नेल्ली जनसंहार : इतिहास का वह प्रेत आज भी जीवित है

कात्यायनी

नेल्ली के जनसंहार को दशकों का समय बीत चुका है। लेकिन नेल्ली का प्रेत आज भी जीवित है और न केवल जीवित है बल्कि भेस बदल-बदलकर पूरे देश में मँडरा रहा है। सरकार और बुर्जुआ मीडिया की लाख कोशिशों के बावजूद यह सच्चाई छिपी नहीं रह सकी है।

वह 18 फरवरी 1983 का दिन था जब मध्य असम के नौगाँव जिले (आज के मोरीगाँव) के नेल्ली कस्बे और निकटवर्ती चौदह गाँवों में 6 घंटों तक निर्बाध बर्बर जनसंहार चला था जिसमें पूर्वी पाकिस्तान/बंगलादेश से विस्थापित होकर बसी मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया गया था। सरकार के हिसाब से इस भयानक क़त्लेआम में मारे जाने वालों की संख्या दो हज़ार थी, लेकिन चश्मदीदों और बाद में इलाक़े का दौरा करने वाले पत्रकारों के अनुसार मारे गये लोगों की संख्या 7,000 से 10,000 के बीच थी और कुछ के हिसाब से तो दस हज़ार से भी ऊपर थी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पत्रकार हेमेन्द्र नारायण और ‘असम ट्रिब्यून’ के बेदब्रत लहकार इस घटना के चश्मदीद गवाह थे। बाद में अरुण शौरी (जो बाद में भाजपा के नेता बने) ने ‘इंडिया टुडे’ में इस पूरी घटना पर एक वस्तुपरक जाँच-पड़ताल आधारित रिपोर्ट प्रकाशित की थी। नेल्ली जनसंहार के तीस वर्षों बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधछात्र रह चुकी जापानी समाजविज्ञानी माकिको किमुरा की पुस्तक ‘द नेल्ली मैसेकर ऑफ़ 1983 : एजेंसी ऑफ़ रायटर्स’ 2013 में प्रकाशित हुई जो इस घटना और इसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि का सबसे विस्तृत और तथ्यपरक ब्योरा प्रस्तुत करती है। यह बात भी कम शर्मनाक नहीं है कि इस ऐतिहासिक त्रासदी पर किसी भी भारतीय समाजविज्ञानी की कोई पुस्तक नहीं है और समकालीन राजनीति पर लिखते हुए भी नेल्ली को शायद ही कोई याद करता है!

नेल्ली जनसंहार आज़ादी के बाद भारत का पहला इतने बड़े पैमाने का जनसंहार था। यह कोई दंगा नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित क़त्लेआम था जिसमें चौदह मुस्लिम गाँवों को घेरकर बच्चों और स्त्रियों सहित निहत्थी मुस्लिम आबादी को संगठित हथियारबन्द भीड़ ने गाजर-मूली की तरह काट डाला था। इसके बाद जो दूसरा बड़ा जनसंहार हुआ, वह 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पूरे देश में हुआ सिखों का क़त्लेआम था। तीसरा बड़ा क़त्लेआम ‘गुजरात-2002’ का था। यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1989 में आडवाणी की रथयात्रा के समय से लेकर आजतक पूरे देश में मुस्लिम आबादी पर हमलों की घटनाएँ लगातार होती रही हैं और जितने भी दंगे हुए हैं उनमें मुख्यतः उन्हें ही निशाना बनाया गया तथा राज्य मशीनरी भी हमेशा उन्हीं को बलि का बकरा बनाती रही है।

नेल्ली की घटना जब घटी, उस समय असम आन्दोलन अपने शीर्ष पर था। असम गण परिषद (एजीपी) और अखिल असम छात्र संघ (आसू) चुनाव का बहिष्कार कर रहे थे। उनकी माँग थी कि चुनाव के पहले मतदाता सूची से कथित बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम हटा दिये जाने चाहिए। चुनाव को सुचारु रूप से सम्पन्न कराने के लिए उस समय असम में केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बलों की 400 कम्पनियों और सेना के 11 ब्रिगेडों की अभूतपूर्व तैनाती की गयी थी। कुख्यात के.पी.एस. गिल उस समय असम के पुलिस चीफ़ थे। पूरे राज्य के विभिन्न हिस्सों से, विशेषकर नौगाँव ज़िले से ख़बरें आ रही थीं कि तोड़फोड़ के अतिरिक्त बंगाली मुस्लिम आबादी के गाँवों पर हथियारबन्द हमलों की सम्भावना है। लेकिन समस्या यह थी कि इन केन्द्रीय बलों को स्थानीय पुलिस की मदद से ही सुदूर इलाक़ों तक पहुँचना था और राज्य की पुलिस की खुली सहानुभूति असम आन्दोलन के साथ थी। इस पूरी स्थिति में आग लगाने का काम अटलबिहारी वाजपेयी के एक भाषण ने किया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में असम में चुनाव प्रचार करते हुए वाजपेयी ने एक बेहद भड़काऊ भाषण दिया। इसमें उन्होंने कहा, “विदेशी लोग यहाँ आ गये हैं और सरकार कुछ नहीं करती है। अगर वे पंजाब में आये होते तो क्या होता? लोग उनके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक देते।”  

एक समस्या यह तो भारत में हर जगह रही ही है कि केन्द्रीय बलों में भी मुसलमान-विरोधी साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों की गहरी पैठ रही है। इसके बारे में दर्जनों रपटें हैं। असम में भी यह फ़ैक्टर मौजूद था। नेल्ली के आसपास उपद्रवी तत्व कुछ बड़ा करने की तैयारी कर रहे हैं, इसकी सूचना राज्य मशीनरी को हफ़्तेभर से लगातार मिल रही थी। कुछ संगठित टोलियाँ आसपास के तिवा और कोच जनजातियों और हिन्दू आबादी के गाँवों में हफ़्तों से यह प्रचार करके आतंक का माहौल बना रही थीं कि मुस्लिम बंगलादेशी उनके गाँवों पर हमला करने वाले हैं। राज्य मशीनरी ने कभी भी यह नहीं बताया कि वे संगठित गिरोह किन लोगों के थे। इसतरह भीड़ को “सम्भावित हमलावरों” को अग्रिम सबक सिखाने के लिए तैयार किया जा रहा था। और भी शर्मनाक बात तो यह है कि इस भयंकर जनसंहार के एक भी अभियुक्त को कोई सज़ा नहीं हुई। कुल 688 मुक़दमे दर्ज हुए थे, जिनमें से 378 सबूतों-गवाहों के अभाव में बन्द हो गये। शेष जो 310 मुक़दमे चल रहे थे, उन्हें 1985 में राजीव गाँधी और असम आन्दोलन के नेतृत्व के बीच समझौते के बाद बन्द कर दिया गया। सरकार के हिसाब से मृतकों की जो सूची थी, उनके परिवारों को 5-5 हज़ार रुपये और घायलों को 2-2 हज़ार रुपये थमा दिये गये। नेल्ली जनसंहार की जाँच के लिए सरकार ने तिवारी कमीशन का गठन किया था। लेकिन उस कमीशन की 600 पन्नों की रिपोर्ट को “क्लासिफ़ाइड डॉक्युमेंट” की श्रेणी में डालकर आजतक सार्वजनिक पहुँच से दूर रखा गया है। 

नेल्ली की घटना की ज़मीन चन्द सालों में नहीं तैयार हुई थी। यह दशकों पुराना नासूर था जो भारत विभाजन की औपनिवेशिक साज़िश और उसके बाद से लगातार जारी चुनावी पार्टियों की वोट बैंक की राजनीति, असमी अन्धराष्ट्रवादी लहर के उभार तथा साम्प्रदायिक शक्तियों की निरन्तर सक्रियताओं का नतीजा था। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आये विस्थापितों का एक बड़ा हिस्सा असम में आया था और उनमें मुसलमान भी थे। इससे पहले, ब्रिटिश गुलामी के दौर में भी बाढ़, अकाल और गरीबी के शिकार लोग बंगाल के सीमावर्ती हिस्सों से आकर असम में बसते रहे थे जिनमें बहुसंख्या मुसलमानों की थी। बाद के दशकों में भी पाकिस्तान के शासकों द्वारा किये जा रहे सौतेले व्यवहार और दमन के चलते पूर्वी पाकिस्तान से लोगों का भारत आना जारी रहा और इनमें से अधिकांश असम में ही आकर बसे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बंगलादेश बनने के समय लाखों की तादाद में जो शरणार्थी भारत आये, उनका बड़ा हिस्सा असम में आकर बसा। असम की हिन्दू आबादी और जनजाति आबादी से विस्थापितों की इस आबादी का सांस्कृतिक-भाषाई अलगाव तो था, लेकिन इनके बीच दुश्मनाना रिश्ते नहीं थे।

1960 के दशक के उत्तरार्द्ध  में जब देश में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट गहराने लगा तो पूरे देश की जनता महँगाई और बेरोज़गारी के बढ़ते दबाव से परेशान हो उठी। किसी संगठित क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति में पूरे देश में पूँजीवादी दायरे के भीतर के एक विकल्प के तौर पर गैर-कांग्रेसवाद की बुर्जुआ संसदीय राजनीति ने अपने आधारों का विस्तार किया। असम सहित पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता ने अपनी बढ़ती दुर्वस्था को केन्द्र द्वारा पहले से ही जारी अपनी उपेक्षा की नीति की निरन्तरता और विस्तार के रूप में देखा, हालाँकि असम की स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों से भिन्न थी। चूँकि पूरे देश की ही तरह असम के राजनीतिक परिदृश्य पर भी ऐसी कोई संगठित क्रान्तिकारी वाम शक्ति विकल्प के रूप में मौजूद नहीं थी जो जनता को उसकी बदहाली के बुनियादी कारणों को बताते हुए उसे पूँजीपति वर्ग की केन्द्र और राज्य की समूची सत्ता के विरुद्ध लामबन्द और संगठित करती, इसलिए इसका पूरा लाभ असमी राष्ट्र के बुर्जुआ वर्ग ने उठाया और उसके बड़े हिस्से का समर्थन नवोदित असम गण संग्राम परिषद और अखिल असम छात्र संघ के आन्दोलन को मिला। इस असमी राष्ट्रीय आन्दोलन ने जल्द ही न सिर्फ़ अन्धराष्ट्रवादी बल्कि साम्प्रदायिक चरित्र भी अख़्तियार कर लिया और केन्द्र द्वारा उपेक्षा के विरोध के सारे मुद्दे सिमटकर इस बात पर केन्द्रित हो गये कि बंगलादेशी आप्रवासियों को नागरिकता देकर असम में न बसाया जाये, अवैध आप्रवासियों की शिनाख़्त करके उन्हें बाहर किया जाये और अबतक दी गयी नागरिकता की भी समीक्षा की जाये… आदि-आदि! यानी हमले का निशाना अब केन्द्र सरकार न होकर बंगलादेशी आप्रवासी हो गये और मुख्य मुद्दा भी बदल गया। चूँकि इन आप्रवासियों का बड़ा हिस्सा मुस्लिम था, इसलिए ज़मीनी तौर पर साम्प्रदायिक विद्वेष और विवादों की भी ज़मीन गहराती चली गयी।

कई समाज विज्ञानियों ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि यही वह दौर था जब असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ईसाई चर्चों और मिशनरियों का विरोध करते हुए हिन्दुओं के अतिरिक्त विभिन्न जनजातीय समुदायों के बीच भी तृणमूल स्तर पर अपने कामों का दायरा और अपनी सक्रियता तेज़ी से बढ़ायी थी। नेल्ली जनसंहार पर अपनी रिपोर्ट में अरुण शौरी ने भी स्वीकार किया था कि साम्प्रदायिक घृणा के उस बर्बर विस्फोट के पीछे आरएसएस की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका तो थी ही, भले ही वह मुख्य पहलू न हो। यह भी स्मरणीय है कि केन्द्रीय स्तर पर संघ असम आन्दोलन के मसले पर भले खुलकर स्टैंड न ले रहा  हो, लेकिन असम में वह एजीपी और आसू को पूरी तरह से समर्थन दे रहा था और बंगलादेशी मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत की लहर भड़काने का काम व्यवस्थित ढंग से कर रहा था। नेल्ली के आसपास भड़काऊ प्रचार करने वाली संगठित सन्दिग्ध टोलियों की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। असम के आज के राजनीतिक परिदृश्य पर हिन्दुत्ववादी फासिज़्म के उभार की परिघटना को अगर सही ढंग से समझना हो तो इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना बहुत ज़रूरी है। एजीपी और आसू ने जिस असमी संकीर्णतावादी अन्धराष्ट्रवादी आन्दोलन को नेतृत्व दिया था, उसका एक बड़ा हिस्सा बड़ी बुर्जुआ पार्टियों की राजनीति में समाहित हो गया क्योंकि उभरता हुआ असमी पूँजीपति वर्ग भी भारतीय बड़े पूँजीपति वर्ग के साथ उसके जूनियर पार्टनर के रूप में ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्थित होता चला गया। उसकी एक उपधारा ने ‘उल्फ़ा’ की आतंकवादी अन्धराष्ट्रवादी धारा की शक्ल अख़्तियार की, उसका सामाजिक आधार पंजाब के खालिस्तानियों की ही तरह बहुत संकुचित था और वह आज विलुप्तप्राय हो चुकी है। असम आन्दोलन के मुस्लिम आप्रवासी-विरोधी उग्र साम्प्रदायिक स्वर को आज हिन्दुत्व फासिज़्म ने अपने भीतर समाहित कर लिया है। असम की राजनीति में संघ की हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट राजनीति के प्रभाव-विस्तार का यही मूल कारण है।

भाजपा की राजनीति की यह ज़रूरत है कि असम में बंगलादेशी आप्रवासियों की समस्या को मुस्लिम “घुसपैठियों” की ऐसी “ख़तरनाक” समस्या के रूप में बनाये रखा जाये जो कालान्तर में असम के हिन्दुओं और जनजातियों को ही अल्पसंख्यक बनाकर दबाने लगेंगे और यह झूठा प्रचार जारी रखा जाय कि आज भी उनकी बेरोजगारी और ग़रीबी जैसी समस्याओं के लिए ये आप्रवासी ही ज़िम्मेदार हैं! यह संघी प्रचार असम में दिन-रात जारी रहता है। सीएए-एनआरसी के फ़ासिस्ट प्रयोग की शुरुआत असम से ही हुई और आज भी भाजपा लगातार इस मुहिम को फिर से चलाने की बात करती रहती है। ज़ाहिर है कि हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण जितना तीखा होगा, असम में संघी फ़ासिज़्म का आधार उतना ही व्यापक और मज़बूत होगा। ज़ाहिर है कि बुर्जुआ वर्ग की दूसरी सभी पार्टियों के पास इसकी कोई काट नहीं है क्योंकि जनता की बुनियादी समस्याओं के कारणों को न तो वे इंगित कर सकती हैं और न ही उनका कोई समाधान प्रस्तुत कर सकती हैं। यही स्थिति उन संसदीय वाम पार्टियों की है जो इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर संसदीय राजनीति का खेल खेलती रहती हैं। इस तरह इतिहास के इस आम सूत्रीकरण को यहाँ भी लागू किया जा सकता है कि फ़ासिज़्म की राजनीति का उभार, जिस तरह पूरे देश के पैमाने पर, उसी तरह असम के भी पैमाने पर क्रान्तिकारी वाम शक्तियों की विफलता का एक परिणाम है। साहित्यिक भाषा में कहें तो यह क्रान्ति की लहर को आगे गति न दे पाने के लिए मेहनतक़श जनसमुदाय को मिला एक ऐतिहासिक दण्ड है।

केवल मज़दूर वर्ग के संगठित हिरावल ही असम की जनता को इस सच्चाई का क़ायल बना सकते हैं कि उनकी सारी दुर्दशा का कारण बंगलादेशी “बाहरी” लोग या मुसलमान नहीं, बल्कि यह पूँजीवादी व्यवस्था है जो समूचे भारतीय मेहनतक़श अवाम का मुश्तरका दुश्मन है। अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की फ़ासिस्ट राजनीति का जवाब केवल क्रान्तिकारी वाम राजनीति के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर ही दिया जा सकता है। यहाँ इस मुद्दे को भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि पूरे देश की ही तरह असम की राजनीति में भी बदरुद्दीन अजमल जैसे लोगों की मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति भी प्रकारान्तर से हिन्दुत्ववादियों की राजनीति को ही बल प्रदान करने का काम करती है। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी बहुसंख्यावादी धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक आधार पर संगठित होकर कोई लड़ाई नहीं जीत सकती। उल्टे इससे उसे और अधिक विकट विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।

असम की राजनीति में भाजपा का प्रभाव और असमी समाज में संघ का बढ़ता सामाजिक आधार इस आशंका को लगातार बनाये रखेगा कि नेल्ली जैसी कोई घटना वहाँ आगे भी घट सकती है। और फिर आज तो पूरी सत्ता और पूरा मीडिया और अधिक प्रभावी ढंग से फ़ासिस्ट हत्यारों की भीड़ के साथ खड़ा होगा। यह भी एकदम स्पष्ट है कि जबतक यह पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था भारत में बनी रहेगी, नेल्ली का प्रेत लगातार मँडराता रहेगा, सिर्फ असम में ही नहीं, पूरे भारत में! 

गुजरात-2002 से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर और दिल्ली के दंगों तक अधिक उन्नत और राज्य-प्रायोजित रूपों में नेल्ली का अखिल भारतीय स्तर पर नये रूपों में विस्तार सहज ही देखा जा सकता है। फ़ासिस्टों द्वारा बुर्जुआ सूचना और संचार के तंत्र को पूरी तरह साध लेने के बाद अब ऐसी घटनाओं की भयावहता का लोगों को अहसास तक नहीं हो पाता, उनकी एक दूसरी ही तस्वीर लोगों के सामने पेश की जाती है और फिर यह भी होता है कि लोग जल्दी ही भयानक से भयानक घटना को भूलने लग जाते हैं। जो आम लोगों का शिकार करते हैं, वे स्मृतियों और मानवीय संवेदनाओं का भी शिकार करते हैं। क्रान्तिकारी बदलाव की परियोजना का यह भी एक हिस्सा है कि हम भूलने की आदत से संघर्ष करें, अमानवीय स्थितियों और चीज़ों के आदी होते जाने की आदत के विरुद्ध संघर्ष करें, यथास्थिति का आदी होने से आम लोगों की मानसिकता का जो विमानवीकरण होता जाता है, उस प्रक्रिया के विरुद्ध संघर्ष करें!

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2023


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments