छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे और उनके मायने

आशीष

विगत पाँच सितम्बर को देश के छह राज्यों के सात सीटों पर विधानसभा उपचुनाव के लिए मतदान हुआ और आठ सितम्बर को उसके नतीजे घोषित किए गये। 

जहाँ विधानसभा के सीटों पर उपचुनाव हुए वह है – घोसी (उत्तर प्रदेश), डुमरी (झारखण्ड), धूपगुड़ी (प. बंगाल), पुथुपल्ली (केरल), बागेश्वर (उत्तराखण्ड) और बॉक्सनगर व धनपुर (त्रिपुरा)।

गोदी मीडिया अन्य चुनावों की तरह ही इस उपचुनाव को भी 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताकर ख़बर चला रहा था। हर बार की तरह गोदी मीडिया सत्ता पक्ष यानी भाजपा के पक्ष में लहर पैदा करने काम पूरी लगन से कर रहा था। यह अलग बात है कि भाजपा आरएसएस द्वारा फैलाये जा रहे हर उन्माद और गोदी मीडिया के चाटुकार पत्रकारों के मदद के बावजूद भी भाजपा के हिस्से में बमुश्किल केवल तीन सीटें ही आ सकी जिसमें से एक वह बहुत मुश्किल से जीत पायी, और चार सीटों पर भाजपा की एनडीए गठबन्धन को हार का मुँह देखना पड़ा।

अब अलग-अलग राज्यों के सीटों के परिणामों पर नज़र डालते हैं।

घोसी (उत्तर प्रदेश) के विधानसभा सीट पर चुनाव समाजवादी पार्टी के दारा सिंह चौहान द्वारा पाला बदलकर भाजपा में शामिल होने के कारण हुआ। इस चुनाव में भाजपा की ओर से दारा सिंह चौहान चुनाव लड़ रहे थे और समाजवादी पार्टी की तरफ से सुधाकर सिंह। परिणाम समाजवादी पार्टी के पक्ष में आया और उसकी जीत हुई। विगत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दारा सिंह चौहान के जीतने के पहले इस सीट पर भाजपा उससे पहले के विधानसभा चुनाव में लगातार दो बार जीत हासिल कर चुकी थी। इस बार के चुनाव प्रचार में योगी आदित्यनाथ ने भी प्रचार किया था और भाजपा नेता और राज्य के उपमुख्यमन्त्री केशव मौर्य ने तो प्रचार के दौरान लम्बे समय तक वहाँ कैम्प किया था।

पहचान और आरक्षण की राजनीति करने वाले नेता ओमप्रकाश राजभर की पार्टी पिछले दिनों एनडीए में शामिल हो गयी है। ओमप्रकाश राजभर पाला बदलने में बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार से बहुत ज़्यादा पीछे नहीं है। पाला बदलने के साथ साथ ओमप्रकाश राजभर अनाप-शनाप बोलने और बड़बोलेपन के महारथी हैं। ओमप्रकाश राजभर जब भाजपा गठबन्धन के ख़िलाफ़ होता है तो उसके लिए निहायती सस्ते क़िस्म के जुमले का इस्तेमाल करता है और जब भाजपा के पक्ष में खड़ा होता है तो विपक्षियों के लिए इसी प्रकार के बयानों का सहारा लेकर मीडिया में सुर्खियाँ बटोरता है। किसी व्यक्ति को यह लग सकता है कि यह ओमप्रकाश राजभर का दोमुँहापन या मसखरापन है, लेकिन मज़दूर साथियों को यह समझ लेना चाहिए कि यह केवल उस व्यक्ति या पार्टी की समस्या नहीं है। जाति और किसी अन्य अस्मिता या पहचान की राजनीति की यही नियति हो सकती है। पहचान की राजनीति की कोई प्रतिबद्धता नहीं होती है इसीलिए राजभर के अलावा और भी कई सारे अस्मितावादी राजनीति के नेताओं ने सत्ता और ताकत के लिए किसी भी मज़दूर मेहनतकश विरोधी सरकार या पार्टी से सौदेबाज़ी में कभी गुरेज़ नहीं किया। बहरहाल मूल मुद्दे पर वापस लौटते हैं। ओमप्रकाश राजभर ने भी भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी इसके बावजूद घोसी में भाजपा को बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा। विपक्षी दलों गठबन्धन भी जनता की नुमाइन्दगी नहीं करता वर्तमान सरकार के ख़िलाफ़ असंतोष और विकल्पहीनता के कारण ही यहां उसकी जीत हुई।

पश्चिम बंगाल के धूपगुड़ी विधानसभा सीट भी भाजपा के हाथ से निकल गयी। यहाँ पर ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार की जीत हुई। इस सीट पर चुनाव लड़ रही संसदीय वामपन्थी और संशोधनवादी पार्टी सीपीआईएम के उम्मीदवार को कांग्रेस के समर्थन के बावजूद बेहद ही कम वोट मिले और भयंकर पराजय का सामना करना पड़ा।

झारखण्ड के डुमरी विधानसभा सीट पर भी भाजपा गठबन्धन की आजसु पार्टी के उम्मीदवार को हेमन्त सोरेन की पार्टी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार से हार मिली।

केरल के पुथुपल्ली विधानसभा सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार को जीत मिली और वहाँ सत्तासीन तथाकथित लेफ्ट गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस और संसदीय वामपन्थी, संशोधनवादी पार्टियाँ देश स्तर पर इण्डिया गठबन्धन बनाकर भाजपा को सत्ता से हटाने की बात करती है और केरल में इनके बीच खींचतान का नमूना यहाँ के विधानसभा उपचुनाव में सीधे तौर पर देखने को मिला।

उत्तराखण्ड के बागेश्वर विधानसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार को जीत हासिल हुई। यह सीट भाजपा विधायक चन्दन राम दास के मृत्यु के बाद खाली हुई थी। कांग्रेस उम्मीदवार को यहाँ पर हार का सामना करना पड़ा। उत्तराखण्ड के अन्दर जनता भाजपा की धामी सरकार से त्रस्त है लेकिन वहाँ भी विपक्षी पार्टी कांग्रेस , भाजपा की उन्मादी साम्प्रदायिकता की राजनीति के बरक्स नरम हिन्दुत्व के कमजोर हथियार से मुक़ाबला कर रही है। इसके अलावा राज्य में पिछले दिनों भाजपा आरएसएस द्वारा प्रायोजित साम्प्रदायिक तनाव के माहौल ने भी उसके पक्ष में चुनावी जीत को सुनिश्चित करने में एक भूमिका निभायी।

त्रिपुरा के बॉक्सनगर और धनपुर सीट पर भाजपा उम्मीदवार ही चुनाव में जीते। संशोधनवादीपार्टी सीपीआईएम के उम्मीदवार को यहाँ पर हार का सामना करना पड़ा। त्रिपुरा के अन्दर सीपीआईएम की सरकार रह चुकी है। मज़दूर मेहनतकश वर्ग से गद्दारी कर चुकी सीपीआईएम के कुकर्मों का नतीजा यह है कि वहाँ अपने व्यापक सामाजिक आधार के बावजूद इसकी हालत दिन-ब-दिन चुनावी राजनीति में भी फिसड्डी होती जा रही है। जिन्हें क्रान्ति करनी ही ना हो वह क्यों जनता के बीच क्रान्तिकारी प्रचार और उसको गोलबन्द करने का काम करेगी? क्रान्तिकारी प्रचार प्रसार और कैडरों के शिक्षण प्रशिक्षण नहीं होने के कारण इस पार्टी के अधिकतर कैडरों में भी कोई प्रतिबद्धता नहीं बचा है। सत्ता चले जाने के बाद एक बड़ा हिस्सा भाजपा के कतार में जाकर शामिल हो रहा है त्रिपुरा के अलावा बंगाल एवं अन्य राज्यों में यही स्थिति है।

सामान्य तौर पर देखा जाए तो यह उपचुनाव भी इस व्यवस्था के अन्दर होने वाले अन्य चुनावों के तरह ही था । हम जानते हैं कि पूँजीपतियों के इस लोकतन्त्र यानी बुर्जआ जनवाद के जरिये शासक वर्ग मज़दूर व मेहनतकश जनता पर शासन करने के लिए उन्हीं से सहमति लेता है। देश के भीतर मौजूद सभी बुर्जआ चुनावबाज़ पार्टी और सभी नकली वामपन्थी पार्टी बुर्जआ वर्ग के किसी न किसी धड़े का प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिए इन पार्टियों के बीच आपसी कुत्ताघसीटी भी होती है, झगड़े होते हैं लेकिन मज़दूरों के मेहनत को लूटने खसोटने में इनके बीच एकता भी होती है। इस व्यवस्था के अन्दर होने वाले सभी चुनाव इस तथ्य का अपवाद नहीं होता। हाँ, अगर किसी चुनाव में मज़दूर वर्ग का अपना स्वतन्त्र क्रान्तिकारी विकल्प हो तो स्थिति अलग होती है। यह स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष मज़दूर और मेहनतकश जनता को इस या उस  बुर्जआ चुनावबाज़ पार्टी या नकली वामपन्थी पार्टी के पिछलग्गू बनने के बजाय एक सही विकल्प पेश करता है। निश्चय ही, चुनावों के रास्ते इतिहास में कभी समाज में कोई आमूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन चुनाव के क्षेत्र में मज़दूर वर्ग अगर रणकौशलात्मक तौर पर अपना स्वतन्त्र पक्ष निर्मित नहीं करता, तो मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदाय बुर्जुआ वर्ग के पिछलग्गू बनते हैं। मज़दूर मेहनतकश जनता का एक स्वतन्त्र क्रान्तिकारी विकल्प यानी किसी क्रान्तिकारी पार्टी द्वारा चुनाव में हिस्सेदारी करने पर बुर्जआ वर्ग के आपसी अन्तरविरोधों का फ़ायदा उठाकर तथा जन आन्दोलनों के दबाव के दम पर इस व्यवस्था के दायरे के अन्दर सम्भव मज़दूर-मेहनतकश जनता के जनवादी अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष भी करती है, लेकिन वह इसी रास्ते इंक़लाब का ख़याली पुलाव नहीं पकाती। इसके साथ ही इस रणकौशलात्मक भागीदारी के ज़रिये क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत का भण्डाफोड़ करती है और मज़दूर मेहनतकश के दूरगामी लक्ष्य यानी यानी समाजवादी क्रान्ति के लक्ष्य व समाजवादी कार्यक्रम से भी अवगत कराती है।

बहरहाल, इस विधानसभा चुनाव के परिणाम को देखे तो यह स्पष्ट दिखलाई पड़ता है मोदी और भाजपा की जो लहर मीडिया द्वारा बनाई गयी थी वह ढलान पर है। सातों सीटों के चुनाव में भाजपा नेताओं ने मोदी के नाम पर वोट करने की अपील की जिसका उतना असर लोगों पर नहीं हुआ। महॅंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और मोदी सरकार की जन विरोधी नीतियों के कारण देश के व्यापक आबादी में एक असन्तोष का वातावरण है। विधानसभा उपचुनाव के नतीजे इस तरफ संकेत कर रहा है। साथ ही यह नज़र आ रहा है कि बुर्जुआ व्यवस्था के भीतर विकल्पहीनता के दायरे में ही सही, अगर बुर्जुआ विपक्ष मोदी सरकार द्वारा बाँह मरोड़ने के प्रयासों से आतंकित नहीं हुआ और कम-से-कम 300 सीटों पर विपक्ष का एक अकेला उम्मीदवार खड़ा करने में कामयाब हुआ, तो भाजपा के लिए 2024 के चुनावों में दिक्कत पैदा हो सकती है। इसीलिए भाजपा अभी से साम्प्रदायिक दंगे व लहर फैलाने और अन्धराष्ट्रवाद फैलाने की कोशिशों में लग गयी है। जनता को सावधान रहना होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023


 

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