ब्रिक्स और जी-20 शिखर सम्मेलनों में साम्राज्यवाद के बदलते समीकरणों की अनुगूँजें

आनन्द

गत 22 से 24 अगस्त के बीच दक्षिण अफ़्रीका के जोहानेस्बर्ग शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और 9 से 10 सितम्बर के बीच नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ। जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान आयोजक भारत की सरकार ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ तथा एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य के जुमलों का जमकर इस्तेमाल किया। इन्हें जुमले कहना इसलिए सही होगा क्योंकि इस तरह के सम्मेलनों को क़रीबी से देखने पर हम पाते हैं कि ये दुनिया में एकता, शान्ति, भाइचारे व सौहार्द्र की नहीं बल्कि दुनिया में बढ़ती अशान्ति, तनाव व टकराहटों की कहानी बयान करते हैं। इसलिए ऐसे सम्मेलनों की असली कहानी जानने के लिए इनकी सौहार्दपूर्ण आधिकारिक घोषणाओं, औपचारिक बयानों और मीडिया में की जा रही लफ़्फ़ाजियों के पीछे छिपी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी ताक़तों के बीच की खींचतान, रस्साकशी व कूटनीतिक उठापठक को समझना ज़रूरी है। यह उठापठक वास्तव में साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में आ रहे बदलावों और उसके अन्तरविरोधों के तीखे होने की ही अभिव्यक्ति है।

1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत यूनियन के पतन के बाद करीब एक दशक तक दुनिया एकध्रुवीय प्रतीत होती थी जिसमें मानो अमेरिकी साम्राज्यवाद को टक्कर देने वाली कोई शक्ति मौजूद ही नहीं थी। इस आभासी यथार्थ को वास्तविक यथार्थ समझते हुए प्रभात पटनायक जैसे कई सामाजिक जनवादी विश्लेषकों ने अन्तरविरोध से मुक्त साम्राज्यवाद की बात करनी शुरू कर दी थी। लेकिन नई सदी आते-आते परिस्थितियाँ बदलती दिखने लगती हैं और साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध सतह पर भी नज़र आने लगते हैं। रूस का सुदृढ़ीकरण होता है और चीन का तीव्र पूँजीवादी विकास होता है तथा रूस व चीन के रूप में दूसरी साम्राज्यवादी धुरी अस्तित्व में आती है। वहीं दूसरी ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद की आर्थिक शक्तिमत्ता का ह्रास होता है जो 2007 से शुरू हुई वैश्विक मन्दी से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। इसी के साथ विकसित पूँजीवादी देशों के आर्थिक ब्लॉक जी-7 (अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, जापान) की ताक़त में भी कमी आती दिखती है तथा दूसरी ओर ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका) का दूसरा ब्लॉक अस्तित्व में आता है। जी-20, ब्रिक्स से पहले ही अस्तित्व में आ चुका था, लेकिन ब्रिक्स के अस्तित्व में आने और उसकी प्रभाविता बढ़ने की वजह से जी-20 की प्रभाविता कम होने लगी। ग़ौरतलब है कि रूस और चीन भी जी-20 देशों में शामिल हैं, परन्तु उनकी जी-7 से प्रतिद्वंद्विता की वजह से जी-20 की प्रासंगिकता समय के साथ कम होती गयी है।

वर्तमान विश्व में दो साम्राज्यवादी ध्रुवों की होड़ की कूटनीतिक अभिव्यक्ति जी-7 देशों और ब्रिक्स में शामिल देशों के बीच देखने को मिल रही है जो ब्रिक्स व जी-20 के शिखर सम्मेलनों में साफ़ तौर पर देखने में आयी। इस बार ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण फ़ैसले के तहत 6 नए देशों – सऊदी अरब, यूएई, मिस्र, ईरान, अर्जेण्टीना और इथोपिया – को शामिल कर लिया। इसके अलावा भविष्य में इस समूह में अल्जीरिया, नाइजीरिया, इण्डोनेशिया, तुर्की और वियतनाम जैसे देशों के भी शामिल होने की सम्भावना है। इसके अतिरिक्त ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों ने एक-दूसरे की मुद्रा में विदेशी व्यापार करने पर भी सहमति जतायी। यह स्पष्ट रूप से विश्व व्यापार में अमेरिकी साम्राज्यवाद के दबदबे को खुली चुनौती है क्योंकि इससे डॉलर की स्थिति कमज़ोर होगी।

अमेरिकी साम्राज्यवाद के बरक्स दूसरी साम्राज्यवादी धुरी के दो मुख्य स्तम्भ रूस और चीन ब्रिक्स को ज़्यादा तरजीह दे रहे हैं। जी-20 में उनकी मौजूदगी महज़ औपचारिक रह गयी है और आने वाले वर्षों में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा तीखी होने पर वे उससे बाहर भी निकल सकते हैं। जी-20 के प्रति उनका रुख इसी से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे में शामिल देशों के राष्ट्राध्यक्षों व शीर्ष नेताओं ने नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में शिरकत की वहीं रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन व चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिन ने इसमें शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया और सापेक्षत: कनिष्ठ नेताओं को भेजा।

रूस व चीन जैसे देश इस समूह से पूरी तरह अलग न हो जाएँ और जी-20 समूह का औपचारिक तौर पर विघटन न हो जाए इसके लिए भारत के पूँजीपति वर्ग की प्रतिनिधि मोदी सरकार व उसके अधिकारियों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया। दुश्मनाना सम्बन्ध रखने वाली साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच आम सहमति बनाने के लिए सम्मेलन द्वारा जारी संयुक्त घोषणा को जानबूझकर इतना सामान्य रखा गया कि हर पक्ष उसकी अपने हिसाब से व्याख्या कर सकता है और अपनी जीत का दावा कर सकता है। घोषणा में सीधे तौर पर रूस-यूक्रेन युद्ध का कोई ज़िक्र ही नहीं है। उसमें कहा गया है कि ‘‘सभी राज्य किसी अन्य राज्य की क्षेत्रीय अखण्डता व सम्प्रभुता के ख़िलाफ़ जाकर उनपर क़ब्ज़ा करने के लिए धमकी या ताक़त का इस्तेमाल करने से बचेंगे।’’ स्पष्ट है कि यू्क्रेन में जारी विनाशकारी युद्ध पर अपनी अवस्थिति रखने की बजाय ऐसा शब्दाडम्बर जानबूझकर रचा गया है ताकि पश्चिमी साम्राज्यवादी देश कह सकें कि यह रूस के ख़िलाफ़ लिखा गया है और रूस कह सकता है कि यह पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ लिखा गया है क्योंकि इसमें रूस का नाम लेकर उसकी भर्त्सना नहीं की गयी है। इसी प्रकार शिखर सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन जैसे विवादास्पद मुद्दे पर भी पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों और तथाकथित ग्लोबल साउथ के पूँजीवादी देशों के बीच तनाव व तू-तू-मैं-मैं की स्थिति देखने में आयी। इस मुद्दे पर भी आम सहमति दिखाने के लिए किसी समय सीमा के भीतर कोई ठोस क़दम उठाने का फ़ैसला लेने की बजाय महज़ सामान्य रूप से वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर ज़ोर देने की बात कहीं गयी है। तमाम विवादास्पद मुद्दों पर इस प्रकार की इरादतन अस्पष्टता भारत जैसे सापेक्षिक रूप से पिछड़े पूँजीवादी देशों के पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत है क्योंकि वह साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में किसी एक खेमे में शामिल होकर किसी एक साम्राज्यवादी ताक़त का पिछलग्गू बनने की बजाय दोनों साम्राज्यवादी धुरियों के साथ सम्बन्ध बरकरार रखते हुए अपने मोलभाव की ताक़त को बढ़ाना चाहता है।

भारत का पूँजीपति वर्ग जब विश्व बन्धुत्व की बातें करता है तो उसके पीछे उसका अपना हित छिपा होता है, न कि समूची मानवता का! दोनों साम्राज्यवादी खेमों के साथ सम्बन्धों को बरकरार रखना उसके हित में है। यह सच्चाई रूस-यूक्रेन युद्ध में खुलकर सामने आयी। अमेरिका व पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के निरन्तर दबाव के बावजूद भारत के पूँजीपति वर्ग ने रूस के साथ सम्बन्धों को तोड़ने और उसपर प्रतिबन्ध लगाने की बजाय उसके साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाए रखे और उससे तेल को खरीदना जारी रखा क्योंकि यह उसके हित में था। सामरिक खेमेबन्दी में भी भारत के पूँजीपति वर्ग ने दोनों खेमे में अपनी मौजूदगी बनाए रखी है। एक तरफ़ वह शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन का हिस्सा है तो दूसरी तरफ़ वह अमेरिका, ब्रिटेन व जापान के साथ क्वाड में भी शामिल है। इस नंगी सच्चाई से आँख मोड़कर ही कोई भारत के पूँजीपति वर्ग को दलाल कह सकता है। लेकिन भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह त्रासदी ही कही जाएगी कि आज भी अधिकांश कम्युनिस्ट संगठन व पार्टियाँ भारत के पूँजीपति वर्ग को दलाल या कम्प्राडोर मान रही हैं।    

आज की दुनिया के साम्राज्यवादी समीकरणों को पुराने सूत्रीकरणों में जबरन फ़िट करके समझा ही नहीं जा सकता, इसका एक अन्य उदाहरण हम सऊदी अरब के मामले में देख सकते हैं। सऊदी अरब ऐतिहासिक रूप से अमेरिकी खेमे का हिस्सा माना जाता रहा है। परन्तु ब्रिक्स में उसका शामिल होना यह दिखाता है कि वह भी अमेरिका की कठपुतली नहीं है। वहाँ के पूँजीपति वर्ग ने अपने हित को सर्वोपरि रखा और उसे अमेरिका के दुश्मन खेमे के समूह में शामिल होने से कोई गुरेज़ नहीं हुआ। यही नहीं वह अमेरिकी ट्रेज़री बॉण्ड्स को बेचकर पेट्रोडॉलर पर अपनी निर्भरता को भी कम कर रहा है और युआन जैसी मुद्रा में व्यापार करने के लिए राज़ी हो रहा है।

आज के साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों की जटिलता चीन व भारत के बीच के आपसी कटुतापूर्ण सम्बन्धों की वजह से भी बढ़ रही है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच सीमा-विवाद तीखा हुआ है जो हिंसक झड़पों में भी तब्दील हुआ है। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के समापन के फ़ौरन बाद भारतीय मीडिया में यह ख़बर सुर्खियों में रही कि चीन ने एक नक्शा जारी किया है जिसमें उसने अरुणाचल प्रदेश और अकसाइ चीन को अपना हिस्सा दिखाया है। अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमा दोनो पड़ोसी देशों के बीच इस कटुतापूर्ण सम्बन्ध का लाभ उठाते हुए भारत को अपने खेमे की ओर खींचने की लगातार कोशिश करता आया है। इसी कोशिश का एक उदाहरण हमें जी-20 शिखर सम्मेलन में दिखी जब 8000 किमी वाले भारत-मध्यपूर्व-यूरोप समुद्र-रेलमार्ग-सड़क कॉरिडोर के निर्माण की घोषणा की गयी। यह भारत, मध्यपूर्व व यूरोप को समुद्र, रेल व सड़क मार्ग से जोड़ने वाला एक व्यापक परिवहन नेटवर्क बनाने की महत्वकांक्षी योजना है जिसे भविष्य में अफ़्रीका तक भी बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जी-20 शिखर सम्मेलन में एक अन्य फ़ैसले के तहत अफ़्रीकन यूनियन को भी जी-20 की सदस्यता दी गयी है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि अफ़्रीका के कई देश या तो ब्रिक्स समूह में भी शामिल हैं या फिर शामिल होने का आवेदन किया है।

ग़ौरतलब है कि भारत-मध्यपूर्व-यूरोप कॉरिडोर की योजना चीन की बेल्ट एण्ड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के जवाब में बनायी गयी है। चीन से अपनी प्रतिद्वंद्विता की वजह से भारतीय शासक वर्ग ने चीन की योजना बीआरआई में शामिल नहीं होने को फ़ैसला किया था। अमेरिका व यूरोपीय संघ द्वारा प्रस्तावित इस योजना में भारत का शामिल होना भी यह दिखाता है कि भारत का शासक वर्ग अपने हित में विभिन्न मुद्दों पर दोनों साम्राज्यवादी खेमों में किसी के भी साथ खड़ा हो सकता है।

चाहे यूक्रेन में जारी युद्ध हो या फिर दक्षिण चीन सागर व ताईवान में चीन व अमेरिका के बीच जारी तनाव हो, ये सभी आज के साम्राज्यवादी विश्व में दो साम्राज्यवादी खेमों के बीच जारी होड़ को ही दिखा रहे हैं। आने वाले दिनों में प्रबल सम्भावना इस बात की है कि यह होड़ और अधिक विध्वंसक रूप लेगी। इसी होड़ की अभिव्यक्ति ही हमें ब्रिक्स व जी-20 जैसे मंचों पर जारी कूटनीतिक रस्साकशी के रूप में दिखती है। इसलिए मज़दूर वर्ग को इन सम्मेलनों में शासक वर्गों द्वारा शान्ति व सौहार्द की फ़रेबी बयानबाज़ी के झाँसे में आने की बजाय इन्हें साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों के विकास की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए। साथ ही हमें आज की ठोस सच्चाईयों को पुराने सूत्रीकरणों में जबरन फ़िट करने की बजाय खुले दिमाग़ से आज की परिस्थितियों को अध्ययन करना होगा। केवल तभी हम इस साम्राज्यवादी दुनिया को क्रान्तिकारी दिशा में बदलने की दिशा में कारगर क़दम उठा सकेंगे।     

   

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023


 

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