क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-10 : मालों का संचरण और मुद्रा

अभिनव

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि किस प्रकार सामाजिक श्रम विभाजन और विनिमय के विकास के साथ मुद्रा-रूप का विकास हुआ। हमने मूल्य के एक स्वतंत्र रूप के तौर पर मुद्रा के विकास के विभिन्न चरणों को समझा और देखा कि विनिमय के सबसे प्रारम्भिक रूप यानी सांयोगिक रूप में ही मुद्रा-रूप के पैदा होने के बीज मौजूद थे। जैसे-जैसे समाज में सामाजिक श्रम विभाजन के विकास के साथ विनिमय का विस्तार और सघनता बढ़ी वैसे-वैसे उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध और तीखा होता गया। इसके साथ ही एक मंज़िल पर मुद्रा-रूप विकसित हुआ जो एक प्रकार से सभी मालों की ‘संयुक्त कार्रवाई’ थी। मानो सभी मालों ने साथ आकर एक माल को मुद्रा की भूमिका प्रदान की, उसे सार्वभौमिक समतुल्य, मूल्य के स्वतंत्र-रूप की पदवी दी।

हमने यह भी देखा कि अलग-अलग समाजों में अलग-अलग मालों ने यह भूमिका ग्रहण की, जो कि उक्त समाजों में विभिन्न मालों के सापेक्षिक महत्व पर निर्भर करता था। मसलन, कहीं पर ढोर-डंगर, कहीं तम्बाकू, कहीं कौड़ी, तो कहीं कपड़ा, चावल या दूध को यह पदवी हासिल हुई। लेकिन चूँकि मुद्रा मूल्य का, यानी अमूर्त मानवीय श्रम का, स्वतंत्र-रूप थी, इसलिए इसके लिए कोई ऐसा माल उपयुक्त था जो पूरी दुनिया में एक रूप में पाया जाता हो, क्षणभंगुर न हो, टिकाऊ हो और उसे केवल मात्रा के आधार पर विभाजित किया जा सकता हो, गुण के आधार नहीं। यह भूमिका चाँदी और मुख्य रूप से सोने ने ग्रहण की। यह सोने या चाँदी के उत्पादन में लगने वाला अमूर्त मानवीय श्रम ही था, जो कि अन्य मालों के मूल्य के निर्धारण के लिए एक स्केल का काम करता था। ज़ाहिर है, इसके लिए सोने और चाँदी के अलग-अलग भार के टुकड़ों को निर्धारित किया गया ताकि अलग-अलग मालों के साथ उनका विनिमय हो सके। इस प्रकार का कोई स्वतंत्र मूल्य-रूप यानी मुद्रा तभी समूचे समाज के पैमाने पर मान्य हो सकती है, जब कोई प्राधिकार, यानी राज्यसत्ता, उसे अपनी मुहर के साथ मान्यता प्रदान करे। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मुद्रा को राज्यसत्ता ने पैदा किया। मुद्रा माल उत्पादक समाज में माल उत्पादकों के आपसी विनिमय से पैदा हुई और अलग-अलग सभ्यताओं में सरकारों या राज्यसत्ताओं ने उसे मान्यता बाद में प्रदान की।

अब हम आगे बढ़ेंगे। विनिमय की प्रक्रिया की कुछ विशिष्ट अभिलाक्षणिकताओं की संक्षिप्त चर्चा करते हुए हम मालों के संचरण और मालों के विनिमय के आरम्भिक रूप यानी उनके प्रत्यक्ष लेन-देन या अदला-बदली (barter) के बीच का अन्तर समझेंगे और फिर देखेंगे कि मुद्रा और मालों के संचरण का क्या रिश्ता है। साथ ही, हम मुद्रा के चलन (currency of money) के अर्थ को भी समझेंगे।

मार्क्स का मुद्रा का सिद्धान्त मुद्रा के रूप में एक माल के अस्तित्व की बात करता है। यानी, एक माल जिसमें अमूर्त श्रम की एक निश्चित मात्रा लगी हो, केवल वही अन्य सभी मालों के लिए मूल्य की माप का काम कर सकता है। लेकिन मार्क्स ने यह भी बताया कि इस सिद्धान्त के आधार पर ही मुद्रा के प्रतीकों, जैसे ताँबे, काँसे आदि के सिक्कों द्वारा भी सोने के सिक्कों के मूल्य का प्रतिनिधित्व हो सकता है, और साथ ही यह काम राज्यसत्ता द्वारा मान्यता प्राप्त पेपर नोट भी कर सकते हैं। लेकिन मार्क्स के दौर में ये पेपर नोट स्वर्ण मुद्रा में परिवर्तनीय (convertible) थे, या जब वे अपरिवर्तनीय (inconvertible) थे तो भी मूल्य की जिस मात्रा का वह प्रतिनिधित्व करते थे, वह स्वर्ण मुद्रा की एक विशिष्ट मात्रा ही थी। इस प्रकार सोना ही अभी भी मूल्य की माप की भूमिका निभा रहा था। हम जानते हैं कि आज रिज़र्व बैंक जो पेपर नोट जारी करता है, उसका मूल्य स्वर्ण-समर्थित (gold-backed) नहीं है। तो क्या इसका अर्थ है कि मार्क्स का मुद्रा का सिद्धान्त पुराना पड़ गया? नहीं। मार्क्स के मुद्रा के सिद्धान्त में ही वे तत्व मौजूद हैं जिनके आधार पर आप पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक काग़ज़ी मुद्रा के सिद्धान्त को निगमित कर सकते हैं, जो कि स्वर्ण-समर्थित न हो, यानी जिसका मूल्य स्वर्ण द्वारा विनियमित न हो। स्वर्ण-समर्थित न होने का यह अर्थ नहीं है कि मौजूदा काग़ज़ी मुद्रा का मूल्य काल्पनिक है और राज्यसत्ता मनमानी मात्रा में काग़ज़ी नोट जारी करके उसके मूल्य को निर्धारित कर सकती है और समाज में मालों की क़ीमतों के स्तर को मनमुआफ़िक तरीके से तय कर सकती है। स्वर्णसमर्थित होने का यह अर्थ नहीं है कि मुद्रा का मूल्य आज सामाजिक स्तर पर मानवीय अमूर्त श्रम से निर्धारित नहीं होता है और वह किसी चीज़ से समर्थित नहीं है। लेकिन इन बातों को समझने से पहले मार्क्स के मुद्रा के सिद्धान्त के बुनियादी तत्वों की एक उपयुक्त समझदारी बनाना अनिवार्य है।

इस अध्याय में हम मुद्रा के मार्क्स के सिद्धान्त को समझेंगे, मुद्रा के प्रकार्यों को समझेंगे, स्वर्ण-समर्थित या स्वर्ण में परिवर्तनीय या अपरिवर्तनीय प्रतीकात्मक मुद्रा (यानी अन्य धातुओं के सिक्के या काग़ज़ी नोट) को समझेंगे। अगले अंक में हम विस्तार से देखेंगे कि मार्क्सवादी मुद्रा सिद्धान्त के आधार पर मौजूदा काग़ज़ी मुद्रा और उसके मूल्य को किस प्रकार से वैज्ञानिक रूप में समझा जा सकता है, जो कि स्वर्ण-समर्थित नहीं है।

विनिमय और मुद्रा

सबसे पहली बात तो यह है कि सभी माल उत्पादकों के लिए उनके द्वारा उत्पादित माल कोई उपयोग-मूल्य नहीं होता है, वरना वे उसे बेचेंगे ही नहीं। उनके द्वारा उत्पादित माल एक सामाजिक उपयोगमूल्य होता है यानी वह आम तौर पर समाज के लिए उपयोगी होता है। इसलिए एक माल उत्पादक समाज में मालों का उपयोग-मूल्य के रूप में उपभोग हो सके, इसके पहले उनका बिकना ज़रूरी है। यानी, उपयोगमूल्य के रूप में वास्तवीकृत होने, यानी उनका उपभोग होने के पहले, मूल्य के रूप में उनका वास्तवीकृत होना, यानी बिकना अनिवार्य होता है। यह माल उत्पादक समाज का महत्वपूर्ण आम नियम है।

मूल्य के सांयोगिक रूप या विस्तारित रूप (इसे समझने के लिए पिछले अध्याय को सन्दर्भित करेंलेखक) की मंज़िल में सभी माल अपने मूल्यों को अलग-अलग मालों में अभिव्यक्त करते हैं और उनका समतुल्य मूल्य बदलता रहता है। मसलन, एक लीटर दूध का मूल्य दो मीटर कपड़े, एक किलो गेहूँ, दो हथौड़ों, आधा किलो चावल के रूपों में अभिव्यक्त हो सकता है। दूसरे शब्दों में, मूल्य ने अभी कोई स्वतंत्ररूप ग्रहण नहीं किया है। मूल्य का कोई ऐसा स्वतंत्र-रूप नहीं पैदा हुआ है जो सभी मालों के लिए समतुल्य की भूमिका निभाये, यानी जो सार्वभौमिक समतुल्य हो, जिसमें कि सभी माल अपना मूल्य अभिव्यक्त करते हों और जिससे सभी मालों का विनिमय हो सकता हो।

मुद्रा का विकास सामाजिक श्रम विभाजन और मालों के उत्पादन व विनिमय के विकास की एक निश्चित मंज़िल में होता है। जैसे-जैसे मानवीय श्रम के अधिक से अधिक उत्पाद माल बनते जाते हैं, वैसे-वैसे उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध तीखा होता जाता है क्योंकि परस्पर आवश्यकताओं का संयोग मुश्किल होता जाता है। हर माल उत्पादक के लिए उसका माल उपयोग-मूल्य नहीं होता है और वह सामाजिक उपयोग मूल्य होता है, जो तभी वास्तवीकृत हो सकता है यानी उपभोग के क्षेत्र में जा सकता है, जब उसका विनिमय हो, यानी वह मूल्य के रूप में वास्तवीकृत हो। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब दूसरे माल उत्पादक को उस माल की आवश्यकता हो और पहले माल उत्पादक को दूसरे माल उत्पादक के माल की आवश्यकता हो। जैसे-जैसे अधिक से अधिक उत्पाद माल बनते जाते हैं, यह होना बेहद मुश्किल होता जाता है। इसी को हम उपयोगमूल्य और मूल्य के बीच के अन्तरविरोध का तीखा होना कह रहे हैं।

मुद्रा इसी अन्तरविरोध के जवाब में सभी मालों की सामूहिक, संयुक्त और सामाजिक कार्रवाई है, जिसमें एक विशिष्ट माल या कुछ विशिष्ट मालों को सार्वभौमिक समतुल्य यानी मुद्रा की भूमिका अदा करने के लिए अलग कर दिया जाता है, जो कि स्वयं मूल्य का मूर्त रूप, उसका स्वतंत्र-रूप और अपने आप में जमा हुआ अमूर्त मानवीय श्रम है। इसी प्रकार से, आम तौर पर, उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध मुद्रा-रूप के ज़रिये सँभाला जाता है। ज़ाहिर है, यह हल नहीं होता। यदि सामाजिक श्रम विभाजन उपयुक्त नहीं है, तो सामाजिक प्रभावी माँग की तुलना में अधिक मात्रा में पैदा हो गया माल या तो अपने मूल्य से कम बाज़ार-दाम पर बिकेगा या फिर कई बार वह बिक ही नहीं पायेगा। इसलिए मुद्रारूप में माल में अन्तर्निहित उपयोगमूल्य मूल्य का अन्तरविरोध सँभाला जाता है, तात्कालिक तौर पर समाधित होता है, लेकिन सामाजिक तौर पर उसका स्थायी हल एक माल उत्पादक समाज में सम्भव नहीं होता है। इस प्रकार मुद्रा और कुछ नहीं बल्कि सभी मालों के बीच मूल्य-सम्बन्धों (value-relations) का प्रतिवर्त (reflex) है, जो इनमें निहित अन्तरविरोधों के तीखे होने से पैदा होती है।

यहाँ ग़ौरतलब बात यह है कि मुद्रा का मूल्य भी मुद्रा-माल (यानी, चाँदी या स्वर्ण) के उत्पादन (इनके उत्पादन का अर्थ इनका धरती से निकाला जाना, उसका परिशोधन आदि है) में लगने वाले सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त मानवीय श्रम की मात्रा से ही तय होता है। ठीक इसीलिए वह सभी मालों के मूल्य की माप की भूमिका मुद्रा के रूप में निभा सकती है।

मुद्रा का मुख्य प्रकार्य एक स्वतंत्र मूल्यरूप (independent value-form) प्रदान करना है, एक ऐसी सामग्री जिसमें सभी माल अपने मूल्य को अभिव्यक्त कर सकें। ठीक इसी वजह से इस काम के लिए सोना मूलत: सबसे उपयुक्त धातु था क्योंकि वह हर जगह एक रूप में पाया जाता है और सोने को सोने से अलग सिर्फ़ मात्रा के आधार पर किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे अमूर्त श्रम को अमूर्त श्रम से केवल मात्रा के आधार पर ही अलग किया जा सकता है। मुद्रा का मूल्य अवश्य होता है, लेकिन उसकी कोई क़ीमत नहीं होती है। यह मुद्रा ही है जिसमें हर माल अपनी क़ीमत या दाम को अभिव्यक्त करता है, लेकिन स्वयं मुद्रा की कोई क़ीमत नहीं होती है, उसका कोई दाम नहीं होता है।

मार्क्स ने डेविड ह्यूम और इस मामले में उनका अनुसरण करने वाले डेविड रिकार्डो के सिद्धान्त का खण्डन किया। ह्यूम व रिकार्डो का मानना था कि मुद्रा का मूल्य काल्पनिक होता है। उनका यह दावा उन्हें मुद्रा के मात्रा-सिद्धान्त (Quantity Theory of Money) की ओर ले गया जिसके अनुसार मुद्रा की अधिक आपूर्ति के कारण उसका मूल्य गिर जाता है। मार्क्स ने बताया कि जहाँ तक स्वर्ण-मुद्रा या उसके सोने में परिवर्तनीय प्रतीकों का प्रश्न है, उनकी आपूर्ति यदि आवश्यकता से अधिक होगी तो वे संचरण से बाहर चली जायेंगी और उनके ढेर जमा होंगे जो कि मालों के संचरण के माध्यम का काम नहीं करेंगे। मार्क्स ने बताया कि मुद्रा-रूप इस मायने में अवश्य काल्पनिक है कि मालों का मूल्य व मुद्रा का मूल्य एक वास्तविक चीज़ होती है, लेकिन उनके बीच की समानता बाज़ार में काल्पनिक रूप में स्थापित होती है। मिसाल के तौर पर, बाज़ार माल उत्पादक को पहले ही नहीं बता देता कि ‘तुम्हारे माल की फलाँ क़ीमत है’। माल उत्पादक अपने माल पर क़ीमत का लेबल लगाता है, जो मुद्रा की एक निश्चित मात्रा के लिए आमंत्रण होता है। यदि यह क़ीमत मूल्य से ज़्यादा या कम है तो बाज़ार में होने वाली प्रतिस्पर्द्धा अन्त में उसे समतुलित कर देगी। अभी हमने पूँजीवादी माल उत्पादन व मुनाफ़े की दर के औसतीकरण की चर्चा नहीं की है और हम साधारण माल उत्पादन की ही बात कर रहे हैं। ऐसे में, बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा माल उत्पादक द्वारा तय क़ीमत को मूल्य के इर्द-गिर्द ही स्थापित करेगी। बाज़ार द्वारा अनुशासित होने पर माल उत्पादक अपने माल की क़ीमत को संशोधित करेगा। इस रूप में मुद्रारूप अवश्य काल्पनिक है, लेकिन स्वयं मुद्रा का मूल्य काल्पनिक नहीं है, बल्कि वह अमूर्त श्रम की मात्रा से ही निर्धारित होता है।

आगे मार्क्स बताते हैं कि चूँकि मुद्रा-रूप (money-form) काल्पनिक है, इसलिए मुद्रा की भूमिका किसी काल्पनिक या आदर्श मुद्रा द्वारा निभायी जा सकती है, मसलन, काग़ज़ी मुद्रा। लेकिन तब भी केवल मुद्रा का भौतिक अस्तित्व (material existence of money) उसके प्रकार्यात्मक अस्तित्व (functional existence of money) द्वारा विनियोजित कर लिया जायेगा, लेकिन उसका मूल्य सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त मानवीय श्रम से ही निर्धारित होगा, जो असल मुद्रा-माल के उत्पादन में ख़र्च होता है।

फिर यह भ्रम पैदा कैसे हुआ कि अब मुद्रा मूल्य की माप नहीं है, उसका मूल्य अपने आप में मायने नहीं रखता, आदि? इसकी एक वजह यह है कि मुद्रा के नामों और वज़न के नामों में एक अन्तर पैदा हो गया। इतिहास बताता है कि अधिकांश मुद्राओं के नाम मुद्रा-माल (सोना या चाँदी) के टुकड़ों के वज़न के आधार पर ही तय हुए थे, मसलन, पाउण्ड (ब्रिटिश मुद्रा) शब्द का मूल वास्तव में वज़न की इकाई पाउण्ड ही है। आरम्भिक तौर पर एंग्लो-सैक्सन इंग्लैण्ड में 776 ईसवी में पाउण्ड का अर्थ और कुछ नहीं बल्कि एक पाउण्ड चाँदी ही था। इसी प्रकार, इसके छोटे टुकड़े जो कि अलग-अलग मात्रा में होने वाले विनिमयों को सम्भव बनाने के लिए ज़रूरी थे, वे भी सोने/चाँदी की अलग-अलग मात्रा का प्रतिनिधित्व करते थे। मसलन, मान लीजिये कि एक समय में 10 किलो चावल का मूल्‍य 1/16 पाउण्‍ड या 1 आउंस चाँदी था। वैसे मुद्रा नाम के तौर पर 1 पाउण्‍ड में लगभग 240 पेनी होते हैं। वज़न के तौर पर, 1 आउंस लगभग 28 ग्राम के बराबर होता है। यहाँ हम इस विशिष्‍ट माल चावल और मुद्रा के तौर पर इस्‍तेमाल किये जा रहे माल यानी चाँदी दोनों की ही मात्रा को वज़न में अभिव्‍यक्‍त कर रहे हैं। समय बीतने के साथ 1 आउंस के चाँदी के सिक्कों को एक पेनी (जैसे हमारे यहाँ पैसा होता है) कहा जाने लगा और उसे d. (dinarium) से चिह्नित किया जाने लगा। फिर 12 पेनी को 1 शिलिंग का नाम दिया गया, और 20 शिलिंग में 1 पाउण्ड स्टर्लिंग निर्धारित हो गया। ये मुद्रा-माल की मात्रा के अलग-अलग मूल्य-वर्ग (denominations) हैं, जिन्हें राज्यसत्ता ही निर्धारित करती है। बाद में, जब सोने या चाँदी की मुद्रा की जगह अलग-अलग राज्यसत्ताओं ने मिश्रित या अन्य धातुओं के सिक्के जारी किये, तो भी उसमें सोने या चाँदी की मात्रा तो घट गयी (या ख़त्म हो गयी) लेकिन मुद्रा के मूल्य-वर्ग का नाम वही रहा। यानी मुद्रा के मूल्यवर्ग का नाम और वज़न की इकाई का नाम जो पहले एक ही थे, वे अलग हो गये। अब 1 पाउण्ड मुद्रा वास्तव में 1 पाउण्ड चाँदी की नुमाइन्दगी नहीं कर रही थी। मिसाल के तौर पर, 1717 में इंग्लैण्ड ने मुद्रा-माल के रूप में सोने को अपना लिया और 1 आउंस सोने का मूल्य 4.25 पाउण्ड तय किया गया। यदि एक आउंस सोने के उत्पादन में 20 घण्टे लगते थे, और 10 यार्ड सूती कपड़ा बनाने में भी 20 घण्टे लगते थे, तो 10 यार्ड सूती कपड़े की क़ीमत 4.25 पाउण्ड होती थी। डॉलर-स्वर्ण मानक के दौर में 1967 में 1 पाउण्ड 2.4 डॉलर के बराबर था, जबकि 1 डॉलर 0.028 आउंस सोने के बराबर। यानी 1967 में 1 ब्रिटिश पाउण्ड 0.06 आउंस सोने के बराबर था। यानी मुद्रा का मूल्य अभी भी मुद्रामाल के उत्पादन से ही तय हो रहा था, लेकिन वज़न के नाम और मुद्रा के मूल्यवर्ग के नाम अलग हो चुके थे। मुद्रा के अवमूल्यन का काम अलग-अलग राज्यसत्ताओं ने इसलिए किया क्योंकि वे अपने राज्य के रिज़र्व में सोने और चाँदी की मात्रा की तुलना में कहीं ज़्यादा सिक्के जारी कर सकते थे और इसके ज़रिये राज्य के कर्ज़ चुका सकते थे, युद्धों का ख़र्च पूरा कर सकते थे, राज्य के ख़र्च पूरे कर सकते थे। हम मुद्रा के उद्भव और विकास के बेहद दिलचस्प इतिहास में बहुत विस्तार में नहीं जा सकते हैं, लेकिन इसके बारे में अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे आपके सामने एक समूची तस्वीर उपस्थित होती है और आर्थिक इतिहास की घटनाओं का एक सजीव चित्र दिमाग़ में उपस्थित होता है।

इसके बाद मार्क्स मुद्रा के दो बुनियादी कार्यों पर आते हैं: पहला, मूल्य की माप और दूसरा, क़ीमत/दाम का मानक। इनका क्या अर्थ है? मूल्य की माप का अर्थ यह है कि मुद्रा के ज़रिये ही अन्य सभी मालों के मूल्य को मापा जाता है। लेकिन मुद्रा की निश्चित इकाइयाँ होती हैं, जिसके ज़रिये मूल्य की अलग-अलग मात्राओं का विनिमय होता है। मिसाल के तौर पर, 1 रुपये में 4 आने, 1 आने में 25 पैसे होते हैं। यहाँ मुद्रा क़ीमत के मानक की भूमिका निभा रही है, यानी मुद्रा-माल की अलग-अलग मात्राएँ जो कि स्वर्ण व चाँदी की मुद्रा के दौर में उनके अलग-अलग वज़न का प्रतिनिधित्व करतीं थी। ये मानक किसी भी अर्थव्यवस्था में राज्यसत्ता तय करती है जिसके ज़रिये मुद्रा-माल (सोना या चाँदी) की अलग-अलग मात्राओं को मुद्रा के मूल्य-वर्ग के रूप में निर्धारित किया जाता है और राज्यसत्ता ही इन अलग-अलग मूल्य-वर्गों को नाम भी देती है। मिसाल के तौर पर, मान लें कि एक टन लोहे में लगा अमूर्त मानवीय श्रम एक किलोग्राम सोने में लगे अमूर्त मानवीय श्रम के बराबर है। तो दोनों का मूल्य समान हुआ और 1 टन लोहे के मूल्य को मुद्रा के रूप में सोने की एक निश्चित मात्रा, 1 किलोग्राम, अभिव्यक्त करती है। यह मूल्य की माप के रूप में मुद्रा के प्रकार्य को प्रदर्शित करता है। अगर 1 ग्राम सोने को राज्यसत्ता 1 रुपये के बराबर मानती है, तो 1 टन लोहे का दाम हुआ रुपये 1000। यहाँ माल है लोहा, जिसकी मात्रा है 1 टन; मूल्य की माप है 1 किलोग्राम सोना; और दाम का मानक है रु. 1000 जो कि 1 किलो सोने के बराबर है, या रु. 1 जो 1000 ग्राम सोने का प्रतिनिधित्व करता है।

मूल्य की माप के रूप में मुद्रा का मालों से रिश्ता बदल सकता है। यदि तमाम मालों के उत्पादन में उत्पादकता बढ़ती है और उनका श्रम-मूल्य घटता है और सोने/चाँदी के उत्पादन में ऐसा नहीं होता या उसकी उत्पादकता में होने वाला परिवर्तन ठीक उसी अनुपात में और उसी दिशा में नहीं है तो मूल्य की माप में रूप में मुद्रा का समस्त मालों से रिश्ता बदल जायेगा। लेकिन इससे दाम के मानक के रूप में मुद्रा की भूमिका पर कोई भी फ़र्क नहीं पड़ेगा। 1 पैसे का 4 आने से वही रिश्ता होगा जो कि पहले था और 4 आने का 1 रुपये से भी वही रिश्ता होगा जो कि पहले था। मार्क्स लिखते हैं:

”मूल्य की माप और दाम के मानक के रूप में मुद्रा दो बिल्कुल अलग प्रकार्य पूरे करती है। मूल्य की माप के रूप में यह मानव श्रम का सामाजिक अवतरण है; किसी धातु के तय वज़न वाली एक निश्चित मात्रा के रूप में यह दाम का मानक है। मूल्य की माप के रूप में यह सभी मालों के मूल्य को दामों में, यानी सोने की काल्पनिक मात्राओं में परिवर्तित करने का काम करती है; दाम के मानक के रूप में वह सोने की इन मात्राओं को मापने का काम करती है। मूल्यों की माप के तौर पर यह मूल्यों के रूप में मालों को मापती है; इसके विपरीत, दाम के मानक के तौर पर यह सोने की विभिन्न मात्राओं को सोने की एक इकाई मात्रा के द्वारा मापती है, न कि सोने की एक मात्रा के मूल्य की किसी दूसरी मात्रा के वज़न से मापती है। दाम के मानक के लिए, सोने के एक निश्चित वज़न को मापन की इकाई के तौर पर निर्धारित करना अनिवार्य है।” (कार्ल मार्क्स, 1982, पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन संस्करण, पृ. 192, ज़ोर हमारा)

स्पष्ट है कि मुद्रा की इन दो भूमिकाओं को समझना और उनमें फ़र्क करना ज़रूरी है। मुद्रा इन दोनों भूमिकाओं को तभी व्यापक और सामाजिक तौर पर निभा सकती है जब उसे राज्यसत्ता द्वारा क़ानूनी मान्यता प्राप्त हो। यह बात समझना इसलिए भी ज़रूरी है कि बाद में ऐसी काग़ज़ी मुद्रा के पैदा होने की परिघटना को समझने के लिए यह अनिवार्य है, जो कि सोने द्वारा समर्थित नहीं है, यानी जो स्वर्ण-मुद्रा की प्रतिनिधि या प्रतीक नहीं है, जिसमें कि सोने की मुद्रा के भौतिक अस्तित्व को उसके प्रकार्यात्मक अस्तित्व ने निगल लिया हो। सरल भाषा में, जिसमें अब भौतिक तौर पर सोने की मुद्रा संचरण में नहीं है, लेकिन उसके प्रकार्य को यानी उसके काम को उसकी प्रतिनिधि या प्रतीक काग़ज़ी मुद्रा कर रही है।

आगे बढ़ने से पहले एक ज़रूरी बात की ओर इंगित करना उपयोगी होगा। किसी ऐसी चीज़ की क़ीमत या दाम हो सकता है, जिसका कोई मूल्य हो। मिसाल के तौर पर, ज़मीन मानवीय श्रम से नहीं पैदा हुई है। वह प्राकृतिक संसाधन है जो कि मात्रा में सीमित है। ऐसे में, ज़मीन का कोई मूल्य नहीं है क्योंकि वह श्रम का उत्पाद नहीं है। मूल्य और कुछ नहीं बल्कि किसी उत्पाद या सेवा के रूप में भौतिक-रूप ग्रहण कर चुका अमूर्त मानवीय श्रम ही है। इसलिए ज़मीन का कोई मूल्य नहीं होता। लेकिन अगर ज़मीन का निजी मालिकाना पैदा हो जाता है तो उसकी भी ख़रीद-फ़रोख़्त होने लगती है और इसलिए उसकी भी एक क़ीमत हो जाती है। लेकिन तब भी उसका कोई मूल्य नहीं होता है। ज़मीन का मालिक वर्ग उसके लगान या उसकी क़ीमत के ज़रिये पूरे समाज से एक शुल्क या ख़िराज (tribute) की वसूली करता है और इसीलिए यह सबसे परजीवी और प्रतिक्रियावादी वर्ग होता है, चाहे वह पूँजीवादी ज़मीन्दार हो या फिर सामन्ती ज़मीन्दार।

मुद्रा, या मालों का संचरण

मुद्रा मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त के माध्यम का काम करती है। यानी यह मालों के संचरण और उनके रूपान्तरणों (metamorphoses) का काम करती है। माल के रूपान्तरण से हमारा क्या अर्थ है? माल के रूपान्तरण का अर्थ है माल का मुद्रा में तब्दील होना और फिर वापस मुद्रा से माल में तब्दील होना। यह मालों के संचरण की बुनियादी विशिष्टता है। इसका अर्थ है एक माल उत्पादक ने अपना माल ख़रीदार को बेचा और उसके हाथ में मुद्रा आयी; इस मुद्रा से उसने अपने लिए आवश्यक मालों को ख़रीदा। यह प्रक्रिया साधारण लेन-देन (barter) से अलग है, जिसमें माल सीधे एक-दूसरे माल से मुदा की मध्यस्थता के बिना बदला जा रहा है। इस साधारण लेन-देन को दिखलाने का सूत्र है:

माल माल (माल की सीधे दूसरे माल से अदलाबदली)

जबकि मालों के संचरण (circulation of commodities) को दिखलाने का सूत्र है:

माल मुद्रा माल (मा मु मा)

जैसा कि हम देख सकते हैं मालों के संचरण में दो रूपान्तरण मौजूद हैं। पहला, मामु या माल-मुद्रा, यानी माल का मुद्रा में तब्दील होना, उसका बिकना। यह अपने आप में एक जोखिम भरा क़दम है। माल उत्पादक का माल बिकेगा या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि उसके माल को ख़रीदार मिलेगा या नहीं। उसे ख़रीदार मिलेगा या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि उसका माल एक सामाजिक उपयोग-मूल्य है या नहीं। उसका माल सामाजिक उपयोग-मूल्य है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि सामाजिक श्रम विभाजन गुणात्मक रूप से और परिमाणात्मक रूप से कैसा है। यदि उक्त माल की आपूर्ति ज़रूरत से ज़्यादा होती है, यानी उक्त माल के उत्पादन में सामाजिक तौर पर आवश्यकता से अधिक श्रम लगा हुआ है, तो या तो यह माल बिकेगा ही नहीं या अपने मूल्य से कम दाम पर बिकेगा। चाहे उस माल के उत्पादन में अलग से सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम (यानी, उक्त माल के उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादन की औसत स्थितियों से निर्धारित होने वाली सामाजिक श्रम की मात्रा) लगा हो तो भी यदि उसकी आपूर्ति आवश्यकता से ज़्यादा होती है तो उसमें लगे श्रम को समाज सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के तौर पर नहीं पहचानेगा और या तो वह बिकेगा ही नहीं या फिर अपने मूल्य से कम दाम पर बिकेगा। गुणात्मक सामाजिक श्रम विभाजन श्रम के उत्पादों को माल में तब्दील करता है और परिमाणात्मक सामाजिक श्रम विभाजन उनकी ख़रीदफ़रोख़्त को एक संयोग का मसला बना देता है। यदि कुल सामाजिक श्रम का आवश्यकता से ज़्यादा हिस्सा किसी विशिष्ट माल के उत्पादन में लगा है और नतीजतन वह माल अपने मूल्य से कम दाम पर बिकता है, तो बाज़ार स्थितियाँ अन्तत: इस सामाजिक श्रम विभाजन को तब्दील कर देंगी। सामाजिक श्रम की कुछ मात्रा उक्त माल के उत्पादन के क्षेत्र से स्थानान्तरित होकर किसी ऐसे माल के उत्पादन के क्षेत्र में चली जायेगी जहाँ किसी माल की आपूर्ति उसके लिए मौजूद प्रभावी माँग से कम है और वह अपने मूल्य से अधिक बाज़ार-क़ीमत पर बिक रहा है। बाज़ार-क़ीमत और मूल्य में अलग-अलग मालों के स्तर पर आने वाले सभी अन्तर सामाजिक तौर पर एक-दूसरे को ख़ारिज कर देते हैं और कुल मूल्य कुल बाज़ार-क़ीमत के बराबर ही रहता है, क्योंकि हर ख़रीद एक बिकवाली है और हर बिकवाली एक ख़रीद भी है। ख़रीदार के हाथ में जो मुद्रा है, वह भी उसकी बिकवाली का ही नतीजा है। इसलिए मालों के रूपान्तरण आपस में अन्तर्गुंथित होते हैं, आपस में बँधे होते हैं, एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। बहरहाल, इतना आसानी से समझा जा सकता है कि माल का बिकना, यानी किसी माल उत्पादक के लिए माल का पहला रूपान्तरण किसी माल उत्पादक अर्थव्यवस्था में कोई पूर्वप्रदत्त तथ्य नहीं होता है, बल्कि एक संयोग का मसला होता है, जिसमें तमाम जोखिम शामिल होते हैं।

दूसरा रूपान्तरण किसी माल उत्पादक के लिए सरल है। क्योंकि दूसरे रूपान्तरण, यानी, मुमा (मुद्रा-माल) के दौरान उसके हाथ में कोई साधारण माल नहीं, बल्कि मुद्रा है, जो कि सार्वभौमिक समतुल्य है, निरपेक्ष रूप से विनिमेय (absolutely alienable) है जिसका विनिमय किसी भी माल से किया जा सकता है। यह मालों के बीच का ईश्वर है! मुद्रा से माल उत्पादक अपने लिए आवश्यक सभी उत्पादन व उपभोग की सामग्रियाँ ख़रीद सकता है। इसके साथ माल संचरण का सर्किट पूरा हो जाता है, दोनों रूपान्तरण पूरे हो जाते हैं। मामुमा के पूरा होने के साथ दोनों छोरों पर हमें माल मिलता है; ये दोनों माल उपयोग-मूल्य के तौर पर भिन्न हैं, यानी ये दोनों अलग-अलग माल हैं; लेकिन मूल्य के तौर पर दोनों में कोई अन्तर नहीं है; यानी, दोनों उपयोग-मूल्यों का मूल्य समान है। यह माल संचरण के समूचे सूत्र की विशिष्टता है: इसमें दोनों छोरों पर भौतिक तौर पर अलगअलग माल (उपयोगमूल्य) होते हैं, जिनका मूल्य समान होता है और जिनका विनिमय मुद्रा की मध्यस्थता से होता है। जब दोनों माल अपने ख़रीदार के पास पहुँचते हैं, तो वे उत्पादन व संचरण दोनों के ही क्षेत्र से निकलकर उपभोग के क्षेत्र में पहुँच जाते हैं, उनका उपभोग कर लिया जाता है और वे संचरण से बाहर चले जाते हैं।

एक माल उत्पादक के माल के रूपान्तरण कई अन्य माल उत्पादकों के मालों के रूपान्तरण से अन्तर्गुंथित होते हैं। मसलन, पहले माल उत्पादक ने जिस माल उत्पादक को अपना माल बेचा, उसके पास जो मुद्रा थी, वह स्वयं उसके द्वारा अपने माल को बेचने से ही आयी थी, और ऐसा ही उस तीसरे माल उत्पादक पर भी लागू होता है, जिसने दूसरे माल उत्पादक से माल ख़रीदा था। इस प्रकार, मालों के रूपान्तरण के तमाम सर्किट आपस में जुड़े होते हैं। इसी को हम मालों का संचरण कहते हैं। इस प्रक्रिया में मालों के उपभोग के साथ स्वयं माल तो इस प्रक्रिया से बाहर चले जाते हैं, लेकिन मुद्रा के साथ ऐसा नहीं होता। वह एक सर्किट के समाप्त होने के बाद भी मालों के विनिमय में मध्यस्थता का काम करती रहती है, वह मालों द्वारा ख़ाली की जा रही जगहों को भरती रहती है और अनथक इस संचरण में घूमती रहती है। जैसा कि मार्क्स ने अपनी सुन्दर साहित्यिक शैली में बताया:मालों का संचरण हर रन्ध्र से पसीने के समान मुद्रा को निकालते रहता है।(कार्ल मार्क्स, वही, पृ. 208) यानी, मुद्रा का यह सतत् घूमते रहना और मालों के विनिमय में मध्यस्थता का काम करते रहना, मालों द्वारा ख़ाली की जा रही जगहों को भरते जाना जारी रहता है। इसी को मार्क्स ने मुद्रा का चलन (currency of money) कहा।

मार्क्स ने बताया कि मुद्रा का यह चलन मालों के संचरण का कारण नहीं है, बल्कि उसका परिणाम है। सामान्य तौर पर, लोगों को यह लगता है कि यदि मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त सुचारू तरीके से नहीं चल रही है, तो इसकी वजह यह है कि मुद्रा की, यानी विनिमय के माध्यम की भूमिका निभाने वाली सामग्री की कमी हो गयी है। लेकिन यह एक दृष्टिभ्रम है। मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त में कमी आने के कारण कुछ और होते हैं। मालों की सुचारू और गतिशील रूप से ख़रीद होने पर मुद्रा का चलन भी तेज़ दर से होता है। मालों के संचरण में बाधा पड़ने पर यह चलन भी बाधित होता है। लेकिन इसमें निर्धारक भूमिका स्वयं मालों के उत्पादन और उनके संचरण की है, न कि मुद्रा की मात्रा की।

तो फिर किसी भी समय किसी अर्थव्यवस्था में आवश्यक मुद्रा की मात्रा का निर्धारण कैसे होता है? ह्यूम व रिकार्डो जिनका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं, उनका ऐसा मानना था कि मालों की क़ीमतों का स्तर मुद्रा की आपूर्ति से तय होता है। यह भी मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त से ही निकल कर आने वाला तर्क था। मार्क्स ने बताया कि यह उल्टी बात है। मार्क्स ने बताया कि यह स्वयं मालों का संचरण ही है जो तय करता है कि मुद्रा की मात्रा क्या होनी चाहिए। संचरण में मौजूद सभी मालों की कुल क़ीमत वह पहला कारक है, जो उनके संचरण के लिए आवश्यक मुद्रा की मात्रा को निर्धारित करती है। लेकिन यदि मालों के संचरण में मौजूद कुल मालों की कुल क़ीमत रु. 1 करोड़ है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके संचरण के लिए रु. 1 करोड़ के बराबर मुद्रा की आवश्यकता होगी। क्यों? क्योंकि मुद्रा के समान नोट या सिक्के कई माल विनिमयों को अंजाम दे सकते हैं। अलगअलग मूल्यवर्ग में मुद्रा के नोट सिक्के औसतन कितने विनिमयों को अंजाम देते हैं, इसे मुद्रा का वेग (velocity of money) कहा जाता है। सभी मूल्य-वर्गों में मुद्रा के अलग-अलग नोटों व सिक्कों की संख्या व उनके वेग के आधार पर मुद्रा के वेग की गणना की जा सकती है और इसी के आधार पर मुद्रा जारी की जाती है। जहाँ तक स्वर्ण या चाँदी की मुद्रा या उनका प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य धातुओं के सिक्कों या परिवर्तनीय (convertible) काग़ज़ी मुद्रा का प्रश्न है, तो मामला सरल है: यदि आवश्यकता से अधिक मुद्रा जारी की जाती है, तो वह संचरण से बाहर जाकर निष्क्रिय हो जाती है और उसके निष्क्रिय ढेर बन जाते हैं। लेकिन अगर अपरिवर्तनीय (inconvertible) काग़ज़ी मुद्रा की बात करें, तो किसी देश में माल संचरण में मौजूद कुल मालों की कुल क़ीमत व मुद्रा के वेग से तय होने वाली स्वर्ण-मुद्रा की मात्रा से ज़्यादा अपरिवर्तनीय काग़ज़ी मुद्रा जारी की जाती है, तो उस काग़ज़ी मुद्रा का मूल्य गिर जायेगा। स्वर्णमुद्रा में मालों का मूल्य इससे प्रभावित नहीं होता है, लेकिन अपरिवर्तनीय काग़ज़ी मुद्रा का मूल्य गिरने के कारण उस काग़ज़ी मुद्रा में मालों की क़ीमत गिर जायेगी क्योंकि स्वर्णमुद्रा की तुलना में अपरिवर्तनीय काग़ज़ी मुद्रा का मूल्य गिर जायेगा। इसे मार्क्स के ही उदाहरण से समझते हैं:

”कागज़ के वे टुकड़े जिन पर मुद्रा-नाम मुद्रित होता है, जैसे कि 1 पाउण्ड, 5 पाउण्ड, आदि, राज्यसत्ता द्वारा बाहर से संचरण की प्रक्रिया में डाले जाते हैं। जिस हद तक वे सोने की समान मात्रा की जगह वास्तव में संचरित होते हैं, उस हद तक उनकी हरक़त मौद्रिक संचरण के नियमों का ही प्रतिबिम्बन मात्र है। काग़ज़ी मुद्रा के संचरण पर विशिष्ट तौर पर लागू होने वाला कोई नियम केवल उस अनुपात से ही पैदा हो सकता है जिस अनुपात में काग़ज़ी मुद्रा सोने की नुमाइन्दगी करती है। साधारण शब्दों में कहें तो वह नियम कुछ इस प्रकार है: काग़ज़ी मुद्रा की जारी की जाने वाली मात्रा सोने (या चाँदी) की उस मात्रा तक सीमित होनी चाहिए जो वास्तव में संचरण में होती, और जिसकी प्रतीकात्मक तौर पर अब काग़ज़ी मुद्रा नुमाइन्दगी कर रही है। अब, यह सच है कि संचरण के क्षेत्र द्वारा सोखी जा सकने वाली सोने की मात्रा एक निश्चित औसत स्तर के ऊपर-नीचे घटती-बढ़ती रहती है। लेकिन इसके बावजूद, किसी भी देश में संचरण का माध्यम कभी भी एक निश्चित न्यूनतम मात्रा के नीचे नहीं गिरता है, जिसका निर्धारण अनुभव के आधार पर किया जा सकता है। यह न्यूनतम मात्रा अपने संघटक अंगों के रूप में लगातार परिवर्तित होती रहती है, या सोने के वे टुकड़े जिसके द्वारा यह समूची मात्रा बनती है, लगातार बदले जाते रहते हैं, इस तथ्य का स्वाभाविक तौर पर इसकी कुल राशि पर या उस निरन्तरता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता जिसके साथ यह संचरण के क्षेत्र में प्रवाहित होती रहती है। इसके काग़ज़ी प्रतीक इनकी जगह ले सकते हैं। लेकिन, अगर संचरण के सारे मार्ग आज मुद्रा को पूर्ण रूप से सोखने की क्षमता रखने वाली काग़ज़ी मुद्रा से भर जायें, तो अगले दिन मालों के संचरण में आने वाले उतार-चढ़ावों के कारण वे ज़रूरत से ज़्यादा भरे हुए हो सकते हैं। तब फिर कोई मानक नहीं रह जायेगा। अगर काग़ज़ी मुद्रा अपनी उपयुक्त सीमा से ज़्यादा होती है, यानी उन्हीं मूल्य-वर्गों के सोने के सिक्कों की वह राशि जो कि संचरण में हो सकती थी, तो सार्वभौमिक तौर पर अपना भरोसा खो देने के ख़तरे के अलावा, यह मालों की दुनिया में सोने की उसी मात्रा का प्रतिनिधित्व करेगी जो कि उसके आन्तरिक नियमों से तय होती है। इससे ज़्यादा मात्रा की काग़ज़ी मुद्रा द्वारा नुमाइन्दगी का प्रश्न ही नहीं उठता। अगर काग़ज़ी मुद्रा उपलब्ध सोने की मात्रा की दोगुनी मात्रा का प्रतिनिधित्व करती है, तो फिर व्यवहारत: 1 पाउण्ड 1/4 आउंस सोने का मुद्रा-नाम नहीं रह जायेगा, बल्कि यह 1/8 आउंस सोने का नाम बन जायेगा। प्रभाव कुछ वही होगा जो कि क़ीमत के मानक होने के सोने के प्रकार्य में परिवर्तन होने पर हुआ होता। यानी पहले 1 पाउण्ड क़ीमत जितने मूल्य को अभिव्यक्त करती थी, अब 2 पाउण्ड क़ीमत उस मूल्य को अभिव्यक्त करेगी।” (कार्ल मार्क्स, वही, पृ. 224-25)

इसलिए मार्क्स बताते हैं कि मुद्रा की मात्रा मालों के संचरण से तय होती है और इसलिए वास्तविक कीमतों के निर्धारण का पैमाना मुद्रा की मात्रा नहीं है, बल्कि स्वयं माल संचरण की स्थितियाँ हैं। इन स्थितियों के दो प्रमुख कारक हैं : माल संचरण में मौजूद समस्त मालों की कुल क़ीमत और मुद्रा का वेग। इसे एक समीकरण के तौर पर इस प्रकार समझ सकते हैं :

मुद्रा की मात्रा = समस्त मालों की कुल क़ीमत/मुद्रा का वेग

यानी,

Qm = ΣP/Vm

जहाँ,

Qm = मुद्रा की मात्रा

ΣP = समस्त मालों की कुल क़ीमत

Vm = मुद्रा का वेग

इसे एक बिल्कुल सरल उदाहरण से समझें। मान लें कि कुल मालों की कुल क़ीमत रु. 100 है। यदि मुद्रा का औसत वेग 1 है, तो फिर कुल मुद्रा की मात्रा भी उतनी चाहिए होगी, यानी रु. 100 । मान लें कि समाज में एक ही मूल्य-वर्ग में मुद्रा का चलन है : रु. 10 । ऐसे में, रु. 10 के 10 नोटों या सिक्कों की आवश्यकता होगी। लेकिन मान लें कि औसतन 10 रु. का एक नोट दो माल विनिमयों को पूरा करता है, तो मुद्रा का औसत वेग 2 हो जायेगा। ऐसे में, रु. 50 की राशि की मुद्रा रु. 100 की क़ीमत वाले मालों का संचरण करने के लिए पर्याप्त होगी। अर्थव्यवस्था के वास्तविक अनुभवों के आधार पर किसी अर्थव्यवस्था में किसी दिये गये समय में मुद्रा के औसत वेग का आकलन किया जा सकता है और तमाम अर्थशास्त्री करते भी हैं। इसके अनुसार, मालों के उत्पादन व संचरण में आने वाले उतार-चढ़ावों के अनुसार जारी की जाने वाली मुद्रा की मात्रा का निर्धारण किया जाता है, जो कभी भी बिल्कुल सटीक नहीं हो सकता है क्योंकि माल उत्पादन की प्रक्रिया ही उथल-पुथलभरी और अराजक होती है। लेकिन एक लगभग-मात्रा के तौर पर, एक जारी प्रक्रिया के तौर पर अर्थव्यवस्था में इसका निर्धारण किया जाता रहा है।

यदि मुद्रा का वेग अधिक है, तो यह दिखलाता है कि मालों का संचरण सुचारू रूप से चल रहा है, उसमें ज़्यादा बाधाएँ नहीं हैं, सामाजिक श्रम विभाजन परिमाणात्मक तौर पर अपेक्षाकृत सही स्थिति में है क्योंकि यह दिखलाता है कि मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त अच्छे प्रवाह के साथ हो रही है, उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध अपेक्षाकृत अधिक सहज रूप से सँभाला जा रहा है। लेकिन यदि मुद्रा के वेग में ठहराव है तो यह मालों के संचरण में ठहराव और बाधा को दिखलाता है, मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त में परेशानियों को दिखलाता है और दिखलाता है कि उपयोग-मूल्य व मूल्य का अन्तरविरोध अर्थव्यवस्था में सही ढंग से सँभाला नहीं जा पा रहा है। लेकिन माल उत्पादकों को ऐसा दिखलायी पड़ता है कि मुद्रा की कमी की वजह से यह हो रहा है।

मूल्य के प्रतीक

सिक्के या आगे चलकर काग़ज़ी नोट और कुछ नहीं हैं, बल्कि मूल्य के प्रतीक हैं। सोना मुद्रा-माल के तौर पर मालों के संचरण के माध्यम की भूमिका निभा सके इसके लिए यह अनिवार्य होता है कि वह सिक्कों का रूप ले, जो कि स्वयं और कुछ नहीं बल्कि सोने की एक निश्चित मात्रा का वज़न होते हैं, जो मात्रा काल्पनिक तौर पर मालों की क़ीमतों में अभिव्यक्त होती है। माल संचरण में इन सिक्कों को इन मालों से वास्तविक तौर पर मुलाकात करनी होती है। इसी को ख़रीद या बिकवाली कहते हैं, जब मालों का एक निश्चित क़ीमत पर इन सिक्कों से विनिमय होता है। इन सिक्कों को ढालने का काम राज्य करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे क़ीमत के मानकों को वह निर्धारित करता है। लेकिन विश्व बाज़ार में तमाम मुद्राएँ अपना ये विशिष्ट रूप, यानी अपनी ”राष्ट्रीय पोशाकें” छोड़कर अपने मूल-रूप में आ जाती हैं, यानी सोने के रूप में। सोने और मुद्रा में अन्तर केवल भौतिक रूप का होता है और यह माल संचरण के क्षेत्र और आवश्यकता के अनुसार एक रूप से दूसरे रूप में जा सकता है।

मार्क्स बताते हैं कि मालों के संचरण की प्रक्रिया में सोने के सिक्कों का क्षरण होता है। नतीजतन, वे सोने की ठीक उस मात्रा का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं रह जाते हैं, जिसकी मुहर क़ीमत के मानक के तौर पर राज्य की टकसाल उस पर लगाती है। मसलन, यदि 1 रुपया 0.1 ग्राम सोने का प्रतिनिधित्व करता था, तो माल संचरण के दौरान घिसाई के कारण वह भौतिक तौर पर अब 0.05 ग्राम का ही रह गया, लेकिन प्रकार्यात्मक व प्रतीकात्मक तौर पर वह अभी भी 0.1 ग्राम सोने का ही प्रतिनिधित्व करता है। इसके कारण, मध्य-युग के पहले से ही पूरी दुनिया में राज्यसत्ताओं ने सिक्कों की वास्तविक स्वर्ण अन्तर्वस्तु को घटाना और उसे अन्य धातुओं के साथ मिश्रित करना और बाद में पूर्णत: अन्य धातुओं जैसे ताँबा, काँसा आदि के सिक्के ढालने शुरू कर दिये, जो प्रकार्यात्मक और प्रतीकात्मक तौर पर अभी भी सोने की उतनी ही भौतिक मात्रा का प्रतिनिधित्व करते थे। इससे तमाम राजतन्त्रों को अपने राजकीय ख़र्चों, ऐय्याशाी और शासक वर्ग के ऐशो-आराम का इन्तज़ाम करने का मौका मिला और साथ ही राजकीय ऋणों को चुकाना भी आसान हो गया।

तो इस प्रकार सिक्कों की वास्तविक अन्तर्वस्तु और उनकी नॉमिनल यानी उनकी अंकित अन्तर्वस्तु में अन्तर पैदा हो गया, जिसने उनके धात्विकभौतिक अस्तित्व को उनके प्रतीकात्मकप्रकार्यात्मक अस्तित्व से अलग कर दिया। इसी चीज़ ने काग़ज़ी मुद्रा के जन्म की ज़मीन तैयार की क्योंकि यदि सोने की एक विशिष्ट मात्रा की (जो कि स्वयं मूल्य की माप और दाम का मानक है) प्रतीकात्मक व प्रकार्यात्मक तौर पर ताँबे या काँसे के सिक्के द्वारा नुमाइन्दगी की जा सकती है, तो यह काम किसी और सामग्री से बना कोई और प्रतीक क्यों नहीं कर सकता? यही स्थिति काग़ज़ी मुद्रा के उद्भव और विकास का आधार थी। ऐसी काग़ज़ी मुद्रा के लिए केवल सामाजिक और क़ानूनी वैधता की आवश्यकता थी जो कि राज्यसत्ता देती है।

यह संक्रमण इसलिए भी अपरिहार्य था क्योंकि बेहद कम मूल्य के मालों और बेहद कम मात्रा में विनिमय के लिए सोने की बेहद छोटी मात्रा का सिक्का बनाना मुश्किल था। नतीजतन, सोने की बेहद छोटी मात्राओं की नुमाइन्दगी करने वाले अन्य धातुओं के सिक्कों और बाद में काग़ज़ी नोटों का आना लाज़िमी था। ये छोटे सिक्के और भी तेज़ी से क्षरण का शिकार होते थे। इसने काग़ज़ी मुद्रा के उद्भव में विशेष भूमिका निभायी। ज़ाहिरा तौर पर, इन्हें जारी करने का काम भी राज्यसत्ता ही कर सकती है क्योंकि उसके द्वारा वैधिक अनुमोदन और भरोसे के बिना एक काग़ज़ी नोट क्या है? महज़ कागज़ का एक टुकड़ा जिसे कोई भी मुद्रा के रूप में स्वीकार नहीं करेगा, यदि उसके पीछे राज्य का क़ानूनी वैधीकरण और अनुमोदन न खड़ा हो। जैसा कि हमने ऊपर बताया, पहले सभी काग़ज़ी नोट सोने के साथ परिवर्तनीय (convertible) थे और राज्य वायदा करता था कि किसी भी काग़ज़ी नोट पर दर्ज अंकित दाम के अनुसार वास्तविक सोने का विनिमय वह माँग करने पर करेगा। कोई ऐसा करता नहीं था क्योंकि आपवादिक स्थितियों को छोड़कर इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, लेकिन कोई भी ऐसी माँग करता तो उसे पूरा करना राज्य के लिए अनिवार्य होता था। इसीलिए कोई भी राज्य माल उत्पादन की मात्रा और उसके अनुरूप अपने सोने के रिज़र्व के आधार पर ही काग़ज़ी नोट जारी करता था। अपरिवर्तनीय काग़ज़ी नोटों (inconvertible paper notes) के आने के साथ तमाम राज्यों ने माल उत्पादन व सोने के रिज़र्व से अधिक काग़ज़ी मुद्रा जारी की, जिसका नतीजा था काग़ज़ी नोट का अवमूल्यन और मुद्रास्फीति। इससे न तो माल उत्पादन की वास्तविक मात्रा पर कोई फ़र्क पड़ता था, न ही उसके वास्तविक मूल्य पर कोई फ़र्क पड़ता था, न सोने के वास्तविक मूल्य व मात्रा पर कोई फ़र्क पड़ता था और न ही मालों के सोने में दाम (सोने के साथ उसके विनिमय की दर) पर कोई फ़र्क पड़ता था। यदि फ़र्क पड़ता था तो केवल (एक माल के तौर पर सोने समेत) सभी मालों के काग़ज़ी मुद्रा में अभिव्यक्त होने वाले दामों पर पड़ता था। वजह यह कि अभी भी यह अपरिवर्तनीय पेपर नोट स्वर्ण-मुद्रा द्वारा समर्थित थे, अभी भी सोना ही मूल्य की वास्तविक माप का काम कर रहा था, चाहे काग़ज़ी नोट का 1 रुपया पहले 0.1 ग्राम सोने का प्रतिनिधित्व करता हो, और बाद में स्वर्ण-मुद्रा से अधिक अनुपात में जारी होने के कारण अब 2 रुपया 0.1 ग्राम का प्रतिनिधित्व करता हो। इससे बस वही फ़र्क पड़ता है जो कि तब पड़ता जबकि क़ीमत के मानकों में राज्यसत्ता परिवर्तन कर देती, यानी वह कहती कि जितना मूल्य पहले 1 रुपये के क़ीमत-नाम से अभिव्यक्त होता था, वह अब 2 रुपये के क़ीमत-नाम से अभिव्यक्त होगा। लेकिन इसका एक फर्क और पड़ता है। यदि अपरिवर्तनीय काग़ज़ी नोट आवश्यकता से ज़्यादा मात्रा में जारी होते हैं और उनका अवमूल्यन होता है, यानी मुद्रास्फीति होती है, तो मज़दूरी या वेतन पाने वाले वर्ग की वास्तविक आय घट जाती है। पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के संघर्ष द्वारा मज़दूरी बढ़ाये जाने के जवाब में कई बार तयशुदा मुद्रास्फीति का रास्ता अपनाता है, ताकि मज़दूरों की नॉमिनल यानी नाममात्र की मज़दूरी तो उतनी ही रहे, लेकिन वास्तविक मज़दूरी घट जाये और उनका मुनाफ़ा बढ़ जाये।

यह ध्यान रहना चाहिए कि यह अपरिवर्तनीय‘ (inconvertible) शब्द थोड़ा भ्रामक है। किसी भी माल उत्पादक व्यवस्था में मुद्रा हमेशा मालों में परिवर्तनीय होती है। बस अपरिवर्तनीय काग़ज़ी नोट का विनिमय सरकारी बैंक की खिड़की पर सोने के साथ नहीं होता है। कोई इस काग़ज़ी नोट के साथ बाज़ार में अवश्य सोना ख़रीद ही सकता है।

अगले अध्याय में हम देखेंगे कि जब स्वर्ण-समर्थित काग़ज़ी नोट की जगह 1970 के दशक से सोने या किसी मुद्रा-माल द्वारा असमर्थित काग़ज़ी नोट (fiat currency not backed by any commodity-money) अस्तित्व में आयी, तो भी मार्क्स के मुद्रा के सिद्धान्त द्वारा ही उसे समझा जा सकता है, न कि मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त द्वारा, जिसके अनुसार सरकार मनचाही मात्रा में मुद्रा जारी कर मुद्रा के मूल्य और क़ीमतों के औसत स्तर को तय कर देती है। हम देखेंगे कि मौजूदा काग़ज़ी मुद्रा सोने द्वारा समर्थित नहीं है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह किसी कारक द्वारा समर्थित नहीं है। अभी भी उसका मूल्य, मूल्य के श्रम सिद्धान्त द्वारा पेश नियमों द्वारा ही निर्धारित होता है, लेकिन किसी एक मुद्रा-माल (मसलन, सोना या चाँदी) द्वारा नहीं। यह कैसे होता है, यह हम अगले अध्याय में देखेंगे। अभी हम जारी चर्चा पर आगे बढ़ते हैं।

मूल्य के इन प्रतीकों, जैसे कि अन्य धातुओं के सिक्कों व काग़ज़ी नोटों, के साथ यही होता है कि मुद्रा का भौतिक-धात्विक अस्तित्व उसके प्रकार्यात्मक-प्रतीकात्मक अस्तित्व द्वारा निगल या सोख लिया जाता है। अब भी सोना मूल्य की माप व क़ीमत का मानक है, लेकिन अब वह भौतिक तौर पर संचरण का माध्यम नहीं रह जाता है।

मुद्रा के कुछ अन्य प्रकार्य

मार्क्स बताते हैं कि मुद्रा वह माल है जिसका विनिमय किसी भी अन्य माल के साथ किया जा सकता है, यानी वह निरपेक्ष रूप से विनिमेय (absolutely alienable) है। वजह यह कि यह मूल्य का साक्षात अवतरण (incarnation of value) है, अवतीर्ण मूल्य (value embodied) है, मूल्य का स्वतंत्र-रूप है। इसलिए एक माल उत्पादक समाज में यह समृद्धि का प्रमुख रूप भी बन जाती है। चूँकि यह समृद्धि का प्रमुख रूप बन जाती है इसलिए हर कोई मुद्रा को जमा करना चाहता है, उसका ढेर एकत्र करना चाहता है। मुद्रा को जमा करना (hoarding of money) का अर्थ एक माल उत्पादक समाज में यह है कि माल का पहला रूपान्तरण यानी ‘माल — मुद्रा’ तो किया गया लेकिन दूसरा रूपान्तरण यानी ‘मुद्रा — माल’ पूरा करने की बजाय मुद्रा को जमा कर लिया गया। इस प्रवृत्ति के कारण माल उत्पादक समाज में तमाम उत्पादक अपने उपभोग को कम-से-कम करने का प्रयास करते हैं, अधिक से अधिक घण्टों तक काम करते हैं और इसके बूते कुछ बचत करने का प्रयास करते हैं। ज़ाहिर है, इनमें कुछ ही अपवाद होते हैं जो इस तरीक़े से पूँजीपति में तब्दील हो पाते हैं। पूँजीपति वर्ग के पैदा होने के प्रमुख स्रोत दूसरे होते हैं।

जमाख़ोरी के माध्यम के अलावा मुद्रा एक दूसरी प्रमुख भूमिका भी निभाती है : भुगतान का ज़रिया। जैसे-जैसे माल उत्पादक समाज में विनिमय के नेटवर्क सघन होते जाते हैं, वैसे-वैसे समान पक्षों के बीच बार-बार विनिमय दुहराया जाने लगता है। जब ऐसा होता है तो वे मुद्रा का इस्तेमाल भुगतान के माध्यम के रूप में करने लगते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि दोनों पक्ष जो बार-बार विनिमय करते हैं, वे सालभर मालों का विनिमय बिना मुद्रा के उपयोग के करते हैं, हालाँकि वे इन मालों के मूल्य का मापन मुद्रा में ही करते हैं, और साल के अन्त में बचने वाली राशि का भुगतान मुद्रा में किया जाता है। मसलन, मान लें, कि एक माल उत्पादक किसान और खेती उपकरण बनाने वाले कारीगर के बीच सालभर कृषि उत्पादों और कृषि उपकरणों का विनिमय होता है; साल के अन्त में, कृषि उत्पादों और कृषि उपकरणों के कुल मूल्य की आपस में तुलना के आधार पर यदि किसान ने कारीगर को रु. 100 का माल ज़्यादा दिया है तो कारीगर साल के अन्त में उसे रु. 100 का भुगतान करके विनिमय के असन्तुलन को समाप्त करता है। ऐसा ही तब भी हो सकता है जब दो मालों की उत्पादन अवधि भिन्न हो और उन्हें पैदा करने वाले माल उत्पादकों के बीच नियमित तौर पर विनिमय होता हो। ऐसे में, कम अवधि में पैदा होने वाले माल को उसका माल उत्पादक दूसरे माल उत्पादक को देता रहता है, जो कि खाते में दर्ज होता रहता है; बाद में, अधिक अवधि में पैदा होने वाले माल का माल उत्पादक पहले माल उत्पादक को अपना माल देता है और खाते में उस पर चढ़ी देनदारी को उतारता है। जैसे ही मुद्रा का भुगतान के माध्यम के तौर पर इस्तेमाल शुरू होता है, वैसे ही गणना की मुद्रा (money of account) के तौर पर भी मुद्रा का प्रयोग होता है। ज़ाहिर है, ऐसा होने के साथ एक माल उत्पादक और विशेषकर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अलग प्रकार के जोखिम भी पैदा होते हैं। मसलन, जिस समय किसी पक्ष की देनदारी का भुगतान होना तय है, यदि उसी समय कोई औद्योगिक व वाणिज्यिक संकट पैदा होता है, जो कि अपने साथ हमेशा ही मौद्रिक संकट भी लेकर आता है, तो यह दूसरे पक्ष के लिए ख़तरे की घण्टी होता है। मार्क्स लिखते हैं :

“भुगतान के ज़रिये के रूप में मुद्रा के प्रकार्य में एक अन्तरविरोध अन्तर्निहित है। जब भुगतान एक-दूसरे को सन्तुलित करते हैं, तो मुद्रा केवल एक गणना की मुद्रा (money of account) के रूप में, एक मूल्य के मापन के ज़रिये के रूप में काम करती है। लेकिन जब वास्तविक भुगतान किये जाने होते हैं तो मुद्रा मंच पर संचरण के एक माध्यम के रूप में, यानी, सामाजिक मेटाबॉलिज़्म में एक मध्यस्थ के संक्रमणशील रूप में, प्रकट नहीं होती है, बल्कि सामाजिक श्रम के वैयक्तिक अवतरण के रूप में प्रकट होती है, यानी विनिमय-मूल्य के स्वतंत्र अस्तित्व, सार्वभौमिक माल के रूप में प्रकट होती है। यह अन्तरविरोध औद्योगिक व वाणिज्यिक संकट के उस पहलू में फट पड़ता दिखायी देता है, जिसे हम मौद्रिक संकट के नाम से जानते हैं। ऐसा संकट केवल वहाँ प्रकट होता है जहाँ जारी भुगतानों की एक पूरी श्रृंखला पूर्णत: विकसित हो चुकी है और साथ ही उनके निपटारे की एक कृत्रिम व्यवस्था भी विकसित हो चुकी है।” (कार्ल मार्क्स, वही, पृ. 235-36)

मार्क्स यहाँ बता रहे हैं कि जिस साख के आधार पर तमाम माल उत्पादक आपस में मालों का विनिमय कर रहे होते हैं और भरोसे के साथ एक अवधि के बार व्यापार के नफ़े या घाटे का मुद्रा के ज़रिये भुगतान करके सन्तुलन कर रहे होते हैं, संकटकाल में वह भरोसा, वह साख चकनाचूर हो जाती है और हर कोई तत्काल अपनी लेनदारी को मुद्रा के रूप में वास्तवीकृत कर लेना चाहता है, लेकिन संकट के काल में सबकी ही लेनदारियाँ आपस में फँसी हुई और अन्तर्गुंथित होती हैं। नतीजतन, यह उधार व्यवस्था (credit system) अचानक मौद्रिक व्यवस्था (monetary system) में तब्दील हो जाती है और नकदी के रूप में अपना नफ़ा-नुकसान निर्धारित करने के लिए सारे पूँजीपतियों/माल उत्पादकों में भगदड़ मच जाती है। ऐसे दौर में मालों का महत्व धूमिल हो जाता है और माल उत्पादकों के लिए जिस चीज़ के मायने रह जाते हैं वह है स्वतंत्र मूल्य-रूप यानी मुद्रा। मार्क्स बताते हैं:

“ऋण व्यवस्था का यह अचानक मौद्रिक व्यवस्था में तब्दील हो जाना पहले से वास्तव में मौजूद भय के माहौल में सैद्धान्तिक अचम्भे की भावना भी जोड़ देता है, और संचरण की प्रक्रिया के अभिकर्ता अपने ही सम्बन्धों के इर्द-गिर्द मौजूद अभेद्य रहस्य के पर्दे से मानो आतंकित से हो जाते हैं।” (कार्ल मार्क्स, 1977, कॉण्ट्रीब्यूशन टू दि क्रिटीक ऑफ़ पोलिटिकल इकॉनमी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 146)

बहरहाल, जैसे-जैसे भुगतान के माध्यम के रूप में और गणना की मुद्रा के तौर पर मुद्रा का प्रयोग होता है, वैसे-वैसे मुद्रा का वेग और भी अधिक बढ़ जाता है क्योंकि मुद्रा के भौतिक तौर पर उपयोग के बिना यानी संचरण के भौतिक माध्यम के रूप में मुद्रा के इस्तेमाल के बिना मालों की अच्छी-ख़ासी मात्रा का विनिमय हो जाता है। इसी प्रक्रिया में एक क्रेडिट या ऋण तंत्र का विकास भी होता है। क्रेडिट-मुद्रा का उद्भव वास्तव में प्रत्यक्ष तौर पर मुद्रा के भुगतान के ज़रिये के तौर पर इस्तेमाल से ही होता है और साथ ही जैसे-जैसे इस क्रेडिट-मुद्रा का विकास होता है, वैसे-वैसे मुद्रा का भुगतान के ज़रिये के तौर पर उपयोग और भी बढ़ता है। मार्क्स लिखते हैं :

“क्रेडिट-मुद्रा (ऋण- या उधार-मुद्रा) भुगतान के ज़रिये के रूप में मुद्रा के इस्तेमाल से पैदा होती है, जैसे कि उन उधार-प्रमाणपत्रों में जो कि पहले ही ख़रीदे गये मालों के लिए दिये गये हैं, और ये उधार-प्रमाणपत्र ही अपने उधार को दूसरों पर स्थानान्तरित करने हेतु संचरित होने लगते हैं। दूसरी ओर, भुगतान के ज़रिये के रूप में मुद्रा का प्रकार्य भी उसी अनुपात में विस्तारित होता है जिस अनुपात में क्रेडिट-मुद्रा विस्तारित होती है। भुगतान के ज़रिये के तौर पर प्रयोग होने वाली मुद्रा अपने अस्तित्व के विशिष्ट रूपों को ग्रहण करती जाती है, जिसमें कि यह बड़े पैमाने के वाणिज्यिक लेन-देन के क्षेत्र में मौजूद रहती है। दूसरी ओर, सोने और चाँदी के सिक्के अधिकांशत: खुदरा व्यापार के क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं।” (कार्ल मार्क्स, 1982, पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन संस्करण, पृ. 238)

यानी, जैसे-जैसे भुगतान के ज़रिये के तौर पर मुद्रा का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे लेनदारियों व देनदारियों के प्रमाण-पत्र संचरित होने लगते हैं और भुगतान लेने या देने का ज़रिया बन जाते हैं। यह क्रेडिट-मुद्रा का ही एक उदाहरण है। इसके बहुविध रूप पूँजीवादी माल उत्पादन के विकसित होने के साथ पैदा होते हैं। बॉण्ड, शेयर, स्टॉक आदि भी क्रेडिट-मुद्रा का ही एक रूप हैं।

मुद्रा का अन्तिम प्रकार्य जिसकी मार्क्स बात करते हैं, वह है सार्वभौमिक मुद्रा, यानी मुद्रा का वह रूप जिसमें वह किसी एक अर्थव्यवस्था के भीतर होने वाले माल संचरण में नहीं बल्कि विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के बीच, यानी अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में होने वाले माल संचरण में अपनी भूमिका निभाती है। मार्क्स बताते हैं कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में मुद्रा अपनी तमाम क़ौमी वर्दियों को उतार फेंकती है और अपने असली मूल रूप में, यानी सोने/चाँदी के रूप में सामने आती है। यहाँ स्वर्ण मुद्रा का प्रयोग व्यापार सन्तुलन के निपटारे हेतु भुगतान के माध्यम, मालों की ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए प्रत्यक्ष तौर पर संचरण के माध्यम के तौर पर, और समृद्धि के सार्वभौमिक रूप के तौर पर इस्तेमाल होती है। निश्चित तौर पर, बीसवीं सदी की शुरुआत में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में सोने का स्थान कुछ अग्रणी देशों, विशेषकर अमेरिका और ब्रिटेन की मुद्राओं और बाद में, यानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, सिर्फ अमेरिका की मुद्रा डॉलर ने ले लिया था। लेकिन ठीक इसलिए क्योंकि अमेरिका की मुद्रा स्वर्ण-समर्थित थी, जबकि अन्य देशों की मुद्रा डॉलर-समर्थित थी, यानी उनकी डॉलर के साथ एक तय विनिमय दर थी, जबकि स्वयं डॉलर की सोने के साथ एक तय विनिमय दर थी। यह विनिमय दर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 35 डॉलर = 1 आउंस (लगभग 28 ग्राम) सोना था। ये मुद्राएँ अलग-अलग समय पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा के तौर पर ठीक इसीलिए स्वीकारी गयी थीं, क्योंकि वे सोने में परिवर्तनीय थीं, उसके द्वारा समर्थित थीं और सोने का ही प्रतीक थीं। 1970 के दशक में डॉलर-स्वर्ण मानक के भंग होने के बाद तैरती मुद्राओं (floating currencies) और तैरते विनिमय दर (floating exchange rate) वाली जो मौद्रिक व्यवस्था पैदा हुई है, वह बेशक स्वर्ण-समर्थित नहीं है, लेकिन अभी भी सभी मुद्राओं का मूल्य, मूल्य के श्रम नियम से ही निर्धारित होता है और इसे मार्क्स के मुद्रा सिद्धान्त के ज़रिये ही उपयुक्त तरीके़ से और वैज्ञानिक तरीके़ से समझा जा सकता है। अगले अध्याय में हम इसी पर ध्यान केन्द्रित करेंगे और देखेंगे कि स्वर्ण द्वारा असमर्थित, अपरिवर्तनीय काग़ज़ी मुद्रा, जो कि तरल विनिमय दर से निर्धारित है, किस प्रकार मार्क्स द्वारा खोजे गये आम नियम, मूलत: मूल्य के श्रम सिद्धान्त का ही पालन करती है, न कि उसका खण्डन करती है।

(अगले अंक में जारी

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2023


 

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