मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? 
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अर्थवाद के विरुद्ध निर्मम संघर्ष चलाना होगा! (छठी क़िस्त)

शिवानी

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पिछले अंक में अर्थवाद पर केन्द्रित अपनी चर्चा में हमने जाना कि मज़दूर वर्ग तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने का अभिप्राय केवल मज़दूरों के बीच ही काम करना नहीं होता है, जैसा कि रूसी अर्थवादियों का मत था बल्कि इसका अर्थ आबादी के अन्य सभी संस्तरों या वर्गों के बीच भी मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी द्वारा अपनी मौजूदगी बनाना होता है। इसी प्रक्रिया में मज़दूर वर्ग राजनीतिक तौर पर शिक्षित-प्रशिक्षित होता है। हमने यह भी समझने का प्रयास किया कि पार्टी सर्वहारा वर्ग का एक विशिष्ट संगठन होती है और उसका सर्वोच्च विचारधारात्मक व राजनीतिक केन्द्र या हेडक्वार्टर होती है। ज़ाहिरा तौर पर, एक मज़दूर भी जब हिरावल की भूमिका में होता है तो वह एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता या बौद्धिक के तौर पर कम्युनिस्ट चेतना का प्रतिनिधित्व करता है, न कि मज़दूर वर्ग के सामान्य हिस्से के तौर पर स्वतःस्फूर्त मज़दूर चेतना का। इस बिन्दु को हमने पहले भी रेखांकित किया है क्योंकि बहुतेरे अधकचरे “मार्क्सवादी” इस बात को नहीं समझते हैं और फिर अपनी इसी ग़लत समझदारी के चलते लेनिनवादी हिरावल पार्टी की अवधारणा पर बेवजह “आलोचना” के तीर बरसाने लगते हैं।

बहरहाल, हम अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। ‘क्या करें?’ में ही लेनिन बताते हैं कि मज़दूर वर्ग जनवाद के लिए लड़ने वाला हिरावल वर्ग होता है। यह बात सच है कि लेनिन जिस दौर में क्या करें?’ लिख रहे थे, उस दौर में रूस जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में था लेकिन यह बात आम तौर पर भी लागू होती है कि मज़दूर वर्ग आम जनवादी अधिकारों और माँगों के लिए किसी भी संघर्ष में अग्रणी भूमिका अदा करता है और उसे ऐसा करना ही चाहिए। यदि मज़दूर वर्ग ऐसा कर पाने में अक्षम साबित होता है, तो इस संघर्ष का नेतृत्व सहज बुर्जुआ ताक़तों के पास आयेगा। सामाजिक जनवाद (कम्युनिस्टों) के आम जनवादी कार्यभारों का उल्लेख करते हुए लेनिन कहते हैं कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना बढ़ाने का काम केवल आर्थिक संघर्षों के ज़रिये हो ही नहीं सकता है क्योंकि आर्थिक संघर्ष का दायरा, उसका फ्रेमवर्क बेहद संकुचित होता है। हमने पिछले अंक में चर्चा की थी कि मज़दूरों में वर्ग राजनीतिक चेतना सीधे-सरल तरीके से आर्थिक संघर्षों के भीतर से विकसित नहीं होती है बल्कि बाहर से ही लायी जा सकती है। यानी सामाजिक जनवादी राजनीतिक चेतना तक पहुँचने के लिए आवश्यक है कि मज़दूर वर्ग सिर्फ़ उन्हीं संकीर्ण आर्थिक हितों और माँगों के लिए ही नहीं लड़ता है जो सीधे तौर पर उसे प्रभावित करती हैं बल्कि वह अत्याचार और उत्पीड़न की प्रत्येक अभिव्यक्ति पर, वह चाहे कहीं भी घटित हुई हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग से रिश्ता हो, सर्वहारावर्गीय नज़रिये से अवस्थिति अपनाता है और हस्तक्षेप करता है। इसकी चर्चा हमने विस्तारपूर्वक पिछले अंक में की थी।

स्पष्ट है कि इस जनवादी अधिकार के तहत पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से की “लूट व शोषण की स्वतन्त्रता का अधिकार” शामिल नहीं है। लेकिन इसके विपरीत हमारे यहाँ पिछले वर्षों में चले धनी किसान आन्दोलन के दौरान नरोदवादियों, पंजाब के कौमवादी-भाषाई अस्मितावादी “मार्क्सवादियों”, पटना के दोन किहोते यानी पीआरसी सीपीआयी (एमएल) के महासचिव अजय सिन्हा जैसों का मत था कि एमएसपी के रूप में बेशी मुनाफ़े का अधिकार धनी किसान-कुलक वर्ग को मिलना ही चाहिए, मानो कि यह इस शोषणकारी-दमनकारी वर्ग का जनवादी अधिकार हो और ये “हस्तियाँ” मज़दूर वर्ग का इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनने के लिए तरह-तरह की बौद्धिक कलाबाज़ियाँ अंजाम देकर आह्वान भी कर रही थीं!

खेतिहर पूँजीपति वर्ग की न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी के रूप में बेशी मुनाफ़े की माँग उनकी कोई जनवादी माँग नहीं है बल्कि सीधे तौर पर यह पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से की ऐसी आर्थिक माँग है जोकि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकाश आबादी (जिसमें कि गाँव के छोटे किसान भी शामिल हैं) के तात्कालिक व दूरगामी हितों के ख़िलाफ़ जाती है क्योंकि एमएसपी खाद्यान्न की क़ीमतों को बढ़ाने का काम करता है। यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा विनियोजित अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने की मज़दूर-मेहनतकश विरोधी माँग है। इसलिए मज़दूर वर्ग द्वारा आम तौर पर जनवाद की हिफ़ाज़त करने का मतलब पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के अधिकार को सुनिश्चित करना कत्तई नहीं है। ऐसा करना शुद्ध वर्ग सहयोगवाद और निकृष्टतम श्रेणी का अवसरवाद है। उपरोक्त लेनिनवादी शिक्षा का, यानी कि मज़दूर वर्ग के जनवाद के लिए लड़ने वाले हिरावल वर्ग के तौर पर लेनिन की प्रस्थापना का, अवसरवादी हस्तगतिकरण करने वाले लोग दरअसल सर्वहारा कार्यदिशा की जगह वर्ग सहयोगवादी बुर्जुआ कार्यदिशा लागू करते हैं और इस प्रकार मज़दूर वर्ग को अपने शत्रु वर्ग से हाथ मिलाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। साथ ही, वर्ग सहयोग की यह नीति किसी भी रूप मेंअर्थवादका खण्डन या निषेध नहीं है और न ही यह मज़दूर वर्ग द्वारा “राजनीतिक तौर पर सोचने” का पर्याय है। यह सच है कि एक राजनीतिक वर्ग और हिरावल वर्ग के रूप में मज़दूर वर्ग हर मौक़े पर अपनी तात्कालिक विशिष्ट आर्थिक माँगों को ही तरजीह नहीं देता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग उन माँगों का भी समर्थन करे जो उसके दूरगामी हितों के ख़िलाफ़ जाती हो। यहराजनीतिकहोना नहीं है बल्कि पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनना है और अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति को गिरवी रखना है। वर्ग सहयोगवाद की इस कार्यदिशा को सही साबित करने के लिए ऐसे “सुधिजन” कुलक आन्दोलन के दौरान मज़दूर वर्ग को “राजनीतिक तौर पर सोचने” की नसीहत दे रहे थे। साथ ही साथ, यह कोई रणकौशल (टैक्टिस) का प्रश्न मात्र भी नहीं है। वैसे भी हर रणकौशल सर्वहारा वर्ग के आम राजनीतिक दूरगामी हितों के मातहत होता है और ठीक इसलिए इन हितों के विपरीत नहीं जा सकता है।

यह स्पष्टीकरण यहाँ देना आवश्यक था क्योंकि लेनिन की उक्त बात का विकृतीकरण करते हुए मज़दूर आन्दोलन के भीतर कई लोग मिलते हैं जो बेहद अवसरवादी तरीक़े से मज़दूर वर्ग को “राजनीतिक” बनने का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे लोग दरअसल आन्दोलन के आम मसलों पर घोर अर्थवादी होते हैं लेकिन पूँजीपति वर्ग से सहयोग करने की कार्यदिशा देने के मामले में अचानकराजनीतिबघारने लगते है!

बहरहाल, क्या करें?’ लेनिन मार्तिनोव जैसे अर्थवादियों की आलोचना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि वे लोग दरअसल सामाजिक जनवाद/कम्युनिस्ट राजनीति को ट्रेड यूनियनवाद के स्तर तक ले आते हैं और मज़दूर वर्ग समेत आबादी के अन्य वर्गों के बीच राजनीतिक कार्य की अनदेखी करते हैं। लेनिन के अनुसार मज़दूर वर्ग के साथसाथ अन्य सभी वर्गों की सामाजिक राजनीतिक स्थिति की सभी विशिष्टताओं का अध्ययन करना सामाजिक जनवादी कार्य का बुनियादी अंग है। अर्थात जनता के सभी संस्तरों के बीच प्रचार और उद्वेलन का काम बेहद ज़रूरी है जिसमें कि व्यापक अर्थों में राजनीतिक भण्डाफोड़ सर्वोपरि है। लेनिन बताते हैं कि अर्थवादी शब्दों में इन बातों को मानते हैं लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा करते हैं। लेनिन समझाते हैं कि सर्वहारा वर्ग द्वारा ख़ुद को सभी क्रान्तिकारी शक्तियों का “अगुवा दस्ता” या “अग्रदल” कह देने से वह ऐसा बन नहीं जायेगा, हमें इस तरह काम करना होगा जिससे कि अन्य सभी दस्ते हमें इस रूप में देखें और यह मानने के लिए मजबूर हों कि हम सबके आगे-आगे चल रहे हैं। लेनिन जोड़ते हैं कि दूसरे “दस्तों” के प्रतिनिधि इतने मूर्ख नहीं हैं कि वे केवल हमारे यह कहने से ही मान लेंगे कि हम “अग्रदल” या हिरावल हैं। और यदि सर्वहारा वर्ग यह कार्यभार पूरा करने में असफल रहता है, तो आन्दोलन का नेतृत्व पूँजीवादी/बुर्जुआ ताक़तों के हाथ में आना लाज़मी है। ज़ाहिरा तौर पर अर्थवादी कार्यदिशा इसी नतीजे तक पहुँचा सकती है। जैसा कि हमने पहले भी इंगित किया था अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद कुछ और नहीं मज़दूर वर्ग और मज़दूर आन्दोलन के भीतर बुर्जुआ राजनीति है। रूसी अर्थवादियों का तो वैसे भी यही मानना था कि राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यानी जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के लिए उदार बुर्जुआ शक्तियाँ पर ही निर्भर करना चाहिए।

राजनीतिक भण्डाफोड़ के लिए आवश्यक एक अखिल-रूसी अखबार का विचार, जो लेनिन सबसे पहले कहाँ से शुरुआत करें?’ में व्यक्त करते हैं, (और जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं) क्या करें?’ में पुनःरेखांकित करते हैं। लेनिन ज़ोर देकर कहते हैं कि देशव्यापी भण्डाफोड़ का मंच एक अखिल-रूसी अखबार ही हो सकता है और यह भी कि एक राजनीतिक मुखपत्र के बिना राजनीतिक आन्दोलन अकल्पनीय है। लेनिन लिखते हैं,

जिस प्रकार आर्थिक भण्डाफोड़ कारख़ानों के मालिकों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा करता है, उसी प्रकार राजनीतिक भण्डाफोड़ सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा करता है।अतएव स्वयं राजनीतिक भण्डाफोड़ उस व्यवस्था को  छिन्नभिन्न करने का एक शक्तिशाली साधन है, जिसका हम विरोध करते हैं, वे दुश्मन से उसके आकस्मिक अथवा अस्थायी सहयोगियों को अलग करने का साधन हैवे निरंकुश सत्ता (रूस में उस वक़्त निरंकुश ज़ारशाही का शासन थालेखिका) के स्थायी साझेदारों के बीच दुश्मनी और अविश्वास फैलाने का साधन है। हमारे ज़माने में सिर्फ़ वही पार्टी क्रान्तिकारी शक्तियों का हिरावल दस्ता बन सकती है, जो सचमुच देशव्यापी पैमाने पर भण्डाफोड़ों को संगठित करेगी।बाहरी लोगों (ग़ैरमज़दूरवर्गीय आबादी) की नज़रों में ऐसी राजनीतिक ताक़त बनने के लिए हमें ख़ुद अपनी चेतना, पहल और उत्साह को बढ़ाने का काम बहुत लगन और धैर्य से करना होगा। इस काम को पूरा करने के लिए पिछलग्गूवाद के सिद्धान्त और व्यवहार परहिरावलका ठप्पा लगा देने से काम नहीं चलेगा।

पाठक देख सकते हैं कि लेनिन की आलोचना के निशाने पर यहाँ अर्थवादी हैं जिनकी कथनी और करनी में मीलों का फ़ासला है। कथनी में अर्थवादी “मज़दूर वर्ग से घनिष्ठ सम्बन्ध” स्थापित करने के लिए कई ख़ालिस अर्थवादी नुस्खे तो सुझाते हैं लेकिन करनी में पिछलग्गूवाद और स्वतःस्फूर्ततावाद पर अमल करते हैं। हालाँकि अपनी इस वास्तविक “राजनीति” को छिपाने के लिए वे बीच-बीच में “हिरावल” आदि शब्दों का प्रयोग ज़रूर करते हैं लेकिन इससे अर्थवादी राजनीति की अन्तर्वस्तु बदल नहीं जाती है। 

लेनिन आगे बताते हैं कि जब कम्युनिस्ट देशव्यापी भण्डाफोड़ को संगठित करने का काम अपने हाथों में लेते हैं तो इसका मतलब ही यह है कि यह सर्वांगीण राजनीतिक उद्वेलन एक ऐसी पार्टी ही कर सकती है- जो सरकार के विरुद्ध समस्त जनता के नाम पर हमला बोलने का काम, सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उसे क्रान्तिकारी प्रशिक्षण देने का काम और मज़दूर वर्ग के आर्थिक संघर्ष का नेतृत्व करने व अपने शोषकों के साथ मज़दूर वर्ग के स्वतःस्फूर्त टकरावों का इस्तेमाल करने का काम- जो ये सभी काम अभिन्न रूप से एक साथ मिलाकर करती हो। इसके साथ ही ऐसी पार्टी मार्क्सवाद के हर क़िस्म के विकृतिकरण के विरुद्ध विचारधारात्मक मोर्चा भी खोलती है। लेकिन अर्थवाद की चारित्रिक विशेषताओं में से एक यह है कि वह इन कार्यभारों के आपसी सम्बन्धों को समझने में नाकाम है। बतौर हिरावल, कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में संगठित सर्वहारा वर्ग सामाजिक व राजनीतिक जीवन के हर मसले पर हस्तक्षेप करता है और सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण से अपनी अवस्थिति तय करता है। जनवादी मसलों पर हस्तक्षेप करने का मतलब वर्गीय राजनीति छोड़ना नहीं होता है, लेकिन कहने की आवश्यकता नहीं कि यह हस्तक्षेप पूँजीपति वर्ग के नज़रिये से नहीं, कम्युनिस्ट नज़रिये से होना चाहिए, सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति बरक़रार रखकर होना चाहिए।

मज़दूर आन्दोलन में व्याप्त अर्थवादी प्रवृत्ति का केवल राजनीतिक कार्यभारों के प्रति ही संकुचित दृष्टिकोण प्रकट नहीं होता है बल्कि सांगठनिक कार्यभारों के प्रति भी यह दृष्टिकोण दिखलाई पड़ता है। लेनिन क्या करें?’ में लिखते हैं कि “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” के लिए ज़ाहिरा तौर पर किसी देशव्यापी केन्द्रीयकृत संगठन की आवश्यकता नहीं है, जो राजनीतिक असन्तोष, विरोध और गुस्से की हर प्रकार की अभिव्यक्ति को एक लड़ी में पिरोकर उन्हें एक संयुक्त आक्रमण का रूप दे सके, जो पेशेवर क्रान्तिकारियों का संगठन हो और जिसका नेतृत्व समस्त जनता के सच्चे राजनीतिक नेता करते हों। हमने पहले भी ज़िक्र किया था कि किसी भी संगठन का चरित्र इससे तय होता है कि उसकी गतिविधियों का दायरा और सारतत्व क्या है। आर्थिक संघर्षों को निर्दिष्ट करने के लिए ट्रेड यूनियन के जन संगठन पर्याप्त है। लेकिन मज़दूर वर्ग की सभी गतिविधियाँ ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित नहीं होती हैं, यदि उसे राजनीतिक तौर पर एक वर्ग बनना है। अर्थवादी दरअसल सांगठनिक मामलों में भी स्वतःस्फूर्तता के ही पुजारी होते हैं और इसलिए संगठन के स्वतःस्फूर्त ढंग से विकसित होते रूपों को ही वन्छानीय मानते हैं। लेनिन ने इससे सांगठनिक मामलों में अर्थवादियों के नौसिखुएपन की संज्ञा दी। यह नौसिखुआपन, लेनिन के अनुसार, केवल प्रशिक्षण के अभाव को नहीं दिखलाता है, बल्कि यह नौसिखुआपन आम तौर पर क्रान्तिकारी संगठन की गतिविधियों के दायरे को संकुचित करने के मामले में भी नज़र आता है। इसके साथ ही लेनिन ने स्पष्ट किया कि पिछड़ेपन और स्वतःस्फूर्तता की हिमायत करने वाली और सांगठनिक मामलों में संकुचित और निम्न कोटि की समझदारी रखने वाली हर प्रवृत्ति के विरुद्ध भी डटकर लड़ना बेहद ज़रूरी है, जिसका प्रतिनिधित्व मज़दूर आन्दोलन में अर्थवादी करते हैं। सांगठनिक गतिविधियों के मामले में पैदा हुई यह संकीर्णता तब तक दूर नहीं की जा सकती जब तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अर्थवाद को आम तौर पर दूर नहीं करते। 

क्या करें?’ में लेनिन मज़दूर वर्ग के संगठन के रूपों के विकसित होने का एक ऐतिहासिक कालक्रम प्रस्तुत करते हैं और बताते हैं कि मज़दूर वर्ग के राजनीतिक तौर पर संगठित होने के शुरुआती दौरों में इसमें अनगढ़पन होना लाज़िमी सी बात थी। लेकिन जैसे-जैसे वर्ग युद्ध और वर्ग संघर्ष गम्भीर और तीव्र होता चला गया, इन सांगठनिक रूपों की सीमाएँ भी ज़ाहिर होती चली गयीं और क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत भी स्पष्ट होती चली गयी।

यानी अर्थवाद सांगठनिक मामलों में भी सचेतनता के बरक्स स्वतःस्फूर्तता को ही प्राथमिकता देता है और सांगठनिक रूपों में सचेतन तत्व की अनिवार्यता को नकारता है। इसके अनुसार सर्वहारा को राजनीतिक क्रान्ति के लिए प्रशिक्षित करने वाला मार्क्सवादी दर्शन, विचारधारा और विज्ञान से लैस क्रान्तिकारियों का एक मज़बूत व केन्द्रीयकृत संगठन बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। जबकि क्रान्तिकारी मार्क्सवाद का मानना है कि मज़दूर आन्दोलन का सबसे प्राथमिक तथा आवश्यक व्यावहारिक कार्यभार क्रान्तिकारियों का ऐसा संगठन खड़ा करना है जो “राजनीतिक संघर्ष की शक्ति, उसके स्थायित्व और उसके अविराम क्रम को क़ायम रख सके।” इसके विपरीत कोई भी अन्य समझदारी दरअसल नौसिखुएपन और स्वतःस्फूर्तता का स्तुति-गान है और उसका समर्थन है। इसके आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।

(अगले अंक में जारी)    

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2023


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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