बढ़ते प्रदूषण की दोहरी मार झेलती मेहनतकश जनता

अदिति

हर साल की तरह इस बार भी ठण्ड शुरू होने से पहले राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र में एक धुमैली सी चादर देखने को मिली। यह चादर स्मॉग यानी धुआँ और कुहासे के मेल से बनी थी। दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र में एक बार फिर साँस लेना दूभर हो गया। 7 नवम्बर की रात को पूर्वी दिल्ली में एयर क्वालिटी इण्डेक्स 999 तक दर्ज किया गया। विश्व के 1650 शहरों में किये गये विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वेक्षण ने दिल्ली की हवा सबसे ख़राब होने की पुष्टि की है। दिल्ली को लगातार तीसरी बार दुनिया की सबसे ज़्यादा प्रदूषित राजधानी का दर्जा मिला है।

दिल्ली-एनसीआर में लगातार साँस के रोगियों की संख्या बढ़ रही है। इसी बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने एक बार फिर बुखार में मरहमपट्टी करते हुए ऑड-ईवन फ़ार्मूला लागू करने का ऐलान किया है जिसके अनुसार एक दिन सम संख्या वाले वाहन चलेंगे और एक दिन विषम संख्या वाले वाहन। साथ ही मेहनतकश जनता के पेट पर लात मारते हुए निर्माण (कन्स्ट्रक्शन) क्षेत्र के काम पर पूरी रोक लगा दी है। यदि पर्यावरण के लिए ऐसा करना ज़रूरी है तो रोज़ काम करके खाने वाले सभी निर्माण मज़दूरों को पूँजीपतियों से शुल्क वसूलकर गुज़ारा भत्ता दिया जाना चाहिए।

दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रदूषित 10 शहरों में से 7 भारत में हैं। 2012 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार हर साल लगभग 17 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 15 साल से आयु के 93% बच्चे ऐसी हवा में साँस लेते हैं जो उनके स्वास्थ्य और विकास के लिए गम्भीर ख़तरा है।  एक अध्ययन के अनुसार विकासशील देशों में 98% बच्चे विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों से कहीं अधिक ख़राब हवा में साँस लेते हैं, जबकि विकसित देशों में यह आँकड़ा 52% का है, परिणामस्वरूप बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास सामान्य तरीके से नहीं हो पाता।

दिल्ली में साल 2020 में 54 हज़ार लोगों की असामयिक मृत्यु और भारत में हर साल 20 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से ही होती है। यूनिसेफ़ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ वायु प्रदूषण के कारण हर पाँच वर्षों के दौरान दुनिया में 6 लाख बच्चों की मौत होती है।

मुनाफ़े की हवस को पूरा करने में लगी इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा पैदा किये गये जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि का सामना प्रकृति और पूरे समाज को करना पड़ रहा है, लेकिन मेहनतकश आबादी पर प्रदूषण की दोहरी मार पड़ रही है। प्रदूषण के कारण मज़दूरों को अक्सर काम से हाथ धोना पड़ता है।  दूसरी ओर, इस आबादी के पास प्रदूषण से बचाव के लिए कोई भी उपाय मौजूद नहीं है। यह आबादी शहरों की गन्दी बस्तियों में रहते हुए सबसे ख़राब हवा में साँस लेती है और सबसे प्रदूषित पानी पीती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ वायु प्रदूषण दिल की बीमारियों, फेफड़ों के रोगों, फेफड़े के कैंसर, मस्तिष्क आघात जैसे जानलेवा बीमारियों के जोख़िम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख कारण है। साँस की नली में संक्रमण का जोख़िम भी इसी से ही बढ़ रहा है। दमे के मरीज़ों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। अमीर लोगों के लिए बाज़ार में महँगे एयर प्यूरीफ़ायर आ गये हैं। पूँजीवाद द्वारा पैदा किये गये नर्क में वे अपना एक हद तक सुरक्षित टापू बनाकर रह सकते हैं, लेकिन आम मेहनतकश आबादी कहाँ जायेगी?

दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने आनन-फ़ानन में GRAP (ग्रैप) 4 स्टेज में प्रदूषण से निपटने के लिए कड़े उपाय किये, जिसमें दिल्ली के सार्वजनिक परियोजनाओं से सम्बन्धित निर्माण कार्यों और प्रदूषण फैलाने वाले ट्रकों और चार पहिया कमर्शियल वाहनों की एण्ट्री पर बैन लगाने का आदेश जारी किया गया। इसके तहत अन्य राज्यों से केवल सीएनजी, इलेक्ट्रिक और बीएस-छह मानकों का पालन करने वाले वाहनों को दिल्ली में प्रवेश करने की इजाज़त दी गयी। वायु गुणवत्ता प्रबन्धन आयोग (CAQM) के नये आदेश के अनुसार आवश्यक सेवाओं में शामिल नहीं होने वाले सभी मध्यम और भारी मालवाहक वाहनों की भी दिल्ली में एण्ट्री पर बैन लगा दिया गया। दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति आमतौर पर सन्तोषजनक नहीं रहती और सर्दी शुरू होने से पहले यह समस्या भयंकर रूप धारण कर लेती है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार के पास प्रदूषण से बचाव के लिए कोई भी योजना नहीं थी, जिसका खामियाज़ा आम आबादी को भुगतना पड़ रहा है।

पूँजीवादी व्यवस्था की बढ़ती हवस के कारण अन्धाधुन्ध अनियन्त्रित धुआँ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सड़कों पर हर रोज़ निजी वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली में हर रोज़ सड़कों पर लगभग एक करोड़ से भी ज्यादा मोटर वाहन चलते हैं। इसकी मूल वजह पर्याप्त मात्रा में सार्वजनिक परिवहन के साधनों का न होना और पूँजीवादी असमान विकास के कारण पूरे देश से दिल्ली में काम-धन्धे के लिए लोगों का प्रवासन है। इसके कारण दिल्ली शहर पर भारी बोझ है और बढ़ते प्रदूषण में इसका भी योगदान है। यह पूँजीवादी विकास के मॉडल का कमाल है, जो कि व्यापक मेहनतकश आबादी को उसके निवास के करीब गुज़ारे योग्य रोज़गार नहीं मुहैया करा सकता। लाखों लोग दो-दो, तीन-तीन घण्टे सफ़र करके आसपास के शहरों से रोज़ दिल्ली आते हैं और फिर वापस जाते हैं।

इस मौसम में हवा ख़राब होने का  एक और बड़ा कारण दिल्ली से सटे राज्यों, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धान की पराली को जलाना भी है। बड़े पैमाने पर पराली को जलाने वाले धनी किसान हैं जिनके पास ज़मीन का बड़ा मालिकाना है। यही आबादी है जो पराली जलाकर नष्ट कर देती है। पराली जलाने से ज़मीन के कई पोषक तत्व भी नष्ट होते हैं और रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों पर  निर्भरता बढ़ती जाती है। यह सब धनी किसान अपने तात्कालिक मुनाफ़े और बचत के लिए करते हैं जबकि बड़ी आबादी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। ज़्यादातर छोटे किसान पराली को कई कामों में इस्तेमाल कर लेते हैं।

हार्वेस्टर कम्बाइन जब धान की कटाई करता है तो धान का 50-60 सेण्टीमीटर डण्ठल खेत में ही छोड़ देता है, उसे ही पराली कहते हैं। बहुतेरे छोटे किसान तो अभी भी हाथ से धान काटते या कटवाते हैं, लेकिन बड़े किसान मज़दूरी का ख़र्च बचाकर आमदनी बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर मशीनों का इस्तेमाल करते हैं। छोटे किसान यदि कम्बाइन का इस्तेमाल करते भी हैं तो ज़्यादातर मामलों में पराली जलाते नहीं। उसे हाथ से काटकर वे पशुओं के चारे, जाड़े में बिछाने या चटाई बनाने आदि में इस्तेमाल करते हैं।

पराली जलाने की गम्भीर समस्या के कई तकनीकी समाधान आज विकसित हो चुके हैं। पराली के उपयोग के कई विकल्प मौजूद हैं जैसे हार्वेस्टर कम्बाइन के साथ एक से डेढ़ लाख रुपये क़ीमत की ‘सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेण्ट सिस्टम’ (एस.एस.एम.एस.) नामक मशीन जोड़ दी जाये। यह मशीन पराली के ऊपरी भाग को काटकर मिट्टी में मिला देती है। जड़ें (टूँड़ी) ज़मीन में रह जाती हैं, जिसके रहते टी.एच.एस.मशीन (टर्बो हैप्पी सीडर) से गेहूँ की बुवाई की जा सकती है। पराली से इथेनॉल कार्डबोर्ड का भी उत्पादन किया जा सकता है। मशरूम के उत्पादन हेतु भी पराली का प्रयोग किया जा सकता है।

इन विकल्पों के होने के बावजूद लेकिन सरकार बड़े किसानों पर सख़्ती करने से कतराती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के निर्देश पर पंजाब सरकार ने पहले पराली जलाने वाले किसानों पर प्राथमिकी दर्ज करना शुरू किया, फिर इसे रोक दिया गया। फिर पंजाब प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड सिर्फ़ चालान काटने लगा। धनी किसानों को कोई भी सरकार नाराज़ नहीं करना चाहती। पराली के दोबारा उपयोग में प्रति एकड़ 5 सौ रुपये से 2,000 रुपये तक का ख़र्च आता है। प्रति एकड़ 50 से 60 हज़ार रुपये की आमदनी करने वाला धनी किसान चाहे तो ऐसा आसानी से कर सकता है, लेकिन वह नहीं करता क्योंकि सरकार और प्रशासन उसके प्रति नरमी का रुख़ अपनाते हैं।

इन तथ्यों से साफ़ है कि प्रदूषण को बढ़ावा देने वाली यह पूँजीवादी व्यवस्था ही है। पर्यावरण का मसला भी वर्ग संघर्ष का एक अहम मसला है। शासक वर्ग पर्यावरण में होने वाली तबाही को आम तौर पर “मानव-निर्मित आपदा” बताता है। लेकिन हर मानव का इसमें कोई योगदान नहीं है। यह पूँजीपति वर्ग और ऐशो-आराम और ऐय्याशी के नशे में सिर से पाँव तक डूबा हुआ अमीर वर्ग है जो पर्यावरण को तबाह कर रहा है, जबकि उसकी क़ीमत आम मेहनतकश जनता चुका रही है। इस व्यवस्था के दायरे के भीतर मुनाफ़ाख़ोरी और पर्यावरण संरक्षण के बीच मौजूद अन्तरविरोध को हल नहीं किया जा सकता है। केवल और केवल समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता के मातहत ही इस समस्या का समाधान हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2023


 

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