कर्नाटक चुनावों के नतीजे, मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता, फ़ासिस्टों की बढ़ती बेचैनी, साम्प्रदायिक उन्माद व अन्धराष्ट्रवादी लहर पैदा करने की बढ़ती साज़िशें और हमारे कार्यभार

सम्पादकीय अग्रलेख

कर्नाटक चुनावों में भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया लेकिन इसके बावजूद उसे चुनावों में क़रारी हार का सामना करना पड़ा। नरेन्द्र मोदी ने सारा कामकाज छोड़कर कर्नाटक चुनावों के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया और हमेशा की तरह प्रधानमन्त्री की बजाय प्रचारमन्त्री की भूमिका निभायी। हार की आशंका होते ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने सीधे साम्प्रदायिक प्रचार और धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली वजह यह थी कि जनता महँगाई, बेरोज़गारी और कर्नाटक में भाजपा द्वारा भ्रष्टाचार की नयी मिसालों को देखकर त्रस्त थी, दूसरा, हिन्दू-मुस्लिम और मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे अब किसी नयी आबादी को भाजपा के पक्ष में नहीं जीत पा रहे थे और तीसरा, इन्हीं वजहों से लोग बदलाव चाहते थे। यह सच है कि पूँजीवादी चुनावी व्यवस्था के भीतर लोगों को किसी भी चुनावबाज़ पार्टी से किसी प्रकार के स्थायी बदलाव की उम्मीद नहीं है और यह उम्मीद जनता कई दशकों पहले ही छोड़ चुकी है। लेकिन जब वह एक पार्टी के कुशासन से तंग आती है तो उसे चुनावों में दण्डित कर अपने मन की भंड़ास निकालती है और तात्कालिक राहत की उम्मीद में किसी दूसरी पूँजीवादी चुनावी पार्टी को चुनती है। वोटिंग के पीछे स्पष्ट राजनीतिक पक्षधरता की बजाय अक्सर लेन-देन के समीकरण काम करते हैं कि कौन क्या दे रहा है, क्या वायदा कर रहा है, आदि। वजह यही है कि आम मेहनतकश लोग मौजूदा चुनावबाज़ पार्टियों में से किसी से भी किसी ढाँचागत बदलाव की उम्मीद नहीं रखते हैं। इसी सन्दर्भ में हम कांग्रेस की जीत को देख सकते हैं। राहुल गाँधी द्वारा निकाली गयी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और कांग्रेस द्वारा किया गया आक्रामक प्रचार कांग्रेस के लिए लाभदायक साबित हुआ और लोगों ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट दिया जिसके नतीजे के तौर पर कांग्रेस को भारी विजय हासिल हुई।

लेकिन यह भी सच है कि भाजपा ने मोदी और शाह के नेतृत्व में हिन्दू आबादी के एक हिस्से का जो साम्प्रदायीकरण किया है, उसके कारण भाजपा के वोट प्रतिशत में कोई ज़्यादा अन्तर नहीं आया। साम्प्रदायीकरण के असर में कोर हिन्दुत्व वोटरों ने भाजपा को ही वोट किया गया है। कांग्रेस की जीत की प्रमुख वजह थी कि जो लोग भाजपा के खिलाफ़ थे, उन्होंने ज़्यादा एकजुट होकर कांग्रेस को वोट किया और जद (सेकु.) के वोट बैंक का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा खिसक कर कांग्रेस के पक्ष में गया। आगामी विधानसभा चुनावों में अन्य राज्यों और 2024 के लोकसभा के चुनावों में भी भाजपा की पराजय असम्भव नहीं है। चुनावों में तमाम बुर्जुआ विशेषज्ञ और विश्लेषक भी बता रहे हैं कि पूँजीवादी विपक्षी पार्टियों ने अगर 2024 के लोकसभा चुनावों में 450 सीटों पर भी भाजपा के खिलाफ़ विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतार दिया तो भाजपा बहुमत के आँकड़े तक नहीं पहुँच पायेगी। यह बात मोटे तौर पर सही है। लेकिन कई क्षेत्रीय पूँजीवादी चुनावी दलों के, जो कुलकों, फार्मरों, क्षेत्रीय पूँजीपतियों, व्यापारियों आदि की नुमाइन्दगी करते हैं, जिनका बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों से आता है, नेतृत्व का निकृष्ट कोटि का अवसरवाद और महत्वाकांक्षाएँ ऐसी विपक्षी एकता के सामने बड़ा रोड़ा है। फिर भी, ऐसी विपक्षी एकता बनना असम्भव हो, ऐसा नहीं है। अगर ऐसी विपक्षी एकता या गठबन्धन अस्तित्व में आता है, तो भाजपा के लिए 2024 की डगर मुश्किल हो सकती है और वह चुनाव हार भी सकती है।

इस सम्भावना का अन्देशा होते ही संघ परिवार और भाजपा ने पूरे देश मेंलव जिहादऔर गोरक्षा के फर्जी मुद्दों को लेकर धार्मिक उन्माद पैदा करना शुरू कर दिया है। चाहे उत्तराखण्ड में ‘लव जिहाद’ की अफ़वाह के बूते दंगे जैसी स्थिति पैदा करना, मुसलमानों की दुकानें बन्द करवाना और उन्हें इलाका छोड़ने को मजबूर करना हो, महाराष्ट्र में ‘लव जिहाद’ के मसले पर उन्मादी रैलियाँ निकालना हो, या फिर उत्तर प्रदेश में केवल मुसलमान माफियाओं की कानूनेतर तरीके से “सफ़ाई” का मुख्यमन्त्री अजय बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ का अभियान हो; ये सारी तरक़ीबें मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा आक्रामक तरीके से इसीलिए अपना रही है, क्योंकि अब 2024 के चुनावों का नतीजा एक खुला प्रश्न बन रहा है। यानी, अब यह पूर्वनिश्चित परिणाम नहीं रह गया है, हालाँकि ठीक अभी की स्थिति में गणितीय तौर पर सम्भावना का आकलन करें तो मोदी का ही पलड़ा भारी है। लेकिन यह भी सच है कि हवा के रुख़ में बदलाव की एक शुरुआत हुई है। अगर क्रान्तिकारी शक्तियों ने रुख़ बदलने की इस प्रक्रिया को अपने क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के ज़रिये संवेग प्रदान किया तो रुख़ इसी दिशा में बदलना जारी रह सकता है। 

मोदी की लोकप्रियता में ढलान की ऐसी स्थिति पिछले 9 वर्षों में कभी नहीं थी। आर्थिक तकलीफ़ों से परेशान जनता का, जिसे धर्म के नाम पर और बेरोज़गारी, महँगाई से निजात दिलाने के नाम पर भरमाया गया था, भरम टूट रहा है। भाजपा के आईटी सेल के लाख प्रयासों के बावजूद सोशल मीडिया पर आम लोगों द्वारा मोदी और भाजपा के विरुद्ध डाली जाने वाली सामग्री की बाढ़ आ गयी है और सोशल मीडिया पर संघी प्रचार पर भारी पड़ रही है। यही कारण है कि मोदी सरकार अब सोशल मीडिया पर लगाम कसने के कानून ला रही है। गोदी मीडिया की मदद से मोदी सरकार द्वारा अपना महिमा-मण्डन करवाने, अपने पक्ष में झूठा प्रचार करवाने, तमाम चीज़ों का झूठा श्रेय लेने और मोदी को दुनिया का कद्दावर नेता दिखाकर झूठे गर्व की भावना भरने के प्रयास लगातार जारी हैं। लेकिन जनता के जीवन की भौतिक स्थितियाँ इतनी भयंकर हो गयी हैं कि इस फ़ासीवादी झूठे प्रचार का असर भी पहले जैसा नहीं हो रहा है। स्वयं गोदी मीडिया ही जनता के एक विचारणीय हिस्से में दलाल मीडिया के रूप में बेनक़ाब हो चुका है। एक अच्छी-ख़ासी तादाद ने तो गोदी मीडिया के चैनल देखने ही बन्द कर दिये हैं और स्वतन्त्र व जनपक्षधर पत्रकारों के यूट्यूब चैनल देखने लगे हैं। इसलिए गोदी मीडिया के कई चैनल अब बीच-बीच में कुछ परिधिगत मुद्दों पर मोदी सरकार की दिखावटी आलोचना भी करने का प्रयास करते हैं, ताकि कुछ विश्वस्नीयता अर्जित कर सकें।

इतना स्पष्ट है कि पिछले 8-10 महीनों में देश में जनता के बीच राजनीतिक मूड-मिजाज़ में एक बदलाव आने की शुरुआत हुई है। कर्नाटक चुनावों के नतीजे हमारे सामने हैं, उससे पहले हिमाचल प्रदेश के नतीजे भी हमने देखे थे, हालाँकि दोनों जगह मोदी ने चुनाव प्रचार अभियान में काफ़ी पसीना बहाया था। अब मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों के पहले के जो वोटर सर्वे आ रहे हैं और महाराष्ट्र में वोटरों के बीच जो सर्वे आ रहे हैं, उसमें भी भाजपा की हालत पतली बतायी जा रही है। इन प्रदेशों में भी भाजपा व संघ परिवार द्वारा निर्मित कट्टर साम्प्रदायिक सहमति में शामिल करीब 25 से 30 फ़ीसदी वोटरों के अलावा, भाजपा द्वारा नये वोटरों को जीतना मुश्किल है। ऐसे में, जिन राज्यों में विपक्ष का कोई बड़ा गठबन्धन है (जैसा कि महाराष्ट्र जहाँ कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना-उद्धव की महाविकास अघाड़ी) है या जिन राज्यों में कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी की मौजूदगी विपक्ष की एकमात्र प्रभावी पार्टी के तौर पर है, वहाँ भाजपा की जीत हो पाना मुश्किल है। नतीजतन, इस बात की पूरी सम्भावना है कि मध्यप्रदेश (जहाँ 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले चुनाव होंगे) और महाराष्ट्र में (जहाँ 2024 के लोकसभा चुनावों के साथ या ठीक बाद चुनाव होंगे) भाजपा सत्ता से बेदख़ल हो जाये। राजस्थान में सचिन पायलट कांग्रेस के लिए समस्या पैदा कर रहा है, लेकिन गहलोत सरकार ने चुनावों से पहले कई कल्याणकारी योजनाओं को आक्रामक तरीके से लागू किया है और सरकार के पक्ष में राय का निर्माण किया है। इसलिए वहाँ भी भाजपा की विजय सुनिश्चित नहीं है। दूसरे, भाजपा वहाँ स्वयं आन्तरिक कलह से जूझ रही है।

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ भाजपा अन्य राज्यों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है और 2024 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की अधिकांश सीटें भाजपा के खाते में ही जाने का अनुमान है। लेकिन सिर्फ उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में ज़्यादा सीटें जीतने और बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा कर्नाटक में सम्मान बचाने योग्य सीटें जीत लेने से भाजपा का पूर्ण बहुमत में आना पक्का नहीं है। हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश से भाजपा ज़्यादा उम्मीद नहीं कर सकती है। दक्षिण भारत में केवल कर्नाटक में इसे कुछ सीटें मिल सकती हैं। पश्चिम बंगाल में भी उसे बहुत ज़्यादा सीटें मिलेंगी, इसकी गुंजाइश कम है। ओडिशा में भी यही स्थिति है। इसलिए 2024 के आम चुनावों में भाजपा की विजय जो कि अभी 8-10 महीने पहले तक पक्की मानी जा रही थी, अब वह पक्की नहीं मानी जा रही है। ज़्यादा सम्भावना अभी भी यही है कि भाजपा अपने गठबन्धन के साथ 2024 में सरकार बना सकती है। लेकिन जिस गति से भाजपा और मोदी की लोकप्रियता नीचे जा रही है और जिस तरह से उसके वोट अपने कोर हिन्दुत्व वोटरों तक, यानी जिनका कट्टर और पक्के तरीके से साम्प्रदायीकरण हुआ है, सीमित हो रहा है, उसे देखते हुए अगले 8-10 महीनों में स्थिति और भी ख़राब हो सकती है, बशर्ते कि मेहनतकश वर्ग अपने असल मुद्दों पर जुझारू जनान्दोलनों को संगठित करने में कामयाब हों।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस बात को समझ रहा है कि अब 2024 में हार भी एक सम्भावना है, चाहे वह अभी क्षीण ही क्यों न हो। इसलिए उसने अपने मुखपत्र में साफ़ तौर पर भाजपा नेतृत्व को निर्देश दिया है कि वह केवल धर्म, बजरंग बली, हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद के आधार पर चुनाव नहीं जीत सकती है और उसे आर्थिक मोर्चे पर कुछ ठोस कदम तो उठाने पड़ेंगे जिससे कि लोगों को महँगाई और बेरोज़गारी से कुछ राहत मिले। लेकिन दिक्कत यह है कि यह उपाय भी पूरी तरह से भाजपा सरकार के नियंत्रण में नहीं है। पूँजीवादी आर्थिक संकट जारी है, मुनाफ़े की गिरती औसत दर से निजात पाने के लिए पूँजीपति वर्ग को औसत मज़दूरी में गिरावट की आवश्यकता है। नरेन्द्र मोदी को टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी सरीखे बड़े पूँजीपतियों ने इसीलिए तो सत्ता में पहुँचाया था कि वह मज़दूरों के बचे-खुचे श्रम अधिकारों को समाप्त करे, उनकी खुली लूट की इजाज़त दे और कुदरत की लूट की भी खुली छूट दे, निजीकरण की आँधी चला कर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को औने-पौने दामों पर निजी हाथों में सौंपे, पूँजीपतियों पर से करों का बोझ हटाकर जनता के ऊपर डाले और उनका जनता के पैसों से दिये गये कर्जों से मुक्त कर दे। पिछले 9 साल में मोदी सरकार ने ठीक यही किया है। किसी प्रकार का कल्याणवाद करने की स्थिति मोदी सरकार की है ही नहीं। उल्टे जो थोड़ा बहुत ‘वेलफेयर’ बचा था, मोदी सरकार ने उसका भी ‘फेयरवेल’ कर दिया है क्योंकि उसे पूँजीपति वर्ग ने इसी के लिए सत्ता में पहुँचाया था।

ऐसे में, भाजपा और संघ परिवार के पास दो ही औज़ार बचते हैं: साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद। इस समय भाजपा की पूरी प्रचार मशीनरी और संघ का काडर ढाँचा इन्हीं पर काम कर रहा है। जगह-जगह जनता को धर्म पर बाँटने के नये-नये तरीके निकाले जा रहे हैं। ओडिशा ट्रेन दुर्घटना के पीछे भी पहले आतंकी साज़िश होने की अफ़वाह फैलाने का प्रयास किया गया था, ताकि इसमें मोदी सरकार के कार्यकाल में रेलवे में सुरक्षा इन्तज़ामात से की गयी आपराधिक लापरवाही को छिपा कर इसका दोष भी मुसलामानों पर डाला जा सके! लेकिन यह अफ़वाह ज़ोर नहीं पकड़ पायी। कुछ घण्टों के लिए न्यूज़ चैनलों पर ऐसी सुर्खियाँ चलायीं गयीं लेकिन सत्ता के दलालों को समझ में आया कि इस प्रकार का सफ़ेद झूठ फैलाने से मोदी सरकार को फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान हो रहा है। इसके अलावा, उत्तराखण्ड से लेकर महाराष्ट्र तक और उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक संघ की प्रचार मशीनरी अफ़वाहों के ज़रिये गोमांस भक्षण से लेकर ‘लव जिहाद’ और ‘आर्थिक जिहाद’ आदि के बारे में उन्माद फैलाने की कोशिशों में लगातार लगे हुए हैं। ज़ाहिर है, गोदी मीडिया एक पालतू कुत्ते की तरह मोदी सरकार की सेवा में संलग्न है और स्वयं एक दंगाई की भूमिका निभा रहा है। दिल्ली में साक्षी नामक लड़की की एक मुसलमान युवक द्वारा हत्या को ‘लव जिहाद’ का मसला बनाने के लिए संघ परिवार ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया लेकिन ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (आर.डब्ल्यू.पी.आई.) के नेतृत्व में शाहबाद डेरी, दिल्ली की आम मेहनतकश जनता ने संघियों को खदेड़ दिया।

इसी प्रकार अन्धराष्ट्रवाद की भावना को भड़काने के लिए भी कभी पाकिस्तान तो कभी चीन का हौव्वा दिखाया जा रहा है, कभी नरेन्द्र मोदी को दुनिया का ऐसा नेता बताया जा रहा है जिसके एक फोन करने से यूक्रेन युद्ध रुक जाता है (ज़ाहिर है, यह झूठ है!) तो कभी किसी छोटे-से देश के प्रधानमन्त्री को मोदी का पाँव छूते दिखाया जाता है! इन सबके ज़रिये मोदी की यह छवि बनायी जाती है कि वह एक “मज़बूत नेता” है और देश में मोदी का कोई विकल्प नहीं है। भाजपा के पास अपनी सरकार के 9 साल के काम का कोई वास्तविक रिपोर्ट कार्ड दिखाना सम्भव ही नहीं है। ‘मोदी सरकार के 9 साल’ के नाम से चलाया गया भाजपा का प्रचार अभियान भी फ्लॉप साबित हुआ है। इसलिए अपनी पूरी ऊर्जा संघ परिवार देश के साम्प्रदायीकरण और अन्धराष्ट्रवाद फैलाने में ख़र्च कर रहा है।

ऐसे में, हमारे मुख्य कार्यभार क्या हैं जिन्हें पूरा करके हम मज़दूरों और मेहनतकशों के सबसे बड़े दुश्मन संघी फ़ासीवाद को चोट पहुँचा सकते हैं? आज मज़दूर वर्ग के हिरावल को व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों में सघन और व्यापक प्रचार के ज़रिये मोदी सरकार के 9 सालों में आम जनता पर टूटी आपदा की सच्चाई को बताना चाहिए, अभूतपूर्व बेरोज़गारी और महँगाई के पीछे मौजूद असली कारणों के बारे में, यानी पूँजीवादी व्यवस्था का संकट और मोदी सरकार द्वारा किया गया जनविरोधी कुप्रबन्धन के बारे में बताना चाहिए, मोदी सरकार और संघ परिवार द्वारा साम्प्रदायीकरण के लिए उठाये जा रहे फर्जी मुद्दों जैसे कि ‘लव जिहाद’ और गोरक्षा की नौटंकी की सच्चाई से अवगत कराना चाहिए और भाजपाइयों का चाल-चेहरा-चरित्र उजागर करते हुए बताना चाहिए कि वे किस प्रकार भ्रष्टाचार, स्त्री-विरोधी अपराधों आदि में लिप्त हैं और किस प्रकार भाजपा की केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ऐसे भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को संरक्षण दे रही है। हमें व्यापक मेहनतकश जनता को यह सच्चाई बतानी चाहिए कि मोदी सरकार के और 5 साल मज़दूरों-मेहनतकशों, ग़रीब व निचले मँझोले किसानों और निम्न मध्यवर्ग को बरबादी के रसातल में पहुँचा देगा।

मज़दूर वर्ग के हिरावल को जनता के बीच इस बात का व्यापक प्रचार करना चाहिए कि आज पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें कोई विकल्प नहीं दे सकती। कोई भी चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टी उन्हें बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई से निजात नहीं दिला सकती क्योंकि वे पूँजीपति वर्ग की प्रतिनिधि हैं, पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करती हैं और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर इन समस्याओं का स्थायी समाधान सम्भव ही नहीं है। इसलिए दूरगामी लक्ष्य है समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये देश के कल-कारखानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों पर उत्पादन करने वाले मेहनतकश वर्गों का साझा कब्ज़ा स्थापित करना और एक मज़दूर सत्ता की स्थापना करना। लेकिन इसके लिए भी आज अपने सामने खड़े मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े शत्रु यानी फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत करने की आवश्यकता है। आज ज़रूरत इस बात की है कि बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, आवास, चिकित्सा आदि बुनियादी सवालों पर एकदम ठोस माँगों के इर्द-गिर्द जनसमुदायों को गोलबन्द और संगठित किया जाय और इन प्रश्नों पर एक देशव्यापी जुझारू जनान्दोलन खड़ा किया जाय। ऐसा जुझारू जनान्दोलन ही जनता के कई हक़ों और अधिकारों को स्वीकार करने के लिए सत्ता को मजबूर कर सकता है, उसके संकट को बढ़ा सकता है और उसे एक असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचा सकता है। 2024 में कोई भी पार्टी चुनाव जीते, ऐसे जुझारू और समझौताविहीन जनान्दोलन के दबाव में उसे भी कई माँगों को स्वीकार करना पड़ सकता है। अगर वह माँगें नहीं स्वीकार करती है, तो मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था का राजनीतिक संकट और भी ज़्यादा गहरायेगा, व्यापक जनता में राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन होगा, उसका राजनीतिक संगठन और नेतृत्व मज़बूत होगा और समाज को आमूलगामी तौर पर बदलने की क्रान्तिकारी प्रक्रिया आगे विकसित होगी।

हमें यह समझना चाहिए कि 2024 में यदि भाजपा और मोदी चुनाव में हार भी जायें (जिसकी सम्भावना फिलहाल कम है), तो भी यह फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय नहीं होगी। फ़ासीवाद चुनावों में हारने से निर्णायक तौर पर पराजित नहीं होता है। केवल एक समाजवादी क्रान्ति ही उसे निर्णायक तौर पर हरा सकती है। दीर्घकालिक आर्थिक संकट और साम्राज्यवाद के मौजूदा मरणासन्न दौर में फ़ासीवाद इस सड़ते-गलते पूँजीवादी समाज की एक स्थायी परिघटना बन चुका है जो इसके साथ ही समाप्त होगा। फ़ासीवादी सत्ता का विकल्प फ़ौरी तौर पर भी किसी उदार पूँजीवादी जनवाद की स्थापना नहीं हो सकता। पूँजीवाद का वह दौर बीत गया जब आपवादिक तौर पर कुछ देशों में ऐसा सम्भव था। आज के दौर में, फ़ासीवाद को औपचारिक तौर पर बुर्जुआ जनवाद का खोल फेंकने की आवश्यकता नहीं है। फ़ासीवादी ताक़तें कई बार सत्ता में आ सकती हैं और सत्ता से जा सकतीं हैं। लेकिन हर बार फ़ासीवाद पूँजीवाद के गहराते आर्थिक और राजनीतिक संकट के कारण नयी आक्रामकता के साथ सत्ता में पहुँचता है क्योंकि कोई अन्य दक्षिणपंथी या उदार पूँजीवादी सरकार भी जनता को संकट के दौर में कुछ नहीं दे सकती और उन्हीं नवउदारवादी नीतियों को अपनी तरह से लागू करती है, जिनके नतीजे के तौर पर व्यापक मेहनतकश जनता को महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी का सामना करना पड़ता है। ऐसे में, अगर जनता के सामने कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं मौजूद होता जो उसे इन समस्याओं के असली कारण यानी पूँजीवादी व्यवस्था से अवगत करा सके, उन्हें गोलबन्द व संगठित कर सके, उन्हें एक व्यावहारिक फ़ौरी और दूरगामी राजनीतिक कार्यक्रम दे सके, तो जनता का एक विचारणीय हिस्सा फ़ासीवादी प्रचार का शिकार हो फ़ासीवादियों को सत्ता में पहुँचा सकता है, जैसा कि 2014 में हुआ था।

इसलिए आज जनता के असल मुद्दों पर जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करने के साथ हमें देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को भी खड़ा करना होगा, जो कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश करे, एक ऐसा व्यावहारिक आर्थिक कार्यक्रम पेश करे जो कि जनता की इन समस्याओं का स्थायी समाधान कर सकता हो, जो सर्वहारा वर्ग का उन्नत दस्ता हो और व्यापक मेहनतकश जनता का क्रान्तिकारी केन्द्र हो। ऐसी पार्टी वास्तव में क्रान्तिकारी जनान्दोलनों की प्रक्रिया में ही खड़ी की जा सकती है और ऐसी ही पार्टी जनता के जुझारू जनान्दोलनों में सर्वहारा लाइन के वर्चस्व को स्थापित कर सकती है, फ़ौरी और दूरगामी कार्यक्रम दे सकती है, फ़ौरी जनसंघर्षों को दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य से जोड़ सकती है। आज ये दोनों कार्यभार हमारे सबसे अहम कार्यभार हैं: पहला, फ़ासीवाद-विरोधी जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करना जो जनता के जीवन से जुड़ी ठोस माँगों के इर्द-गिर्द गोलबन्द व संगठित हों; इसी प्रक्रिया में देश में एक क्रानितकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण करना जिसके पास एक सही विचारधारात्मक समझ हो, सही राजनीतिक कार्यक्रम हो, जो क्रानितकारी जनदिशा पर अमल करती हो, लेनिनवादी उसूलों पर संगठित हो और ठीक इन्हीं वजहों से सर्वहारा वर्ग के हिरावल और व्यापक मेहनतकश जनता के क्रान्तिकारी कोर की भूमिका निभा सकती हो।

मज़दूर बिगुल, जून 2023


 

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