धागा बनाने वाली कम्पनी के मजदूर की आपबीती

धीरेन्द्र, दिल्ली

मैं एक धागा बनाने वाली कम्पनी में काम करता हूँ। इस कम्पनी में धागा की रंगाई किया जाता है। इसमें काम करने वाले मज़दूरों की जिन्दगी नर्क से भी बेकार है। इसमें कोई भी श्रम क़ानूनों का पालन नहीं होता है। न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती न फ़ण्ड बोनस-ई एस आई की सुविधा। न तो सुरक्षा का कोई सरंजाम ही रहता है। यहाँ तक कि पीने का पानी तक नहीं है। ये फैक्ट्री चारों तरफ़ से बन्द है, कहीं से हवा आने की कोई गुंजाइश नहीं है। नीचे की मंजिल में हम चार लोग काम करते हैं। दो मशीन से धागा का गोल बनती है। और उसके बाद रंगाई मशीन में गोलों को डालना होता है। इसके बाद रंग घोलकर डालने के 24 मिनट के बाद सोडा फिर 12 मिनट के बाद नमक फिर एसिड, कस्टिन साबुन और फिर निकालने के बाद वाशिंग मशीन में डालना। फिर यारीफ मशीन में लगाने के बाद फिर मशीन में गोले लोड करना। ये सब काम सिर्फ़ दो मजदूर को करना होता है जब की सात मशीनों को चलाने के लिए कम से कम पाँच लोगों का होना बहुत ही जरूरी है। पर इस काम को दो ही मजदूर करते हैं। 12 मशीनों पर बस दो पंखे हैं। इन पंखों में इतनी गर्म हवा देते कि पंखा की हवा से तो कई गुना अच्छा तो तिलमिलाती धूप में राहत मिलती है।
इस काम को करने वाले मजदूरों को अधिकतर तमाम प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। दमा और टी.बी. जैसी बीमारी अधिकतर होती है क्योंकि काम ही कुछ ऐसा है। एसीड-कास्टिक और फैक्ट्री से निकलने वाले धुआँ से और नमक सार में हाथ और पैर खराब होते हैं। सोडा नमक एसिड, और तमाम कैमिकलों का पानी हाथ पैरों में लगता रहता है। ये अकेली कम्पनी नहीं है, ऐसी लाखों कम्पनियाँ हैं। इनमें करोड़ों लोगो की जिन्दगी नर्क कुण्ड में झुलस रही है। और इससे भी भयानक स्थिति है पत्ती की कम्पनी में काम करने वाले मजदूरों को जिसकी गरमी लोहे को भी पिघला देती है। उस आग में धधकती हुई भट्ठी के सामने रहकर काम करते हैं और बहुत सारी बीमारी भी होती है। उसके बाद भी काम करते हैं। न तो कोई भी सुरक्षा ही मिलती है, न ही कोई भी सुविधा। ये मजदूर मौत के मुँह में रहकर काम करते है और आये दिन दुर्घटनाएँ भी होती हैं। कभी पत्ती लगने से तो कभी करंट लगने से। ये तो आम तौर पर होती है। ये सारी घटनाएँ सिर्फ मालिक की लापरवाही से होती है।
मज़दूर अगर एकजुट हो जायें तो मालिक पर दबाव डालकर कुछ सुविधाएँ हासिल कर सकते हैं लेकिन हम आपस में ही एक नहीं हैं। या तो छोटी-छोटी बातों पर आपस में मनमुटाव करते हैं या बस अपने में मगन रहते हैं और एका बनाने के लिए कुछ करना नहीं चाहते। इस तरह तो सबको एक दिन इसी नर्क में घुटघुटकर मर जाना होगा।
मज़दूर बिगुल अखबार एक उम्मीद लेकर आता है। इसके लेख पढ़कर मुझे भी लगता है कि हमें आवाज़ उठानी चाहिए लेकिन अकेले पड़ जाता हूँ। फिर भी मेरी कोशिश जारी है। मज़दूर एक दिन ज़रूर सुनेंगे क्योंकि ये हमारे जीने मरने का सवाल है।

मज़दूर बिगुल, मई 2023


 

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