मणिपुर में जारी हिंसा : भारतीय राज्यसत्ता के राष्ट्रीय दमन और हिन्दुत्व फ़ासीवाद के नफ़रती प्रयोग की परिणति

आनन्द सिंह

गत 20 अप्रैल को केन्द्रीय गृहमन्त्री अमित शाह ने घोषणा की नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री रहने के दौरान पूर्वोत्तर के राज्यों में शान्ति और समृद्धि आयी है और मोदी सरकार के प्रयासों से चौतरफा विकास हो रहा है। लेकिन 3 मई से मणिपुर में शुरू हुई भीषण हिंसा ने शाह के इस हवाई दावे की पोल खोल दी। यह लेख लिखे जाने तक इस नृजातीय हिंसा में कम से कम 98 लोगों की मौत हुई और क़रीब 310 लोग घायल हो गए। इस हिंसा के बाद 37 हज़ार से ज़्यादा लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए और वे 272 राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। ग़ौरतलब है कि इस हिंसा को शुरू हुए एक महीने से भी ज़्यादा समय बीत चुका है, लेकिन अभी भी मणिपुर में स्थिति सामान्य नहीं हुई है। अभी भी वहाँ से हिंसा और आगजनी की ख़बरें लगातार आ रही हैं। मणिपुर में जारी असामान्य स्थिति का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ अभी भी इण्टरनेट सुविधाएँ बहाल नहीं की गयी हैं। मैतेयी और कुकी समुदायों के बीच दूरी और पार्थक्य अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुँचा है और इम्फ़ाल घाटी में जो कुकी परिवार निवास करते थे वो या तो राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं या फिर वापस पहाड़ी इलाक़ों की ओर जा चुके हैं।

मणिपुर की इस भीषण नृजातीय हिंसा के कारणों को समझने के लिए हमें सतह पर दिखने वाले नृजातीय टकरावों के पीछे के उन मूलभूत कारकों को समझना होगा जिनकी वजह से मणिपुर सहित समूचे पूर्वोत्तर में तमाम नृजातीय समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ रहा है। मणिपुर भौगोलिक रूप से मोटे तौर पर दो भागों – पहाड़ी भाग और इम्फ़ाल घाटी – में बाँटा जा सकता है। पहाड़ी भाग में कुकी और नगा जैसी जनजातियों की बहुतायत है जबकि इम्फ़ाल घाटी में मैतेई नृजाति के लोग रहते हैं। घाटी और पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के बीच तनावों, टकराहटों व हिंसा का पुराना इतिहास रहा है। मणिपुर के कुल क्षेत्रफल का मात्र 11 प्रतिशत होने के बावजूद इम्फ़ाल घाटी में मणिपुर की जनसंख्या का बहुलांश निवास करता है जिनमें बड़ा हिस्सा मैतेई लोगों का है जो आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से मणिपुर की सबसे प्रभुत्वशाली नृजातीय समुदाय है। मैतेई लोगों की आबादी मणिपुर की कुल जनसंख्या का 53 प्रतिशत है जबकि ज़्यादातर पहाड़ी इलाक़ों में निवास करने वाले नगा और कुकी जनजातियों की आबादी मणिपुर की कुल आबादी का क़रीब 40 प्रतिशत है। ग़ौरतलब है कि हिंसा का तात्कालिक कारण अप्रैल माह में मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक फैसला था जिसमें राज्य सरकार को एक महीने में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी देने के लिए केन्द्र सरकार को सुझाव भेजने का आदेश दिया गया था। उसके बाद ‘ऑल ट्राइबल स्टूडेण्ट्स यूनियन ऑफ़ मणिपुर’ ने राजधानी इम्फ़ाल में एक जनजाति समर्थन मार्च निकाला था जिसके बाद से प्रदेश में हिंसा भड़क उठी।

हालाँकि मणिपुर में नृजातीय संघर्ष के तार ब्रिटिशों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के औपनिवेशिकीकरण के इतिहास से जुड़ते हैं, परन्तु अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने पूर्वोत्तर के अधिकांश हिस्सों की ही तरह जिस प्रकार से मणिपुर पर भी वहाँ के लोगों की रज़ामन्दी के बिना ज़ोर-ज़बरदस्ती और कूटनीतिक तिकड़मबाज़ी की ज़रिये क़ब्ज़ा किया उसकी वजह से वहाँ एक तरफ़ भारतीय राज्य के दमन के खिलाफ़ सशस्त्र संघर्ष उठ खड़े हुए वहीं दूसरी ओर राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले नृजातीय समूहों के बीच आपस में ज़़मीन और संसाधनों को लेकर विवाद और टकराव बढ़ते चले गए। मिसाल के लिए नगा-कुकी विवाद, नगा-ज़ोमी विवाद, मैतेयी-मुस्लिम विवाद, कुकी-मैतेयी विवाद, कुकी-कार्बी विवाद, नगा-मैतेयी विवाद आदि। भारतीय राज्यसत्ता ने भी अपने खिलाफ़ खड़े हो रहे प्रतिरोध को तोड़ने के लिए विभिन्न नृजातीय अस्मिताओं पर आधारित सैन्य गुटों के निर्माण को बढ़ावा दिया, इन नृजातीय अस्मिताओं का नेतृत्व कर रहे नेताओं को विकास के नाम पर दिये जा रहे फ़ण्ड में हिस्सेदारी सुनिश्चित कर उन्हें भ्रष्ट करने का काम किया। पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप पैदा हुए क्षेत्रीय असन्तुलन ने इन टकरावों को और तीखा करने का काम किया। ग़ौरतलब है कि मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में बसने वाली कुकी व नगा जैसी जनजातियों का मुख्य पेशा झुम खेती रहा है। परन्तु पूँजीवादी विकास की ज़रूरतों के मद्देनज़र भारतीय राज्यसत्ता और मणिपुर की राज्य सरकार मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में जनाजतियों को बेदखल करके ज़मीन, जंगलों व अन्य संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा करना चाहती है। इस साल फरवरी के महीने में मणिपुर की पहाड़ियों में स्थित कई कुकी गाँवों को अवैध बताकर सैकड़ों लोगों को बेदखल किया था जिसके बाद कुकी लोगों का ज़बर्दस्त रोष देखने में आया था और उस समय भी मणिपुर में अशान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई थी।

उपरोक्त कारकों के अलावा मणिपुर की हालिया हिंसा में एक नया कारक मणिपुर में संघ परिवार व भाजपा की बढ़ती मौजूदगी और उसके नफ़रती फ़ासिस्ट प्रयोग का रहा है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर में 2017 से ही भाजपा की सरकार है जिसका इस समय दूसरा कार्यकाल चल रहा है। पिछले छह वर्षों में संघ परिवार ने सचेतन रूप से मणिपुर में मैतेयी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और उसे हिन्दुत्ववादी भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने के तमाम प्रयास किये हैं। हाल के वर्षों में ऐसी अनेक संस्थाएँ अस्तित्व में आयी हैं जो मैतेयी लोगों के हितों की नुमाइन्दगी करने के नाम पर खुले रूप में मणिपुर की अन्य जनजातियों, जैसे कुकी और नगा के प्रति घृणा का माहौल पैदा कर रही हैं। ऐसे ही मैतेयी राष्ट्रवादी संगठन मैतेयी लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने की माँग ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं। ये संगठन मैतेयी लोगों का यह लालच दे रहे हैं कि अनसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिलने के बाद वे पहाड़ी इलाक़ों में ज़मीन ख़रीद सकेंगे जो वे फिलहाल नहीं कर सकते। वे मैतेयी लोगों में इस डर को फैला रहे हैं कि आप्रवासन की वजह से पहाड़़ों में रहने वाली जनजातियों, ख़ासकर कुकी लोगों की आबादी में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और जल्द ही मैतेयी लोग अल्पसंख्यक बन जायेंगे। मणिपुर की भाजपा सरकार भी इन मैतेयी संगठनों को खुलेआम बढ़ावा देती आयी है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर के 60 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में 40 इम्फ़ाल घाटी में स्थित हैं जहाँ मैतेयी लोगों का ही प्रभुत्व है। मणिपुर के मुख्यमन्त्री एन. बीरेन सिंह भी मैतेयी समुदाय से आते हैं और हाल की हिंसा में उन्होंने खुलकर मैतेयी लोगों का पक्ष लेते हुए कुकी लोगों के खिलाफ़ ज़हर उगला है और इस हिंसा के लिए मुख्य रूप से कुकी मिलिटेंसी को ज़िम्मेदार ठहराया है। बीरेन सिंह की सरकार ने प्रशासन व पुलिस के शीर्ष पदों पर भी मैतेयी लोगों की नियुक्ति करके पहाड़ी इलाकों में बसने वाली जनजातियों की प्रशासन में भागीदारी भी लगातार कम की है और इस वजह से मौजूदा हिंसा के दौरान भी समूचे प्रशासन का रवैया कुकी लोगों के प्रति दुर्भावना व भेदभाव वाला रहा है। यही नहीं संघ परिवार नृजातीय टकरावों को साम्प्रदायिक रंग देने की भी कोशिश लगातार करता आया है।

ग़ौरतलब है कि मैतेयी लोगों की अधिकांश आबादी हिन्दू धर्म को मानने वाली है जबकि पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले कुकी और नगा जनजातियों की अधिकांश आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है। मैतेयी और कुकी विवाद को धार्मिक व साम्प्रदायिक रंग में रंगने की ही नतीजा यह रहा कि मौजूदा हिंसा में कुकी लोगों के घरों सहित उनके चर्चों पर हमले किये गये। जवाब में कुकी समूहों ने भी मैतेयी लोगों के मन्दिरों पर हमले किये। संघ परिवार ने अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के तहत देशभर में इस पूरे प्रकरण को ईसाई बनाम हिन्दू के रूप में प्रचारित किया। 

इस पूरे प्रकरण में एक अन्तरराष्ट्रीय पहलू भी है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर की सीमा म्यांमार से लगी हुई है। म्यांमार में पिछले दो वर्षों के दौरान वहाँ के सैन्य शासकों द्वारा दमन की वजह से कई जनजातियों के लोग भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। ऐसे तमाम आप्रवासी मिज़ोरम व मणिपुर में शरण ले रहे हैं। कुकी जनजाति के लोगों को म्यांमार में चिन कहा जाता है। एक ही जनजाति होने के नाते कुकी लोगों ने हाल के वर्षों में चिन लोगों को पनाह दी है। क़ायदे से भारत सरकार व मणिपुर की राज्य सरकार को मानवीय आधार पर शरणार्थियों को शरण देने के औपचारिक इन्तज़ामात करने चाहिए थे, परन्तु इसकी बजाय मैतेयी राष्ट्रवादी संगठन इम्फ़ाल में मैतेयी लोगों के बीच यह अफ़वाह उड़ा रहे हैं कि कुकी लोगों की बढ़ती आबादी की वजह से मैतेयी लोग मणिपुर में अल्पसंख्यक बन जायेंगे और चूँकि कुकी लोग इम्फ़ाल में ज़मीन ख़रीद सकते हैं इसलिए इम्फ़ाल में उनका प्रभुत्व हो जायेगा। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि मणिपुर की सरकार इन मैतेयी संगठनों के सुर से सुर मिला रही है। हाल ही में मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने मणिुपर में भी असम की तर्ज़ पर नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स (एनआरसी) तैयार करने की बात की है ताकि चिन आप्रवासियों को अवैध करार देकर उन्हें मणिपुर से बाहर निकाला जा सके।

मैतेयी अस्मितावादी राजनीति की प्रतिक्रिया में कुकी लोगों के बीच से भी कुकी पहचान पर ज़ोर देने वाली कुकी अस्मितवादी राजनीति भी ज़ोर पकड़ रही है। कुकी नेशनल ऑर्गनाइज़ेशन जैसे कुकी अस्मितावादी संगठन मणिपुर से अलग होकर भारतीय यूनियन के भीतर कुकी लोगों का अपना राज्य कुकीलैण्ड बनाने की माँग कर रहे हैं। हाल ही में मणिपुर के कुछ कुकी विधायकों ने इस बाबत केन्द्र सरकार से अपील भी की है।

इस प्रतिस्पर्धी अस्मितावादी राजनीति ने मणिपुर के हालात बिगाड़ने में अहम भूमिका अदा की है क्योंकि इसकी वजह से मणिपुर हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहा है। परन्तु हालात को इस नाजुक मुक़ाम पर पहुँचाने के लिए सर्वोपरि तौर पर भारतीय राज्यसत्ता ज़िम्मेदार है क्योंकि उसने वर्षों से अपने ख़िलाफ़ हो रहे प्रतिरोध को तोड़ने के लिए नृजातीय अस्मितावादी संगठनों और राजनीति को बढ़ावा दिया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में बढ़ती नृजातीय हिंसा का फ़ायदा उठाकर भारतीय राज्यसत्ता को समूचे क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने व उसे जायज़ ठहराने तथा ऑर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट जैसे कुख्यात क़ानून का लागू करने में भी मदद मिलती है। इसमें ताज्जुब की बात नहीं है कि भारतीय राज्यसत्ता पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के क़ाबिज़ होने के बाद अस्मिताओं के टकराव और भी ज़्यादा हिंसक रूप में सामने आ रहे हैं। मणिपुर व पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों को भारतीय राज्यसत्ता की ‘फूट डालो व राज करो’ की इस राजनीति को समझना होगा और नृजातीय संघर्षों में उलझने के बजाय अपनी शक्ति अपने साझा उत्पीड़क व दमनकर्ता यानी भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष में लगानी होगी। तभी वे अपने राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष को भी उसके मुकाम तक ले जा सकेंगे।

मज़दूर बिगुल, जून 2023


 

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