें फ़ौजदारी (क्रिमिनल) मामलों तथा पर्सनल लॉ के अलावा अन्य सिविल मामलों जैसे ज़मीन बेचने/ख़रीदने, मकान किराये पर देने, अनुबन्ध, सोसायटी, ट्रस्ट आदि के सम्बन्ध में भी शरिया को लागू करने की वकालत करनी चाहिए। लेकिन ये मामले तो अंग्रेज़ों के समय से ही आधुनिक अदालतों द्वारा सुने जाते रहे हैं और मुस्लिम आबादी को इनसे कभी कोई समस्या नहीं हुई और न ही इन मामलों को शरिया के तहत लाने की माँग उठी। पर्सनल लॉ से सम्बन्धित मामलों में भी उच्चतम न्यायालय के कई मामलों (जैसे सरला मुदगल, डेनियल लतीफ़ी और शबाना हाशमी के मामले) में पर्सनल लॉ के ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया है और आम मुस्लिम या अन्य अल्पसंख्यक आबादी को इन फ़ैसलों से भी कोई आपत्ति नहीं हुई।
कई नारीवादी भी समान नागरिक संहिता की बजाय वर्तमान पर्सनल लॉ में ही सुधार करके औरतों को ज़्यादा अधिकार दिलवाने की वकालत करती आयी हैं। लेकिन वे भूल जाती हैं कि किसी भी धर्म के पर्सनल लॉ में कितने भी सुधार कर लिये जायें वे महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे ही नहीं सकते। यह सर्वविदित है कि वर्ग समाज के अस्तित्व में आने के बाद सभी धर्मों ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था को समाज में मज़बूती से स्थापित करने के सबसे कारगर हथियार का काम किया है। इसलिए विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ महिलाओं को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में बाँधने के मज़बूत उपकरण का काम करते हैं। विवाह, तलाक़, गुज़ारा-भत्ता व उत्तराधिकार जैसे मामलों में सभी धर्म महिलाओं को बराबर का हिस्सेदार समझने की बजाय दोयम दर्जे का नागरिक समझते आये हैं। ऐसे में किसी भी धर्म के पर्सनल लॉ की हिफ़ाज़त करना इस देश की औरतों के हितों के सरासर ख़िलाफ़ है। इसलिए मज़दूर वर्ग को किसी भी पर्सनल लॉ की ज़ंजीरों को बरक़रार रखने की बजाय उन्हें तोड़ने पर ज़ोर देना चाहिए।
मज़दूर वर्ग को समान नागरिक संहिता का मुद्दा धर्मनिरपेक्षता और औरतों की बराबरी के अधिकार के नज़रिए से सकारात्मक तौर पर उठाना चाहिए। निस्सन्देह रूप से, सर्वहारा वर्ग को समान नागरिक संहिता के पक्ष में धर्मनिरपेक्षता और मज़दूर वर्ग के नज़रिए से प्रचार करना चाहिए और व्यापक मेहनतकश आबादी को इस पर तार्किक तौर पर तैयार करना चाहिए और ऐसा करते हुए भाजपा और संघ परिवार के दोगलेपन को भी बेनक़ाब करना चाहिए। इतना स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक रूप से समान नागरिक संहिता का पुरज़ोर समर्थन किया जाना चाहिए जो सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष हो और स्त्रियों की वास्तविक बराबरी पर आधारित हो। साथ ही मज़दूर वर्ग को अपनी ओर से सकारात्मक तौर पर समान नागरिक संहिता को सार्वजनिक रूप से बहस को मुद्दा बनाना चाहिए। इस प्रक्रिया में हम न सिर्फ़ भाजपा व संघ परिवार की राजनीतिक-कूटनीतिक चाल में नहीं फँसेगे बल्कि उनकी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी और घोर स्त्री-विरोधी राजनीति व मानसिकता का पर्दाफ़ाश करने का मौक़ा मिलेगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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