आगामी विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में हार की आशंका से घबरायी मोदी-शाह सरकार और भाजपा देश को दंगों की आग में झोंकने की तैयारी में
नूह की घटना बस एक शुरुआत है!
मेहनतक़श दोस्तो! मज़दूर साथियो! छात्रो-नौजवानो! सावधान!

साम्प्रदायिकता, धार्मिक उन्माद और अन्धराष्ट्रवाद के फ़र्ज़ी शोर में क़तई नहीं बहना है!
बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, आवास, शिक्षा के मसले पर सभी धर्मों व समुदायों के मेहनतकश लोगों की जुझारू एकजुटता क़ायम करनी है!

सम्पादकीय अग्रलेख

क्या आपने कभी सोचा है कि जब भी भाजपा चुनावों में हार की आशंका से त्रस्त होती है, उसी समय देश में जगह-जगह दंगे और साम्प्रदायिक तनाव क्यों भड़क जाते हैं? याद करें। राम मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत और रथयात्रा की शुरुआत भी राज्यों या केन्द्र के चुनावों के ठीक पहले की गयी थी। कारगिल घुसपैठ और युद्ध भी चुनावों के ठीक पहले हुआ था। 2002 में गुजरात दंगे भी राज्य के चुनावों के ठीक पहले हुए थे। आज भी हर चुनाव के पहले धार्मिक त्योहारों को दंगे के त्योहारों में तब्दील करने के लिए आर.एस.एस. और उसकी गुण्डा-वाहिनियाँ लगी रहती हैं। इसी साल मार्च-अप्रैल में रामनवमी के मौके पर दंगे फैलाने के कारण भी लगभग एक दर्जन लोग मारे गये थे। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये मारे जाने वाले लोग कोई धन्नासेठों, मालिकों, ठेकेदारों और धनी दुकानदारों की औलादें नहीं थीं, बल्कि आपके और हमारे परिजन थे। वजह यह कि जब धर्म का उन्माद भड़काया जाता है, तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को उसमें प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि हममें से कुछ लोग “धर्म की रक्षा”, “धर्म-ध्वजा रक्षा”, “धर्म का अपमान”, “राम का अपमान” जैसी बेवकूफ़ी की बातों में बह जाते हैं।

आज के समाज में हम मज़दूरों-मेहनतक़शों को अन्याय, असमानता, अपमान का रोज़-रोज़ सामना करना पड़ता है। हमारी ज़िन्दगी दुखों-तक़लीफ़ों से भरी होती है। ऐसे में, जब हमें अपनी आँखों के सामने कोई विकल्प या समाधान नज़र नहीं आता तो हम अपनी दुख की आह-कराह को अभिव्यक्त करने धर्म की शरण में जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि “ऊपरवाला हमारा इहलोक नहीं, तो परलोक तो सुधार ही देगा!” यह हमारे पिछड़ेपन की निशानी है, यह हमारी अशिक्षा और अतार्किकता की निशानी है, यह हममें वर्ग चेतना की कमी की निशानी है कि हम अपने हालात को किस्मत का लेखा, हाथों की रेखा मान लेते हैं और ज़माने में रोज़ हमारे साथ होने वाले अन्याय को बर्दाश्त करना सीखते हैं और फिर धर्म की शरण में जाकर भजनकीर्तन करके अपने दुख की आहकराह को इस उम्मीद में निकाल देते हैं, किभगवान भला करेगा!”

यहीं से आप धार्मिक भावनाओं की जकड़बन्दी में आते हैं और आपके ही दुश्मन यानी फ़ैक्ट्री मालिक, ठेकेदार, जॉबर, भूस्वामी, धनी व्यापारी और तमाम धनपशु ज़रूरत पड़ने पर इनका इस्तेमाल करते हुए आपको धार्मिक उन्माद में बहाने का काम करते हैं। जब भी आपके अन्दर महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, अशिक्षा, बेघरी के विरुद्ध गुस्सा पनप रहा होता है, तो आपको धार्मिक उन्माद में बहाकर “धर्म रक्षा” का काम दे दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, अमीरों ने ग़रीब मज़दूरोंमेहनतकशों के लिए धर्म के अलावा कुछ नहीं छोड़ा है। इसी के नाम पर अमीरों की पार्टियाँ, आज के दौर में ख़ास तौर पर, भारतीय जनता पार्टी आप लोगों को धार्मिक उन्माद में बहाती हैं। जब दंगे होते हैं तो आपके घर जलते हैं, आपके लोग मरते हैं। जिनके साथ आप रोज़-रोज़ अपने दुख-दर्द साझा करते थे, उन्हीं का क़त्ल करते हैं या उनके हाथों क़त्ल हो जाते हैं। किसी भाजपा नेता के बच्चे बजरंग दल और विहिप में तलवार-त्रिशूल भाँजने नहीं जाते। वे सब तो विदेशों में पढ़ते हैं, अमित शाह के बेटे जय शाह के समान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष बनते हैं और करोड़ों-अरबों में खेलते हैं। लेकिन हमें दंगों में क़त्लो-गारत में झोंक दिया जाता है। अन्त में, चुनावों में मज़हब के नाम पर वोटों का बँटवारा होता है, और आप ही के सबसे ख़तरनाक दुश्मन इसका फ़ायदा उठाकर सत्ता में पहुँचते हैं, मुनाफ़ाखोर मालिकों, व्यापारियों, ठेकेदारों की सेवा में नीतियाँ बनाते हैं और आप जब भी अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं, तो आप ही पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसाते हैं। प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि गोरख पाण्डे ने सही लिखा था:

इस बार दंगा बहुत बड़ा था

ख़ूब हुई थी

ख़ून की बारिश

अगले साल अच्छी होगी

फसल

मतदान की।

आज फिर से चुनावों का मौसम आ गया है। दंगों व साम्प्रदायिक तनाव के साथ इसी समय अचानक कोई आतंकी हमला हो जाता है, सीमा पर घुसपैठ हो जाती है। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ऐसे में, राहत इन्दौरी का यह शेर याद आ जाता है:

सरहदों पर बहुत तनाव है क्या?

कुछ पता तो करो, चुनाव है क्या?

भाजपा की मोदी सरकार पिछले 9 सालों में अपनी नाकामियों, रिकार्डतोड़ भ्रष्टाचार, अभूतपूर्व महँगाई और बेरोज़गारी से भयंकर रूप से अलोकप्रिय हो रही है। कर्नाटक चुनावों में करारी हार के बाद से मोदी-शाह समेत तमाम भाजपाइयों व संघियों के दिल की धुकधुकी बढ़ी हुई है। फ़ासीवादियों की एक ख़ासियत होती है कि वे किसी भी क़ीमत पर सत्ता नहीं गँवाना चाहते। कई राज्यों के राज्यपाल रहे एक पूँजीवादी राजनीतिज्ञ को भी यह बात समझ में आ रही है कि फ़ासीवादी बुर्जुआ राजनीति एक विशेष किस्म की बुर्जुआ राजनीति है। हम यहाँ सत्यपाल मलिक की बात कर रहे हैं, जो कई राज्यों के राज्यपाल रह चुके हैं और जिन्होंने भाजपा की राजनीति को बहुत ही क़रीब से देखा है। मलिक ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि भाजपा और ख़ास तौर पर मोदीशाह सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। 2019 के चुनावों के पहले पुलवामा हो गया था, जिसके बिना भाजपा नोटबन्दी के कारण पैदा हुई अलोकप्रियता के कारण हारने की कगार पर थी। लेकिन पुलवामा के कारण मोदी को जीत मिली। अब 2024 के चुनावों में भी मोदीशाह को हार की आशंका सता रही है। मलिक का कहना है कि ऐसे में फिर से कोई आतंकी हमला हो जाये, राम मन्दिर पर हमला हो जाये, कहीं सीमा पर घुसपैठ हो जाये, या देश में जगहजगह दंगे भड़क जायें तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी। ऐसा हम नहीं, स्वयं एक पूँजीवादी व्यवस्था का मँजा हुआ राजनीतिज्ञ कह रहा है, तो निश्चित ही इसमें सच्चाई होगी। वैसे भी हम देख ही सकते हैं कि भाजपा के सत्ता में रहने पर ही इस तरह के आतंकी हमले, दंगे, आदि हो जाया करते हैं और इन्हीं के बूते साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद की लहर भड़काकर भाजपा सत्ता में पहुँचने की जुगत भिड़ाती है।

ऐसा होना शुरू हो गया है। एक तरफ़ नूँह में मोनू मानेसर, बंटी आदि जैसे अपराधी बजरंग दलियों और विहिप द्वारा योजनाबद्ध तरीके से दंगे भड़काये गये और उसके ज़रिये हरियाणा समेत पूरे देश में हिन्दू-मुसलमान दंगे फैलाने के प्रयास किये गये, तो वहीं 7 जुलाई को सीमा पर आतंकियों द्वारा घुसपैठ की ख़बर भी आ गयी। ज़ाहिर है, सत्यपाल मलिक के अन्देशे सही साबित हो रहे हैं। बड़े सन्तोष की बात है कि इस बार नूँह के मसले पर देश भर में और विशेष तौर पर हरियाणा और दिल्ली में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की संघी हाफ़पैण्टियों की साज़िश पहले की तरह क़ामयाब नहीं हो पा रही है और काफ़ी दम लगाने के बाद भी दंगाई उन्माद नहीं भड़क पा रहा है। बौखलाहट में आकर खट्टर सरकार नूँह की आम मुसलमान आबादी के घरों पर बुलडोज़र चला रही है, उन पर मुकदमे दर्ज़ कर रही है जबकि संघी दंगाइयों को दंगे फैलाने के लिए खुला छोड़ रखा गया है। हरियाणा और विशेष तौर पर मेवात की जनता ने दंगों को नहीं भड़कने दिया है और एकजुटता बनाये रखकर भाजपा की साज़िश को काफ़ी हद तक बेअसर किया है। फिर भी अभी हमें लगातार सावधान रहने की ज़रूरत है और लगातार जनता के बीच अभियानों के ज़रिये प्रचार करने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में भी संघ परिवार की दंगाई साज़िशें क़ामयाब न होने पायें।

भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति की एक अन्य विशिष्टता यह है कि वह जनता को जहाँ जिस आधार पर बाँट सकती है, वहाँ बाँटती है। मिसाल के तौर पर, मणिपुर में हिन्दू-मुसलमान दंगे नहीं करवाये जा सकते! तो वहाँ पर भाजपा ने मणिपुर के मैतेयी समुदाय (जिसका लगभग 80 प्रतिशत हिन्दू है व 20 प्रतिशत अन्य धर्मों से) की टुटपुँजिया व मुख्य रूप से हिन्दू आबादी के बीच से दंगाई गिरोह बनवाकर वहाँ की कुकी जनजाति के बीच हिंस्र दंगे और जनसंहार शुरू करवा दिया। इस जनसंहार में मणिपुर की भाजपा की बिरेन सिंह सरकार अपनी पुलिस व सशस्त्र बलों के साथ पूरा साथ दे रही है। मणिपुर में दो कुकी स्त्रियों के साथ मई में हुई भयंकर बर्बर घटना ने समूचे देश के इंसाफ़पसन्द लोगों के मन को गुस्से, नफ़रत और शर्म से भर दिया। ऐसा क्यों हुआ कि जो दो समुदाय अपने तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद इस प्रकार की हिंसा से मुक्त रहे थे, अचानक एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गये? इन दोनों ही समुदायों ने लम्बे समय से अपने क़ौमी दमन के ख़िलाफ़ भारतीय राज्यसत्ता से लड़ाई लड़ी है। उससे पहले इन दोनों समुदायों ने मिलकर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के विरुद्ध भी संघर्ष किया था। लेकिन अब फ़ासीवादी भाजपा की फ़िरकापरस्त नीतियों ने इन दोनों को ही आपस में लड़ा दिया। इससे मणिपुर के राष्ट्रीय दमन विरोधी आन्दोलन को भी भयंकर नुकसान पहुँचा है, जिसका पूरा अन्दाज़ा भविष्य में ही लग पायेगा। ग़ौरतलब है कि फ़ासीवादी भाजपा के इस नग्न कुकर्म में मणिपुर के दलाल पूँजीपति वर्ग और उसकी दलाल पार्टियों ने भी साथ दिया है। उसके बिना यह सम्भव नहीं हो पाता।

फ़ासीवादी भाजपा इस प्रकार फ़िरकापरस्त झगड़ा भड़काने में कामयाब रही तो इसका एक बुनियादी आर्थिक कारण भी है जो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा मौजूद रहता है। यह है आर्थिक अनिश्चितता, रोज़गार का पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा पैदा किया गया कृत्रिम अभाव, संसाधनों का अमीरज़ादों की वजह से पैदा किया गया कृत्रिम अभाव और नतीजतन सीमित अवसरों के लिए विभिन्न समुदायों की बीच प्रतिस्पर्द्धा। यह प्रतिस्पर्द्धा मैतेयी और कुकी समुदायों के बीच में भी थी। कुकी जनजाति को एस.टी. के तौर पर मान्यता प्राप्त है और इसलिए आरक्षण प्राप्त है। तमाम मसलों के साथ भाजपा ने इस मसले पर भी मैतेयी आबादी में कुकी जनता के प्रति पूर्वाग्रह और वैमनस्य पैदा किया। साथ ही, धार्मिक अन्तरों के आधार पर भी मैतेयी समुदायों में धार्मिक उन्माद भड़काया गया। एक ‘बेगाने/अजनबी’ या ‘अन्य’ के तौर पर भाजपा को यहाँ मुसलमान नहीं मिले, तो कुकी जनजाति को एक ‘बेगाने/अजनबी’, ‘अन्य’ व नकली दुश्मन के तौर पर पेश कर दिया गया और फिर राज्य की मशीनरी की मदद से लगातार उनके ख़िलाफ़ मैतेयी टुटपुँजिया आबादी के दंगाई गिरोहों के ज़रिये हिंसा, हत्या और बलात्कार करवाये गये और आज भी करवाये जा रहे हैं। यही भाजपा का साम्प्रदायिक फ़ासीवादीटूलकिटहै : ‘जहाँ जिस आधार पर बाँट सकते हो, बाँटो और राज करो!’

इसी प्रकार भाजपा को जब उड़ीसा में कहीं पर पर्याप्त संख्या में ‘नकली दुश्मन’ का पुतला खड़ा करने के लिए मुसलमान नहीं मिलते हैं, तो वहाँ ईसाइयों को निशाना बनाने का प्रयोग किया जाता है। ग्रासरूट स्तर पर कई दशकों से उड़ीसा में संघ परिवार का यह प्रयास जारी है और धर्मान्तरण जैसे फ़र्ज़ी मुद्दे भड़काकर हिन्दू टुटपुँजिया आबादी में अन्धी प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार की जाती है। लेकिन वहीं केरल में भाजपा अच्छी-ख़ासी संख्या वाली मुसलमान आबादी के ख़िलाफ़ उन्माद भड़काने के लिए हिन्दू आबादी में तो साम्प्रदायिक प्रचार करती ही है, लेकिन उन्हीं ईसाई लोगों को भी साथ लेने का प्रयास करती है और चर्च के साथ गठजोड़ बनाती है, जिनको वह उड़ीसा में दुश्मन और “हिन्दू धर्म के लिए ख़तरा” बताती है!

इस सबका मतलब क्या है? भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति को समाज में पूँजीवाद के कारण पैदा असुरक्षा, अनिश्चितता और बदहाली से परेशान जनता और विशेषकर टुटपुँजिया जनता के बीच एक नकली दुश्मन की छवि बनानी होती है और फिर पूँजीवाद के समस्त अपराधों का ठीकरा उसके सिर फोड़ देना होता है। जहाँ जिस अल्पसंख्यक आबादी को निशाना बनाना आसान होता है, वहाँ भाजपा उसको निशाना बनाती है, चाहे वह मुसलमान हों, ईसाई हों, कुकी हों या प्रवासी। तो समूची हिन्दीभाषी पट्टी व दक्षिण व पश्चिम के अधिकांश राज्यों में हिन्दू बहुल आबादी को बताया जाता है कि मुसलमान उसके रोज़गार, उसकी “बहू-बेटियों”, उसके धर्म, उसकी ज़मीन के लिए ख़तरा है, तो वहीं उड़ीसा में यह “ख़तरे” की भूमिका ईसाइयों को दे दी जाती है जबकि उसी समय केरल में मुसलमानों के खिलाफ़ ईसाई धार्मिक कट्टरपंथियों से एकता बनायी जाती है। उसी प्रकार, मणिपुर में कुकी जनता को दुश्मन बनाकर पेश किया जाता है। ये सारे ही प्रचार एकदम झूठ हैं। तो मुसलमान हिन्दू का दुश्मन है और ही हिन्दू मुसलमान का; तो मैतेयी कुकी के दुश्मन हैं, कुकी मैतेयी के। यह फ़ासीवादी भाजपा है जो सभी धर्मों, क़ौमों समुदाय के आम मेहनतक़श अवाम की दुश्मन है। भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति का एक आम तत्व है कि जहाँ पर जो विभाजक रेखाएँ या दरारें दिखें, उनको लेकर धार्मिक या कौमी या जातिगत या भाषाई या क्षेत्रीय उन्माद भड़काओ और फिर जनता को बाँट दो। एकएक को बाँटो, ताकि सबपर हुकूमत कर सको।

आज जबकि पिछले 9 वर्षों के मृतकाल की सच्चाई सारी जनता के सामने हर रोज़ उजागर हो रही है, तो भाजपा की मोदी-शाह सत्ता फिर से देश को दंगों की आग में झोंकने और देश में अन्धराष्ट्रवाद का फ़र्जीवाड़ा फैलाकर जनता के वोट बटोरना चाहती है। आप इतनी बात समझ लें : अगर आपने भाजपा और संघ परिवार की इस साज़िश को क़ामयाब होने दिया, तो अगले 5 साल आपका जीवन इस क़दर नर्क बनेगा कि आप सपने में भी नहीं सोच सकते। ज़रा सोचिए! 2014 में आपका जीवनस्तर क्या था? आपकी खाने की थाली में क्याक्या चीज़ें थीं और किसकिस मात्रा में थीं? आज आपकी खाने की थाली में क्या बचा है? आपकी जेब में कितने रुपये बचते थे महीने के अन्त में 2014 में? आज कितने बचते हैं? आप अपने बच्चों की किनकिन बुनियादी ज़रूरतों को एक हद तक पूरा कर पाते थे? आज किन ज़रूरतों को पूरा कर पाते हैं? 2014 में आप सप्ताह में औसतन कितने घण्टे काम करते थे? आज आप कितने घण्टे काम करते हैं? पिछले 9 वर्षों में जनता के जीवन को मोदी सरकार ने अपनी पूँजीपरस्त नीतियों से बरबाद कर डाला है। इसके बाद भी अगर आप धर्म के उन्माद में बहते हैं, तो अपने जीवन के बद से बदतर होते हालात के लिए आप ज़िम्मेदार होंगे, और कोई नहीं।

क्या आपको लगता है कि रोज़गारी और महँगाई तो प्राकृतिक आपदाएँ हैं और इसमें मोदी जी क्या कर सकते हैं? अगर हाँ, तो आपको ग़लत लगता है! बढ़ती महँगाई का कारण मोदी सरकार द्वारा अमीरों को टैक्स से मुक्त करना, उनका क़र्ज़ा माफ़ करना और इसके कारण होने वाले सरकारी घाटे की भरपाई के लिए आपके ऊपर टैक्सों का बोझ बढ़ाना है। इन अप्रत्यक्ष टैक्सों के कारण ही महँगाई सारे रिकार्ड तोड़ रही है। इसके लिए सीधे-सीधे मोदी सरकार की नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। बेरोज़गारी की दर में अभूतपूर्व वृद्धि का कारण है मोदी सरकार द्वारा भयंकर आर्थिक कुप्रबन्धन और ठेकाकरण अनौपचारिकीकरण की वह आँधी जो मोदी सरकार के दौर में हमेशा से कहीं ज़्यादा तेज़ गति से बढ़ी है। महँगाई व बेरोज़गारी जिससे आप त्रस्त हैं, वे ईश्वर का प्रकोप नहीं हैं, बल्कि मोदी सरकार की नीतियों का नतीजा है, जिनका मक़सद है अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला जैसे पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने के लिए आपके ख़ून को सिक्कों में ढालना और आपकी हड्डी का चूरा बनाकर बाज़ार में बेचना। आपका दुश्मन कोई मुसलमान, कोई हिन्दू, कोई ईसाई, कोई सिख, कोई कुकी, कोई प्रवासी नहीं है। सभी धर्मों और सभी समुदायों की समस्त मेहनतक़श जनता की सबसे ख़तरनाक दुश्मन है फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके पीछे खड़ा संघ परिवार।

2024 के चुनावों और इसी वर्ष और अगले वर्ष होने वाले राज्य विधानसभाओं के चुनावों में हार का डर मोदी और शाह की रात की नींदों को हराम किये हुए है। अन्य पूँजीवादी पार्टियों के लिए फ़ासीवादी भाजपा ने जो अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है, उसके कारण उनमें से अधिकांश बड़ी पार्टियों ने इण्डिया नामक चुनावी मोर्चा बना लिया है। निश्चित तौर पर, यह मोर्चा भी देश की मेहनतकश जनता की नुमाइन्दगी नहीं करता और, फ़ासीवादी तानाशाही और आक्रामकता को छोड़ दें, तो उससे भी हम उन्हीं आर्थिक नीतियों की उम्मीद कर सकते हैं, जो मोदी सरकार लागू कर रही है, लेकिन शायद कुछ कल्याणवाद के साथ, कुछ कम आक्रामकता के साथ और कुछ कम तानाशाहाना अन्दाज़ में। लेकिन चुनावी तौर पर जो समीकरण पूँजीवादी राजनीति में इण्डिया गठबन्धन के बनने के साथ उभरे हैं, वे निश्चित तौर पर मोदी-शाह जोड़ी को परेशान कर रहे हैं। ग़ौरतलब है कि भाजपा के पक्ष में आज 25-30 प्रतिशत वही वोट हैं, जिनका व्यवस्थित रूप से साम्प्रदायीकरण किया गया है। उसके अलावा बड़ी आबादी आज भाजपा के पक्ष में वोट नहीं करने वाली, हालाँकि वह मूक रहती है। ऐसे में, भाजपा की जीत अधिकांश चुनावों में इस पर निर्भर करती है कि बाकी 70-75 फ़ीसदी वोटों को तरह-तरह की तिकड़म करके बाँट दिया जाय। इण्डिया गठबन्धन बनने से इसमें भाजपा के सामने दिक्कत पेश आ रही है।

मेहनतकश आबादी के पास आज अपनी कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी नहीं है, हालाँकि इस दिशा में प्रयास जारी हैं। जब तक ऐसी कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी नहीं खड़ी होती तब तक बड़ी आबादी बुर्जुआ चुनावों में भी इस या उस चुनावी पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने को बाध्य होती है। निश्चित ही, पूँजीवादी चुनावों के रास्ते ही समाजवादी सत्ता स्थापित करने का सपना या तो मूर्ख देख सकते हैं या फिर सीपीआई, सीपीएम, माले जैसे बदमाश और घाघ संशोधनवादी। लेकिन चुनावों के क्षेत्र में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को भी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करना अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना व्यापक मज़दूर आबादी के अपने स्वतन्त्र सर्वहारा राजनीतिक पक्ष को नहीं खड़ा किया जा सकता है, जिसके बिना कोई समाजवादी क्रान्ति भी सम्भव नहीं होगी। लेकिन जब तक ऐसा कोई पक्ष देश के पैमाने पर निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक व्यापक मेहनतकश आबादी कम बुरे विकल्प की तलाश में रहती है, वह सत्ताधारी दल को चुनावों में दण्ड देने का प्रयास करती है, बिना इस उम्मीद के कि किसी अन्य पूँजीवादी दल की कोई नयी सरकार उसके रोज़गार और आजीविका के लिए कोई वास्तविक ठोस क़दम उठायेगी। यह त्रासद विकल्पहीनता की स्थिति है और इसके लिए हम व्यापक मेहनतकश आबादी को कोई दोष नहीं दे सकते हैं। हम यही कह सकते हैं कि जिस भी इलाके में किसी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के उम्मीदवार की मौजूदगी हो, वहाँ मेहनतकश जनता को उसे ही चुनना चाहिए क्योंकि वही उनके हितों की ईमानदारी के साथ नुमाइन्दगी कर सकता है। जहाँ ऐसा कोई उम्मीदवार न हो, वहाँ हम आपको कोई ठोस सुझाव नहीं देंगे, सिवाय इसके कि यह न भूलें कि आपका सबसे बड़ी दुश्मन फ़ासीवाद है।

मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता के और 5 साल आपके लिए नर्क साबित होंगे। यह तय है। ऐसे में, हमारे सामने तात्कालिक तौर पर क्या विकल्प है? हमारे पास तात्कालिक तौर पर यह विकल्प है कि हम रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, आवास और भ्रष्टाचार के सवाल पर जुझारू जनान्दोलन खड़ा करें ताकि कोई भी सरकार 2024 में बने, वह हमारी माँगों की सुनवाई करने को मजबूर हो, वह हमारी अनदेखी कर सके। आप मज़दूर उम्मीदवार की अनुपस्थिति में किसको वोट दें या न दें, यह बताना न तो हमारा काम है और न ही हम बता सकते हैं क्योंकि सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग की ही नुमाइन्दगी करती हैं चाहे वह कांग्रेस हो, सपा हो, बसपा हो, द्रमुक हो, जद (यू) हो, राजद हो, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो या शिवसेना (यूबीटी) हो। इतना याद रखें कि इण्डिया गठबन्धन की भी सरकार बनी, तो भी आपको ज़्यादा से ज़्यादा कुछ फ़ौरी राहत और कुछ दिखावटी कल्याणवाद से ज़्यादा कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि यह गठबन्धन पूँजीवादी दलों का ही है और यह पूँजीपति वर्ग की ही नुमाइन्दगी करता है। ऐसी कोई सरकार भी हमारी माँगों की सुनवाई तभी करेगी जब हम एक मज़बूत जनान्दोलन खड़ा करें जो कि सभी को समान और निशुल्क शिक्षा और सभी को रोज़गार को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए जुझारू तरीके से संघर्ष करे। इस सच्चाई से अवगत कराना ‘मज़दूर बिगुल’ का काम है। केवल ऐसे जनान्दोलन के ज़रिये ही हम देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के निर्माण और गठन के दूरगामी कार्यभार को भी आगे बढ़ा सकते हैं और सर्वहारा क्रान्ति के ज़रिये समाजवाद और मज़दूर सत्ता की स्थापना की दिशा में एक अहम कदम बढ़ा सकते हैं। तभी देशव्यापी पैमाने पर हम सर्वहारा वर्ग व मेहनतकश आबादी के स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष का निर्माण कर सकते हैं।

अन्त में, एक बार फिर यह याद दिलाना अनिवार्य है कि व्यापक मेहनतकश जनता का सबसे बड़ा दुश्मन है फ़ासीवाद यानी हमारे देश में संघ परिवार, भाजपा और मोदीशाह की सत्ता जो दंगों अन्धराष्ट्रवाद के उन्माद के ज़रिये देश को ख़ून के दलदल में डुबोकर सत्ता हासिल करना चाहती है। हम उन्हें क़ामयाब नहीं होने दे सकते। इसलिए हम आपके सामने दुश्मन की पहचान करने के कुछ आम पैमाने रखना चाहेंगे।

जो भी आपके बीच धर्म के मसले पर राजनीति करे, मन्दिरमस्जिद के मसले पर उकसाये, गोरक्षा औरलव जिहादकी फ़र्ज़ी बकवास करे और मुसलमान आबादी या किसी भी अन्य धर्म या समुदाय की आबादी को दुश्मन बताये, असल में, वह ख़ुद आपका दुश्मन है। उसको बाहर का रास्ता दिखाएँ।

जो भी आपको चीन और पाकिस्तान केख़तरेके नाम पर अन्धराष्ट्रवाद की आँधी में बहाने का प्रयास करे, उसे याद दिलाइये कि जब आप अपने हक़ों के लिए, अपनी मज़दूरी के लिए, सम्मान के लिए, अपने श्रम अधिकारों के लिए, रोज़गार के लिए लड़ते हैं तो कोई चीन या पाकिस्तान से आप पर लाठियाँ बरसाने या आपकी नौकरी छीनने नहीं आता है, बल्कि पूँजीवादी सरकार की पुलिस और सेना आती है। पाकिस्तान चीन की मेहनतकश जनता से भला हमारा क्या बैर? हमारे सामने जो दुश्मन खड़ा है वह हमारे देश का धन्नासेठ वर्ग है जो हमारे शरीर को रोज़ निचोड़कर अपनी तिजोरियाँ भरता है और जिसकी नुमाइन्दगी करने वाली राज्यसत्ता का आतंक हम रोज़ झेलते हैं। इसलिए जब आपको कोई इस प्रकार अन्धराष्ट्रवाद में बहाने का प्रयास करे, तो उसे भी बाहर का रास्ता दिखाएँ।

जब कोई आतंकी हमले, घुसपैठ का हवाला दे तो उसे याद दिलाएँ कि बारबार यह तथ्य सामने चुका है कि ऐसे हमले या घुसपैठ आम तौर पर स्वयं हुक्मरानों की साज़िश का ही एक हिस्सा होते हैं, चाहे कारगिल युद्ध की बात हो, या फिर पुलवामा हमले की बात, जिसके बारे में आँखें खोल देने वाला खुलासा ख़ुद उस दौरान जम्मूकश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक कर चुके हैं। इसलिएआतंकवादका शोर मचाकर आपको साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद के उन्माद में बहाने वाले दंगाई घाघ व्यक्ति को याद दिलाइए कि इस समय जनता के लिए सबसे बड़ी आतंकी तो मौजूद सरकार और संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियाँ हैं। राजकीय आतंक समाप्त हो जाये, तो आतंकवाद की समस्या भी कालान्तर में समाप्त हो जायेगी। इसलिए कोईआतंकवादके नाम पर आपके वोटों का ध्रुवीकरण करने आये, तो उसे भी बाहर का रास्ता दिखाएँ।

कोई मन्दिरमस्जिद, ज्ञानवापी, मथुराकाशी आदि का शोर मचाते आये, तो उसे भी याद दिलाएँ कि धर्म सबका निजी मसला है और हर मस्जिद में मन्दिर शिवलिंग की तलाश कर धार्मिक भावनाएँ भड़काने से जनता की असली समस्याओं का हल नहीं निकलने वाला, यानी बेरोज़गारी और महँगाई की समस्या। जो इन असल मुद्दों पर बोलने की बजाय मन्दिरमस्जिद का पुराना सड़ा हुआ गाना गाये, उसे भी बाहर का रास्ता दिखाइए।

मतलब यह कि हम केवल और केवल अपने जीवन के इन असल ठोस मुद्दों पर बात करेंगे, जिनका असर हमारे बच्चों के भविष्य पर पड़ना है। हमें धर्म पर बात करनी ही नहीं है। धर्म लोगों का पूर्णत: व्यक्तिगत मसला है। उत्तर, पश्चिमी व पूर्वी भारत के बहुत-से मन्दिर भी बौद्ध व जैन मठों को तोड़कर बनाये गये हैं। इसका स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद है। तो क्या अब उन मन्दिरों को तोड़कर वापस बौद्ध और जैन मठ बनाये जायें? इससे किसको क्या हासिल होगा और जनता के असल मुद्दों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जो हुक्मरान जनता की वर्तमान समस्याओं पर बात नहीं कर सकते, वे ही उन्हें किसी काल्पनिक अतीत के काल्पनिक धार्मिक अन्याय के नाम पर भड़काते हैं और मस्जिदों में मन्दिर ढूँढते मिलते हैं। ये तो हमारे जीवित सवाल हैं और ही मज़दूर वर्ग हज़ारों साल के अतीत में हुई घटनाओं का बदला मौजूदा समय में अपने वर्ग भाइयों बहनों से लेने की बात करता है। ऐसी अतार्किक और मूर्खतापूर्ण बात को केवल कचरापेटी के हवाले किया जा सकता है। लेकिन समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता पर पिछले कई दशकों के दौरान हुई फ़ासीवादी चढ़ाई का नतीजा यह है कि संघ परिवार की इस साम्प्रदायिक राजनीति का साथ स्वयं अदालतें दे रही हैं।

लेकिन हमें इसमें बिल्कुल नहीं बहना है। हमें अपने असली मसलों पर अड़े रहना है : मज़दूरी की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग, रोज़गार को मूलभूत अधिकार बनाने की माँग, सबको समान निशुल्क शिक्षा और चिकित्सा की माँग, पेंशन की माँग, आवास के अधिकार की माँग, अप्रत्यक्ष करों से मुक्ति की माँग, धर्म को राजनीति से पूर्ण से रूप से अलग करने वाले एक सच्चे सेक्युलर क़ानून की माँग। अगर इन माँगों से हम किसी भी तरह से भटके, अगर इन माँगों पर हम देश में जगह-जगह अपने जुझारू आन्दोलन खड़ा करने के लक्ष्य से भटके, तो हमारे भविष्य में मौजूदा बरबादी से भी भयंकर बरबादी है। इस बात को याद रखना आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023


 

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