हर मोर्चे पर नाकाम मोदी सरकार, चन्द्रयान पर चढ़कर कर रही चुनाव प्रचार!

गायत्री भारद्वाज

देश में पिछले 10 साल के फ़ासीवादी मोदी राज में बेरोज़गारों की तादाद 30 करोड़ पहुँच गयी। इस दौरान 7 लाख लोगों को रोज़गार मिला, लेकिन 5 करोड़ से भी ज़्यादा लोगों की नौकरी नोटबन्दी और कुप्रबन्धित लॉकडाउन में दौरान चली गयी। महँगाई का आलम यह है कि आम आदमी की खाने की तश्तरी से दाल, सब्जियाँ, सलाद आदि ग़ायब हो चुके हैं। मज़दूर आबादी एक पोषणयुक्त भोजन तक नहीं खा पा रही है। स्त्रियों के विरुद्ध अपराध में ऐसी बढ़ोत्तरी कभी हुई ही नहीं थी और मोदी सरकार के राज में और कोई उम्मीद ही क्या की जा सकती है, जब ख़ुद भाजपा के नेता-मन्त्री बलात्कारों को अंजाम देने में देश के गुण्डों-लफंगों-अपराधियों की अगुवाई कर रहे हैं! अब तो हालत यह है कि किसी रास्ते से किसी भाजपा नेता-मन्त्री के गुज़रने की ख़बर होती है, तो आस-पास औरतें किसी सुरक्षित जगह चली जाती हैं, अपनी बच्चियों को घरों में खींच लाती हैं। मोदी का ‘बेटी बचाओ’ का नारा ‘भाजपाइयों से बेटी बचाओ’ में तब्दील हो चुका है।

देश में मोदी सरकार और ख़ुद नरेन्द्र मोदी इस क़दर कभी अलोकप्रिय नहीं हुए थे। कर्नाटक में शर्मनाक हार मिलने के बाद और अब छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और यहाँ तक कि राजस्थान तक से भाजपा को बुरी ख़बरें मिल रही हैं। भाजपा के रंगा-बिल्ला पहली बार चिन्तित हैं। ऐसे में, मोदी सरकार निम्न विकल्पों का इस्तेमाल करने पर विचार कर सकती है: आतंकी हमले आदि के आधार पर अन्धराष्ट्रवाद की लहर फैलाना, दंगे-फ़साद करवाकर वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना और ये सब न काम करे तो समूची चुनाव प्रक्रिया को ही बेअसर कर देना, मसलन, ईवीएम आदि का खेल खेलकर जनादेश को चुरा लेना। लेकिन इन सबके बारे में भी लोगों में भाजपा और मोदी के बारे में हुए हुक्मरानों के आपसी अन्तरविरोधों के कारण हुए तमाम खुलासों के कारण काफ़ी जागरूकता आ गयी है। मसलन, कई राज्यों के भूतपूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने पहले ही बता दिया कि चुनावों में अपनी हालत ख़राब देखने पर सत्ता को हथियाने के लिए मोदी-शाह की अगुवाई में भाजपा किसी भी हद तक जा सकती है। कोई ताज्जुब नहीं होगा कि कोई नया पुलवामा हो जाये, राम मन्दिर पर कोई हमला हो जाये, आदि। ऐसे में, इस तरह का खेल खेलने से भी देश की जनता में कितना असर होगा, इसको लेकर भाजपा का नेतृत्व सशंकित हो चला है।

नतीजतन, हताशा और घबराहट में भाजपा और नरेन्द्र मोदी हर चीज़ का ही चुनाव प्रचार में इस्तेमाल कर रहे हैं। किसी नाले पर बने पुल का उद्घाटन करने से लेकर, जी-20 सम्मेलन के भारत में आयोजित होने तक, किसी रेल को झण्डी दिखाने से लेकर गोदी मीडिया में झूठा प्रोपगैण्डा कर अपनी झूठी वैश्विक छवि बनवाने तक, नरेन्द्र मोदी वाकई 18 घण्टे काम कर रहे हैं! मोदी सरकार ने अपने झूठे प्रचार पर ही अरबों रुपये बहाए हैं, जो अगर जनकल्याण के कामों में लगते तो देश की ग़रीब मेहनतक़श जनता को कुछ फ़ौरी राहत तो मिल ही जाती। लेकिन जब जनता के पक्ष में कोई काम ही न किया हो, तो झूठे प्रचार पर अरबों रुपये तो बहाने ही पड़ते हैं!

अब नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए एक नया रथ मिल गया है: चन्द्रयान-3। आज तक किसी भी प्रधानमन्त्री ने देश के अन्तरिक्ष कार्यक्रमों की किसी भी उपलब्धि पर अपना इस कदर शर्मनाक और सस्ता चुनाव प्रचार करने का प्रयास नहीं किया है। चाहे पहली बार राकेश शर्मा नामक अन्तरिक्ष यात्री को अन्तरिक्ष में भेजना रहा हो, या अपने सैटेलाइटों को परिधि में स्थापित करना रहा हो, भारत के वैज्ञानिक श्रमिकों व वैज्ञानिकों ने पहली बार कोई उपलब्धि हासिल की हो, ऐसा नहीं है। पहले भी वैज्ञानिक मज़दूरों व वैज्ञानिकों के प्रयासों से तमाम उपलब्धियाँ हासिल हुई हैं और एक वैज्ञानिक उपलब्धि के कन्धे पर खड़े होकर ही अगली वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हासिल होती हैं। चन्द्रयान कार्यक्रम तो मनमोहन सिंह सरकार के समय ही शुरू हो गया था! इस बार की सफलता के पीछे दो बार की असफलता का भी हाथ है। असफलता ही सबसे बड़ी शिक्षक होती है, वही सफलता की जननी होती है। वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक श्रमिकों ने अपना काम किया, पहले की असफलता से सीखा और आगे चलकर सफलता हासिल की। यह भी ग़ौरतलब है कि जिस एचईसी (हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन) के मज़दूरों ने चन्द्रयान-3 को बनाया था, उनको 17 माह से मोदी सरकार ने तनख्वाह तक नहीं दी है! लेकिन चन्द्रयान-3 की सफलता का क्रेडिट लेने के लिए मोदी जी तत्काल कैमरे के सामने प्रकट हो जाते हैं, माना चन्द्रयान-3 उन्होंने ही बनाया हो!

इस प्रकार की वैज्ञानिक उपलब्धि में मोदी जी कहाँ से आ जाते हैं? लेकिन चन्द्रयान के चाँद पर उतरने से कुछ मिनटों पहले ही मोदी जी स्क्रीन पर प्रकट हो जाते हैं, वैज्ञानिकों को बीच-बीच में आधी स्क्रीन पर दिखाया जाता है, और मोदी जी छा जाते हैं! चन्द्रयान के उतरते ही मोदी जी का भाषण शुरू हो जाता है। मोदी जी प्लास्टिक का झण्डा लेकर आँखें मटका-मटकाकर झण्डा हिलाने लगते हैं! सारे टीवी स्क्रीनों पर यह छवि छा जाती है। गोदी मीडिया अपने अश्लील प्रचार में लग जाता है कि मोदी जी ने चाँद फ़तह कर लिया, पाकिस्तान कितना दुखी है, वगैरह; हिन्दुत्व राजनीति के कई चोमू चवन्नी चाँद पर “हिन्दू राष्ट्र” बनाने की माँग करने लगते हैं और एक ऐसी हास्यास्पद नौटंकी चालू होती है, जो पूरी दुनिया में शायद हमारे देश के दक्षिणपंथी और फ़ासीवादी ही करते हैं!

तब से अब तक रोज़ गोदी मीडिया के चैनलों पर चन्द्रयान-3 से जुड़ी ख़बरें दिखाकर मोदी का चुनाव प्रचार करवाया जा रहा है। लेकिन इन सारे प्रयासों के बावजूद व्यापक जनता में चन्द्रयान-3 की लैण्डिंग को मीडिया में मोदी द्वारा हाईजैक करने के प्रयास पर चिढ़ ही पैदा हुई है। एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें मोदी के स्क्रीन पर आते ही एक व्यक्ति उसे हटाने और वैज्ञानिकों को दिखाने को बोलता है। जब तक इसरो के वैज्ञानिकों को दिखलाया जा रहा था तब तक इसरो के ऑफिशियल चैनल पर चन्द्रयान की लैण्डिंग के अपडेट देखने वालों की तादाद 80 लाख से ऊपर थी; जैसे ही मोदी प्रकट हुए वैसे ही इसमें से आधे से अधिक लोगों यानी लगभग 60 प्रतिशत लोगों ने चैनल देखना ही छोड़ दिया! यानी, लोग अब इस शक्ल को भी नहीं देखना चाहते और सामने आ जाने पर उनके दिमाग़ में जो पहला भाव आता है वह है चिढ़ और गुस्सा।

इसलिए मोदी सरकार चन्द्रयान-3 का अपने 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार में इस्तेमाल का कितना भी प्रयास करे, वह कामयाब नहीं होने वाला है। दिखावटी शोशेबाज़ी कुछ समय तक कारगर होती है। लेकिन जब व्यापक मेहनतकश जनता बेहाली-बदहाली में पड़ी हो, तो चन्द्रयान-3 के चाँद पर उतरने से वह किसी झूठी देशभक्ति की लहर में नहीं बहती और न ही ही अपने असल मुद्दे भूलती है। हाँ, मध्यवर्ग की अलग बात है। और अगर हम भारत की मध्यवर्ग की बात कर रहे हों, तब तो निश्चित ही अलग बात है क्योंकि राजनीतिक रूप से इतना मूर्ख, अनपढ़ और अज्ञानी मध्यवर्ग दुनिया शायद कुछ ही देशों में हो। यह त्रिशंकु की तरह बीच में लटका होता है। तय नहीं कर पाता कि उसकी वफ़ादारी कहाँ पर है। जहाँ तक वह आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा से बिलबिलाता है, वहाँ वह सरकार और व्यवस्था के विरुद्ध दो शब्द बोलता है। लेकिन जैसे ही उसे जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अन्धराष्ट्रवाद में शासक वर्ग बहाने की कोशिश करता है, वैसे ही उसका अच्छा-ख़ासा हिस्सा इसमें बह भी जाता है। विशेष रूप में, उच्च व मध्य मध्यम वर्ग में ऐसा बर्ताव देखा जा सकता है।

लेकिन सिर्फ मध्यवर्ग के बूते भाजपा चुनाव जीतने को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकती। मध्यवर्ग वाचाल वर्ग होता है और सामान्य स्थितियों में कई बार यह माहौल सेट करने में एक भूमिका निभाता है और आम मेहनतकश आबादी भी अक्सर उस माहौल के अनुसार अपने राजनीतिक पक्ष को तय करती है। लेकिन यह असामान्य स्थितियों में नहीं होता जब देश का बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम अभूतपूर्व बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और भुखमरी का सामना कर रहा हो। पहले भी ऐसा हुआ है। मसलन, 2004 के चुनावों में। पूरे देश में मध्यवर्ग में भाजपा का चुनाव प्रचार बेकदर हावी था। यही वर्ग सबसे ज़्यादा बकबक भी करता है, इसलिए ऐसा लग रहा था कि देश में आडवाणी के चुनाव जीतने की हवा है। लेकिन नतीजा क्या रहा, यह सबको मालूम है। उस समय भी मीडिया का बड़ा हिस्सा भाजपा की जीत के पूर्वानुमान पेशकर जनता का मूड बनाने का प्रयास कर रहा था। निश्चित ही, कांग्रेस का शासन भी पूँजीपति वर्ग का ही शासन था और किसी क्रान्तिकारी विकल्प की गैर-मौजूदगी में जनता का 60-70 फ़ीसदी हिस्सा इस या उस पूँजीवादी चुनावी पार्टी को ही वोट देती है। उसे भी अपने जीवन में किसी गुणात्मक बदलाव की उम्मीद नहीं होती और अक्सर वह वोट का इस्तेमाल जा रही सरकार को दण्डित करने के लिए करती है।

निश्चित ही अभी यह नहीं कहा जा सकता कि नरेन्द्र मोदी की 2024 के चुनावों में वही हालत होगी, जो वाजपेयी सरकार और अगला प्रधानमन्त्री बनने को लपलपाये आडवाणी का हुआ था। लेकिन हर दिन के साथ मोदी सरकार की स्वीकार्यता घट रही है, यह एक ऐसा तथ्य है जिससे अब गोदी मीडिया भी इंकार नहीं कर पा रहा है। वह कह रहा है कि भाजपा की सीटें कम होंगी, कांग्रेस की बढ़ेंगी लेकिन फिर भी भाजपा जीत जायेगी! भाजपा द्वारा वित्तपोषित तमाम चुनाव सर्वेक्षण यही बोल रहे हैं और गोदी मीडिया के ज़रिये उनका प्रचार कर मूड बनाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इनका भी अपेक्षित असर नहीं हो पा रहा है।

इसलिए जनता को तैयार रहना चाहिए। 2024 में चुनावों के पहले भाजपा को अगर हार का डर सतायेगा, वह ईवीएम आदि के इस्तेमाल के बावजूद जीत के प्रति आश्वस्त नहीं होगी, तो जैसा कि सत्यपाल मलिक ने अन्देशा जताया है, वह किसी भी हद तक जा सकती है। कोई बड़ा दंगा, इत्तेफ़ाकन उसी समय कोई बड़ा आतंकवादी हमला, आदि। यह याद रखने की ज़रूरत है कि हमें अपने असल मुद्दों पर ही केन्द्रित रहना है: रोज़गार और शिक्षा का सवाल, श्रम अधिकारों का सवाल, आवास और चिकित्सा का सवाल, सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का सवाल। याद रखें: बाकी सारी बातें मेहनतकश वर्गों के लिए बेकार हैं।

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2023


 

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