कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

केशव

पिछली 11 दिसम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में धारा 370 और 35ए, जो कि कश्मीर को एक विशेष राज्य का दर्जा देता था और कश्मीर को एक राष्ट्र के तौर पर स्वायत्तता देता था, को मोदी सरकार द्वारा ख़त्म करने को सही ठहराया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के साथ ही जहाँ एक तरफ़ भारतीय न्यायपालिका का “न्याय” उजागर हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ कश्मीरी क़ौम पर भारतीय राज्यसत्ता का दमन भी एक बार फिर से साबित हुआ है। फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा धारा 370 और 35ए के ख़त्म किये जाने के बाद कश्मीर के दमन को, जो कि आज़ादी के बाद से भारतीय राज्यसत्ता द्वारा जारी है, संवैधानिक रूप से वैध बनाने का काम किया गया। ज़ाहिरा तौर पर इसके बाद भारतीय राज्यसत्ता द्वारा सैन्यबल का प्रयोग कर कश्मीर में किसी बड़े जनप्रतिरोध को उभरने से पहले ही दबा दिया गया। यूएपीए और अफ़स्पा जैसे काले क़ानूनों का इस्तेमाल कर मोदी सरकार ने कश्मीरी क़ौम के प्रतिरोध को कुचलने के भरसक प्रयास किया है।

आज़ादी के बाद पिछले 76 सालों में भारतीय राज्यसत्ता ने कश्मीर के साथ विश्वासघात करने का ही काम किया है। 1953 में शेख अब्दुल्ला सरकार को असंवैधानिक तरीके से बरख़ास्त कर जेल में डालने, वज़ीरे-आज़म के पद को सामान्य मुख्यमंत्री पद में तब्दील करने, फर्ज़ी चुनाव करवाने से लेकर कश्मीरी राष्ट्र की स्वायत्तता एक-एक कर छीनने तक भारतीय शासक वर्ग ने क़दम-क़दम पर कश्मीरी अवाम के साथ विश्वासघात और वादाख़िलाफ़ी करने का काम किया है। इतना ही नहीं भारतीय शासक वर्ग ने इस विश्वासघात का प्रतिरोध करने पर कश्मीरी जनता को सेना की बन्दूकों के दम पर बूटों के नीचे रौंदा है। यह अनायास ही नहीं है कि जिस जनता ने 1948 में श्रीनगर के लाल चौक पर भारतीय सेना का फूल बरसाकर स्वागत किया था, आज वही जनता भारतीय सेना से नफ़रत करती है। इसकी वजह यही है कि पिछले चालीस सालों से भी अधिक समय से कश्मीरी लोग अपने ही घर में चौबीसों घण्टे डर के साये में जी रहे हैं। उनके शहरों को छावनी में तब्दील कर दिया गया है। क़दम-क़दम पर तलाशी और जाँच से गुज़रना, कभी भी सेना द्वारा डिटेन कर लिया जाना, किसी को भी शक के आधार पर जेल में डाल देना, किसी को भी हमेशा के लिए ग़ायब कर देना कश्मीरियों के लिए रोज़मर्रा की बात हो गयी है। ऐसे में कश्मीरी क़ौम क्यों अपने हक़ की आवाज़ नहीं उठाएगी? क्यों सैन्य दमन के ख़िलाफ़ वह हथियारबन्द नहीं होगी?

आज फ़ासीवादी मोदी सरकार कश्मीरी क़ौम के संघर्ष को साम्प्रदायिक रंग देकर नफ़रत की राजनीति कर रही है। ग़ौरतलब है कि 2014 में मोदी के उभार के दौरान भाजपा ने अवाम के बीच साम्प्रदायिक ज़हर घोलने का एजेण्डे लेकर तीन “बड़े” वायदे किये थे। पहला राम मन्दिर का निर्माण, दूसरा धारा 370 को हटाकर कश्मीर के दमन को संवैधानिक चोगा पहनाना और तीसरा समान नागरिक संहिता लागू करना। इसमें से पहले दो वायदों को इस सरकार ने सत्ता की ताक़त के ज़रिए लागू करवा दिया और तीसरे वायदे को लेकर यह राज्यस्तरीय चुनाव में वोट माँग रही थी। “अच्छे दिन” का जुमला उछालकर सत्ता में आयी भाजपा के राज में जब महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड टूट गये और जनता बदहाली और बेहाली के कगार पर आकर खड़ी हो गयी, तब इन्होंने एक बार फिर अवाम के ग़ुस्से को साम्प्रदायिक रंग देकर अवाम के ही ख़िलाफ़ खड़ा दिया।

आगामी 2024 के चुनाव से ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय का यह फ़ैसला एक तरफ़ मोदी सरकार की फ़ासीवादी रणनीति का एक मुकाम पर पहुँचना दिखाता है तो वहीं दूसरी तरफ़ न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण को भी स्पष्ट रूप से पुष्ट करने का काम करता है। सर्वोच्च न्यायालय समेत देश के तमाम न्यायालयों के हालिया फ़ैसलों पर निगाह डालें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि किस प्रकार हमारे देश के न्यायालय आज पूरी तरह से संघ की गोद में जाकर बैठ चुके हैं। हाल में ही सुप्रीम कोर्ट का राम मन्दिर पर फ़ैसला इसका बड़ा उदाहरण है। साथ ही इस दौरान स्थानीय न्यायालयों ने तो कई बार संघ के प्रति अपनी वफ़ादारी को जगजाहिर किया है। लखनऊ के सीबीआई स्पेशल कोर्ट ने क़रीब एक वर्ष पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस मामले में नामजद सभी 32 जीवित आरोपियों को दोषमुक्त कर मुक़दमे से बरी कर दिया। वर्ष 2018 में गुजरात हाई कोर्ट ने गुजरात दंगों में हुई बर्बरता की एक दोषी माया कोडनानी को रिहा कर दिया। इतना ही नहीं इन्हीं न्यायालयों ने “न्याय” के नाम पर यह सुनिश्चित किया है कि वे तमाम राजनीतिक क़ैदी क़ैदखानों में सड़ते रहें, जिन्होंने मौजूदा सत्ता के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठायी है।

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है। आज फ़ासीवाद के दौर में भारतीय शासक वर्ग ने कश्मीर के ऊपर पहले से अधिक संगठित और योजनाबद्ध तरीके से हमले शुरू कर दिये हैं। इसके ख़िलाफ़ न सिर्फ़ मज़दूर वर्ग को संगठित रूप से अपनी आवाज़ उठानी चाहिए, बल्कि कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए। साथ ही न्यायपालिका की हक़ीक़त को भी समझना चाहिए कि बुर्जुआ न्यायपालिका अन्ततोगत्वा शासक वर्ग के समर्थन में ही खड़ी होती है। और फ़ासीवाद के दौर में तो यह और भी खुले रूप में अपने चेहरे को उजागर कर देती है।  

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2023


 

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