चीन की तानाशाह सत्ता के ख़िलाफ़ सड़कों पर उमड़ा जनाक्रोश

सार्थक

पिछले महीने चीन की सरकार की लॉकडाउन नीतियों के ख़िलाफ़ चीन की सड़कों पर मज़दूरों और नौजवानों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। विरोध प्रदर्शन उत्तर पश्चिमी प्रान्त शिनजांग के उरूमची शहर से शुरू होकर, शेनज़न, शंघाई, बीजिंग, वुहान जैसे बड़े शहरों तक फैल गया। 24 नवम्बर को उरुमची शहर के एक अपार्टमेण्ट में आग लगने के कारण 10 लोगों की मौत हो गयी थी। यह दुर्घटना चीन के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शनों का तात्कालिक कारण बना। लोगों का कहना है कि देश में ग़ैर-जनवादी सख़्त लॉकडाउन नीतियों के कारण अग्निशमन विभाग द्वारा अपार्टमेण्ट में फँसे लोगों को बचाया नहीं जा सका। यहाँ पर हम बताना चाहते हैं कि चीन में लम्बे समय से कोविड वायरस की रोकथाम के लिए सख़्त लॉकडाउन लगे हुए हैं। इसे शी जिनपिङ की ‘ज़ीरो-कोविड पॉलिसी’ के नाम से जाना जाता है। प्रदर्शनकारियों की एक प्रमुख माँग है देश में लगे सख़्त व अतार्किक लॉकडाउन नियमों में ढील लाना। जनता में बढ़ते असन्तोष के कारण दिसम्बर महीने के पहले सप्ताह में चीन की सरकार ने देशव्यापी कठोर लॉकडाउन व क्वारेण्टाइन नियमों में ढील दे दी है। लेकिन प्रदर्शनकारियों पर राज्य का दमन पूरे ज़ोरों-शोरों से जारी है। बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ हो रही हैं और पूछताछ की जा रही है। मीडिया पर निरंकुश राज्य के पूर्ण नियंत्रण के कारण विरोध प्रदर्शनों का कोई भी ज़िक्र मीडिया में नहीं है। सोशल मीडिया से भी विरोध प्रदर्शन से सम्बन्धित सारे पोस्ट हटा दिये गये हैं। इतना ही नहीं पोस्ट लिखने वाले व्यक्तियों की धुँआधार गिरफ़्तारी और पूछताछ जारी है।
साफ़ है कि कोविड-सम्बन्धित लॉकडाउन का निरपेक्ष रूप से ना ही समर्थन किया जा सकता है और न ही विरोध। यदि किसी महामारी की रोकथाम के लिए ऐसे लॉकडाउन की आवश्यकता है, तो उसे योजनाबद्ध तरीक़े से, जनपक्षधर तरीक़े से और जनवादी तरीक़े से लागू किया जा सकता है। लेकिन ऐसा किसी वास्तविक समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत ही हो सकता है, न कि चीन जैसी नक़ली “समाजवादी” मगर असल में सामाजिक फ़ासीवादी व्यवस्था में, जहाँ पूँजीपतियों के लाभ की ख़ातिर मज़दूरों-मेहनतकशों पर नंगी तानाशाही लागू है। हम जानते हैं कि पिछले दो महीनों में चीन में ओमिक्रॉन के नये वेरिएण्ट का संक्रमण तेज़ी से फैला है। स्वास्थ्य व्यवस्था पर इसका भारी दबाव पड़ा है और कई जगह अस्पताल संक्रमित मरीज़ों से भर गया है। संक्रमण को रोकने के लिए सुनियोजित लॉकडाउन व क्वारेण्टाइन नीतियाँ लागू की जा सकती हैं। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि लॉकडाउन अपने आप में कोविड से लड़ने का कोई उपचार नहीं है। सवाल यह है कि आख़िर क्यों चीन ने लगभग तीन सालों के दरमियान अपनी जनता का पूर्ण टीकाकरण नहीं किया? तथ्यों के अनुसार चीन की 80 साल की आबादी का सिर्फ़ 60 प्रतिशत हिस्सा ही है जिसने टीका की पहली ख़ुराक ली है। 50 प्रतिशत ने दूसरी ख़ुराक ली ही नहीं है और सिर्फ़ 20 प्रतिशत ने बूस्टर लिया है। क्यों सरकार ने पर्याप्त संख्या में क्वारेण्टाइन व आइसोलेशन केन्द्र नहीं बनवाये? लोगों को दड़बों जैसे बने क्वारेण्टाइन केन्द्रों और स्कूलों में रखा जा रहा है जहाँ संक्रमण से बचाव की जगह ज़्यादा तेज़ी से संक्रमण बढ़ने का डर होता है। अगर लॉकडाउन को अनियोजित तरीक़े से ऊपर से थोप दिया जाये और टीकाकरण और स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त नहीं किया जाये तो सिर्फ़ लॉकडाउन से बीमारी पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता। अभी स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाले बजट का बड़ा हिस्सा सख़्ती से लॉकडाउन लगाने में ख़र्च हो रहा है जबकि ज़रूरत टीकाकरण और स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने की है। ऐसा नहीं करना निश्चित ही जनता के हितों के विपरीत ही जाता है। इससे आम मेहनतकश जनता को कष्ट और परेशानी झेलनी पड़ती है। आपको भी मार्च-अप्रैल 2020 का लॉकडाउन याद होगा। कैसे सड़कों पर हम मज़दूर-मेहनतकश लोग पाँच सौ, हज़ार या दो हज़ार किलोमीटर पैदल चलकर घर जाने को मजबूर हुए थे जब भारत में भी बिना किसी योजना के मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी। चीन लम्बे समय से ऐसे ही अनियोजित लेकिन सख़्ती से लागू होने वाले लॉकडाउन को झेल रहा है।
बहरहाल, चीन के प्रदर्शनकारियों की माँग महज़ ‘ज़ीरो-कोविड पॉलिसी’ व लॉकडाउन नीतियों में ढील तक सीमित नहीं रही। प्रदर्शनकारी इस तात्कालिक माँग से आगे बढ़कर शी जिनपिङ के गद्दी छोड़ने की माँग भी कर रहे हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के हाल ही में सम्पन्न हुए 20वें राष्ट्रीय सम्मेलन में शी जिनपिङ ने ‘ज़ीरो-कोविड पॉलिसी’ के द्वारा कोविड की रोकथाम को अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि के रूप में गिनाया था। राष्ट्रीय मीडिया में भी ‘ज़ीरो-कोविड पॉलिसी’ की सफलता का ढोल बढ़ा-चढ़ाकर पीटा गया। इसलिए जनता के द्वारा इस नीति का विरोध और शी जिनपिङ के इस्तीफ़े की माँग को चीन की तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी के शासन को चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। अपने इसी मुखर राजनीतिक स्वर के कारण सरकार ने प्रतिरोध को बढ़ने से रोकने के लिए सारे सख़्त से सख़्त क़दम उठाये। एक ओर लॉकडाउन नीतियों में कुछ ढील देकर जनता के ग़ुस्से पर ठण्डे पानी के छींटे छिड़के, वहीं दूसरी ओर पुलिस और ख़ुफ़िया तंत्र के माध्यम से प्रदर्शनकारियों पर दमन चक्र चलाया जा रहा है।
आज चीन में एक ऐसी सामाजिक-फ़ासीवादी पार्टी सत्ता पर क़ाबिज़ है जो ख़ुद को कम्युनिस्ट बताती है। इसकी नीतियों और पूँजीपतियों की चाकरी को देखकर कोई भी बता सकता है कि इनमें कम्युनिस्ट कुछ भी नहीं है बस कम्युनिस्ट होने का ढोंग है। 1976 में सर्वहारा वर्ग के महान नेता माओ त्से-तुङ की मृत्यु और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के क्रान्तिकारी हिस्से के संशोधनवादी हिस्से द्वारा दमन के बाद चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। सर्वहारा वर्ग का ग़द्दार तङ शियाओपिङ ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना में अग्रणी भूमिका निभायी थी। तङ शियाओपिङ ने ‘चार आधुनिकीकरण’, ‘बाज़ार समाजवाद’ और ‘चीनी विशिष्टताओं वाला समाजवाद’ के रूप में कई फ़र्ज़ी सिद्धान्त दिये जिसका एकमात्र लक्ष्य था देश में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को सैद्धान्तिक ज़मीन प्रदान करना। आज चीन महज़ एक पूँजीवादी देश ही नहीं बल्कि एक उभरता हुआ ताक़तवर साम्राज्यवादी देश भी बन गया है जो अमेरिका के साम्राज्यवादी वर्चस्व को टक्कर दे रहा है। चीन का पूँजीपति वर्ग न केवल अपने देश के अन्दर सारे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर कल-कारख़ानों में मज़दूरों की हड्डियाँ गला रहा है बल्कि एशिया, अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका के देशों में पूँजी निर्यात कर मुनाफ़ा पीट रहा है। अपने सामाजिक-फ़ासीवादी चरित्र के कारण चीन की राज्यसत्ता के पास श्रम पर नियंत्रण के बेहतर तरीक़े हैं। देशी व विदेशी पूँजी के लिए सस्ती श्रम शक्ति मुहैया करवाकर और पूँजी के हाथों श्रम का बेलगाम शोषण सुनिश्चित कर चीन आज दुनिया का सबसे आकर्षक वर्कशॉप बन गया है।
पूँजी के हाथों श्रम के बर्बर शोषण का एक जाना माना उदाहरण है चोंगचोउ शहर का फ़ॉक्सकॉन कारख़ाना। यह कारख़ाना एप्पल कम्पनी के लिए आईफ़ोन बनाता है। अक्टूबर के आख़िरी सप्ताह में सोशल मीडिया पर एक वीडियो में फ़ॉक्सकॉन के हज़ारों मज़दूर पैदल कम्पनी परिसर से पलायन करते दिखे। इसकी वजह थी फ़ैक्टरी के अन्दर भयंकर असहनीय और अमानवीय काम करने की परिस्थितियाँ। फ़ैक्टरी को बाहर से सील करके, लगभग तीन लाख मज़दूरों से ज़बर्दस्ती काम करवाया जा रहा था। फ़ैक्टरी के अन्दर कोरोना संक्रमण रोकने के भी कोई ठोस इन्तज़ाम नहीं थे। 22 नवम्बर को मज़दूरों ने अपने बकाया वेतन के भुगतान, बेहतर खाना और बेहतर कार्यस्थिति की माँग करते हुए विरोध प्रदर्शन किया था। विरोध प्रदर्शन को राज्य ने हैज़मेट सूट पहने सुरक्षाकर्मियों की लाठियों के नीचे दबा दिया था। इस घटना के बारे में और जानने के लिए इसकी रिपोर्ट ‘मज़दूर बिगुल’ के दिसम्बर महीने के अंक में आप पढ़ सकते हैं। कुछ साल पहले कई मज़दूरों की आत्महत्या के कारण फ़ॉक्सकॉन सुर्ख़ियों में बना हुआ था। इसका कारण भी कारख़ाने के अन्दर मज़दूरों का बर्बर शोषण था। फ़ॉक्सकॉन महज़ एक उदाहरण है यह दिखाने के लिए कि किस तरह चीन के मज़दूर पूँजीपतियों की मुनाफ़े की हवस में झुलस रहे हैं। चीन के कारख़ानों में बढ़ती ख़तरनाक दुर्घटनाएँ एक सामान्य बात बनती जा रही हैं। उरूमची में अपार्टमेण्ट में आग लगने के दो दिन पहले ही हुनान प्रान्त के अन्यांग शहर के एक कारख़ाने में सुरक्षा व्यवस्था की जर्जर हालत के कारण 38 मज़दूरों की आगजनी में मौत हो गयी थी। पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सुरक्षा इन्तज़ामों पर कम से कम ख़र्च करता है लेकिन इसकी क़ीमत मज़दूरों को अपनी जान से चुकानी पड़ती है।
राज्यसत्ता के सामाजिक-फ़ासीवादी चरित्र के कारण ज़रूरत पड़ने पर यह पूँजी को बेहतर तरीक़े से अनुशासित भी कर सकता है ताकि श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध इतना तीखा न हो जाये कि व्यवस्था के अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा हो जाये। लेकिन अन्ततोगत्वा पूँजी की आन्तरिक गति के नियम यहाँ भी लागू होते हैं। मुनाफ़े की गिरती दर के कारण जो पूँजीवादी संकट पूरे विश्व के पैमाने पर परिघटित हो रहा है उससे चीन की पूँजीवादी व्यवस्था अछूती नहीं है। कोरोना काल के शुरुआती दौर में सभी बड़े पूँजीवादी देशों के उत्पादन में गिरावट हो रही थी। इसका फ़ायदा उठाकर चीन के पूँजीपति वर्ग ने क़रीब एक साल तक जमकर मुनाफ़ा पीटा। लेकिन अर्थव्यवस्था में यह उछाल थोड़े समय के लिए ही रहा। नवम्बर 2021 में सम्पत्ति बाज़ार में लम्बे समय से बन रहा गुब्बारा फूटा। एवरग्रान्दे और अन्य कई रियल एस्टेट कम्पनियों का दिवालिया होना इस बात की पुष्टि करता है। इसके पीछे भी मुनाफ़े की गिरती दर की समस्या ही है जिसके कारण किसी एक क्षेत्र में भारी सट्टेबाज़ी होती है। नवम्बर 2022 में चीन की शहरी बेरोज़गारी दर 5.5 प्रतिशत थी। देश की कुल बेरोज़गारी की दर इससे ज़्यादा है क्योंकि चीन के ग्रामीण इलाक़ों में बेरोज़गारी की दर साधारणतः काफ़ी ज़्यादा रहती है और ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा नौकरी की तलाश में शहरों की ओर प्रवास करता है। 16 से 24 वर्ष के नौजवानों के बीच बेरोज़गारी की दर दिसम्बर 2022 में क़रीब 20 प्रतिशत थी।
1976 में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद चीन में अमीर और ग़रीब की बीच की खाई लगातार बढ़ती गयी है और आज यह अपने चरम पर है। अगर गिनी गुणांक जैसे असमानता मापने वाले पूँजीवादी मानकों की भी बात की जाये तो हम साफ़ देख सकते हैं कि चीन आर्थिक तौर पर एक बहुत असमान देश है। इसका गिनी गुणांक 0.52 है जो भारत और अमेरिका से ज़्यादा है। आज अमेरिका के बाद सबसे ज़्यादा अरबपति चीन में ही हैं। 2020 से 2021 के बीच इन अरबपतियों की कुल सम्पति में 100 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ। पूरे देश की घरेलू सम्पत्ति का 70 प्रतिशत देश के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के हाथों में है। कोरोना महामारी और अनियोजित लॉकडाउन ने इस आर्थिक असमानता को और ज़्यादा बढ़ाया है। पूँजीवाद अपनी आन्तरिक गतिकी से समाज में एक छोर पर कुछ पूँजीपतियों के लिए असीम समृद्धि और दूसरे छोर पर व्यापक मेहनतकश आवाम के लिए सिर्फ़ ग़रीबी, बेरोज़गारी और बदहाली पैदा कर रहा है। पिछले महीने चीन में जो जनाक्रोश सड़कों पर दिखा वह इसी बढ़ती असमानता की राजनीतिक अभिव्यक्ति है।
मेहनतकश जनता की लूट बदस्तूर जारी रह सके इसके लिए चीन की सामाजिक फ़ासीवादी राज्यसत्ता मेहनतकश जनता का राजनीतिक उत्पीड़न भी बढ़ाती जा रही है, जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों को छीनती जा रही है। इसलिए अपने जनवादी व नागरिक अधिकारों की माँग प्रदर्शनकारियों की एक प्रमुख माँग थी। लेकिन सही मायनों में जनता को जनवादी अधिकार सिर्फ़ समाजवाद में ही मिल सकते हैं। अगर चीन में आज सामाजिक-फ़ासीवादी राज्यसत्ता के बदले एक उदार पूँजीवादी राज्यसत्ता होती तब भी मेहनतकश जनता के राजनीतिक उत्पीड़न में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता। यह अवश्यम्भावी है, पूँजीवादी संकट के गहराने से राजनीतिक उत्पीड़न भी बढ़ेगा। और विज्ञान हमें यह सिखाता है कि बिना पूँजीवाद को ख़त्म किये हम पूँजीवादी संकट को ख़त्म नहीं कर सकते। जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने के लिए, हर पूँजीवादी देश की तरह, चीन की राज्यसत्ता भी जनता को जातीयता के नाम पर बाँट रही है, अन्धराष्ट्रवाद की आग भड़काकर अपनी गोटियाँ लाल कर रही है। अन्धराष्ट्रवाद को हवा देने के लिए चीनी राज्यसत्ता भारत के साथ सीमा विवाद, दक्षिणी चीन सागर विवाद और ताइवान मसले पर अमेरिका के साथ रस्साकसी का इस्तेमाल करती रहती है।
इसलिए हम भारत के मेहनतकश चीन की मेहनतकश आवाम से यह उम्मीद करते हैं कि वे समस्या की जड़ को पहचानते हुए इसके क्रान्तिकारी समाधान की ओर आगे बढ़ेंगे। लेकिन चीन तो क्या, किसी भी देश का क्रान्तिकारी रूपान्तरण एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के बिना नहीं हो सकता। तमाम देशों की तरह चीन के मज़दूर आन्दोलन के समक्ष भी मुख्य चुनौती है एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण। हम यह उम्मीद करते हैं कि अपने महान नेता माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में चीन में चले ऐतिहासिक समाजवादी प्रयोगों से सीख लेते हुए चीन का मज़दूर वर्ग एक नयी क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी के निर्माण की चुनौती को जल्द अपने हाथों में लेगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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