मलियाना हत्याकाण्ड के सभी अभियुक्त बरी
इस देश के इंसाफ़पसन्द लोग ऐसे झूठे फ़ैसलों को कभी स्वीकार नहीं करेंगे!

सत्यम

1947 के बाद से देश में हज़ारों साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें हज़ारों लोग मारे गये हैं और लाखों परिवार तबाह हुए हैं। दंगों में हुए जानोमाल के नुक्सान के ज़ख़्म तो वक़्त के साथ भरने भी लगते हैं, लेकिन इंसाफ़ न मिलने और हत्यारों व बर्बर अपराधियों को बार-बार बचा लिये जाने के ज़ख़्म कभी नहीं भरते हैं।
वैसे तो अधिकांश दंगों में पुलिस-पीएसी और प्रशासन की भूमिका सन्दिग्ध रही है या खुल्लमखुल्ला बहुसंख्यक दंगाइयों के पक्ष में रही है, लेकिन कुछ ऐसी शर्मनाक घटनाएँ रही हैं जो “दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र” होने का दम भरने वाले इस देश की शासन व्यवस्था पर हमेशा एक भद्दे कलंक की तरह बनी रहेंगी। इनमें से एक है मलियाना की घटना जिसका एक और शर्मनाक अध्याय हाल में लिखा गया है।
पिछले तीन दशकों के दौरान चले “न्याय के नाटक” के दौरान 800 से भी ज़्यादा सुनवाइयों के बाद मेरठ के ज़िला न्यायालय ने इस सामूहिक हत्याकाण्ड के सभी 40 अभियुक्तों को “अपर्याप्त सबूतों के अभाव में” बरी कर दिया। मलियाना मामले में मूल रूप से 93 अभियुक्त शामिल थे। बाद के 36 वर्षों में कई अभियुक्तों की मृत्यु हो गई, जबकि कई अन्य का “पता नहीं लगाया जा सका” और अब इन बचे हुए 40 को भी छोड़ दिया गया है। फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है कि मलियाना के 72 मुसलमानों को “किसी ने भी नहीं मारा!”
हालाँकि, न्याय के नाम पर इस अश्लील मज़ाक की शुरुआत तो 36 साल पहले फ़र्ज़ी एफ़आईआर लिखे जाने के साथ ही हो गयी थी!
1987 के मेरठ के दंगे, मलियाना और हाशिमपुरा के हत्याकाण्ड
मलियाना का नरसंहार मई 1987 में हुआ था। 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाये जाने से उपजे साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हिंसक टकराव हुआ था जिसके बाद राज्य सरकार ने प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) की 11 कंपनियों को शांति बनाए रखने में मदद करने के लिए भेजा। लेकिन पीएसी ने शान्ति क़ायम करने के नाम पर ज़िले में जगह-जगह मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिये। स्थानीय मीडिया की रिपोर्टों और बाद में राष्ट्रीय मीडिया के साथ-साथ कई गैर-सरकारी संगठनों और जाँच दलों की रिपोर्टों ने इसकी पुष्टि की है।
22 मई को मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले में पीएसी पहुँची और बड़ी संख्या में लोगों को ट्रकों में भरकर ले गयी और घरों और दुकानों में लूटपाट करके आग लगा दी। उठाये गये कुछ लोगों को मेरठ और फ़तेहगढ़ की जेलों में भेज दिया गया, लेकिन 42 मुसलमानों को गाज़ियाबाद के मुरादनगर में ऊपरी गंगा नहर और उत्तर प्रदेश-दिल्ली सीमा के पास हिंडन नदी के पास ले जाकर गोली मार दी गयी और उनके शवों को पानी में फेंक दिया गया। इस बीच मेरठ और फ़तेहगढ़ जेल में बन्द 11 लोगों की पिटाई से हिरासत में मौत हो गयी।
अगले दिन पीएसी पास के मलियाना में पहुँची। कई चश्मदीद गवाहों ने कहा है कि 44वीं बटालियन के कमाण्डेण्ट आर.डी. त्रिपाठी समेत वरिष्ठ अधिकारियों के नेतृत्व में पीएसी ने 23 मई, 1987 को दिन के लगभग 2.30 बजे मलियाना में प्रवेश किया और 72 मुसलमानों को मार डाला। पीएसी की टुकड़ी के साथ बंदूकों और तलवारों से लैस सैकड़ों स्थानीय लोग भी थे। क़त्लेआम मचाने से पहले इलाक़े में आने-जाने के सभी पाँच रास्तों को बन्द कर दिया गया था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, “हर तरफ़ से मौत बरस रही थी। हत्यारों ने बच्चों और महिलाओं सहित किसी को भी नहीं बख्शा।”
जब ख़ुद पुलिस इस बर्बरता में शामिल थी तो एफ़आईआर लिखे जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। कई दिन बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह मलियाना के दौरे पर गये और राजीव गांधी ने जाँच-पड़ताल तथा रिपोर्टों के बारे में पूछा तो पुलिस ने एक स्थानीय नागरिक याक़ूब अली से जबरन एक काग़ज़ पर दस्तख़त करवा लिये। पीएसी के हमले में ख़ुद बुरी तरह घायल हुए याक़ूब को बाद में पता चला कि जिस काग़ज़ पर उसने दस्तख़त किये वह एफ़आईआर थी। इस एफ़आईआर में 93 लोगों को हत्याकाण्ड का अभियुक्त बनाया गया था जिनमें से कोई भी पुलिसकर्मी नहीं था। ऐसा लगता है कि इलाक़े की वोटर लिस्ट से 93 लोगों के नाम लेकर डाल दिये गये थे। कुछ अभियुक्तों ने तो वाक़ई इस हत्याकाण्ड में हिस्सा लिया था लेकिन कई ऐसे भी थे जिनका इससे कोई वास्ता नहीं था। जब पुलिस ने गिरफ़्तारियों के लिए इन लोगों को ढूँढना शुरू किया तो पता चला कि कइयों की तो 23 मई 1987 से पहले ही मौत हो चुकी थी। कुछ लोग मुक़दमे के दौरान मर गये और कुछ आज तक पुलिस के लिए “लापता” हैं।
जिस ढंग से यह मुक़दमा चल रहा था और जिस ढर्रे पर ऐसे तमाम हत्याकाण्डों के मुक़दमे चलते रहे हैं, उसमें देरसबेर सब बरी हो जाते तो कोई हैरानी नहीं होती। लेकिन इस वक़्त आनन-फ़ानन में लाया गया यह फ़ैसला आरएसएस और भाजपा सरकार के दबाव में हुआ है, यह सन्देह करने के पर्याप्त आधार हैं। यह उसी सिलसिले की एक और कड़ी है जिसके तहत गुजरात में बिलकिस बानो बलात्कार और हत्याकाण्ड के अभियुक्तों को बरी किया गया और देशभर में मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपराधों में लिप्त लोगों को छोड़ा और बचाया जा रहा है। इस सबके ज़रिए भाजपा अपने समर्थकों को क्या संकेत दे रही है समझना क़तई मुश्किल नहीं है।
मलियाना का मुक़दमा 36 साल से घिसट-घिसटकर चल रहा था लेकिन अभी जब अचानक यह फ़ैसला सुनाया गया तब तक कानूनी कार्रवाई ही पूरी नहीं हुई थी। 36 पोस्टमार्टमों पर सुनवाई नहीं हुई थी और दण्ड विधान की धारा 313 के तहत अभियुक्तों से जिरह भी नहीं हुई थी। यहाँ तक कि गवाहों से पूछताछ भी पूरी नहीं की गयी थी। 10 से भी कम चश्मदीद गवाहों को अदालत में पेश किया गया था जबकि कुल 35 गवाह मौजूद थे। सरकारी वकील के मुताबिक़ सबको बरी किये जाने का आधार यह था कि पुलिस ने अभियुक्तों की पहचान परेड तक नहीं करायी थी, वोटर लिस्ट से मनमाने ढंग से 93 नाम एफ़आईआर में डाल दिये थे और घटनास्थल से कोई हथियार भी बरामद नहीं हुआ था।
पूरे मामले पर शुरू से ही लीपा-पोती की जाती रही। हत्याकाण्ड के कुछ दिन बाद मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने 10 लोगों के मारे जाने की घोषणा की। अगले दिन ज़िला मजिस्ट्रेट ने दावा किया कि 12 लोग मारे गये हैं। फिर जून 1987 के पहले सप्ताह में एक कुएँ से कई शव बरामद होने के बाद ज़िलाधिकारी ने स्वीकार किया कि 15 लोग मरे हैं। कुछ दिन बाद राज्य सरकार ने कुल मिलाकर मलियाना में 56 लोगों के मारे जाने को स्वीकार किया और मृतकों के परिवारों को मुआवज़े के नाम पर 20-20 हज़ार रुपये की मामूली रकम थमा दी गयी। कई साल बाद उनके ज़ख़्मो पर नमक छिड़कते हुए और 20-20 हज़ार रुपये दिये गये। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बैठायी गयी न्यायिक जाँच के बाद पीएसी के कमाण्डेण्ट आर.डी. त्रिपाठी को निलम्बित करने की घोषणा की गयी। इस अफ़सर 1982 के मेरठ दंगों में भी गम्भीर आरोप लगे थे। मलियाना हत्याकाण्ड में आपराधिक लिप्तता के तमाम साक्ष्यों और सरकारी घोषणा के बावजूद त्रिपाठी को वास्तव में कभी निलम्बित नहीं किया गया। उल्टा उनसे रिटायरमेण्ट के समय तक पदोन्नतियाँ मिलती रहीं।
मलियाना में पीएसी की तैनाती लगातार बनी रही जिसकी वजह से गवाहों के बयान लेने में बाधा आती रही। जनवरी 1988 में श्रीवास्तव आयोग के आदेश पर पीएसी को हटाये जाने के बाद आयोग ने 84 गवाहों के बयान दर्ज किये जिनमें 70 मुस्लिम और 14 हिन्दू थे। इसके अलावा प्रशासन के 5 लोगों के भी बयान लिये गये। आयोग की कार्रवाई महज़ खानापूरी ई थी और आख़िरकार जुलाई 1989 में जब उसने अपनी रिपोर्ट दाखिल की तो उसे कभी सार्वजनिक ही नहीं किया गया। जिस दौरान श्रीवास्तव आयोग मलियाना मामले की जाँच कर रहा था, उसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने 18 से 23 मई के बीच मेरठ में हुए दंगों की प्रशासकीय जाँच का भी आदेश दिया लेकिन इसमें मलियाना की घटनाओं और मेरठ तथा फ़तेहगढ़ जेल में हिरासत में हुई मौतें शामिल नहीं थीं। इसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की गयी लेकिन ‘द टेलीग्राफ़’ अख़बार ने नवम्बर 1987 में इसे पूरा छाप दिया। इसमें भी 23 मई की घटनाओं की कोई चर्चा नहीं थी।
अप्रैल 2021 में वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली और पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके 23 मई 1987 की घटनाओं के लिए विशेष जाँच टीम गठित करने और निष्पक्ष तथा त्वरित सुनवाई कराये जाने की अपील की। इस याचिका के अनुसार एफ़आईआर सहित मुकदमे के कई ख़ास दस्तावेज़ रहस्यमय ढंग से ग़ायब हो चुके हैं और पुलिस तथा पीएसी के लोग पीड़ितों और गवाहों को बार-बार धमकाते रहे हैं। हाशिमपुरा हत्याकाण्ड के मुक़दमे में 2018 में आये फ़ैसले में 16 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया गया था और उसमें मारे गये 42 मुसलमानों के परिवारों को 20-20 लाख रुपये मुआवज़ा मिला था। लेकिन मलियाना के हत्याकाण्ड में तो पुलिस का नाम भी नहीं आया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को जवाबी हलफ़नामा दायर करने का आदेश दिया था। हालाँकि जनहित याचिका अभी भी हाई कोर्ट में लम्बित है लेकिन अब मेरठ की अदालत द्वारा सभी अभियुक्तों को बरी किये जाने के बाद पूरी सम्भावना है कि राज्य सरकार उच्च न्यायालय से यह मामला बन्द करने के लिए कहेगी।
अदालतों और जाँच आयोगों की रिपोर्टों में दफ़ना दिये गये अनेक मामलों की तरह यह मामला भी भले ही बन्द कर दिया जाये, मगर मलियाना के लोग और इस देश के इंसाफ़पसन्द लोग कभी भी ऐसे झूठे फ़ैसलों को स्वीकार नहीं करेंगे। मलियाना का मामला एक बार फिर हमें याद दिलाता है किसी भी रंग के झण्डे वाली चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ न तो साम्प्रदायिक दंगों को रोक सकती हैं और न ही उन्हें सज़ा दिला सकती हैं। मेहनतकशों के नेतृत्व वाली क्रान्तिकारी पार्टी की अगुवाई में कड़ा किया गया जनता का आन्दोलन ही इसके लिए दबाव बना सकता है और सच्चे सेक्युलर आधार पर समाज के नवनिर्माण का रास्ता खोल सकता है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2023


 

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