क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-8 : मार्क्स के आर्थिक चिन्तन के विकास के प्रमुख चरण

अभिनव

अभी तक हमने पढ़ा कि मूल्य का श्रम सिद्धान्त एडम स्मिथ से शुरू होकर डेविड रिकार्डो से होता हुआ किस प्रकार मार्क्स के वैज्ञानिक मूल्य के श्रम सिद्धान्त तक पहुँचा। हमने देखा कि पूँजीवादी समाज के अध्ययन की शुरुआत केवल माल से ही हो सकती है क्योंकि पूँजीवादी समाज में समृद्धि मालों के एक विशाल समुच्चय के रूप में प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में, पूँजीवादी समाज में अधिक से अधिक वस्तुएँ और सेवाएँ माल में तब्दील होती जाती हैं। माल वह वस्तु है जो मानव श्रम से पैदा होता है और उसका उत्पादन विनिमय हेतु होता है। यानी माल का एक उपयोग-मूल्य होता है और एक विनिमय-मूल्य होता है। उपयोग-मूल्य उसकी सामाजिक उपयोगिता पर निर्भर करता है जबकि विनिमय-मूल्य अन्य मालों से उसके विनिमय के अनुपात को दर्शाता है। लेकिन दो मालों का विनिमय केवल तभी सम्भव है जबकि उनमें कुछ तुलनीय हो, कुछ साझा हो। ज़ाहिर है कि दो मालों के विशिष्ट उपयोग-मूल्यों यानी उनकी विशिष्ट सामाजिक उपयोगिता में कुछ भी साझा नहीं होता और कोई भी माल उत्पादक अपने माल का विनिमय उसी माल से नहीं करेगा जो वह स्वयं पैदा करता है, बल्कि किसी अलग माल से ही करेगा। ऐसे में, उनमें तुलनीय क्या है? हमने देखा कि किन्हीं भी दो अलग मालों में जो चीज़ तुलनीय है वह है मानवीय श्रम। लेकिन अलग-अलग प्रकार के विशिष्ट या मूर्त मानवीय श्रम में भी कुछ साझा नहीं होता है। मसलन, एक बढ़ई और एक लुहार के विशिष्ट प्रकार के मूर्त श्रम में क्या साझा है? कुछ भी नहीं। मार्क्स ने बताया कि यह विश्ष्टि प्रकार का मूर्त श्रम अलग-अलग मालों में विशिष्ट उपयोग-मूल्य को जन्म देता है। तो फिर दोनों मालों में साझा क्या है? दोनों मालों में जो साझा है कि वे आम तौर पर साधारण अमूर्त मानवीय श्रम के उत्पाद हैं। दूसरे शब्दों में, इन दोनों ही मालों को बनाने में आम तौर पर साधारण अमूर्त मानवीय श्रम लगा है, यानी, मार्क्स के शब्दों में, उनको बनाने में “मनुष्य के दिमाग़, उसकी नसों और मांसपेशियों” का ख़र्च हुआ है। उन्होंने इस प्रक्रिया में कौन-सा विशिष्ट मूर्त रूप ग्रहण किया, मालों के मूल्य के निर्धारण में हम इसे नज़रन्दाज़ करते हैं, उससे अमूर्तन करते हैं। इसलिए मालों का मूल्य उनमें लगे अमूर्त मानवीय श्रम से पैदा होता है।

हमने यह भी देखा कि मूल्य के निर्धारण के मामले में कुशल व अकुशल श्रम का प्रश्न कोई समस्या नहीं पैदा करता है क्योंकि हर जटिल या कुशल श्रम के एक घण्टे को साधारण या अकुशल श्रम के घण्टों की एक निश्चित संख्या में तब्दील किया जा सकता है। यदि हम उक्त कौशल के उत्पादन में ख़र्च हुए श्रम के आधार पर एक गुणक से उसका गुणा कर दें तो हर कुशल श्रम को अकुशल साधारण श्रम में अपचयित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी कुशल मज़दूर केवल अपनी श्रमशक्ति के साथ उत्पादन व श्रम प्रक्रिया में भागीदारी नहीं करता है, बल्कि उन सभी श्रमशक्तियों के साथ भागीदारी करता है, जो कि उसके कौशल के उत्पादन में ख़र्च हुई हैं। इस बात को आंशिक तौर पर एडम स्मिथ ही समझ चुके थे, हालाँकि कुशल श्रम के अकुशल साधारण श्रम में अपचयन की समूची समस्या को पूर्ण रूप में मार्क्स ने हल किया। इस प्रकार हमने देखा कि माल का मूल्य वह अन्तर्भूत (intrinsic) चीज़ है जो कि मालों के विनिमय-मूल्य, यानी उनके सापेक्षिक मूल्य या विनिमय के अनुपात को तय करता है। यह सम्भव है कि दो मालों का मूल्य एकदम समानुपातिक रूप में और समान दिशा में बदले और उनके विनिमय-मूल्य में कोई फ़र्क़ न आये, या किसी एक माल का मूल्य बदले जबकि दूसरे माल का मूल्य समान रहे और नतीजतन उनका विनिमय-मूल्य बदल जाये। यह मूल्य-रूप की विशेषता है।

हमने यह भी देखा कि मालों का मूल्य उसमें लगे अमूर्त साधारण सामाजिक श्रम की मात्रा है और इस प्रकार मूल्य और कुछ नहीं बल्कि वस्तुरूप ग्रहण कर चुका (objectified), या “जम गया” (congealed) अमूर्त श्रम ही है। मूल्य के विषय में गुणात्मक सवाल को हल करने, यानी उसके सारतत्व को स्पष्ट करने के बाद, मार्क्स उसके परिमाणात्मक प्रश्न पर आते हैं और बताते हैं कि मूल्य का परिमाण सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त मानवीय श्रम से तय होता है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी उत्पादन की शाखा में सामाजिक उत्पादन की औसत स्थितियों में उत्पादन से माल का मूल्य तय होता है, न कि सबसे कुशल उत्पादक द्वारा लिये गये श्रमकाल से या सबसे अकुशल उत्पादक द्वारा लिये गये श्रमकाल से। मसलन, अगर एक विशेष गुणवत्ता का जूता बनाने के लिए उक्त उद्योग में उत्पादन की औसत सामाजिक स्थितियों में 4 घण्टे ख़र्च होते हैं, तो माल का सामाजिक या बाज़ार मूल्य इससे तय होगा, भले ही उक्त शाखा में ही कुछ उत्पादक इसे 6 घण्टे में बनाते हों और कुछ अन्य उत्पादक इसे 2 घण्टे में ही बना देते हों। इस रूप में उपयोग-मूल्य एक शुद्धतः गुणात्मक और वैयक्तिक अवधारणा है और दो उपयोग-मूल्यों में अपने आप में कुछ भी साझा नहीं है, जबकि मूल्य एक शुद्ध रूप से परिमाणात्मक व सामाजिक अवधारणा है और दो मालों के मूल्य को केवल और केवल अमूर्त श्रम की अलग-अलग मात्राओं के रूप में अलग करके देखा जा सकता है, जिनमें गुणात्मक रूप से कुछ भी भिन्न नहीं है।

इस संक्षिप्त दुहराव के बाद हम अब आगे बढ़ सकते हैं।

हम आगे उपयोग-मूल्य, विनिमय-मूल्य (जो कि मूल्य का रूप है) और मूल्य की सारवस्तु (यानी श्रम) के बारे में और विस्तार में बात करेंगे और फिर देखेंगे किस प्रकार समाज में श्रम विभाजन के विकास के साथ वस्तुओं का विनिमय शुरू हुआ और माल उत्पादन की शुरुआत हुई, किसी प्रकार बढ़ते विनिमय ने सामाजिक श्रम विभाजन को और भी ज़्यादा बढ़ाया, किसी प्रकार माल के मूल्य का रूप, यानी विनिमय-मूल्य, कई चरणों से विकसित होते हुए मुद्रा-रूप तक पहुँचा, जिससे हर कोई ही वाक़िफ़ है; हम यह भी देखेंगे कि मुद्रा के पैदा होने के साथ किस प्रकार माल-अन्धभक्ति (commodity-fetishism) अपने चरम पर पहुँची और किस प्रकार इसने समाज में मनुष्यों के आपसी रिश्तों को रुपये-पैसे के चमकदार रहस्यमयी आवरण में ढँक दिया; हम देखेंगे कि साधारण माल उत्पादन का सामान्य सूत्र क्या होता है, किस प्रकार मुद्रा पूँजी में तब्दील होती है, किस प्रकार पूँजी बेशी-मूल्य पैदा करती है और फिर स्वयं बेशी-मूल्य पूँजी में तब्दील होता है, पूँजी का संचय होता है और समाज में एक छोर पर समृद्धि पूँजीपति वर्ग के हाथों में केन्द्रित होती जाती है और दूसरे छोर पर दरिद्रता, दुख, और तकलीफ़ का एक समन्दर इकट्ठा होता जाता है, जिसमें समाज के आम मेहनतकश लोग और विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग डूबता जाता है; और किस प्रकार पूँजीपति वर्ग की अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस ही आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले पूँजीवादी संकट का कारण बनती है जो एक नयी और बेहतर सामाजिक व्यवस्था के उदय की पूर्वशर्तों को जन्म देती है।

लेकिन इस लम्बी मगर बेहद रोचक यात्रा पर निकलने से पहले यह जानना उपयोगी होगा कि जिन व्यक्तियों ने यानी मार्क्स और एंगेल्स ने पूँजीवादी समाज के काम करने के तौर-तरीक़ों की पड़ताल कर उसके गति के नियमों को ढूँढ़ा और बताया, उनके आर्थिक चिन्तन की विकास-यात्रा क्या थी। यह जाने बग़ैर हम यह नहीं समझ पायेंगे कि मार्क्स और एंगेल्स क्यों पूँजीवादी शोषण के घृणित क्षुद्र रहस्य को समझ पाये? निश्चित तौर पर, इसमें इतिहास के उस दौर की भी भूमिका थी जिसमें मार्क्स और एंगेल्स पैदा हुए थे। लेकिन साथ ही इस तथ्य की भी इसमें केन्द्रीय भूमिका थी कि मार्क्स और एंगेल्स सर्वप्रथम सर्वहारा क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने अपना समूचा जीवन सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के महान लक्ष्य के लिए समर्पित किया था। और अन्ततः इसमें मार्क्स और एंगेल्स की महान और युगान्तरकारी प्रतिभा की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। इन बातों को समझकर हम मार्क्स व एंगेल्स के आर्थिक चिन्तन के विकास के चरणों को भी बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं और साथ ही मार्क्स व एंगेल्स के क्रान्तिकारी आर्थिक खोजों को समझकर अपनी मुक्ति के पथ को आलोकित कर सकते हैं।

मार्क्स के आर्थिक चिन्तन के विकास के प्रमुख चरण

मार्क्स और एंगेल्स एक ऐसे युग में पैदा हुए थे जब व्यापारिक पूँजीवाद का दौर यूरोप के प्रमुख पूँजीवादी देशों में मूलतः और मुख्यतः ख़त्म हो गया था और औद्योगिक पूँजी का वर्चस्व स्थापित हो गया था। मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 को त्रियेर, राइन प्रान्त, प्रशिया (वर्तमान जर्मनी) में हुआ था जबकि एंगेल्स का जन्म 28 नवम्बर 1820 को बारमन, प्रशिया (वर्तमान जर्मनी) में हुआ था। दुनिया में उन्नत पूँजीवादी देशों में पूँजीवादी व्यवस्था की सौग़ातें साफ़ तौर पर नज़र आ रही थीं। एक ओर पूँजीपति वर्ग के हाथों में समृद्धि और पूँजी का बढ़ता संचय और दूसरी ओर मज़दूर वर्ग का गिरता जीवन-स्तर, दरिद्रता, बीमारी और ग़रीबी। उस दौर में मज़दूरों से कारख़ानों में 10 से 12 घण्टे तक काम लिया जाता था और कुछ देशों में इससे भी ज़्यादा। मज़दूर वर्ग के जीवन की भयंकर स्थिति पर ही एंगेल्स ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा’ 1845 में लिखी थी, जब वह मात्र 25 वर्ष के थे। मज़दूर वर्ग के जीवन की यह स्थिति ही थी जो उस दौर में तमाम उपन्यासकारों को इस जीवन के चित्रण के लिए मजबूर कर रही थी तो वहीं इंग्लैण्ड व फ़्रांस जैसे उन्नत पूँजीवादी देशों के पूँजीपति वर्ग के दूरदर्शी पहरेदार, बुद्धिजीवी, मानवतावादी फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर व डॉक्टर आदि भी पूँजीवादी राज्य से माँग कर रहे थे कि मज़दूरों को कार्यस्थिति, कार्यदिवस और जीवनस्थिति सम्बन्धी कुछ क़ानूनी अधिकार व सुरक्षाएँ प्रदान की जायें। 1840 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही यूरोप का मज़दूर वर्ग भी अपने जुझारू और क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलनों की शुरुआत कर रहा था, जब अभी कई देशों में बुर्जुआ वर्ग स्वयं राज्यसत्ता से राजतंत्र और सामन्ती कुलीन वर्ग को बेदख़ल करने या राजनीतिक शक्ति का बड़ा साझीदार बनने के प्रयास कर रहा था। सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना और उसके वर्ग संघर्ष का विकास हो रहा था।

यही वह समूचा सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ था जिसमें मार्क्स व एंगेल्स ने दुनिया बदलने की चाहत रखने वाले संजीदा और ज़हीन नौजवानों के रूप में अपने चिन्तन और अपनी राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत की। दोनों ने ही दर्शन के क्षेत्र में चिन्तन और लेखन से शुरुआत की और हेगेल के भाववादी दर्शन से होते हुए, युवा हेगेलपन्थियों के मनोगत भाववाद और फिर लुडविग फ़ायरबाख़ नामक जर्मन यांत्रिक भौतिकवादी दार्शनिक के चिन्तन की आलोचना पेश की और अन्ततः अपने दर्शन और विज्ञान, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद, को विकसित किया। दर्शन और राजनीति पर चिन्तन और लेखन के साथ ही उनके क्रान्तिकारी बौद्धिक जीवन का आरम्भ हुआ।

राजनीतिक अर्थशास्त्र पर चिन्तन और लेखन की शुरुआत करने वाले पहले व्यक्ति मार्क्स नहीं बल्कि एंगेल्स थे। 1844 में उन्होंने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना की एक रूपरेखा’ नामक निबन्ध लिखा जिसे मार्क्स ने भी पढ़ा था और उससे काफ़ी प्रभावित हुए थे। अपने आपको कम्युनिस्ट क़रार देने वाले पहले व्यक्ति भी एंगेल्स ही थे। वैसे तो एंगेल्स की मार्क्स से एक संक्षिप्त मुलाक़ात 1842 में ही ‘राइनिश ज़ाइटुंग’ नामक अख़बार के दफ़्तर में हुई थी, जिसका मार्क्स उस समय सम्पादन कर रहे थे, लेकिन तसल्ली के साथ उनकी पहली मुलाक़ात 1844 में 28 अगस्त के दिन हुई, जिसके साथ दो महान सर्वहारा क्रान्तिकारियों और सर्वहारा वर्ग के शिक्षकों के बीच एक ऐसी मित्रता की शुरुआत हुई जो आज भी एक मिसाल है। एंगेल्स 10 दिन मार्क्स के साथ पेरिस में रुके और इसी बीच दोनों ने अपनी पहली साथ लिखी गयी पुस्तक ‘पवित्र परिवार’ पर काम शुरू किया, जिसने जर्मनी में उस समय काफ़ी फ़ैशनेबल हो चुके युवा हेगेलपन्थी दर्शन और राजनीति की धज्जियाँ उड़ायीं और वैज्ञानिक भौतिकवादी और क्रान्तिकारी समाजवाद के सिद्धान्तों की नींव रखी। इसके बाद दोनों ने साथ में 1846 में ‘जर्मन विचारधारा’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी सिद्धान्तों को पहली बार व्यवस्थित तौर पर सूत्रबद्ध किया। यह पुस्तक उनके जीवनकाल में नहीं छप सकी। उनकी मृत्यु के बाद पहली बार इसका प्रकाशन समाजवादी सोवियत संघ में 1932 में हुआ। इसकी वजह यह थी कि प्रकाशक ने इसे छापने से इन्कार कर दिया था। नतीजतन, मार्क्स के शब्दों में, उन्होंने (मार्क्स व एंगेल्स ने) इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को “चूहों द्वारा कुतरकर की जाने वाली आलोचना के हवाले कर दिया।” लेकिन अन्ततः जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो इसने पूरी दुनिया के बौद्धिक जगत में धमाका कर दिया और आज तक हर वर्ष ही तमाम विश्वविद्यालयों में इस पुस्तक के ऊपर केन्द्रित कुछ शोध-कार्य प्रकाशित होते हैं। इस पुस्तक के साथ मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान यानी सर्वहारा वर्ग की वैज्ञानिक विश्वदृष्टि (द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद) और समाज के विज्ञान (ऐतिहासिक भौतिकवाद) की स्थापना का काम एक नये मुक़ाम पर पहुँचा।

राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अपने अध्ययन को गहरा करने का सुझाव एंगेल्स ने मार्क्स को दिया और लगातार उन पर दबाव बनाया कि दर्शन के साथ-साथ वे क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र यानी एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो, फ़िज़ियोक्रैट धारा के अर्थशास्त्र, माल्थस आदि का गहराई से अध्ययन करें। जहाँ 1844 में एंगेल्स का निबन्ध ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना की एक रूपरेखा’ प्रकाशित हुआ, वहीं इसी वर्ष मार्क्स की प्रसिद्ध रचना ‘1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ भी लिखी गयी (हालाँकि यह मार्क्स की मृत्यु के 50 वर्ष बाद ही पहली बार प्रकाशित हो सकी) जिसमें मार्क्स ने पहली बार बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र पर कुछ आरम्भिक आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं और मज़दूर वर्ग के अलगाव का अपना सिद्धान्त पेश किया। 1845 में ‘पवित्र परिवार’ का प्रकाशन हुआ और 1846 में ‘जर्मन विचारधारा’ का लेखन हुआ। यहाँ से मार्क्स और एंगेल्स का लेखन दो अलग विकास-पथ अपनाता है। मार्क्स 1848 से ही अपने अध्ययन को राजनीतिक अर्थशास्त्र पर केन्द्रित करते हैं, हालाँकि 1848 से 1852 का समय ऐतिहासिक भौतिकवाद पर मार्क्स की कुछ श्रेष्ठतम कृतियों के लेखन का दौर भी था। एंगेल्स द्वन्द्वात्मक व ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा प्राकृतिक विज्ञान पर अध्ययन व लेखन के साथ मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों की हिफ़ाज़त करने और उन्हें मज़दूर वर्ग में लोकप्रिय बनाने के कार्यभार को अपने हाथ में लेते हैं। मार्क्स का आर्थिक चिन्तन कई चरणों से होकर विकसित होता है, जिन पर एक संक्षिप्त चर्चा करना उपयोगी होगा और आगे तमाम मसलों को समझने में हमारी सहायता करेगा।

पहला चरण (1844 से 1846)

एंगेल्स के प्रोत्साहन और दबाव के चलते मार्क्स ने गम्भीरता से पूँजीवाद और उसकी श्रम प्रक्रिया व उत्पादन प्रक्रिया का अध्ययन करना शुरू किया। इस अध्ययन का पहला परिणाम ‘1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ के रूप में सामने आया जिसमें पहली बार मार्क्स अलगाव की परिघटना की पहचान करते हैं और बताते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में मज़दूर के श्रम का उत्पाद उससे अलग कर दिया जाता है; न सिर्फ़ उसके श्रम का उत्पाद उससे अलग कर दिया जाता है, बल्कि उसके श्रम करने की गतिविधि ही उससे परायी हो जाती है, क्योंकि उस पर पूँजीपति का नियंत्रण होता है; श्रम करते समय वह ख़ुद को अपने आप से बेगाना महसूस करता है, जबकि जब वह श्रम नहीं कर रहा होता है तब अपनी पाशविक गतिविधियों (खाना, पीना, प्रजनन, आदि) में ही वह अपने आपको मनुष्य के तौर पर महसूस कर पाता है। यह उसका विमानवीकरण करता है और उसे मानवीय सारतत्व से वंचित करता है। चूँकि उसका श्रम और उसके श्रम का उत्पाद उससे मालिक द्वारा अलग कर दिया जाता है, हड़प लिया जाता है, इसलिए वह श्रम से वैसे ही दूर भागता है जैसे कि कोई प्लेग से दूर भागता है। नतीजतन, जो गतिविधि इन्सान के लिए सबसे नैसर्गिक है और जो उसके लिए आनन्द का विषय होनी चाहिए, यानी उत्पादक गतिविधि, वही पूँजीवाद में उसके लिए एक अभिशाप बन जाती है। मज़दूर वर्ग के अलगाव की यह अवधारणा मार्क्स की राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के विकसित होने के साथ और भी गहरी हुई और अन्त तक इस अवधारणा को उनके आर्थिक लेखन में देखा जा सकता है।

लेकिन अभी मार्क्स ने पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की ही श्रेणियों को अपनाया था और उनका क्रान्तिकारी लक्ष्य हेतु उपयोग कर रहे थे। अभी मार्क्स ने इन श्रेणियों की सम्पूर्ण आलोचना नहीं पेश की थी। इसी दौर में, मार्क्स ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के ठोस आँकड़ों का गहराई से अध्ययन शुरू किया। मार्क्स और एंगेल्स शुरू से ही ठोस आनुभविक अध्ययनों, तथ्यों और आँकड़ों की मज़बूत ज़मीन पर खड़े होकर अपने सिद्धान्त पेश करते थे। उनके आर्थिक सिद्धान्त भी अध्ययन-कक्षों में नहीं निर्मित हुए और कल्पनाओं की उड़ान से नहीं पैदा हुए, बल्कि वास्तविक वर्ग संघर्ष में हिस्सेदारी के अनुभवों और वास्तविक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के ठोस आँकड़ों और तथ्यों के अध्ययन, उनके सामान्यीकरण और समाहार पर आधारित थे। ठीक इसीलिए वे पूँजीवादी यथार्थ को सटीक और वैज्ञानिक तरीक़े से समझते थे, उसकी गति के विज्ञान को समझते थे और इसलिए इस बात की अनिवार्यता को समझते थे कि पूँजीवादी समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष को अपनी आन्तरिक गति से सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और कम्युनिज़्म की ओर जाना है या फिर बर्बरता और विनाश की ओर। इसलिए मार्क्स इस दौर में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के व्यापार चक्र, उसके संकटों की आवर्तिता आदि के आँकड़ों का सावधानीपूर्वक अध्ययन कर रहे थे और उनके कारणों की पड़ताल कर रहे थे।

दूसरा चरण (1846 से 1848)

मार्क्स का आर्थिक चिन्तन इस बीच अद्भुत गति से आगे बढ़ा। इस दौर में उनके आर्थिक चिन्तन में हुआ विकास स्पष्ट तौर पर उनकी किताब ‘दर्शन की दरिद्रता’ में नज़र आता है, जो कि प्रूधों नामक टुटपुँजिया समाजवादी चिन्तक के विचारों की तीखी आलोचना थी। ग़ौरतलब है, प्रूधों का उस समय के यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में काफ़ी प्रभाव था। प्रूधों वर्ग संघर्ष के ज़रिए मज़दूर वर्ग की मुक्ति के बजाय मज़दूरों के छोटे-छोटे उत्पादक समूहों और उनके बीच व्यापार की व्यवस्था, टुटपुँजिया उत्पादकों के बीच समान विनिमय पर आधारित व्यवस्था की बात कर रहे थे और इस ग़लत अवधारणा के कारण वह हड़तालों तक का विरोध कर रहे थे कि हड़तालों का नतीजा बढ़ी मज़दूरी में होगा और बढ़ी मज़दूरी का अर्थ होगा बढ़ी हुई क़ीमतें! मार्क्स ने बताया कि बढ़ी हुई मज़दूरी का अर्थ घटा हुआ मुनाफ़ा होता है न कि बढ़ी हुई क़ीमतें। मार्क्स ने प्रूधों के समूचे भाववादी दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्त्र की ज़बर्दस्त आलोचना पेश की, जिसने मज़दूर आन्दोलन में इस टुटपुँजिया प्रवृत्ति को हाशिये पर पहुँचाने का अहम काम किया।1847 में ही मार्क्स ब्रसेल्स में मज़दूरों के समूहों के बीच कुछ व्याख्यान देते हैं, जो बाद में ‘उजरती श्रम और पूँजी’ के नाम से प्रकाशित होते हैं। अभी मार्क्स ने अपनी कई विकसित अवधारणाओं को विकसित नहीं किया था जैसे कि श्रमशक्ति की अवधारणा, परिवर्तनशील पूँजी और स्थिर पूँजी के बीच के अन्तर की अवधारणा, या संकट का अपना सिद्धान्त। लेकिन वह क़दम-दर-क़दम राजनीतिक अर्थशास्त्र की अपनी आलोचना को विकसित कर रहे थे और उसकी अवैज्ञानिक श्रेणियों की जगह वैज्ञानिक श्रेणियों को स्थापित कर रहे थे। उनके इन भाषणों के संकलन को बाद में एंगेल्स ने मार्क्स की परिपक्व अवधारणाओं के अनुसार सम्पादित किया और प्रकाशित किया। यह संकलन आज भी हम मज़दूरों के लिए पढ़ने योग्य है।

1848 में ही ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ के ऐतिहासिक दस्तावेज़ का प्रकाशन हुआ जिसमें मार्क्स ने पूँजीवाद के उद्भव, उसके विकास और पूँजी संचय के आम नियमों की पहली बार व्यवस्थित तौर पर चर्चा की। इसमें मार्क्स पूँजीवाद के विकास में एक विश्व बाज़ार के उदय की भूमिका को चिह्नित करते हैं। मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी समाज के विकास का एक आम नियम है कि अमीर और ग़रीब के बीच की खाई बढ़ती जाती है, समाज के एक छोर पर समृद्धि तो दूसरे छोर पर दरिद्रता का संचय होता जाता है। इस समय तक मार्क्स क्लासिकीय बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र की कई ग़लत अवधारणाओं को भी ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर रहे थे, जैसे कि ‘मज़दूरी का लौह नियम’ (iron law of wages) जिसके अनुसार मज़दूरी हमेशा मज़दूर के लिए जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम उत्पादों को ख़रीदने योग्य स्तर पर ही रहती है। बाद में मार्क्स के अपने अध्ययन ने दिखलाया कि पूँजी संचय द्वारा उपस्थित सीमाओं के भीतर मज़दूरी दो कारकों के चलते श्रमशक्ति के न्यूनतम मूल्य से ऊपर या नीचे जा सकती है। ये दो कारक हैं श्रमशक्ति की माँग और आपूर्ति का समीकरण जो कि स्वयं मुनाफ़े की औसत दर की स्थितियों से तय होता है, और, दूसरा, जो कि पहले से भी महत्वपूर्ण है, मज़दूर वर्ग का वर्ग संघर्ष। वर्ग संघर्ष के बूते मज़दूर वर्ग नये उत्पादित मूल्य में अपनी मज़दूरी को उस सीमा तक बढ़ा सकता है, जिस सीमा तक पूँजी संचय और पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा ही न बाधित हो जाये। पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं में इतना ही सम्भव है क्योंकि अगर मज़दूर वर्ग के वर्ग संघर्ष और संगठन के कारण मज़दूरी इतनी बढ़ जाये कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा ही संकट में पड़ जाये, तो निजी सम्पत्ति के अधिकार की व्यवस्था में पूँजीपति स्वयं “निवेश हड़ताल” पर जा सकते हैं। लेकिन मार्क्स ने यह खोजें अपनी परिपक्व रचनाओं में कीं।

साथ ही, संकट के कारणों के रूप में भी अभी मार्क्स वाणिज्यिक संकट की अवधारणा पर ज़ोर दे रहे थे। बाद में, मार्क्स ने बताया कि संकट का मूल कारण मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति होता है। इन तमाम श्रेणियों को अभी मार्क्स एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और माल्थस से ले रहे थे। अपने वैज्ञानिक अन्वेषण के आधार पर मार्क्स इन श्रेणियों व अवधारणाओं को ख़ारिज करते हैं और मुनाफ़े के मूल यानी बेशी मूल्य के सिद्धान्त पर पहुँचते हैं। लेकिन 1846 से 1848 तक के लेखन में ही इसके संकेत मिलने लगे थे।

तीसरा चरण (1848 से 1850)

मार्क्स और एंगेल्स सर्वप्रथम सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी थे, महज़ कोई वैज्ञानिक या बुद्धिजीवी नहीं। 1848 से 1850 का दौर यूरोप में क्रान्तियों और विद्रोहों से पैदा सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल का दौर भी था। 1847 में ही एक भारी आर्थिक संकट ने यूरोप के पूँजीवादी देशों को अपने आग़ोश में ले लिया था। नतीजतन, तमाम देशों में बेरोज़गारी, भूख, और अनिश्चितता बढ़ रही थी। बुर्जुआ वर्ग गणतंत्र व जनवाद के लिए लड़ रहा था, लेकिन सर्वहारा वर्ग अपनी शैशवावस्था में ही अपनी मुक्ति के लिए राजनीतिक संघर्ष की भी शुरुआत कर चुका था और उससे भयाक्रान्त होकर बुर्जुआ वर्ग स्वयं समझौतापरस्ती की ओर जा रहा था।

मार्क्स व एंगेल्स ने इस दौर के क्रान्तिकारी जनवादी व सर्वहारा संघर्षों में बढ़-चढ़कर भागीदारी की। लेकिन सर्वहारा वर्ग के आन्दोलन शैशवावस्था में किये गये इन प्रथम प्रयासों में सफल नहीं हो सके। अपने विश्लेषण में मार्क्स ने दिखलाया कि इसकी वजह सर्वहारा वर्ग के हिरावल में अनुभव की कमी थी, समूचे यूरोप के सर्वहाराओं में आपसी सम्पर्क और एकजुटता की कमी थी और साथ ही टुटपुँजिया वर्गों का ढुलमुल रवैया भी इस असफलता का एक कारण था। मार्क्स ने यह भी दिखलाया कि 1848 में क्रान्तियों के ज्वार के उठ खड़ा होने के पीछे वास्तविक कारण 1847 में आया गम्भीर आर्थिक संकट था। सर्वहारा वर्ग के उभार के इन पहले अनुभवों के बाद मार्क्स ने अपने आपको आर्थिक अध्ययनों में और भी गहराई से डुबा दिया। मार्क्स यह भली-भाँति समझ रहे थे कि सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलनों की भावी सफलता के लिए सही रणनीति और आम रणकौशल तभी सूत्रबद्ध किये जा सकते हैं जबकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की समूची कार्यप्रणाली को गहराई से समझा जाये। अपने आर्थिक अध्ययनों के आधार पर ही मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि अगला गम्भीर संकट क़रीब 10 वर्षों के बाद आने की सम्भावना है। मार्क्स की यह भविष्यवाणी आंशिक तौर पर सही साबित हुई क्योंकि संकट आया, लेकिन यह उतना व्यापक और गम्भीर नहीं था जिसकी अपेक्षा मार्क्स व एंगेल्स ने की थी।

चौथा चरण (1857 से 1867)

1850 से 1857 के बीच मार्क्स ने जो अध्ययन किया उसके नतीजों को उन्होंने आनन-फ़ानन में एक पाण्डुलिपि के रूप में तैयार किया क्योंकि उन्हें इस बात की आशंका थी कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के काम करने के तौर-तरीक़ों के बारे में उन्होंने जो खोजें की हैं, उन्हें प्रकाशित करने से पहले ही क्रान्ति के ज्वार के दौरान या फिर अस्वस्थता से उनकी मौत हो सकती है। 1857 में आया संकट इतना गम्भीर साबित नहीं हुआ और न ही उसने 1848 के समान क्रान्तियों के किसी नये चक्र को जन्म दिया। मार्क्स ने इसके बाद इस पाण्डुलिपि के अलग-अलग हिस्सों को पुस्तकों की श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने की योजना बनायी। 1857 की इस पाण्डुलिपि को आज ‘ग्रुण्डरिस्स’ के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है ‘बिखरे हुए नोट्स’ या ‘रफ़ नोट्स’। इस रचना में मार्क्स ने अपनी बुनियादी खोजों को अव्यवस्थित तरीक़े से पेश कर दिया था। इन्हें पढ़ते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मार्क्स ने ये नोट्स अपने विचारों को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से लिए थे। बाद में जो खोजें ‘पूँजी’ के तीन खण्डों के अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित रूप में प्रकाशित हुईं, उनमें से अधिकांश को अपने मूलरूप में ‘ग्रुण्डरिस्स’ में देखा जा सकता है। इस पाण्डुलिपि के तीन हिस्से हैं : परिचय, मुद्रा के बारे में अध्याय और पूँजी के बारे में अध्याय। इसमें उन्होंने तमाम समकालीन राजनीतिक अर्थशास्त्रियों जैसे कि बास्तियात और कैरी आदि की आलोचना भी पेश की और रिकार्डो व स्मिथ जैसे क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की भी आलोचना पेश की। इसी रचना में हम देख सकते हैं कि मार्क्स ने अपने मूल्य के सिद्धान्त, बेशी मूल्य के सिद्धान्त, बेशी मूल्य के मुनाफ़े, लगान और ब्याज़ में बँटवारे के सिद्धान्त, दाम के मूल आधार के रूप में मूल्य की पहचान और मूल्य के दाम में परिवर्तित होने तथा मुनाफ़े के मूल के रूप में बेशी मूल्य के सिद्धान्त तक पहुँच चुके थे। इसी रचना में पहली बार मार्क्स व्यवस्थित तौर पर परिवर्तनशील पूँजी और स्थिर पूँजी के बीच अन्तर करते हैं, बेशी मूल्य को बढ़ाने के दो तरीक़ों यानी निरपेक्ष बेशी मूल्य और सापेक्ष बेशी मूल्य की बात करते हैं। यह पाण्डुलिपि पहली बार 1939 में समाजवादी सोवियत संघ में जर्मन में प्रकाशित हुई और अंग्रेज़ी में यह पहली बार 1973 में प्रकाशित हुई और हिन्दी में अभी तक यह अप्रकाशित है। यह हमारे देश के युवा सर्वहारा क्रान्तिकारियों का कर्तव्य है कि मार्क्स की इस महान रचना का हिन्दी में अनुवाद और प्रकाशन करें, जिसमें पहली बार मार्क्स ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को तार-तार खोलकर सामने रख दिया था। यह रचना मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र की पद्धति को समझने के लिए अपरिहार्य है।

1857 के बाद मार्क्स ने ‘ग्रुण्डरिस्स’ के ‘मुद्रा के बारे में’ वाले हिस्से को सम्पादित करके उसे पुस्तक रूप दिया। यही 1859 में ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में एक योगदान’ नाम से प्रकाशित हुई, जो अब मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक क्लासिकीय रचना है। यह रचना काफ़ी जटिल थी और उस समय लोकप्रिय नहीं हुई। इसके प्रकाशन के बाद मार्क्स ने ‘ग्रुण्डरिस्स’ के ‘पूँजी के बारे में’ वाले हिस्से को भी पुस्तक रूप में सम्पादित किया लेकिन प्रकाशक ने पहली पुस्तक की कम लोकप्रियता को देखते हुए इसे छापने से इन्कार कर दिया। यह पाण्डुलिपि कहाँ है, अभी तक इसकी कोई जानकारी नहीं है।

इसके तत्काल बाद ही मार्क्स ने ‘पूँजी’ लिखने की परियोजना पर काम शुरू कर दिया। पूँजी की समूची परियोजना के भी समय के साथ बदलते जाने का अपना एक इतिहास है। एक वैज्ञानिक के समान मार्क्स के तमाम प्रश्नों के बारे में विचार समय के साथ बदले और विकसित हुए। ‘पूँजी’ उनकी महानतम रचना है, जिसमें 1857 के बाद से लेकर उनकी मृत्यु तक का उनका पूरा जीवन ख़र्च हुआ और इस रचना के तीन खण्डों में उनके परिपक्वतम विचार सामने आते हैं। ‘पूँजी’ की मूल परियोजना कहीं बड़ी थी। इस परियोजना के बारे में पहली बार वह ‘ग्रुण्डरिस्स’ में ही लिखते हैं। इस पूरी परियोजना को 1867 में उन्होंने बदला।

इन बदलावों में से कुछ इस वजह से थे कि ‘पूँजी’ के पहले खण्ड के सम्पादन के साथ मार्क्स को कुछ पूर्वनिर्धारित खण्ड अब ग़ैर-ज़रूरी लगने लगे थे क्योंकि उनकी विषयवस्तु को पहले खण्ड में ही समेटा जा चुका था। लेकिन कुछ बदलाव मार्क्स ने इस वजह से भी किये थे क्योंकि उनको यह अहसास हो गया था कि अपने जीवनकाल में वह उसे पूरा नहीं कर पायेंगे। इसके अलावा, एक अन्य कारण यह था कि मार्क्स का काफ़ी समय अन्य कार्यभारों ने भी लिया। मसलन, अपने समय में सर्वहारा वर्ग के आन्दोलन में हावी विजातीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष, तरह-तरह के विजातीय और प्रति-क्रान्तिकारी तत्वों द्वारा किया जाने वाला व्यक्तिगत कुत्सा-प्रचार, जिसका मार्क्स ने केवल तभी जवाब दिया जब वह राजनीतिक रूप से आवश्यक था। इसके अलावा, वे भू-लगान का अध्ययन करने की प्रक्रिया में इस नतीजे पर पहुँचे कि यूरोप और अमेरिका में भूस्वामित्व व भू-लगान के इतिहास को जानने के साथ रूस में भूस्वामित्व और भू-लगान के इतिहास को जानना बेहद ज़रूरी है। इसलिए अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में उन्होंने रूसी भाषा सीखी! साथ ही, मुनाफ़े की औसत दर की गति सम्बन्धी गणनाओं को करते हुए उन्हें यह अहसास हुआ कि इसके लिए कैल्कुलस गणित सीखना अनिवार्य है, तो उन्होंने गणित का अध्ययन भी शुरू कर दिया! आज उनकी ‘गणितीय पाण्डुलिपियाँ’ भी प्रकाशित हो चुकी हैं, जो अपने आप में आश्चर्य का विषय है और तमाम शोधार्थी उस पर शोध कर रहे हैं। इसके अलावा, उनकी नृजातिविज्ञान (ethnology) में भी अपने अध्ययन के दौरान दिलचस्पी पैदा हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने तमाम नृजातिवैज्ञानिक अध्ययन भी किये जो बाद में उनकी ‘नृजातिवैज्ञानिक नोटबुक्स’ के रूप में प्रकाशित हुए। मार्क्स के ज्ञान की गहराई और व्यापकता विराट थी और उनकी अद्वितीय प्रतिभा की एक झलक दिखलाती है।

ग़रीबी, अभाव, बीमारी, प्रतिक्रान्तिकारियों के विचारधारात्मक हमलों का जवाब देने के कार्यभारों ने उन्हें ‘पूँजी’ की अपनी समूची परियोजना को पूरा नहीं करने दिया। इसे एक मुक़ाम तक उनके अनन्य कॉमरेड और दोस्त फ़्रेडरिक एंगेल्स ने पूरा किया, जब उन्होंने उनकी पाण्डुलिपियों का सम्पादन करके ‘पूँजी’ के दूसरे और तीसरे खण्ड को अपनी मृत्यु से पहले प्रकाशित करने की ख़ातिर अपना बचा हुआ पूरा जीवन ख़र्च कर दिया।

अब हम देखेंगे कि ‘पूँजी’ की विभिन्न परियोजनाएँ किस प्रकार विकसित हुईं।

‘पूँजी’ की 1857 में पेश पहली परियोजना

1857 में पेश ‘पूँजी’ की परियोजना छह विस्तृत पुस्तकों की श्रृंखला की थी। यह कुछ इस प्रकार थी :

पुस्तक – 1
पूँजी के बारे में

खण्ड-1 – पूँजी की उत्पादन प्रक्रिया (मज़दूरी के विषय में कुछ बुनियादी चर्चा के साथ) – यह पहले खण्ड के रूप में सितम्बर 1867 में प्रकाशित हुआ

खण्ड-2 – पूँजी की संचरण प्रक्रिया (इसमें मूलतः उत्पादक और अनुत्पादक श्रम के बारे में भी चर्चा की जानी थी, लेकिन बाद में यह चर्चा इस खण्ड में बेहद संक्षेप में ही हुई, क्योंकि बाद में मार्क्स ने समूची परियोजना में ही परिवर्तन कर दिया था) – इसे मार्क्स ने तैयार पाण्डुलिपि के रूप में अधूरा ही सम्पादित किया था और उसी रूप में छोड़कर गये, जिसे बाद में एंगेल्स ने कुशलता के साथ पूर्ण रूप में सम्पादित किया और खण्ड-2 के रूप में 1885 में प्रकाशित किया।

खण्ड-3 – सम्पूर्णता में पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया (इसमें प्रतिस्पर्द्धा के बुनियादी नियम, संकट का सिद्धान्त, ऋण और लगान का सिद्धान्त शामिल किया जाना था) इसमें ऋण की समूची व्यवस्था पर बहुत व्यवस्थित तरीक़े से चर्चा को मार्क्स शामिल नहीं कर सके थे; लगान के सिद्धान्त की बुनियाद मार्क्स ने इस तीसरे खण्ड में रख दी थी और मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति का अपना संकट सिद्धान्त भी मार्क्स ने इसमें दे दिया था। – इसे मार्क्स केवल असंग्रहीत और असम्पादित पाण्डुलिपियों के रूप में छोड़कर गये, इसे एंगेल्स ने बाद में संग्रहीत, व्यवस्थित और सम्पादित करके ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड के रूप में अपनी मृत्यु से ठीक पहले 1894 में प्रकाशित किया।

ग़ौरतलब है कि इन तीन खण्डों को मिलाकर ‘पूँजी’ की मूल परियोजना की केवल पहली पुस्तक बनती थी! इस मूल परियोजना में कुल छह पुस्तकें थीं। पहली पुस्तक के इन तीन खण्डों में से मार्क्स केवल पहले का प्रकाशन अपने जीवनकाल में करवा पाये। दूसरा खण्ड उन्होंने आधा सम्पादित किया था और तीसरा खण्ड पूर्ण रूप से असम्पादित पाण्डुलिपियों व नोटबुक्स के रूप में था। उसे एंगेल्स ने अद्भुत प्रतिभा और कुशलता के साथ सम्पादित किया और प्रकाशित करवाया। ऐसा करने की क्षमता उस समय निस्सन्देह केवल एंगेल्स में ही थी।

पुस्तक – 2
भूस्वामित्व के बारे में

इस दूसरी पुस्तक में मार्क्स ने भूस्वामित्व के विभिन्न रूपों और लगान के विभिन्न रूपों का विस्तृत अध्ययन पेश करने की योजना बनायी थी। इसके लिए वे अमेरिका, यूरोप और रूस में भूस्वामित्व तथा लगान के रूपों के समूचे इतिहास का गहन अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने रूसी भाषा तक सीख ली थी। लेकिन इस विषय पर अपने विस्तृत अध्ययन के नतीजों को व्यवस्थित तौर पर पेश करने का मौक़ा मार्क्स को जीवन ने नहीं दिया।

पुस्तक – 3
मज़दूरी के बारे में

इस पुस्तक को बाद में मार्क्स ने परियोजना में से ख़ुद ही हटा दिया था क्योंकि मज़दूरी के प्रश्न पर लम्बी चर्चा पुस्तक-1 के खण्ड-1 में ही आ गयी थी। इस पुस्तक में मूलतः मज़दूरी-रूप के बारे में, मज़दूरी के ऊपर-नीचे होने के कारणों और उसकी अधिकतम सीमा के बारे में, मज़दूरी के विभिन्न रूपों के बारे में विस्तृत अध्ययन पेश किया जाना था। लेकिन चूँकि यह ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में ही समेट लिया गया था, इसलिए बाद में इस पुस्तक को मार्क्स ने परियोजना से ख़ुद ही हटा दिया।

पुस्तक – 4
राज्यसत्ता के बारे में

मार्क्स राज्यसत्ता के विषय में एक अलग पुस्तक की योजना बनाये हुए थे। इसमें राज्यसत्ता की आर्थिक भूमिका, कराधान की भूमिका, मुद्रा जारी करने वाली संस्था के रूप में राज्य की भूमिका और राज्य की एक पूँजीपति के रूप में भूमिका पर चर्चा की जानी थी, लेकिन मार्क्स इस पुस्तक की योजना को पूरा नहीं कर सके। कराधान और राज्यसत्ता की भूमिका के बारे में ‘पूँजी’ के जो तीन खण्ड प्रकाशित हुए उन्हीं में कुछ बिखरी हुई टिप्पणियाँ थीं, जिनके आधार पर राज्यसत्ता के समूचे मार्क्सवादी सिद्धान्त को बाद में लेनिन और अन्य मार्क्सवादी विचारकों ने विकसित किया।

पुस्तक – 5
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के बारे में

इस पुस्तक को भी मार्क्स पूरा नहीं कर सके थे, हालाँकि संक्षेप में ‘पूँजी’ के खण्ड-3 में और कुछ विस्तार में ‘बेशी मूल्य के सिद्धान्त’ नाम से तीन खण्डों में बाद में प्रकाशित अपनी पाण्डुलिपियों में (जिसे ‘पूँजी’ का चौथा खण्ड भी कहा जाता है), मार्क्स ने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तररष्ट्रीय व्यापार का अपना सिद्धान्त पेश किया और रिकार्डो के ग़लत सिद्धान्त को ख़ारिज किया जो कि मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त पर आधारित था और जिसके मुताबिक़ मुद्रा की मात्रा बढ़ने पर क़ीमतें बढ़ती हैं और मुद्रा की मात्रा घटने पर क़ीमतें घटती हैं। रिकार्डो ने इस आधार पर यह नतीजा निकाला था कि मुक्त व्यापार सारे देशों के लिए बराबर अच्छा है और यह स्वयं देशों के बीच के अन्तर का समतुलन करता रहता है। मार्क्स ने दिखलाया कि ऐसा नहीं होता है। मुक्त व्यापार सर्वाधिक उत्पादकता रखने वाले देश को लाभ पहुँचाता है, व्यापार में उसे सकारात्मक सन्तुलन देता है और उसे अन्य देशों के लिए क़र्ज़दाता भी बना देता है जबकि कम उत्पादकता वाले देश के साथ इसका ठीक उल्टा होता है, यानी, वह न सिर्फ़ व्यापार घाटा झेलता है बल्कि वह क़र्ज़दार भी बनता जाता है। लेकिन मार्क्स इस विषय पर जो समूची पुस्तक लिखना चाहते थे, वह सम्भव नहीं हो सका।

पुस्तक – 6
विश्व अर्थव्यवस्था और संकट

इस पुस्तक में समूची विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और उसमें आवर्ती चक्रीय संकट का विस्तृत और गहन विश्लेषण करने की योजना थी। यह काम आगे चलकर अन्य मार्क्सवादी विचारकों ने किया।

‘पूँजी’ के पहले खण्ड के प्रकाशन तक मार्क्स यह बात समझ चुके थे कि उपरोक्त परियोजना में कुछ पुस्तकें, मसलन, ‘मज़दूरी के बारे में’ की कोई आवश्यकता नहीं है और उसे मार्क्स ने ख़ुद ही योजना से हटा दिया। लेकिन मार्क्स यह भी समझने लगे थे कि उनके स्वास्थ्य की जो स्थिति थी और जिस अभाव में वह जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसमें उनके लिए इस समूची योजना को पूरा करना सम्भव नहीं रह गया था। इसलिए उन्होंने ‘पूँजी’ की दूसरी परियोजना 1867 में पेश की।

‘पूँजी’ की दूसरी परियोजना

यह परियोजना मार्क्स ने 1867 को अपने मित्र लुडविग कुगेलमान को लिखे पत्र में पेश की थी। यह कुछ इस प्रकार थी :

पुस्तक–1. पूँजी की उत्पादन प्रक्रिया (मार्क्स द्वारा अपने जीवन काल में पूरी की गयी औरपूँजीखण्ड-1 के रूप में प्रकाशित की गयी)

पुस्तक–2. पूँजी की संचरण प्रक्रिया (अधूरी, आधी सम्पादित, बाद में एंगेल्स द्वारा सम्पादित वपूँजीखण्ड-2 के रूप में प्रकाशित की गयी)

पुस्तक–3. सम्पूर्णता में पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया की संरचना (बिखरी हुई पाण्डुलिपियों के रूप में मौजूद, बाद में एंगेल्स द्वारा संग्रहीत और सम्पादित तथापूँजीखण्ड-3 के रूप में प्रकाशित की गयी)

पुस्तक–4. सिद्धान्त के इतिहास के विषय में (मार्क्स के आलोचनात्मक नोट्स जो उन्होंने अन्य राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के अध्ययन के दौरान लिए थे; इसे बाद में कार्ल काउत्स्की ने संग्रहीत और सम्पादित करके तीन खण्डों में प्रकाशित किया था, जिन्हेंबेशी मूल्य के सिद्धान्तनाम से जाना गया)

यह था ‘पूँजी’ की बदलती योजनाओं का इतिहास और अन्त में उसके प्रकाशन का इतिहास। लेकिन 1867 में ‘पूँजी’ के पहले खण्ड के प्रकाशन से लेकर 1878 तक मार्क्स ने अपनी पाण्डुलिपियों में कई संशोधन किये, उनमें कई चीज़ें जोड़ी-घटायीं। इनका संक्षिप्त इतिहास जान लेना भी ज़रूरी है।

‘पूँजी’ के पहले खण्ड के प्रकाशन से लेकर मार्क्स की मृत्यु तक

सितम्बर 1867 में ‘पूँजी’ का पहला खण्ड मार्क्स के जीवनकाल में ही प्रकाशित हुआ। इसी दौरान वे लगान के रूपों, गणित, कृषि-रसायनशास्त्र, भूविज्ञान, फ़िज़ियोलॉजी और रूसी भाषा का एक साथ अध्ययन कर रहे थे।

1875 में मार्क्स ने मुनाफ़े की औसत दर की गणनाएँ कीं, बेशी मूल्य की दर की कई गणनाएँ कीं। एंगेल्स इन पाण्डुलिपियों को अपनी मृत्यु से पहले सम्पादित नहीं कर सके। वे कहीं न कहीं मौजूद हैं और उम्मीद है कि भविष्य में उनका भी प्रकाशन होगा।

1876 में मार्क्स ने लगान के विषय पर सैद्धान्तिक रूप से एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा लिखा जिसे ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड के 44वें अध्याय के रूप में एंगेल्स ने शामिल किया। यह मार्क्स के लगान के महत्वपूर्ण सिद्धान्त को समझने के लिए अनिवार्य अध्याय है।

1878 में उन्होंने उन पुनरुत्पादन स्कीमा को संशोधित किया जिन्हें मार्क्स ने 1870 में तैयार किया था। पुनरुत्पादन स्कीमा क्या होता है, यह हम आगे विस्तार से समझेंगे। 1878 में संशोधित पुनरुत्पादन स्कीमा को एंगेल्स ने ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में शामिल किया और जहाँ 1870 की पाण्डुलिपि ख़त्म होती है और जहाँ 1878 वाली पाण्डुलिपि का हिस्सा शुरू होता है, वहाँ एंगेल्स ने पाठकों के लिए एक नोट भी लगा दिया है, जो उनके कुशल सम्पादन को दिखलाता है।

1878 तक मार्क्स इतना बीमार रहने लगे थे कि अब कोई ताज़ा शोध-कार्य करने की इजाज़त उनका शरीर नहीं दे रहा था। यूरोपीय मानकों से मार्क्स अभी जवान ही माने जाते, क्योंकि वह मात्र 60 साल के थे। लेकिन संघर्ष, बीमारी, दुख, अभाव और तकलीफ़ों के लम्बे जीवन ने उनके शरीर को कमज़ोर बना दिया था। 1881 में उनकी जीवनसंगिनी और क्रान्ति की राह में उनकी कॉमरेड जेनी वॉन वेस्टफ़ॉलेन की मृत्यु ने उन्हें बेहद तोड़ दिया था। 1883 में मार्क्स ने अपनी मृत्यु से पहले अपनी बेटी एलानोर को बुलाया और अपने अनन्य मित्र एंगेल्स के लिए एक नोट और अपनी असम्पादित पाण्डुलिपियाँ दीं और कहा, फ़्रेड से कहना कि इनका कुछ अर्थ निकाल ले।इसके बाद 14 मार्च 1883 को मार्क्स ने अपनी आर्मचेयर में लेटे हुए शान्ति के साथ दुनिया के सर्वहारा वर्ग से अन्तिम विदा ली। उनके शरीर को उनकी जीवनसंगिनी जेनी के बग़ल में ही हाईगेट सेमेटरी, लन्दन में दफ़ना दिया गया। जब वह मरे तो उनकी अध्ययन टेबल पर उनकी एक नोटबुक पड़ी थी, जिसके कवर पर शीर्षक था : वर्गों के बारे में

‘पूँजी’ एक जारी परियोजना है

मार्क्स सर्वप्रथम एक महान सर्वहारा क्रान्तिकारी और सर्वहारा वर्ग के शिक्षक थे। अपने अनन्य मित्र और प्रतिभावान कॉमरेड एंगेल्स के साथ मिलकर उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन, विज्ञान और राजनीतिक अर्थशास्त्र की नींव रखी जो सर्वहारा वर्ग के मार्गदर्शक सिद्धान्त हैं।

मार्क्सवाद क्रान्ति का विज्ञान और क्रान्ति का दर्शन है। किसी भी विज्ञान के समान यह भी सतत् विकसित होता आया है। मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद पूँजीवादी व्यवस्था में आने वाले बदलावों को तमाम मार्क्सवादियों ने मार्क्स व एंगेल्स की पद्धति को ही लागू करके समझने का प्रयास किया। हर वैज्ञानिक के समान उन्होंने कुछ चीज़ों को सही तरीक़े से समझा तो कुछ चीज़ों के बारे में वे पूर्णतः सन्तुलित समझदारी नहीं बना सके। किसी भी विज्ञान के समान क्रान्ति के विज्ञान की यात्रा भी सामाजिक व्यवहार के ज़रिए सिद्धान्त के विकास और सिद्धान्त के ज़रिए सामाजिक व्यवहार के मार्गदर्शन और इसी प्रक्रिया में सिद्धान्त और व्यवहार दोनों के ही उत्तरोत्तर विकास से ही होकर गुज़रती है। इस बात को कुछ लोग समझ पाये और कुछ नहीं। नतीजतन, तीन प्रकार के लोग हैं जो ‘पूँजी’ के बारे में तीन अलग-अलग नज़रिये रखते हैं।

पहली किस्म उनकी है जो केवल खण्ड-1 को ही शुद्ध और पूर्ण मानते हैं क्योंकि केवल इसे ही मार्क्स पूरा करके अपने जीवनकाल में प्रकाशित कर पाये थे। इसके बाद के खण्डों को वे विचलन के तौर पर देखते हैं या उनमें दिलचस्पी नहीं रखते। ज़ाहिर है, ऐसे मार्क्सविद वास्तव में मार्क्सवादी नहीं हैं, मार्क्सवाद को एक विज्ञान के रूप में समझते ही नहीं हैं, बल्कि ‘पूँजी’ को किसी पैग़म्बर का पवित्र ग्रन्थ समझ बैठते हैं।

दूसरे क़िस्म के लोग वे हैं जो तीनों खण्डों को निरन्तरता में नहीं देख पाते, उनकी एकता को नहीं समझ पाते और उनके बीच ही आपसी अन्तरविरोध ढूँढ़ने लगते हैं और कई बार इसे मार्क्स और एंगेल्स के बीच के अन्तरविरोध के तौर पर भी पेश करने लग जाते हैं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग कहते हैं कि मार्क्स ने मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति का कोई सिद्धान्त नहीं दिया था! यह तो एंगेल्स का सिद्धान्त है! इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, अगर यह आपमें से भी किसी का सिद्धान्त होता तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता! असल बात यह है कि यह सही है या नहीं। मार्क्स के बाद की दुनिया का आर्थिक इतिहास इस सिद्धान्त को सही साबित करता है। और आज इस बात पर सन्देह का प्रश्न ही नहीं उठता कि यह सिद्धान्त मार्क्स ने ही दे दिया था, कई शोधार्थियों ने इस बात को निस्सन्देह सिद्ध कर दिया है। मार्क्स की पाण्डुलिपियों को सम्पादित करने का काम एंगेल्स ने शानदार तरीक़े से किया था, इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती है।

तीसरी क़िस्म उन लोगों की है जो मार्क्स के समूचे आर्थिक चिन्तन के बुनियादी द्वन्द्वात्मक तर्क को समझते हैं, तीनों खण्डों की निरन्तरता और एकता को समझते हैं और इस बात को समझते हैं कि ‘पूँजी’ की परियोजना आज भी एक जारी परियोजना है, जिसे मार्क्स के बाद के समय में काऊत्स्की (जब तक वह मार्क्सवादी थे), हिल्फ़र्डिंग (जब तक वह मार्क्सवादी थे), लेनिन, बुखारिन, आदि तमाम मार्क्सवादी चिन्तकों ने जारी रखा। आज हम इनमें से कुछ के चिन्तन में कुछ ग़लतियाँ अवश्य निकाल सकते हैं। लेकिन उन्होंने ‘पूँजी’ को एक जारी परियोजना के तौर पर समझा और यह समझा कि जब तक पूँजीवादी व्यवस्था है, तब तक उसकी आर्थिक कार्यप्रणाली में आने वाले परिवर्तनों को मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र के आधार पर समझना और व्याख्यायित करना सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए अनिवार्य है।

आज भी इस परियोजना को जारी रखना मार्क्स की महान विरासत के साथ क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हिरावल द्वारा एक सही रिश्ता क़ायम करना होगा। इस काम को अंजाम देने के लिए मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धान्तों के बारे में एक सन्तुलित, सुसंगत और सम्पूर्ण समझदारी बनाना हम सर्वहाराओं के लिए अनिवार्य है। मौजूदा श्रृंखला में हम इसी दिशा में एक प्रयास कर रहे हैं।

(अगले अंक में सामाजिक श्रम विभाजन, विनिमय का आरम्भ, मूल्य के रूप, मुद्रा और मालों के संचरण के बारे में)

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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