मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है?
क्रान्तिकारी सर्वहारा को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (तीसरी क़िस्त)

शिवानी

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‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले दो अंकों में हमने अर्थवाद की प्रवृत्ति से जुड़े कई पहलुओं पर चर्चा की। किस प्रकार यह प्रवृत्ति मज़दूर आन्दोलन के लिए हानिकारक है, आन्दोलन को भीतर से दीमक की तरह खा जाती है और वास्तव में बुर्जुआ विचारधारा की नुमाइन्दगी करती है, इस पर भी हमने विस्तारपूर्वक कुछ ज़रूरी बातें रखीं। हमने यह भी देखा कि मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने अर्थवाद की बुर्जुआ विचारधारा के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष चलाकर मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी दर्शन को समृद्ध किया और क्रान्तिकारी आन्दोलन में व्यवहार के पथ को अवलोकित किया। राजनीति और सचेतनता के तत्व को नकारने या कम करके आँकने वालों, जिनमें कि अर्थवादी प्रमुख थे, के विषय में लेनिन का स्पष्ट मत था कि ऐसे तमाम लोग मज़दूर आन्दोलन के भीतर दरअसल बुर्जुआ विचारधारा के पक्ष को ही मज़बूत कर रहे होते हैं। इस विषय पर भी हमने पिछले अंक में उद्धरणों के साथ लेनिन के विचार प्रस्तुत किये थे।

क्या करें?’ में लेनिन स्वतःस्फूर्तता के पूजकों की आलोचना के बाद ट्रेडयूनियन चेतना/राजनीति और सामाजिकजनवादी/कम्युनिस्ट चेतना/राजनीति के बीच के फ़र्क को रेखांकित करते हैं जो दरअसल अर्थवाद और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के बीच के अन्तर को ही दिखलाता है। यह फ़र्क समझना हम सभी के लिए आवश्यक है ताकि आन्दोलन के भीतर मौजूद हर प्रकार की वैचारिक धुन्ध को साफ़ किया जा सके। यह ट्रेड-यूनियन के विशिष्ट कार्यभारों और पार्टी की विशिष्ट भूमिका को समझने के लिए भी अनिवार्य है। अपनी कृति  ‘क्या करें?’ में लेनिन एक जगह कहते हैं कि “क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन असम्भव है”, और फिर अन्यत्र यह भी कहते हैं कि  सामाजिक-जनवादी चेतना या “वर्ग राजनीतिक चेतना” अपने आप स्वतःस्फूर्त तरीक़े से पैदा नहीं हो जाती है बल्कि मज़दूर वर्ग के पास “बाहर से” आती है, जिसकी चर्चा हमने पिछले अंक में भी की थी। ये दोनों ही लेनिनवादी अवधारणाएँ दरअसल वर्ग और हिरावल के बीच के सम्बन्ध को ही दर्शाती हैं। देखें लेनिन क्या कहते हैं:

“सभी देशों का इतिहास यह बताता है कि मज़दूर वर्ग मात्र अपने प्रयत्नों से केवल ट्रेड-यूनियन चेतना पैदा करने में सफल होता है, यानी कि यह धारणा पैदा कर पाता है कि यूनियनों के रूप में अपना संगठन बनाना, मालिकों से लड़ना और आवश्यक श्रम-कानून बनवाने के लिए सरकार पर दबाव डालना ज़रूरी है, इत्यादि। लेकिन समाजवाद का सिद्धान्त उन दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं आर्थिक सिद्धान्तों से उत्पन्न हुआ है, जिनका सम्पत्तिवान वर्गों के शिक्षित प्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों ने प्रतिपादन किया था। आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद के संस्थापक, स्वयं मार्क्स और एंगेल्स, अपनी सामाजिक हैसियत की दृष्टि से, बुर्जुआ बुद्धिजीवी लोग थे। इसी प्रकार रूस में सामाजिक-जनवाद की सैद्धान्तिक शिक्षा का जन्म मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के स्वतःस्फूर्त विकास से बिलकुल स्वतन्त्र ढंग से हुआ है, उसका जन्म क्रान्तिकारी-समाजवादी बुद्धिजीवियों में विचारों के विकास के स्वाभाविक और अवश्यम्भावी परिणाम के रूप में हुआ।”

हालाँकि लेनिन के उपरोक्त उद्धरण का मतलब यह नहीं है कि पार्टी के बुद्धिजीवी जन संघर्षों से कटे हुए किसी टापू पर अलग-थलग रहकर क्रान्तिकारी सिद्धान्त-प्रतिपादन करते हैं! सर्वहारा चेतना राजनीतिक संघर्षों और राजनीतिक प्रचार से ही सचेतन तौर पर पार्टी द्वारा निसृत की जाती है। जनसमुदायों से सीखे बग़ैर जनसमुदायों को सिखाया भी नहीं जा सकता है। जब यह कार्य सामाजिक रूप से मज़दूर वर्ग से आने वाला कोई क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी भी करता है, तो वह मुख्यत: सामाजिक वर्ग के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक वर्ग के रूप में सर्वहारा वर्ग की भूमिका निभा रहा होता है, जो किसी स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया को नहीं प्रदर्शित करता है, बल्कि एक सचेतन राजनीतिक व विचारधारात्मक प्रक्रिया को चिन्हित करता है। मार्क्स-एंगेल्स से लेकर लेनिन तक सर्वहारा वर्ग के शिक्षक कोई ठलुआ बुद्धिजीवी नहीं थे जो जनसमुदायों के संघर्षों से कटकर सिद्धान्त बघार रहे थे, वे तमाम क्रान्तिकारी संघर्षों में प्रत्यक्ष सक्रिय भागीदार थे और यही कारण था कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता सर्वहारा वर्ग के साथ थी भले ही उनका सामाजिक वर्ग कुछ भी रहा हो।

बहरहाल, लेनिन क्या करें?’ में ही बताते हैं अर्थवादियों की स्वतःस्फूर्ततावाद के प्रति अन्धभक्ति सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के राजनीतिक कार्यभारों तथा सांगठनिक काम के क्षेत्र में विभिन्न रूपों में प्रकट हुई। लेनिन स्पष्ट करते हैं कि ऐसा नहीं है कि अर्थवादी लोग “राजनीति” को पूरी तरह से त्याग देते हैं या ख़ारिज कर देते हैं, बल्कि वे हमेशा राजनीति की सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट समझदारी से ट्रेड-यूनियनवादी समझदारी की ओर भटकते रहते हैं। लेनिन रूस के मज़दूर आन्दोलन के मार्फ़त बताते हैं कि अर्थवादियों द्वारा किस प्रकार राजनीतिक उद्वेलन की कार्यवाईयों को संकुचित करने का काम किया गया। रूसी मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष में व्यापक फैलाव और मज़बूती आर्थिक (कारख़ानों से सम्बद्ध और पेशागत) स्थितियों का भण्डाफोड़ करने वाले साहित्य की रचना के साथ आयी। लेनिन बताते हैं कि चूँकि अलग-अलग उद्योगों और अलग-अलग पेशों के मज़दूरों की कार्यस्थितियाँ, जीवनस्थितियाँ व समस्याएँ मोटे तौर पर एक समान ही थीं, इसलिए “मज़दूरों की ज़िन्दगी के बारे में सच्चाई” सभी मज़दूरों को ही आन्दोलित करती थी। इस प्रकार आर्थिक (कारखानों के हालात का) भण्डाफोड़ करने वाले पर्चे आर्थिक संघर्ष का एक बड़ा व अहम साधन थे और आज भी हैं। और लेनिन के ही शब्दों में “जब तक पूँजीवाद मौजूद है, जो मज़दूरों को अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते लड़ने के लिए मज़बूर करता है, जब तक उनका यह महत्व बना रहेगा।” लेकिन लेनिन कहते हैं यही भण्डाफोड़ की कारर्वाही समस्त मज़दूर आन्दोलन का फ़लक नहीं होती है और ऐसे सामाजिक-जनवादियों की आलोचना करते हैं जो कारखानों के हालात का भण्डाफोड़ करने के काम को संगठित करने में ही पूरी तरह डूबे हुए थे। देखें लेनिन का निम्न उद्धरण कितनी स्पष्टता और बारीक़ी से सामाजिकजनवादी राजनीति और ट्रेडयूनियनवादी राजनीति के बीच फ़र्क स्थापित करता है:

“यहाँ तक कि वे इस बात को भी भूल गए कि यह काम अभी तक ख़ुद अपने आप में, अपने सारतत्व कि दृष्टि से, सामाजिक-जनवादी काम नहीं, बल्कि ट्रेड-यूनियनवादी काम है। सच्चाई यह है कि इन भण्डाफोड़ों में महज़ किसी ख़ास पेशे के मज़दूरों तथा मालिकों के सम्बन्धों की चर्चा रहती थी और उनका केवल यह परिणाम निकलता था कि अपनी श्रम-शक्ति को बेचनेवाले अपना “माल” ज़्यादा बेहतर दामों पर बेचना और एक शुद्ध व्यापारिक सौदे को लेकर ख़रीदारों से लड़ना-झगड़ना सीखते थे। इन भण्डाफोड़ों से (यदि क्रान्तिकारियों का संगठन उनका सही उपयोग करता तो ) सामाजिक-जनवादी कार्य की शुरुआत की जा सकती थी और वे इस काम का एक अंग बन सकते थे। परन्तु उनके फलस्वरूप “शुद्ध ट्रेड-यूनियन” संघर्ष और ग़ैर सामाजिक-जनवादी मज़दूर आन्दोलन भी खड़ा हो सकता था (और स्वतःस्फूर्तता की पूजा करने की हालत में यह नतीजा निकलना लाज़िमी भी था)। सामाजिकजनवाद केवल श्रमशक्ति की बिक्री के वास्ते बेहतर दाम हासिल करने के लिए ही नहीं, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था को मिटाने के लिए मज़दूर वर्ग के संघर्ष का नेतृत्व करता है जो सम्पत्तिहीन लोगों को धनिकों के हाथ बिकने के लिए मजबूर करती है। सामाजिक-जनवाद मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व केवल मालिकों के किसी एक धड़े विशेष के सम्बन्ध के मामले में ही नहीं, बल्कि आधुनिक समाज के सभी वर्गों के साथ और एक संगठित राजनीतिक शक्ति के रूप में राज्यसत्ता के साथ उसके सम्बन्ध के मामले में भी करता है। यहाँ यह स्पष्ट है कि सामाजिकजनवादी केवल आर्थिक संघर्षों तक ही ख़ुद को सीमित नहीं रख सकते, वे तो आर्थिक भण्डाफोड़ों को संगठित करने के काम को अपनी गतिविधियों का प्रमुख अंग बनने की इजाज़त भी नहीं दे सकते। हमें मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा देने और उसकी राजनीतिक चेतना को विकसित करने के काम को बहुत सक्रिय रूप से हाथ में लेना होगा।

इसके बाद लेनिन मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक चेतना को विकसित करने के काम की अपरिहार्यता को रेखांकित करते हैं जो कि सामाजिकजनवादी राजनीति को शुद्ध ट्रेडयूनियनवादी राजनीति से अलग करता है। लेनिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि राजनीतिक शिक्षा का मतलब मज़दूरों द्वारा महज़ अपने राजनीतिक उत्पीड़न को समझना मात्र नहीं है, वैसे ही जैसे मज़दूरों के लिए यह समझना काफ़ी नहीं है कि उनके हित और मालिकों के हित में परस्पर विरोध है। ज़रूरत इस बात की है कि इस उत्पीड़न की प्रत्येक ठोस मिसाल को लेकर उद्वेलन किया जाए क्योंकि यह उत्पीड़न समाज के विभिन्न वर्गों पर असर डालता है और जीवन तथा गतिविधियों के पेशागत, नागरिक, वैयक्तिक, पारिवारिक, धार्मिक, वैज्ञानिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट होता है, इसलिए, लेनिन के अनुसार, मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को विकसित करने के लिए सर्वांगीण राजनीतिक भण्डाफोड़ संगठित करने की आवश्यकता है। लेनिन राबोचाया द्येलो के अर्थवादियों को आड़े हाथों लेते हैं जो शब्दों में तो राजनीतिक उद्वेलन और संघर्ष की अनिवार्यता पर अपनी “सहमति” जताते हैं लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा करते हैं।

लेनिन अर्थवादियों की इस समझदारी की आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं जो कहती थी कि आर्थिक संघर्ष ही जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का वह तरीक़ा है जिसका सबसे अधिक व्यापक ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। लेनिन के अनुसार यह राजनीतिक आन्दोलन को आर्थिक आन्दोलन के पीछे घिसटने की अर्थवादी नसीहत है। ज़ोर-ज़ुल्म और निरंकुशता की हर अभिव्यक्ति जनता को आन्दोलन में खींचने के लिए रत्ती भर भी कम व्यापक उपयोगयोग्य तरीक़ा नहीं है। इसपर सही अवस्थिति यह कि आर्थिक संघर्षों को भी अधिक से अधिक व्यापक आधार पर चलाना चाहिए और उनका इस्तेमाल हमेशा और शुरुआत से ही राजनीतिक उद्वेलन के लिए किया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी समझदारी दरअसल राजनीति को अर्थवादी ट्रेड-यूनियनवादी जामा पहनाने जैसा है।

अर्थवाद के प्रमुख सिद्धान्तकार और बाद में मेन्शेविकों के नेता मार्तिनोव की “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की अर्थवादी प्रस्थापना की भी लेनिन क्या करें?’ में धज्जियाँ उड़ाते हैं। लेनिन कहते हैं कि यह आडम्बरपूर्ण वाक्यांश जो सुनने में “बेहद गंभीर और क्रान्तिकारी” मालूम पड़ता है “वास्तव में सामजिक-जनवादी राजनीति को गिराकर ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति के स्तर पर ले जाने की परम्परागत कोशिश को छिपाने के लिए आड़ का ही काम करता है!” लेनिन बताते हैं कि आर्थिक संघर्ष कुछ और नहीं बल्कि अपनी श्रम-शक्ति की बिक्री में बेहतर दाम पाने के लिए, जीवन तथा कार्य की स्थितियाँ सुधारने के लिए अपने मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का सामूहिक संघर्ष होता है। यह संघर्ष आवश्यक रूप से पेशागत संघर्ष होता है क्योंकि अलग-अलग पेशों (trade) में कार्यस्थितियाँ अलग-अलग होती हैं और इसलिए इन स्थितियों को सुधारने की लड़ाई हरेक पेशे में उस पेशे के संगठनों यानी कि ट्रेड यूनियन द्वारा ही संगठित की जा सकती है। और मज़दूरों की तमाम ट्रेड यूनियनें ठीक यही करती हैं और हमेशा से यही करती आई हैं। इसलिए लेनिन कहते हैं कि मार्तिनोव का “आर्थिक संघर्ष को राजनीतिक रूप देने” का यह दावा ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे कि वह कोई बिलकुल नयी चीज़ हो जबकि इसका मतलब केवल यह है कि वैधानिक व प्रशासनिक उपायों के ज़रिये अलग-अलग पेशे के मज़दूरों द्वारा अपनी माँगों को पूरा करवाने और कार्यस्थितियों को सुधारने के लिए किया जाने वाला संघर्ष जोकि कोई नयी बात नहीं है और ट्रेड यूनियनें यही काम करती रही हैं। इस बड़बोले दावे का मतलब आर्थिक सुधारों के लिए संघर्ष के सिवा और कुछ नहीं है।

तो फिर सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट क्या करते हैं? क्या वे सुधारों के लिए नहीं लड़ते? लेनिन इसका बेहद सटीक जवाब देते हैं। लेनिन लिखते हैं:

“सुधारों के लिए लड़ना क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद की गतिविधियों में हमेशा शामिल रहा है और आज भी शामिल है। लेकिन वह “आर्थिक” उद्वेलन का इस्तेमाल सरकार के सम्मुख विभिन्न मांगों पर तरह-तरह के क़दम उठाने के लिए ही नहीं करते बल्कि यह मांग भी (और मुख्यतया यही मांग) पेश करने के लिए करता है कि सरकार निरंकुश शासन करना छोड़ दे। इसके अलावा वह इसे अपना कर्तव्य समझता है कि यह मांग केवल आर्थिक संघर्ष के आधार पर ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन की आम तौर पर सभी अभिव्यक्तियों के आधार पर भी सरकार के सामने पेश की जाए। सारांश यह कि क्रान्तिकारी सामाजिकजनवाद सुधारों के लिए संघर्ष को स्वतंत्रता और समाजवाद के क्रान्तिकारी संघर्ष के अधीन उसी तरह रखता है, जैसे कोई एक भाग अपने पूर्ण के अधीन होता है। लेकिन मार्तिनोव मंज़िलों वाले सिद्धान्त को ( यानी आर्थिक संघर्ष ही एक उच्चतर मंज़िल में राजनीतिक संघर्ष में तब्दील हो जाते हैं – लेखिका) एक नए रूप में फिर से जीवित करके राजनीतिक संघर्ष के विकास के लिए मानो एक शुद्ध आर्थिक पथ निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस समय जब क्रान्तिकारी आन्दोलन उभार पर है, सुधारों के लिए लड़ने के एक तथाकथित विशेष “कार्यभार” को सामने लाकर वह पार्टी को पीछे घसीट रहे हैं और “अर्थवादी” तथा उदारपंथी, दोनों प्रकार के अवसरवाद के हाथों खेल रहे हैं।”

यानी अर्थवादी राजनीति वास्तव में सुधारवादी राजनीति ही है। अर्थवाद जब यह कहता है कि मज़दूरों की केवल आर्थिक मसलों में ही दिलचस्पी होती है तो वह दरअसल अपनी सुधारवादी राजनीति और वैचारिकी की सीमाओं को ही उजागर कर रहा होता है। ज़ाहिरा तौर पर बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के मज़दूर केवल वेतन-भत्ते के लिए संघर्ष में ही उलझे रहेंगे। यह कार्यभार तो हिरावल और सही क्रान्तिकारी राजनीति का है कि वह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर सोचना सिखाये। यह सबसे बुनियादी लेनिनवादी शिक्षाओं में से एक है कि मज़दूर वर्ग की चेतना उस वक़्त तक सच्ची राजनीतिक चेतना नहीं बन सकती और मज़दूर वर्ग तब तक एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित और संघटित नहीं हो सकता है जब तक कि मज़दूरों को हर प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न, दमन, हिंसा और अत्याचार का जवाब देना सिखाया जाए,चाहे उसका सम्बन्ध किसी भी वर्ग से क्यों हो। और यह जवाब मज़दूर वर्ग को सामाजिक-जनवादी यानी कि कम्युनिस्ट दृष्टिकोण से देना चाहिए न कि किसी और दृष्टिकोण से। सामाजिक-जनवादी/कम्युनिस्ट राजनीति और अर्थवादी/ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति के बीच सबसे बुनियादी अन्तरों में से एक यह भी है जो लेनिन द्वारा बार-बार स्पष्ट किया गया है। इस फ़र्क को समझना हरेक मज़दूर के लिए वर्तमान दौर में भी आवश्यक है। इस अंक में हम इस चर्चा को यही विराम देते हैं। इससे आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2023


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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