मणिपुर में बर्बरता के लिए कौन है ज़िम्मेदार?
भारतीय राज्यसत्ता और मणिपुर व केन्द्र की सत्ता पर क़ाबिज़ फ़ासिस्ट भाजपा की डबल इंजन सरकार!

आनन्द

मणिपुर में कुकी समुदाय की दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके परेड कराने की वीभत्स घटना का वीडियो वायरल होने के बाद मणिपुर एक बार फिर से सुर्ख़ियों में आ गया है। इस घटना के बाद देशभर में पैदा हुए आक्रोश के मद्देनज़र नरेन्द्र मोदी को भी 79 दिन बाद बाद अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और उच्चतम न्यायालय ने भी मामले का संज्ञान लेते हुए केन्द्र सरकार को सख़्त क़दम उठाने की हिदायत दी। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस देश के फ़ासीवादी हुक्मरान पिछले ढाई महीने से क्या कर रहे थे? क्या उन्हें यह पता नहीं था मणिपुर में क्या हो रहा है? क्या वे इस प्रकार के वीभत्स वीडियो के सामने आने का इन्तज़ार कर रहे थे?

ग़ौरतलब है कि मणिपुर में पिछले 3 मई से ही भीषण हिंसा, रक्तपात और तबाही का मंज़र क़ायम है। ख़ुद मणिपुर के मुख्यमंत्री ने माना कि हत्या, बलात्कार और आगज़नी की घटनाओं की सैकड़ों एफ़आईआर दर्ज हैं। वीडियो वाली घटना सहित बलात्कार और हत्या की कई घटनाओं की ब्यौरेवार जानकारी मणिपुर के एक संगठन ने राष्ट्रीय महिला आयोग को 12 जून को ही भेजी थी जिसकी अध्यक्ष रेखा शर्मा भाजपा से ही जुड़ी रही हैं।

इस बीच इस देश के बेशर्म प्रधानमन्त्री को अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में जाकर वहाँ के हुक्मरानों से अपनापन ज़ाहिर करने और मिस्र के पिरामिडों के साथ फ़ोटो खिंचाने का वक़्त मिल गया, लेकिन वह देश के भीतर चले रहे इस भीषण रक्तपात व यौन हिंसा पर आपराधिक चुप्पी साधे रहा। वीडियो वायरल होने के बाद जब उसने चुप्पी तोड़ी भी तो केवल उस एक घटना के बारे में बात की और मणिपुर में ढाई महीने से जारी भीषण हिंसा पर कोई भी बयान देना ज़रूरी नहीं समझा। उस एक घटना के लिए भी उसने केन्द्र सरकार की निष्क्रियता और अपराधियों के साथ मणिपुर सरकार की मिलीभगत की बात स्वीकार करने की बजाय उस घटना को अन्य राज्यों में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही यौन हिंसा की घटनाओं से जोड़ते हुए सभी मुख्यमन्त्रियों से उचित क़दम उठाने को कहा। ढाई महीने की आपराधिक चुप्पी के बाद दिया गया यह शातिराना बयान भी मणिपुर के मामले की गम्भीरता को कम करके प्रस्तुत करने का ही एक शर्मनाक प्रयास है। अगर प्रधानमन्त्री को मणिपुर में हो रही दरिन्दगी पर वाक़ई कोई शर्मिन्दगी होती तो घड़ियाली आँसू बहाने की बजाय सबसे पहले वहाँ के मुख्यमन्त्री बीरेन सिंह को हटाया जाता।

वायरल वीडियो की घटना 4 मई को ही घटी थी और उसके बाद पीड़िताओं ने एफ़आईआर भी दर्ज कराया था। लेकिन मणिपुर पुलिस ने ढाई महीने तक कोई कार्रवाई नहीं की। कार्रवाई करना तो दूर, पीड़िताओं में से एक ने मीडिया को बताया कि जब उन दो कुकी महिलाओं के साथ दरिन्दगी हो रही थी तो मणिपुर पुलिस के सिपाही वहाँ मौजूद थे और उन्होंने ही महिलाओं को भीड़ के हवाले किया था। ज़ाहिरा तौर पर मणिपुर में पिछले ढाई-तीन महीनों के दौरान यौन हिंसा की यह अकेली ऐसी घटना नहीं थी (ऐसी कई घटनाओं के साक्ष्य कुकी समुदाय से आने वाले भाजपा नेताओं ने ही दिये हैं), परन्तु इस घटना से यह झलक ज़रूर मिलती है कि मणिपुर में हो क्या रहा है। अधिकांश मीडिया रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि मैतेयी और कुकी समुदाय आपस में लड़ रहे हैं और दोनों एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हिंसा कर रहे हैं। परन्तु इस तथाकथित साम्प्रदायिक और नृजातीय हिंसा को और क़रीब से देखने पर हम पाते हैं कि इसके शिकार ज़्यादातर लोग कुकी आदिवासी समुदाय के हैं। आगज़नी और धार्मिक स्थलों पर हमलों की भी ज़्यादातर वारदातें कुकी लोगों के ही ख़िलाफ़ हुई हैं, हालाँकि यह भी सच है कि जवाबी कार्रवाई में जान-माल का कुछ नुकसान मैतेयी पक्ष का भी हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैतेयी समुदाय से आने वाला प्रदेश का मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह स्वयं कुकी लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रतभरी बयानबाज़ी रहा है और उसके इशारे पर पुलिस व प्रशासनिक महकमा भी खुलकर मैतेयी समुदाय का पक्ष ले रहा है। मारकाट, यौन हिंसा व आगज़नी की कार्रवाई करने के बाद भी भाजपा द्वारा पाले-पोसे जा रहे और संरक्षण प्राप्त मैतेयी राष्ट्रवादी व साम्प्रदायिक सैन्य गिरोहों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है और उनके हथियार व गोला-बारूद ज़ब्त नहीं किये जा रहे हैं। ऐसे में यह ताज्जुब की बात नहीं है कि कुकी समुदाय की ओर से जो एफ़आईआर दर्ज भी कराये गये उनपर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। यह साफ़ है कि मणिपुर में पिछले तीन महीनों से जो कुछ हो रहा है वह दो समुदायों के बीच हो रही स्वत:स्फूर्त हिंसा नहीं है बल्कि राज्य सरकार द्वारा प्रयोजित कुकी आदिवासी समुदाय के बर्बर उत्पीड़न व नरसंहार की साज़िश का हिस्सा है जिसका नेतृत्व स्वयं मुख्यमन्त्री बीरेन सिंह कर रहा है।

ग़ौरतलब है कि मौजूदा हिंसा शुरू होने के पहले से ही बीरेन सिंह कुकी आदिवासियों के ख़िलाफ़ नफ़रत का ज़हर उगल रहा था। वह ‘नार्को आतंकवाद’ ख़त्म करने के नाम पर समूची कुकी आबादी को बदनाम करता है क्योंकि उनमें से कुछ लोग अफ़ीम की खेती करते हैं। लेकिन वह यह नहीं बताता कि मणिपुर में अफ़ीम का जो अवैध धन्धा चल रहा है उसमें केवल कुकी लोग ही नहीं बल्कि तमाम मैतेयी लोग भी शामिल हैं। परन्तु वह इस अफ़ीम के अवैध धन्धे के लिए समूची कुकी आबादी को ज़िम्मेदार ठहराता है और उन्हें सबक़ सिखाने की बात करता आया है।

मौजूदा हिंसा की शुरुआत के कुछ हफ़्तों पहले ही मणिपुर सरकार ने चूड़ाचाँदपुर ज़िले के कुछ गाँवों में कुकी आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदख़ल करने का आदेश दिया था जिसका कुकी लोगों ने पुरज़ोर विरोध किया था। ग़ौरतलब है कि कुकी आदिवासी वर्षों से मणिपुर के पहाड़ों में स्थित गाँवों में रहते आये हैं, लेकिन मणिपुर की सरकार उन्हें उनके जंगल और ज़मीन से बेदख़ल करने पर उतारू है। इसके अलावा मुख्यमन्त्री बीरेन सिंह कुकी समुदाय को विदेशी बताकर भी उनके ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाता आया है और समय-समय पर असम की तर्ज़ पर मणिपुर में भी एनआरसी कराने की बात करता आया है। मणिपुर में कुकी महिलाओं के साथ हुई वीभत्स घटना के वीडियो वायरल होने के बाद जहाँ एक ओर देशभर में बीरेन सिंह के इस्तीफ़े की माँग हो रही थी, वहीं दूसरी ओर मणिपुर सरकार मणिपुर में रहने वाले तथाकथित अवैध आप्रवासियों का बायोमेट्रिक डेटा इकट्ठा करने की क़वायद कर रही थी। ज़ाहिर है, नफ़रत फैलाने की ये सभी तिकड़में बीरेन सिंह ने फ़ासिस्ट संघ परिवार की नफ़रत की पाठशाला से सीखी हैं। ग़ौरतलब है कि संघ परिवार ने पिछले कुछ वर्षों में मणिपुर सहित उत्तर-पूर्व के कई हिस्सों में अपनी ज़हरीली फ़ासिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार करते हुए अपने पैर पसारे हैं और उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों-उपराष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं का जबरन भारतीय राज्य के साथ एकीकरण करने की मुहिम को उग्रतम रूप से आगे बढ़ा रहा है। मणिपुर में 2017 से भाजपा सरकार है और उसके बाद वहाँ ऐसे मैतेयी अन्धराष्ट्रवादी संगठनों की भरमार हो गयी है जो भारतीय राज्यसत्ता से लड़ने की बजाय नगा व कुकी पहाड़ी जनजातियों को अपना निशाना बना रहे हैं क्योंकि वे जनजातियाँ अधिकांशत: ईसाई धर्म को मानती आयी हैं। संघ परिवार की साम्प्रदायिक मुहिम का ही यह नतीजा है कि मणिपुर में जारी हिंसा में न सिर्फ़ कुकी लोगों के गाँवों व घरों पर हमला किया गया बल्कि उनके चर्चों पर भी बड़े पैमाने पर हमला किया जा रहा है। वायरल वीडियो में जो दरिन्दगी दिखी वह भी मैतेयी लोगों के बीच संघ परिवार की फ़ासिस्ट विचारधारा की बढ़ती पैठ का ही एक नमूना है। 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान हम देख चुके हैं कि संघ परिवार जिस समाज को अपनी फ़ासिस्ट प्रयोगशाला बनाता है उसमें अमानवीयता की सारी हदें पार हो जाती हैं।

सबसे विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि जो मैतेयी जुझारू संगठन मणिपुर में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्षरत रहे हैं उनमें से भी कई कुकी आदिवासियों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा में भी शामिल हैं और उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। यह मणिपुरी क़ौम के राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन में प्रतिक्रियावाद और अन्धराष्ट्रवाद के असर को दिखा रहा है जोकि अच्छा संकेत नहीं है। सर्वहारा वर्ग उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रगतिशील व जनवादी पहलू का समर्थन करता है और इसलिए हम मैतेयी, कुकी व नगा सहित उत्तर-पूर्व के सभी उत्पीड़ित क़ौमों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हैं। परन्तु हम उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिक्रियावादी व अन्धराष्ट्रवादी पहलू की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं।

साम्राज्यवाद के दौर में वैसे भी बुर्जुआ राष्ट्रों द्वारा उत्पीड़ित क़ौमों को आत्मनिर्णय के अधिकार दे पाने की सम्भावना-सम्पन्नता कम होती गयी है। यह हक़ अब लड़कर ही हासिल किया जा सकता है। पहले भी आम तौर पर कौमी आज़ादी जनता के जुझारू संघर्ष के परिणाम के तौर पर ही आयी है। स्विट्ज़रलैण्ड व नार्वे-स्वीडन जैसे कुछ उदाहरणों को छोड़ दिया जाये तो बुर्जुआ शासक वर्गों ने साम्राज्यवाद के दौर में कभी भी दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं दिया है।

मणिपुर व उत्तर-पूर्व के मामले में औपनिवेशिक अतीत और आज़ादी के बाद भारतीय राज्यसत्ता के दमन के लम्बे इतिहास की वजह से राष्ट्रीय प्रश्न और भी जटिल हो गया है। मणिपुर में मैतेयी, कुकी-ज़ोमी और नगा तीनों समुदाय भारतीय राज्यसत्ता के दमन का शिकार हैं परन्तु इस दमन के नतीजे में पैदा हुई उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाएँ एक-दूसरे से टकरा रही हैं और भारतीय शासक वर्ग इन टकराहटों को अपने हितों में बढ़ावा देता रहा है। आज इस काम को साम्प्रदायिक कट्टरपंथी तौर पर फ़ासीवादी मोदी सरकार कर रही है। मैतेयी लोग समूचे मणिपुर को अपने राष्ट्र में समाहित करने की आकांक्षा रखते हैं जबकि मणिपुर में रहने वाले नगा लोग सांस्कृतिक और भाषाई वजहों से नगालैण्ड में रहने वाले नगा लोगों के साथ क़रीबी महसूस करते हैं और ख़ुद को नगा राष्ट्र का हिस्सा मानते हैं। ग़ौरतलब है कि नगालिम (ग्रेटर नगालैण्ड) की जो माँग नगा राष्ट्रवादी कर रहे हैं उनमें मणिपुर के वे पहाड़ी ज़िले भी आते हैं जहाँ कुकी लोगों की अच्छी-ख़ासी आबादी रहती है। इसी वजह से 1990 के दशक में कुकी व नगा लोगों के बीच भीषण हिंसक संघर्ष भी हुआ था। इसी प्रकार मणिपुर राज्य के पहाड़ी ज़िलों में रहने वाले कुकी लोग सांस्कृतिक व भाषाई अन्तर की वजह से मैतेयी राष्ट्र से अलगाव महसूस करते हैं और भारतीय यूनियन के भीतर ही कुकीलैण्ड नामक अलग राज्य की माँग कर रहे हैं। आज़ादी के पहले और बाद के कुछ दशकों में बहुत से कुकी लोग इम्फ़ाल घाटी में भी आकर बसे थे और बहुत से मैतेयी लोग कुछ पहाड़ी ज़िलों में भी बसे थे जिसकी वजह से दोनों समुदायों के बीच घुलने-मिलने की ज़मीन पैदा हुई थी। परन्तु मौजूदा हिंसा ने दोनों समुदायों के बीच खाई को इतना चौड़ा कर दिया है कि उसे पाट पाना बेहद मुश्किल हो गया है।

नृजातीय पहचान के आधार पर जो संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति उत्तर-पूर्व में जारी है उससे भविष्य में उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीय प्रश्न और भी जटिल रूप लेने वाला है। चूँकि औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने और आज़ादी के बाद भारतीय राज्यसत्ता ने उत्तर-पूर्व में राज्यों की सीमाएँ वहाँ की क़ौमों की आकांक्षाओं के अनुसार नहीं बल्कि ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत मनमाने ढंग से की, इसलिए वहाँ की क़ौमों और नृजातीय समूहों के बीच टकराहटों के फैलने की सम्भावना बढ़ती गयी है।

इसका एक नमूना तब देखने में आया जब कुकी औरतों के साथ वीभत्स यौन हिंसा का वीडियो वायरल होने के बाद मिज़ोरम के मिज़ो जनजातीय संगठनों द्वारा मिज़ोरम में रहने वाले मैतेयी लोगों को मिज़ोरम छोड़कर मणिपुर वापस जाने की धमकी देने की ख़बरें आयीं। इसी प्रकार असम की बराक घाटी में रहने वाले मिज़ो जनजाति के लोगों को मैतेयी संगठनों ने मैतेयी इलाक़ों को छोड़कर जाने की चेतावनी दी है। उत्तर-पूर्व के राज्यों में राष्ट्रीय प्रश्न की जटिलता बढ़ने की एक वजह वहाँ हो रहा पूँजीवादी विकास है जो अपनी प्रकृति से ही विभिन्न क़िस्म की असमानताएँ पैदा कर रहा है। इसकी वजह से भी संकीर्ण नृजातीय अस्मितावादी राजनीति वहाँ फल-फूल रही है क्योंकि ये अस्मितावादी ताक़तें अपने-अपने समुदायों के लोगों की आर्थिक समस्याओं के लिए पूँजीवादी व्यवस्था को ज़िम्मेदार ठहराने की बजाय उनके आक्रोश को दूसरे नृजातीय समुदाय के लोगों के ख़िलाफ़ मोड़ देती हैं। मिसाल के लिए मैतेयी लोगों में बेरोज़गारी व आर्थिक तंगी के लिए पूँजीवाद ज़िम्मेदार है, परन्तु मैतेयी राष्ट्रवादी संगठन इसके लिए कुकी समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराते हैं क्योंकि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल है जिसकी वजह से उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलता है।

इस जटिल परिस्थिति में भी सर्वहारा वर्ग का नज़रिया बिल्कुल साफ़ होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारतीय राज्यसत्ता ने मणिपुर को कुटिलता से जबरन अपने साथ मिलाया और वह वहाँ के लोगों के न्यायसंगत संघर्षों को कुचलने के लिए सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करती आयी है। इस वजह से मणिपुर में रहने वाले मैतेयी, नगा व कुकी क़ौमें निश्चित रूप से दमित हैं और उनके आत्मनिर्णय के जनवादी अधिकार का बिना शर्त समर्थन किया जाना चाहिए। परन्तु इसका यह अर्थ हरगिज़ नहीं है कि हम इन क़ौमों के बुर्जुआ वर्ग या निम्न-बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रतिक्रियावादी और अन्धराष्ट्रवादी पहलुओं का भी समर्थन करेंगे या उसपर चुप्पी साधेंगे। हमें हर तरह के प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी विचारों की ही तरह इन दमित क़ौमों के राष्ट्रीय आन्दोलन में मौजूदा इन प्रतिक्रियावादी व संकीर्ण अस्मितावादी व कट्टरपन्थी विचारों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष करना होगा और इन क़ौमों के आत्मनिर्णय की लड़ाई लड़ रही ताक़तों को भी ऐसे विचारों से किनारा करना होगा और दमित क़ौमों के बीच एकजुटता क़ायम करनी होगी। केवल तभी ये दमित क़ौमें अपने साझा दुश्मन यानी भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ प्रभावी ढंग से संघर्ष कर सकेंगी और भारत में समाजवाद के लिए संघर्ष कर रही सर्वहारा वर्ग की ताक़तों के साथ भी एकजुटता क़ायम कर सकेंगी। ऐसी एकजुटता भारत में सर्वहारा क्रान्ति व इन दमित क़ौमों की राष्ट्रीय मुक्ति दोनों के लिए ज़रूरी है। केवल तभी भारत में रहने वाली सभी क़ौमें बिना किसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती व दमन के एक समाजवादी राज्यसत्ता के तहत साथ रहने की दिशा में आगे बढ़ सकती हैं।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023


 

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