चैट जीपीटी और “मानव समाज पर ख़तरा!”

सनी

चैट जीपीटी नाम के सॉफ़्टवेयर के बाज़ार में उतरते ही एक बार फिर मशीनों द्वारा मानव को ग़ुलाम बना लेने की कल्पना को हवा मिली। यह इस सॉफ़्टवेयर की निर्माता कम्पनी ‘ओपन एआई’ की सोचे-समझे तौर पर तय की गयी विज्ञापन नीति भी थी, जिस कारण अचानक ही अख़बारों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर यह ख़बर तेज़ी से फैली। 

चैट जीपीटी और गूगल बोर्ड अनुवाद करने, कोड लिखने तथा इण्टरनेट से बिखरी जानकारी को तरतीब से पेश करने में काम आ रहा है। यह एक अनुवाद करने वाला एआई (आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम मेधा) है जो एक भाषा का दूसरी में बेहतर अनुवाद करता है। आज स्मार्ट फोन में गूगल असिस्टेंट, सिरी से लेकर गूगल इमेज सर्च, कम्प्यूटर गेम्स में तथा शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव को समझने तक में आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस का इस्तेमाल हो रहा है। हालाँकि इसका इस्तेमाल सर्न की लैबोरेटरी, नासा और तमाम शोध संस्थान लम्बे अरसे से वैज्ञानिक प्रयोगों की गणना को आसान बनाने के लिए कर ही रहे हैं, परन्तु अब इसे बाज़ार में ऐप के रूप में बिक सकने वाले माल के रूप में उतारा गया है, जिस कारण ही इसे लेकर बुर्जुआ मीडिया द्वारा अनर्गल धुन्ध फैलायी जा रही है। 

उजरती ग़ुलामी के कट्टर समर्थक और ट्विटर (अब ‘एक्स’) के मालिक एलोन मस्क से लेकर तमाम पूँजीपतियों ने मशीनों द्वारा भविष्य में “मानव समाज को ग़ुलाम” बनाये जाने की चिन्ता प्रकट की है! यह पूँजीवादी व्यवस्था के वर्चस्व का ही उदाहरण है। पूँजीपति वर्ग ही मानवता को ख़तरे की तरफ़ धकेल रहा है और दूसरी तरफ़ समूची मानवता को ‘मशीनों’ से बचा लेने की अपील कर रहा है। मानवता को ख़तरा तो है, पर वह पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग से है। परन्तु इस समस्या को ही बुर्जुआ वर्ग विचारधारात्मक तरीके से पलटकर समूची मानवता के लिए ख़तरे के रूप में मशीनों को ही दोष दे रहा है। असल सवाल ‘मशीन बनाम मानवता’ का नहीं है बल्कि ‘पूँजीवाद बनाम मानवता’ का है। हालाँकि यह चर्चा पहली बार नहीं हो रही है। हमारे सामने एक बार फिर से प्रचार का वही शोर है, जो डीप ब्लू कम्प्यूटर द्वारा महान शतरंज खिलाड़ी गैरी कास्पारोव को हराने के समय उठा था। 2019 में भी ‘अल्फा गो’ द्वारा बोर्ड खेल ‘गो’ के बेहतरीन खिलाडियों को हराने पर ऐसा ही शोर उठा था।

आम मज़दूर आबादी में इस तरह की ख़बरें तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर प्रचलित भी हो रही हैं। यूट्यूब पर तमाम चैनल इस तरह की ख़बरों को दिखाते हैं। इन ख़बरों में यह डर पेश किया जा रहा कि एआई से संचालित मशीनें मानव को उत्पादन से हटा देंगी। इण्टरनेट से लेकर अख़बारों में चैट जीपीटी द्वारा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने, कई नौकरियों को ख़त्म करने की बात होती रही। कहा जा रहा है कि बुनियादी उत्पादन की गतिविधियों से लेकर उत्पादन की हर गतिविधि में भविष्य में मज़दूरों की ज़रूरत नहीं होगी। एक ऐसी दुनिया होगी जहाँ सभी काम मशीनें करने लगेंगी और मेहनतकश आबादी बेरोज़गार सड़कों पर घूमेगी। ऐसा दिखाया जा रहा है कि मशीन चित्र बनाने लगी है, कहानी लिखने लगी है, वैज्ञानिक प्रयोग करने लगी है यानी संज्ञान के धरातल और मनोवेग के धरातल पर भी मशीनें मानवीय चेतना को हटा देंगी।

सबसे पहले मेहनतकशों को यह समझ लेना चाहिए कि यह कोरी कल्पना और गप है। पहली बात तो यह कि मशीनें मानव का उत्पाद हैं। भविष्य में निश्चय ही उत्पादन की कई बुनियादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष मानव श्रम की ज़रूरत नहीं रहेगी। लेकिन इसमें ताज्जुब या डर की कोई बात नहीं है। बल्कि कहें कि यही तो मशीन का प्रकार्य है। मशीन श्रम के सभी उपकरणों के समान मानवीय अंगों और मस्तिष्क ही विस्तार होती है। परन्तु मौजूदा व्यवस्था के केन्द्र में मानव नहीं है, बल्कि मुनाफ़ा होता है जिस वजह से यह स्थिति पैदा होती है और इस कल्पना को पंख लगते हैं कि मशीन मानव को ग़ुलाम बना देगी। मशीन बनाम मानव का द्वन्द्व सामने आ जाता है जो कि मूलत: अपने आप में मशीन और मनुष्य का द्वन्द्व नहीं है बल्कि श्रम और पूँजी के बीच का द्वन्द्व है, मनुष्यों और एक मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के बीच का द्वन्द्व है। इसे थोड़ा ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तौर पर समझते हैं।

पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में मशीन की भूमिका 

आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस को मानव चेतना के विरुद्ध रखना अकारण नहीं है। ऐसा क्यों किया गया है, इसे समझने से पहले हमें यह समझना होगा कि एआई और कुछ नहीं बल्कि स्वचालन है तथा इस किस्म का मशीनी ऑटोमेशन पूँजीवाद के इतिहास में औद्योगिक क्रान्ति के शुरू होने के साथ, यानी अट्ठारहवीं सदी के अन्त और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही पैदा हो गया था। उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य प्रकृति को अपनी ज़रूरतों के अनुसार परिवर्तित करता है। मशीन इस प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाले उत्पादन के साधनों का ही हिस्सा होती है। श्रम की प्रक्रिया में कर्ता के रूप में मानव श्रम कच्चे मालों (प्राकृतिक या निर्मित) को अपनी ज़रूरत के अनुसार श्रम के साधनों के ज़रिये बदल देता है। श्रम के औज़ार में साधारण पत्थर के औज़ार, हल, टैक्टर से लेकर आधुनिक मशीन तक शामिल है। खुद एआई यानी जीपीटी जैसे सॉफ़्टवेयर भी श्रम का उत्पाद हैं और श्रम के साधन भी हैं। तमाम उत्पादक कार्रवाइयों में चैट जीपीटी का आना और इस कारण मज़दूरों का काम से निकाला जाना गुणात्मक तौर पर कोई नई प्रक्रिया नहीं है। मशीनें निरपेक्ष तौर पर देखें तो पूँजीवादी समाज में मज़दूरों को निरन्तर उत्पादन से बाहर करती हैं। यदि पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर अच्छी है, और विस्तारित पुनरुत्पादन अधिक दर से हो रहा हो, तो मशीनों द्वारा विस्थापन के बावजूद कुल सक्रिय श्रमिकों की संख्या बढ़ती भी है, हालाँकि अब प्रति श्रमिक मशीन की संख्या बढ़ जाती है। बहरहाल, हथकरघे को हटाकर आने वाली पावरलूम हो या एक्सेल शीट पर आँकड़े भरने वाले मज़दूर को हटाकर आया एआई, स्वचालन का ही हिस्सा है। मार्क्स के अनुसार “औद्योगिक क्रान्ति का आगमन मशीन से होता है, जो केवल एक औज़ार का इस्तेमाल करने वाले मज़दूर का अतिक्रमण कर कई समानान्तर औजारों के तन्त्र से संचालित होती है, जिसमें एक चालक शक्ति गति पैदा करती है चाहे ऊर्जा का स्रोत कुछ भी हो।” (मार्क्स, पूँजी, खण्ड-1) चैट जीपीटी का कई मानसिक क्रियाओं को अंजाम देना भी स्वचालन की प्रक्रिया का ही एक चरण है जिसमें मानसिक श्रम में लगे मज़दूरों को हटाकर मशीन उनकी जगह ले रही है। यह प्रक्रिया तब से ही शुरू हो जाती है जब से उत्पादन की प्रक्रिया में मशीनरी का इस्तेमाल होता है। मार्क्स लिखते हैं:

“पूँजीपति और उजरती मज़दूर के बीच प्रतिस्पर्धा पूँजी के उद्भव के समय से शुरू होती है। यह मैन्युफैक्चर के समूचे दौर में प्रचण्ड रूप से जारी था। परन्तु केवल मशीनरी के आगमन के बाद से मज़दूर ने ख़ुद श्रम के साधन से ही संघर्ष किया है, जो पूँजी का भौतिक मूर्त रूप ही है। वह उत्पादन के साधन के विशिष्ट रूप के विरुद्ध संघर्ष छेड़ देता है, जो पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का भौतिक आधार होता है।

“परन्तु मशीनें न केवल मज़दूर के एक ऐसे प्रतिद्वन्द्वी का ही काम करती हैं, जो मज़दूर को परास्त कर देता है और जो उसे सदा बेकार बना देने पर तुला रहता है, वे मज़दूर से बैर रखने बाली एक शक्ति का भी काम करती हैं। पूँजी ढोल पीटकर इस बात का ऐलान करती है और इसी रूप में मशीनों का उपयोग किया करती है। हड़तालों को, पूँजी के निरंकुश शासन के ख़िलाफ़ मज़दूर-वर्ग के समय-समय पर फूट पडने वाले विद्रोहों को, कुचलने का सबसे शक्तिशाली अस्त्र मशीनें होती हैं।” (मार्क्स, पूँजी, खण्ड-1)

मार्क्स उत्पादन की प्रक्रिया में मशीन की प्रणाली और स्वचालन को परिभाषित करते हैं :

“एक बार पूँजी की उत्पादन प्रक्रिया में मातहत किए जाने के बाद, श्रम के साधन विभिन्न रूपान्तरण से होकर गुज़रते हैं, जिसकी परिणति है मशीन, या कहें, मशीनरी की स्वचालन प्रणाली (मशीनरी की प्रणाली: स्वचालन इसका सबसे पूर्ण, सबसे उचित रूप है, जो अकेले मशीनरी को एक प्रणाली में तब्दील कर देता है) जिसे एक ऑटोमेटॉन गति देता है, एक स्वचालित गतिवान शक्ति से जो ख़ुद चलती है। यह स्वचालन जिसमें अनेक यान्त्रिक और मानसिक अंग होते हैं, जिससे मज़दूर खुद इसकी सचेतन कड़ी मात्र के तौर पर ढलते जाते हैं।” (मार्क्स, ग्रुण्डरिसे)

मार्क्स के अनुसार: 

“जब कोई मशीन बिना आदमी की मदद के कच्चे माल का परिष्कार करने के लिये आवश्यक समस्त क्रियायों को पूरा करने लगती हैं और जब उसे आदमी की केवल देखरेख की ही आवश्यकता रह जाती है, तब मशीनों की स्वचालित संहति तैयार हो जाती है। इस संह॒ति का तफसीली बातों में निरन्तर सुधार किया जा सकता है।

“मशीनों की ऐसी संगठित संहति, जिसे संचालक यन्त्र के द्वारा एक केन्द्रीय स्वचालित यन्त्र से गति प्राप्त होती है, मशीनों से होने वाले उत्पादन का सबसे अधिक विकसित रूप होती है। यहाँ पर अलग-अलग काम करने वाली मशीनों के बजाय एक यान्त्रिक दैत्य होता है, जिसकी देह पूरी फैक्टरियों को भर देती है और जिसकी राक्षसी शक्ति, जो शुरू में उसके दैत्याकार अवयवों की नपी-तुली और धीमी गति के आवरण के पीछे छिपी हुई थी, आखिर अब उसकी असंख्य कार्यकारी इन्द्रियों के कोलाहलपूर्ण आवर्तन के रूप में फूट पड़ती है।” (मार्क्स, पूँजी, खण्ड-1)

उत्पादन की भिन्न-भिन्न शाखाओं में यह स्वचालित दैत्य आज मार्क्स के समय से बहुत अधिक फैल चुका है। आज किसी ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री में मौजूद रोबोटिक आर्म और किसी सॉफ़्टवेयर उद्योग में चैट जीपीटी के बीच अन्तर केवल अलग किस्म के उत्पादन का है। दोनों ही मशीन हैं जो मज़दूर की गतिविधि के अमूर्तीकरण से ही पैदा होती है, उसकी यह गतिविधि शारीरिक हो चाहे मानसिक। रोबोटिक आर्म और चैट जीपीटी मज़दूर की ही गतिविधि का अमूर्तीकरण है। 

मार्क्स कहते हैं कि “बल्कि, अब यह मशीन है जो मज़दूर के स्थान पर कौशल और ताक़त की स्वामिनी है, वह ख़ुद दक्ष है, और मानो उन यान्त्रिक नियमों में स्वयं उसकी आत्मा हो जिनके माध्यम से वह कार्य करती है। यह कोयला, तेल आदि की खपत करती है…वैसे ही जैसे एक मज़दूर खाना खाता है, ताकि उसकी गति लगातार बनी रहे। मज़दूर की गतिविधि, जो गतिविधि का मात्र अमूर्तीकरण बनकर रह जाती है, वह सभी तरफ़ से मशीनरी के गति से निर्धारित और विनियमित होती है, ना कि इसका उल्टा। वह विज्ञान जो मशीनरी के निर्जीव अंगों के निर्माणानुसार उनको एक ऑटोमेटॉन के समान उद्देश्यपूर्ण तरीके से संचालित करता है, वह मज़दूर की चेतना में विद्यमान नहीं होता, बल्कि मशीन के ज़रिए एक परायी शक्ति की तौर पर, स्वयं मशीन की अपनी शक्ति के रूप में, मज़दूर पर कार्य करता है।” (मार्क्स, ग्रुण्डरिसे)

चैट जीपीटी को मार्क्स के उपरोक्त कथन की आखिरी पंक्ति के मदद से बखूबी समझा जा सकता है। प्राकृतिक विज्ञान मज़दूर की चेतना से स्वतन्त्र होकर उसे संचालित करता है। यह मानव ज्ञान ही है जिसे मानव के बरक्स रख दिया जाता है। चैट जीपीटी भी और कुछ नहीं मानवीय ज्ञान से संचालित एक मशीनरी ही है। आज जिन परिकल्पनाओं को बल मिल रहा है उसका भौतिक आधार पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में है। मज़दूर के श्रम को मशीन सुगम बनाने की बजाय उत्पीड़न बढ़ाती है। 

मार्क्स कहते हैं, “दस्तकारियों तथा हस्तनिर्माण में मज़दूर औज़ार को इस्तेमाल करता है, फैक्ट्री में मशीन मज़दूर को इस्तेमाल करती है। वहाँ श्रम के औजारों की क्रियाएँ मज़दूर से शुरू होती हैं, यहाँ पर उसे खुद मशीन की क्रियाओं का अनुकरण करना पड़ता है। हस्तनिर्माण में मज़दूर एक जीवित संघटन के अंग होते हैं। फैक्टरी में मज़दूरों से स्वतन्त्र एक निर्जीव यन्त्र होता है और मज़दूर इस यन्त्र के मात्र जीवित उपांगों में बदल जाते हैं।” आगे मार्क्स कहते हैं कि “मशीन से श्रम कुछ हल्का हो जाता है, पर यह चीज़ भी यहाँ पर एक ढंग की यातना बन जाती है, क्योंकि मशीन मज़दूर को काम से मुक्त नहीं करती, बल्कि काम की सारी दिलचस्पी ख़तम कर देती है। हर प्रकार का पूँजीवादी उत्पादन जिस ह॒द तक न सिर्फ श्रम-प्रक्रिया, बल्कि अतिरिक्त मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया भी होता है, उस ह॒द तक उसमें एक समान विशेषता होती है। वह यह कि उसमें मज़दूर श्रम के औजारों से नहीं, बल्कि श्रम के औज़ार मज़दूर से काम लेते हैं। लेकिन यह विपयण पहले-पहल केवल फैक्टरी व्यवस्था में ही प्राविधिक एवं इन्द्रीगम्य वास्तविकता प्राप्त करता है। एक स्वचालित यन्त्र में रूपान्तरित हो जाने के फलस्वरूप श्रम का औज़ार श्रम प्रक्रिया में पूँजी की शकल में, यानी उस मृत श्रम के रूप में मज़दूर के सामने खड़ा होता है जो जीवित श्रम-शक्ति पर हावी रहता है और चूस-चूसकर उसका सत निकाल लेता है।” (मार्क्स, पूँजी खण्ड-1)

यही पूँजीवादी व्यवस्था का वह भौतिक आधार है जिस वजह से मानव बनाम मशीन की परिकल्पना पैदा होती है। एक ऐसी व्यवस्था में जहाँ मनुष्य और मनुष्य का सम्बन्ध ही मनुष्य और मालों के सम्बन्ध के रूप में दिखलाई पड़ता है, वहाँ मानव द्वारा ही पैदा किए उत्पाद फेटिशिस्टिक चरित्र ले लेते हैं, यानी जो उसे सच्चाई देखने से रोकने का काम करने लगते हैं। मानव बनाम मशीन की समस्या भी फेटिशिस्टिक चरित्र ले लेती हैं। क्या इन परिकल्पनाओं में कोई सच्चाई भी है? इस सवाल पर हम दो बिन्दुओं पर बात करेंगे। एक, यह कि इस अवधारणा का दार्शनिक मर्म क्या है? और दूसरा इस परिकल्पना का राजनीतिक अर्थशास्त्र क्या है? 

‘मानव बनाम मशीन’ परिकल्पना का दार्शनिक पहलू  

उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि चैट जीपीटी मशीन है जो मानव ज्ञान पर आधारित है। चूँकि चैट जीपीटी उन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जा रहा है, जिसे आबादी का एक बहुत बडा हिस्सा असफल रहता है, अल्फा गो ‘गो’ बोर्ड गेम को खेलने वाला गूगल द्वारा बनाया आर्टिफीशियल इण्टेलिजेंस प्रोग्राम है, जिसने मौजूदा मानव चैम्पियन को खेल में हरा दिया, इससे यह नतीज़ा निकाला जा रहा है कि यह कृत्रिम चेतना है जो मानवीय चेतना से उन्नतर हो गई है। क्योंकि चैट जीपीटी कहानी भी लिख देता है और कविताएँ भी लिख रहा है तो यह भी कहा गया कि मशीन कल्पना भी करने लगी है। 

हमने ऊपर यही देखा कि जिसे कृत्रिम चेतना कहा जा रहा है वह वास्तव में मानव की मानसिक गतिविधि का ही अमूर्तन है। परन्तु चूँकि मानसिक गतिविधि अपने आप में सीमित नहीं है इसलिए उसका अमूर्तन भी कोई ‘अन्तिम उत्पाद’ नहीं है। मानव ज्ञान के उन्नततर होते जाने के साथ ही यह भी और उन्नततर होगा। चैट जीपीटी मशीन मानवीय ज्ञान के एक ख़ास स्तर का ही प्रतिबिम्बन करती है। मानव चेतना का गुण होता है कि वह वस्तु जगत का प्रतिबिम्बन करती है। यह प्रतिबिम्बन हूबहू आईने के प्रतिबिम्बन समान नहीं होता है। पहले स्तर पर हमारी आँखें, हमारी नाक, कान, जीभ और त्वचा यानी इन्द्रियों के जरिये भौतिक जगत की एक तस्वीर, एक खाका और एक रूपरेखा बनाते हैं। यह भौतिक जगत समाज और प्रकृति ही है। अब चूँकि समाज और प्रकृति दोनों ही परिवर्तनशील हैं तो ज़ाहिर है कि प्रतिबिम्बन भी परिवर्तनशील होगा। मानव मस्तिष्क की अमूर्तन और सामान्यीकरण करने की क्षमता के चलते ही हम इन्द्रियानुगत ज्ञान और फिर छलाँग लगाकर बुद्धिसंगत ज्ञान तक पहुँचते हैं। सामाजिक व्यवहार ही है जो लगातार ज्ञान को पैदा करता है। प्रकृति, समाज और विचार को बदलने की प्रक्रिया में ही नया ज्ञान पैदा होता है। न सिर्फ नया ज्ञान पैदा होता है बल्कि अमूर्तन और सामान्यीकरण की पद्धति भी उन्नत होती जाती है। एआई को मिलने वाला सारी सूचना मानव द्वारा अर्जित है और यह मशीन जिस अल्गोरिद्म का इस्तेमाल करती है, वह भी मानवीय बुद्धिसंगत ज्ञान का ही हिस्सा है। यह मार्क्स के उपरोक्त कथन को ही पुष्ट करता है कि मशीन मज़दूर की गतिविधि का ही अमूर्तन है। 

कृत्रिम चेतना को मानव चेतना से मुक्त चेतना मानना व यह कल्पना करना कि चेतना कोई ऐसी चीज़ है, जो मानव के बाहर भी निर्मित की जा सकती है, ग़लत है। कुछ वैज्ञानिक चेतना को बिजली के समान मानते हैं जिनका कहना है कि जिस प्रकार प्राकृतिक रूप से बिजली को बादलों की टकराहट में पाया जाता है, उसी प्रकार उसे बाँध में पानी को टरबाइन पर गिराकर भी पैदा किया जा सकता है। एक समय गूगल के सीईओ रहे पीटर नॉरविग का तर्क था कि जिस तरह पक्षी की उड़ान को कृत्रिम तौर पर हवाई जहाज भी उड़ सकता है इसी प्रकार मानव मस्तिष्क की चेतना को मशीन में पैदा किया जा सकता है। परन्तु चेतना कोई प्रोटीन की मॉलिक्युलर संरचना या बिजली नहीं बल्कि सामाजिक मानव मस्तिष्क पुँज पर आधारित सक्रियता है जो जीवन के जटिल तानेबाने यानी समाज में विकसित होती है। और यह स्थैतिक नहीं होती है। यह स्वयं विकसित होती है। यह मानव चेतना द्वारा अर्जित होते और उन्नतर होते ज्ञान के रूप में ही सामने आ जाता है। मानव के उत्पादक संघर्ष, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोगों के व्यवहार से ही मानव ज्ञान नित निरन्तर उथले से ग़हरेपन की ओर बढ़ता है।  मानव चेतना की भौतिकता का आधार जीवन व समाज है। यह परिकल्पना फ्रेन्कनस्टाइन नामक दानव की कल्पना ज़्यादा प्रतीत होती है जिसे केवल शरीर के विभिन्न अंगों को जोड़कर जि़न्दा किया जा सकता है और उसमें चेतना स्वत: ही पैदा हो जायेगी!

एआई के चैट जीपीटी और तमाम मॉडलों को मानव मस्तिष्क का एक मॉडल कहा जाता है जो न्यूरल नेटवर्क पर आधारित है। इसे लार्ज लैन्ग्वेज मॉडल कहा जाता है जो उपलब्ध डाटा पर काम करता है। इसे जो ‘इन्द्रियग्राह्य ज्ञान’ मिला है (उपलब्ध डाटा) वह मानव ज्ञान ही है। दूसरा] इसका ‘’बुद्धिसंगत’’ ज्ञान भी मानवीय अवधारणागत ज्ञान ही है। गणितीय प्रकार्य और उसके बाद विकसित होने वाली पॉलिसी या अल्गोरिद्म मानव ज्ञान का ही अमल में लाया जाना है। कुल मिलाकर कहें तो यह एक मशीन ही है। परन्तु लम्बे समय से सिनेमा और पॉप्युलर साइन्स फ़िक्शन में यह सस्ती परिकल्पना परोसी जाती है कि आर्टिफ़िशियल इण्टेलिजेन्स (एआई) द्वारा मानवता के खिलाफ अपनी सभ्यता को खड़ा करेगी और मानवता को ग़ुलाम  बनाएगी। अन्तिम बार जब गैरी कास्पोरोव को ‘डीप ब्लू’ ने हराया तब भी इस छिछली परिकल्पना को काफी संवेग मिला था और तब तक मिलता रहेगा जब तक कि इस व्यवस्था का ही समूल नाश नहीं होता है।

‘मानव बनाम मशीन’ परिकल्पनाओं का राजनीतिक अर्थशास्त्र

चैट जीपीटी एक लार्ज लैन्गवेज मॉडल है जिसे संचालित होने से पहले तमाम शब्दों और वाक्यों तथा भाषा की व्याकरण तथा उन्हें हल करने के लिए गणितीय प्रकार्यों यानी मानवीय अवधारणाओं की ज़रूरत होती है। इसका एक उदाहरण चैट जीपीटी का हिंसा और अश्लील डाटा को चैट जीपीटी को फीड करना था। इस डाटा को छाँटने के लिए केन्या के मज़दूरो ने महीनों बैठकर अश्लील समाग्री देखकर उसके तत्वों को छाँटा ताकि चैट जीपीटी यह ‘सीख सके’ कि क्या इस्तेमाल योग्य है और क्या नहीं! यह उन मज़दूरों के ही द्वारा इस्तेमाल किए पैमानों को अब मशीन की तरह ख़ुद ब ख़ुद इस्तेमाल कर सामग्री छाँटता है और ग़लती होने पर मज़दूर इसे बेहतर करते रहते हैं। यह दिखला देता है कि चैट जीपीटी भी पॉवरलूम की तरह ही मशीन है। केन्या के मज़दूरों को कम वेतन पर खटाकर और मानसिक अवसाद में पहुँचाकर ही चैट जीपीटी ने यह गुणवत्ता हासिल की कि वह अब इन अश्लील सन्देशों को पहचान लेता है। यह चैट जीपीटी के डेटा की एक किस्म का उद्घाटन था। केन्या के मज़दूरों के उदाहरण से यह उज़ागर हो जाता है कि मज़दूरों की सस्ती लूट पर चैट जीपीटी बना है। एआई को मानवता के ख़िलाफ़ रखना अपने आप में ग़लत है। यह कल्पना कि इन्सान को हटाकर मशीन से मुनाफ़ा कमाने वाले तन्त्र में काम लिया जा सकता है इस धारणा की जड़ में है।

आइए इस परिकल्पना को राजनीतिक अर्थशास्त्र की निगाह से परखते हैं। अगर आप बुनियादी राजनीतिक अर्थशास्त्रीय समझदारी को भी प्रयोग में लाएँ तो यह साफ़ है कि पूँजीपति का मुनाफ़ा बेशी मूल्य से पैदा होता है। पूँजीपति की पूँजी के दो हिस्से होते हैं: परिवर्तनशील पूँजी तथा स्थिर पूँजी। पूँजीपति द्वारा मज़दूरी पर लगायी पूँजी परिवर्तनशील पूँजी कहलाती है और यही बेशी मूल्य पैदा करती है और मुनाफ़े का स्रोत होती है। यह परिवर्तनशील पूँजी इसलिए ही कहलाती है क्योंकि यह श्रम शक्ति पर लगने वाला खर्च है और यही उत्पादन की प्रक्रिया में अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य पैदा करता है। उत्पादन के साधनों पर लगने वाली पूँजी स्थिर पूँजी कहलाती है। उत्पादन की प्रक्रिया में इसका मूल्य श्रम द्वारा माल में ज्यों का त्यों स्थानान्तरित हो जाता है। हम जिस परिकल्पना को परखना चाहते हैं उसके अनुसार उत्पादन की प्रक्रिया में मशीनें मज़दूरों को पूरी तरह से निकाल बाहर करेंगी! अभी अगर हम यह मानें कि इस उद्योग में नयी मशीन लगने के कारण मज़दूरों को काम से निकाल दिया जाता है। यानी मशीन पर लगने वाली पूँजी जो स्थिर पूँजी का हिस्सा है वह बढ़ेगी तथा मज़दूरी पर लगने वाला हिस्सा कम हो जाएगा। उत्पादन की प्रक्रिया से मशीन द्वारा परिवर्तनशील पूँजी कम करने (मज़दूर को काम से हटाने) का मतलब यह हुआ कि पूँजीपति के कुल पूँजी निवेश में कच्चे माल, मशीनरी यानी उत्पादन के साधनों पर खर्च मज़दूरी पर यानी परिवर्तनशील पूँजी होने वाले खर्च के अनुपात में बढ़ता है। क्या ऐसा होगा कि स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात में परिवर्तनशील पूँजी कम होते होते शून्य पर पहुँच जाएगी? नहीं, मज़दूरों को पूँजीपति उत्पादन की प्रक्रिया से पूर्णत: नहीं हटा सकता क्योंकि तब मुनाफ़ा ही खत्म हो जायेगा।

अब इसे एक और उदाहरण से समझें। मान लें कि सभी उद्योगों में पूर्ण मशीनीकरण हो गया। अब किसी उद्योग में कोई मज़दूर काम नहीं कर रहा है, किसी कार्यालय या दफ्तर में कोई मज़दूर या कर्मचारी काम नहीं कर रहा है, सारी सेवाओं के क्षेत्र में कोई मज़दूर काम नहीं कर रहा है, और ये सारा काम मशीनें कर रही हैं। यदि ऐसा होगा तो समाज में आय के विभिन्न रूप भी समाप्त हो जायेंगे। लेकिन यदि आय के विभिन्न रूप समाप्त हो जायेंगे तो पूँजीपतियों के उद्योगों आदि में मशीन द्वारा पैदा हो रही वस्तुओं व सेवाओं को ख़रीदेगा कौन? मुनाफ़ा भी समाप्त हो जायेगा, मज़दूरी भी समाप्त हो जायेगी, लगान भी समाप्त हो जायेगा। लेकिन पूँजीपति तो माल बेचकर मुनाफ़ा कमाने के लिए उत्पादन करता है, फ्री में लोगों को बाँटने के लिए नहीं! यही वजह से है पूँजीवाद में पूर्ण स्वचालन राजनीतिक अर्थशास्त्र के नज़रिये से भी नहीं सम्भव है। क्योंकि आय के ये सभी रूप मूल्य के ही हिस्से हैं, जो स्वयं कुछ भी नहीं बल्कि मज़दूरों के श्रम से ही पैदा होता है।

यह बुनियादी सी बात है जिसे समझकर हम पूँजीवाद में इस परिकल्पना की असम्भव्यता को जान सकते हैं। मूल प्रश्न इस व्यवस्था का है जो मुनाफ़े के लिए ही मशीन को मानव के बरक्स खड़ा करती है। एक ऐसी व्यवस्था में जहाँ समाज का केन्द्र मनुष्य होगा मुनाफ़ा नहीं केवल वहीं इस वास्तविक अन्तरविरोध को खत्म किया जा सकता है और केवल तब मशीन जो एक श्रम का औज़ार है वह मनुष्य का “सत चूसने का माध्यम” ना बनकर उसकी सृजनात्मक शक्ति बन जाएगी।

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2023


 

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