भगतसिंह जन अधिकार यात्रा के तहत विशेष अभियान
ईवीएम पर भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता!
पारदर्शी और निष्पक्ष मतदान हमारा जनवादी अधिकार है
अपने बुनियादी जनवादी अधिकार की हिफ़ाज़त के लिए आगे आओ!
‘ईवीएम हटाओ अभियान’ का हिस्सा बनो!

किसी भी जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के ज़रिये अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना जनता का सबसे बुनियादी राजनीतिक अधिकार होता है। इसके लिए ज़रूरी है कि चुनाव में मतदान की प्रक्रिया पारदर्शी हो। बेशक़, इस पूँजीवादी जनतंत्र में मतदान को प्रभावित करने के तमाम तरीक़े उन वर्गों और उनकी पार्टियों के हाथों में होते हैं जिनके क़ब्ज़े में उत्पादन और वितरण के तमाम साधन होते हैं, फिर भी यह व्यवस्था जिस हद तक लोगों को अधिकार देती है, उसका अधिकतम पारदर्शी और असरदार तरीक़े से इस्तेमाल करने के हक़ के लिए हमें लड़ना चाहिए।

लेकिन चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल की मौजूदा व्यवस्था हमारे इस बुनियादी जनवादी अधिकार पर सीधे-सीधे डाका डाल रही है। इस व्यवस्था पर देशभर से उठ रहे सवालों पर जिस तरह से भाजपा और केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) बिदक रहे हैं और चोरी करते हुए पकड़े गये अड़ियल बच्चे की तरह मुट्ठी न खोलने के लिए तरह-तरह की बचकानी हरकतें कर रहे हैं, उससे जनता में ईवीएम को लेकर सन्देह बढ़ता ही जा रहा है। भाजपा और केचुआ मतदान के समय ईवीएम से वीवीपैट मशीन से निकली पर्ची वोटर को देने और सौ प्रतिशत वीवीपैट वेरीफ़िकेशन की माँग को भी जिस तरह से नज़रअन्दाज़ कर रहे हैं, उससे शक़ और पुख़्ता ही हो रहा है। मोदी सरकार के रवैये से साफ़ ज़ाहिर है कि दाल में कुछ काला नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है।

आज इस बात के स्पष्ट तथ्य और तर्क मौजूद हैं कि ईवीएम से होने वाले चुनाव क्यों क़तई भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं। इस पुस्तिका में हम इन तथ्यों और तर्कों की विस्तार से चर्चा करेंगे।

ईवीएम के विरुद्ध संगठित जनसंघर्ष की मुहिम चलाना हमारी बेहद ज़रूरी फ़ौरी ज़िम्मेदारी है। यह हर उस ज़िम्मेदार नागरिक की ज़िम्मेदारी है जो हमारे रहे-सहे, अतिसीमित जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त को लेकर चिन्तित है। इसलिए इससे जुड़े तथ्यों को अच्छी-तरह जान-समझ लेना ज़रूरी है ताकि इस मसले पर भाजपा और केचुआ द्वारा फैलाये जा रहे झूठे तर्कों के भ्रमजाल में हम न फँसें।

आज देश में सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव ईवीएम मशीनों के ज़रिये कराये जा रहे हैं। ईवीएम की मौजूदा व्यवस्था की शुरुआत कांग्रेस शासन में हुई थी और तभी से इस पर सवाल भी उठाये जा रहे थे और इन सवालों को उठाने में सबसे आगे भाजपा ही थी। लेकिन भाजपा सत्ता में आने के साथ ही उन सवालों को भूल गयी और पिछले 10 सालों के दौरान उसने चुनाव जीतने के लिए ईवीएम का जैसा ज़बर्दस्त इस्तेमाल किया है वह एक फ़ासिस्ट संगठन ही कर सकता है। पूँजीवादी जनतंत्र की तमाम संस्थाओं पर क़ब्ज़ा करके भाजपा और आरएसएस ने उन्हें मनमाफ़िक तोड़ा-मरोड़ा है, तमाम नियम-क़ायदों को धता बताते हुए अपनी मनमानी चलायी है और नीचे से लेकर ऊपर तक पूरी सरकारी मशीनरी का फ़ासीवादीकरण कर डाला है। इस सरकारी मशीनरी और संघ-भाजपा के  कैडर-आधारित तंत्र के ज़रिये भाजपा लगातार चुनाव जीतने के ‘मोड’ में रहती है। इसीकी बदौलत वह ईवीएम का भी बेहद चालाकी और कुशलता के साथ इस्तेमाल करती है।

अपने साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी प्रचार के ज़रिये मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने और जनता से ही लूटे गये पैसों का एक हिस्सा ‘पाँच किलो राशन’ जैसी स्कीमों पर ख़र्च करने के बाद भी भाजपा बार-बार चुनाव में भारी सफलता क़तई हासिल नहीं कर सकती है। लोगों में मोदी सरकार की नीतियों और कारगुज़ारियों के ख़िलाफ़ भारी असन्तोष के बावजूद वह ईवीएम के ज़रिए वोटों की लूट मचाकर ही इस तरह जीत पा रही है।

ईवीएम पर कोई सवाल क्यों नहीं सुनना चाहते भाजपा और केन्द्रीय चुनाव आयोग?

चुनाव आयोग जिसका काम सिर्फ़़ चुनाव सम्पन्न कराना है, वह ईवीएम पर हर तरफ़ से उठने वाले सवालों के बावजूद किसी भी सवाल का जवाब न देने पर क्यों अड़ा हुआ है? ईवीएम के ख़िलाफ़ 2001 से (यानी यह व्यवस्था लागू होने के भी पहले से) 2017 तक कई राज्यों के हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाखिल हुईं। लेकिन चुनाव आयोग के थोथे-बेमानी तर्कों को स्वीकार करते हुए अदालतों ने यह कहकर इन्हें ख़ारिज कर दिया कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। क्यों भाई? चुनाव आयोग सभी सवालों से परे कैसे हो गया? अभी हालिया एक याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि अब वह और ऐसी याचिकाओं को नहीं सुन सकता (मतलब, थक गया है!) और हर वोटिंग पद्धति में कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक तो होता ही है! यह कैसी दलील है? अगर किसी वोटिंग पद्धति का नकारात्मक यह हो कि उससे स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव ही नहीं हो सकते और वोटों की चोरी होती है, तो क्या उस पद्धति को नकारा नहीं जाना चाहिए? क्या उसकी जाँच नहीं की जानी चाहिए?

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर की अध्यक्षता में बने सिटिज़न्स कमीशन ऑन इलेक्शन्स ने अप्रैल 2021 में एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की जिसमें ईवीएम और वीवीपैट मशीनों की ख़ामियों और इनकी अविश्वसनीयता को लेकर कई गम्भीर सवाल उठाये गये थे। इस कमीशन में पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला, मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व जज हरिपरंतमन, आईआईटी दिल्ली में कम्प्यूटर साइंस के प्रोफ़ेसर सुभाशीष बनर्जी सहित चुनाव प्रक्रिया से परिचित अनेक जाने-माने विशेषज्ञ शामिल थे। देश के 1400 जजों, जाने-माने वकीलों, पत्रकारों, प्रोफ़ेसरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर हस्ताक्षर किये हैं। लेकिन केचुआ ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। यह रिपोर्ट तैयार करने से पहले चुनाव आयोग और इसकी तकनीकी समिति के सदस्यों से भी बयान आमंत्रित किये गये थे लेकिन उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। इसकी तकनीकी समिति के सदस्यों और कुछ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों को एक प्रश्नावली भी भेजी गयी थी जिस पर सिर्फ़़ केवल एक पूर्व चुनाव आयुक्त ने जवाब भेजा।

सुप्रसिद्ध न्यूज़ वेबसाइट ‘वायर’ ने विस्तार से कई तकनीकी सवाल उठाते हुए ईवीएम की गड़बड़ियों पर एक लम्बा लेख प्रकाशित किया। ‘संविधान बचाओ मिशन’ से जुड़े जाने-माने वकीलों महमूद प्राचा, भानु प्रताप सिंह आदि ने, सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशान्त भूषण ने और कई प्रतिष्ठित क़ानून विशेषज्ञों ने ईवीएम के सन्दिग्ध होने के कारणों पर कई बार तथ्यों और तर्कों सहित लिखा और बोला है। लेकिन सरकार और चुनाव आयोग ने इसपर कभी ध्यान नहीं दिया। अभी भी महमूद प्राचा आदि द्वारा दायर एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, लेकिन उसकी सुनवाई करने वाली बेंच से चीफ़ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने अपने को अलग कर लिया है, जो अपनेआप में शक़ पैदा करने वाला मामला है।

इतना ही नहीं, 28 राजनीतिक पार्टियों ने कई बार पत्र लिखकर चुनाव आयोग से मिलने का समय माँगा है ताकि ईवीएम को लेकर अपने सन्देहों को उसके सामने रख सकें। लेकिन केचुआ इसके लिए भी तैयार नहीं है!

इतनी पर्दादारी क्यों है भाई? अगर चुनाव आयोग को ईवीएम पर इतना भरोसा है तो वह लोगों के सन्देह को दूर करने के बजाय इस तरह से भाग क्यों रहा है?

अभी जनवरी में जाने-माने वकीलों की अगुवाई में हज़ारों लोगों ने दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया। उनकी बस इतनी माँग थी कि चुनाव आयोग उन्हें 50 ईवीएम मशीनें उपलब्ध कराये और वे साबित कर देंगे कि इनमें छेड़छाड़ कैसे सम्भव है। उनकी बात सुनने के बजाय पुलिस ने उन पर बल प्रयोग किया और हिरासत में ले लिया। भगतसिंह जन अधिकार यात्रा के तहत देशभर से हज़ारों लोग 3 मार्च को जन्तर-मन्तर पहुँचे थे। उनके माँगपत्रक में भी ईवीएम हटाना एक प्रमुख माँग थी। पुलिस ने उनके साथ भी यही सलूक किया।

क्या चुनाव आयोग की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह देश के करोड़ों मतदाताओं के मन में उपजे सन्देह को दूर करे और यह साबित करे कि चुनाव की प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी है? ऐसा करने के बजाय टालमटोल और अनदेखी करना, पारदर्शिता के बजाय पर्देदारी पर अड़े रहना ही यह साबित करता है कि ईवीएम की व्यवस्था में भारी घपला है। आइए देखते हैं कि ईवीएम पर विशेषज्ञों ने कैसे सवाल खड़े किये हैं।

ईवीएम में छेड़छाड़ की सम्भावना के बारे में केचुआ के दावों में कितना दम है

पहली बात तो यह है कि दुनिया की कोई भी ऐसी इलेक्ट्रॉनिक तकनीक या मशीन नहीं हो सकती जिसके साथ छेड़छाड़ या फेरबदल सम्भव नहीं है। हर तकनीक या मशीन को मनुष्य ही बनाता है और मनुष्य ही उसमें नुक्स निकाल सकता है और बदलाव कर सकता है। दुनिया के बड़े बैंकों के सिक्योरिटी सिस्टम, जिनके अभेद्य होने के बारे में दावा किया जाता था, उन्हें भी चोरों ने भेदकर दिखा दिया। महाबली अमेरिका के रक्षा विभाग पेंटागन की वेबसाइट तक को कुछ कॉलेज छात्रों ने हैक कर दिया। भारत सरकार दावा करती रही है कि आधार का डेटा 12 फ़ुट मोटी दीवारों के पीछे और न जाने किन-किन सुरक्षा उपायों से सुरक्षित है, लेकिन सभी जानते हैं कि आधार का डेटा कितनी बार और कितने तरीक़ों से चोरी हो चुका है। ये सब कारनामे तो चन्द व्यक्तियों ने अंजाम दिये थे लेकिन अगर सत्ता में बैठी भाजपा जैसी पार्टी और आरएसएस जैसा संगठन योजना बनाकर काम करें तो ईवीएम से चुनाव के पूरे ताने-बाने को भेदकर मनमाफ़िक नतीजे हासिल करने के लिए उसका इस्तेमाल कर सकते हैं, इसे समझना कोई मुश्किल नहीं है।

हैदराबाद के इंजीनियर हरिप्रसाद, मिशीगन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हाल्डरमैन और डच प्रौद्योगिकी कार्यकर्ता गोंगग्रीप जिन्होंने एक वास्तविक ईवीएम को हैक करने का दावा किया था और अपनी केस स्टडी पर एक पेपर भी प्रकाशित किया था।

ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था। पार्टी के एक नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने 2010 में डेमोक्रेसी ऐट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक मशीन शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी जिसकी प्रस्तावना तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। उसमें तेलुगु देशम पार्टी के एन. चन्द्रबाबू नायडू का एक सन्देश भी छपा था जो आज भाजपा-नीत गठबन्धन में शामिल हो चुके हैं।

ईवीएम-विरोधी कई तथ्यों और तर्कों के साथ इस पुस्तक में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के डेविड डिल के इस कथन का भी हवाला दिया गया है कि ईवीएम का इस्तेमाल सुरक्षित और चूकरहित क़तई नहीं हो सकता। पुस्तक में उस मामले का भी उल्लेख है जब हैदराबाद के एक इंजीनियर हरिप्रसाद ने मिशीगन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हाल्डरमैन और डच प्रौद्योगिकी कार्यकर्ता गोंगग्रीप के साथ मिलकर ईवीएम को हैक करने का दावा किया था और इन तीनों ने अपनी केस स्टडी पर एक पेपर भी प्रकाशित किया था। यह प्रयोग किसी डमी पर नहीं, बल्कि एक वास्तविक ईवीएम पर किया गया था और सिद्ध किया गया था कि मशीनों में दो तरीकों से हेर-फेर किया जा सकता है।

ईवीएम हैक करने को लेकर चुनाव आयोग की चुनौती का सच!
मई 2017 में चुनाव आयोग ने 7 राष्ट्रीय पार्टियों और 49 राज्य स्तरीय पार्टियों को चुनौती दी थी कि वे ईवीएम को हैक करके दिखाएँ। चुनाव आयोग की वाहियात शर्तों की वजह से सिर्फ़़ दो पार्टियों ने चुनौती स्वीकार की लेकिन जब आयोग ने ईवीएम मशीन उन्हें सौंपने से इंकार कर दिया तो उन दोनों पार्टियों ने भी हाथ वापस खींच लिये। इसी को लेकर आयोग और भाजपा दावे करते रहते हैं कि ईवीएम हैक करने की चुनौती से पार्टियाँ भाग खड़ी हुईं। जैसाकि हमने इस पुस्तिका में चर्चा की है और तमाम विशेषज्ञों ने भी कहा है, वायरलेस ढंग से या रिमोट तरीक़े से ईवीएम को हैक नहीं किया सकता, लेकिन अगर मशीन किसी गड़बड़ करने वाले के हाथ लग जाये तो उसे हैक करना मुश्किल नहीं होगा। और यह साफ़ है कि भारी संख्या में ईवीएम मशीनें “लापता” होती रही हैं या ग़लत जगहों पर पायी जाती रही हैं। ऐसे में यह दावा करना सरासर बेईमानी और बेहयाई नहीं तो क्या है?

जवाब में सरकार ने क्या किया? इंजीनियर हरिप्रसाद को तुरन्त अज्ञात स्रोत से वास्तविक ईवीएम की चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया! लेकिन हरिप्रसाद के दावों का कोई जवाब नहीं दिया गया! हरिप्रसाद ने अपना प्रयोग दूसरी पीढ़ी के ईवीएम ‘एम-2’ पर किया था। अब उनका दावा है कि उन्हें मौक़ा दिया जाये तो वह तीसरी पीढ़ी के मौजूदा ईवीएम ‘एम-3’ को भी हैक करके दिखा सकते हैं। लेकिन हरिप्रसाद की बार-बार दी गयी चुनौतियों पर चुनाव आयोग कोई जवाब नहीं देता और रहस्यमयी चुप्पी बनाये रखता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, ईवीएम डिज़ाइन की पर्याप्त जाँच में भी कई पहलुओं की कमी दिखायी देती है। लगता है कि “साइड-चैनल हमलों” की सम्भावनाओं पर विचार ही नहीं किया गया है। दुनियाभर में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक और अन्य चैनलों के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को हैक करने के कई उदाहरण हैं, जिनमें परिष्कृत IntelTM प्रोसेसर के सॉफ़्टवेयर गार्ड एक्सटेंशन शामिल हैं। ऐसी सम्भावनाओं को देखते हुए, यह दावा कि ईवीएम में कोई बाहरी संचार चैनल नहीं है, कतई विश्वसनीय नहीं है।

ईवीएम बनाने वाली कम्पनी के बोर्ड में भाजपा के नेता क्या कर रहे हैं?

ईवीएम मशीन में एक सोर्स कोड होता है जिसे बेहद सीक्रेट रखा जाता है क्योंकि इसका पता होने पर मशीनों में गड़बड़ करना बड़ा आसान हो जायेगा। क्या आपको पता है कि भारत में जो दो कम्पनियाँ ईवीएम बनाती हैं, उनमें से एक कम्पनीभारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेडके बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में स्वतंत्र निदेशक के रूप में भाजपा के चार पदाधिकारी और नामांकित व्यक्ति काम कर रहे हैं? पूर्व आईएएस ई.ए.एस. सरमा ने चुनाव आयोग को इस बारे में पत्र लिखकर सवाल खड़ा किया कि कम्पनी के निदेशक होने के नाते इन भाजपा नेताओं को सोर्स कोड की जानकारी होगी और उनके ज़रिये भाजपा को हो जायेगी जिसका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। लेकिन इतनी गम्भीर बात पर भी चुनाव आयोग और मोदी सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया। ज़ाहिर है, गोदी मीडिया ने तो आपको इसके बारे में कुछ नहीं ही बताया होगा।

सोर्स कोड प्रोग्रामर द्वारा लिखित निर्देशों का एक सेट होता है। सोर्स कोड मशीन को बताता है कि उसे कैसे काम करना है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एक याचिका में तर्क दिया गया कि सोर्स कोड, या मशीन का मस्तिष्क, यदि बदला जाता है, तो चुनाव के परिणाम को बदल सकता है। लेकिन इस पर भी कुछ नहीं हुआ!

19 लाख ईवीएम मशीनें “लापता”, 4 लाख वीवीपैट मशीनें ख़राब – फिर भी व्यवस्था बेदाग़?!

एक और सनसनीखेज़ मुद्दा यह है कि फ़ैक्ट्री से चुनाव आयोग तक पहुँचने के बीच 18 लाख 94 हज़ार से भी ज़्यादा ईवीएम मशीनें ग़ायब हो गयीं! ऐसा भला कैसे हो सकता है? सरकारी मशीनरी की मिलीभगत के बिना यह असम्भव है। इनके दुरुपयोग का सन्देह इस तथ्य से और भी पक्का हो जाता है कि पिछले कई चुनावों के दौरान ईवीएम मशीनों से लदी भाजपाइयों या सरकारी अधिकारियों की कई गाड़ियाँ आम लोगों और विभिन्न विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ी जा चुकी हैं। कांग्रेस के विधायक एच.के. पाटिल ने बॉम्बे हाईकोर्ट में इस बाबत एक याचिका 2022 में दायर की थी लेकिन वह अभी लम्बित ही है।

वीवीपैट बनाने वाली दो सरकारी कम्पनियों की तीन फ़ैक्ट्रियों से चुनाव आयोग को भेजी गयी 17.5 लाख मशीनों में से क़रीब 4 लाख, यानी लगभग एक-चौथाई मशीनें ख़राब पायी गयीं। इसके बारे में ख़ुद चुनाव आयोग ने इन कम्पनियों को पत्र लिखा है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम की जाँच के लिए डाली गयी एक ताज़ा याचिका को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि ऐसी याचिकाओं को वह नहीं सुन सकता क्योंकि हर पद्धति के कुछ सकारात्मक व नकारात्मक होते हैं! यह किस प्रकार की दलील है? निश्चित ही हर पद्धति के सकारात्मक व नकारात्मक होते हैं, किसी में समय व धन कम तो किसी में ज़्यादा लगता है, लेकिन अगर किसी पद्धति में नकारात्मक यह है कि वोटिंग में ही घोटाला कर किसी एक पार्टी को जिताया जा रहा है, तो क्या उस पद्धति की जाँच की याचिका को सुना नहीं जाना चाहिए?

क्या वजह है कि दुनिया के तमाम विकसित देश भी ईवीएम का इस्तेमाल नहीं करते?

एकाध अपवाद को छोड़कर विकसित पश्चिमी देशों सहित दुनिया के अधिकांश देश आज चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल नहीं करते। कई देश ईवीएम का इस्तेमाल करके बैलेट पेपर पर वापस जा चुके हैं। कई देशों की न्यायपालिका विस्तृत जाँच के बाद ईवीएम के इस्तेमाल को सन्दिग्ध, अविश्वसनीय और अवैधानिक घोषित कर चुकी है।

जर्मनी की सर्वोच्च अदालत ने ईवीएम को ख़ारिज करके वापस बैलेट पेपर से चुनाव कराने की व्यवस्था लागू करने के अपने चर्चित फ़ैसले में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही थीं जिनकी रोशनी में हमें अपने देश में ईवीएम की प्रणाली को देखना चाहिए।

(i) अदालत ने कहा कि मतदान प्रक्रिया इस तरह से पारदर्शी होनी चाहिए कि आम जनता सन्तुष्ट हो सके कि उसका वोट सही ढंग से दर्ज किया और गिना गया है। (i)  मतदान और गिनती की प्रक्रिया को सार्वजनिक रूप से जाँचने योग्य होना चाहिए। (iii)  आम नागरिकों को मतदान प्रक्रिया में आवश्यक चरणों की जाँच करने में सक्षम होना चाहिए। (iv) मतों की गिनती इस तरह से होनी चाहिए जिसका सत्यापन किया जा सके और परिणामों का बिना किसी विशेष ज्ञान के विश्वसनीय रूप से पता लगाया जा सके। (v) चुनाव प्रक्रिया केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष होनी चाहिए बल्कि स्वतंत्र और निष्पक्ष दिखनी भी चाहिए। (vi) चुनाव आयोग का सम्पूर्ण मतदान प्रक्रिया पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए और बड़े पैमाने पर जनता को सत्यापन करने में सक्षम होना चाहिए।

क्या इनमें से कोई भी शर्त आज भारत में पूरी होती है?

क्या कारण है कि जहाँ ईवीएम से चुनाव नहीं होते, वहाँ भाजपा हार जाती है?

स्वायत्तशासी निकायों सहित जिन भी चुनावों में बैलेट पेपर से चुनाव हुए, उनमें से अधिकांश में भाजपा के उम्मीदवारों को हार का मुँह देखना पड़ा। चण्डीगढ़ के मेयर चुनाव में भाजपा की हार भी यही दिखाती है। साथ ही, कई राज्यों में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में पोस्टल बैलटों में भाजपा अक्सर ही हारती नज़र आयी है।

 

अब ज़रा जान लेते हैं कि ईवीएम से चुनाव की पूरी प्रक्रिया में क्याक्या होता है और किनकिन स्तरों पर इसमें गड़बड़ किया जाना सम्भव है।

बैलेट पेपर से होने वाले चुनाव की प्रक्रिया में चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के माध्यम से सभी स्वतंत्र और राजनीतिक दलों के टिकट वाले उम्मीदवारों के नाम और उनके आवंटित प्रतीकों के साथ एक मतपत्र छपवाया जाता है। पंजीकृत मतदाता को बस पीठासीन अधिकारी से एक मतपत्र और एक रबर स्टाम्प लेना होता है, मतदान बूथ में जाना होता है, अपने पसन्दीदा उम्मीदवार के सामने चिह्न पर मोहर लगानी होती है और इसे मतपत्र में डाल देना होता है। मतदाता इस प्रक्रिया के हर चरण को अपनी आँखों से देख सकता था।

ईवीएम मशीन क्या होती है?

ईवीएम में एक कण्ट्रोल यूनिट होती है जिसे पीठासीन अधिकारी की डेस्क पर रखा जाता है। कण्ट्रोल यूनिट मतदाता-सत्यापित पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) प्रिण्टर से जुड़ी होती है, जो फिर मतपत्र इकाई (बैलेट यूनिट) से जुड़ी होती है। वीवीपैट प्रिण्टर और बैलेट यूनिट मतदाता बूथ में रखे जाते हैं। वीवीपैट स्थिति प्रदर्शन इकाई (वीएसडीयू) पीठासीन अधिकारी के पास रखी जाती है और वीवीपैट प्रिण्टर की स्थिति प्रदर्शित करती है। यह एक स्टैण्ड-अलोन प्रणाली है जिसमें कथित तौर पर तार या रेडियो के माध्यम से कोई बाहरी संचार चैनल नहीं है। इसमें केवल विशिष्ट प्रोटोकॉल के अनुसार डेटा के इनपुट और आउटपुट के लिए निर्दिष्ट इण्टरफ़ेस हैं। चुनाव आयोग के अनुसार, यह स्टैण्ड-अलोन है यानी इसे कम्प्यूटर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता और ‘वन-टाइम प्रोग्रामेबल’ (ओटीपी) है यानी इसमें एक बार के बाद कोई दूसरा प्रोग्राम नहीं डाला जा सकता।

लेकिन केचुआ के इस दावे पर भी सवाल उठ गये हैं। चुनाव आयोग और ईवीएम तथा वीवीपैट निर्माताओं – भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड (ईसीआईएल) से आरटीआई के ज़रिये पूछे एक प्रश्न का उत्तर बताता है कि ईवीएम के अचूक होने का दावा सन्दिग्ध है। ईवीएम में उपयोग किए जाने वाले माइक्रो-कण्ट्रोलर को ‘वन-टाइम प्रोग्रामेबल’ नहीं कहा जा सकता है। उनमें तीन प्रकार की मेमोरी होती हैं – EEPROM, Flash और SRAM। EEPROM का अर्थ है “इलेक्ट्रिकली इरेज़ेबल प्रोग्रामेबल रीड-ओनली मेमोरी” और जैसा कि नाम से ही पता चलता है, इस मेमोरी को मिटाकर उस पर दूसरा प्रोग्राम लिखा जा सकता है। ईवीएम में, सॉफ़्टवेयर को या तो EEPROM या फ़्लैश मेमोरी (या दोनों) में संग्रहीत किया जाता है। अब यह पता चला है कि दोनों को फिर से प्रोग्राम किया जा सकता है। इसलिए, ईसीआई का यह दावा सरासर ग़लत है कि ईवीएम सॉफ़्टवेयर एक ओटीपी चिप में रहता है। यानी इस चिप के ज़रिये डेटा में हेरफेर किया जा सकता है। यह जानकारी नीदरलैण्ड स्थित एनएक्सपी सेमीकण्डक्टर्स एनवी की वेबसाइट पर पोस्ट की गई है, जो माइक्रो-कण्ट्रोलर चिप्स की आपूर्ति करती है। इसके अलावा, इस महत्वपूर्ण सार्वजनिक मुद्दे पर माँगी गयी अधिकांश जानकारी देने से दोनों सरकारी कम्पनियों और चुनाव आयोग ने साफ़ मना कर दिया।

बेशक़, अब तक उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, वायरलेस माध्यमों से ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता है, न ही इन्हें किसी अज्ञात रिमोट प्रोसेस के ज़रिये हैक किया जा सकता है। लेकिन अगर ईवीएम मशीनें गड़बड़ी करने वालों के हाथ लग जायें तो बाज़ार में उपलब्ध टूलकिट का इस्तेमाल करके चिप को रीप्रोग्राम करके उन्हें हैक किया जा सकता है।

अब तक सिर्फ़़ एक बार मई 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश पर ईवीएम को आधिकारिक तौर पर खोला गया था और उसकी यांत्रिकी की जाँच की गयी थी। एक उम्मीदवार द्वारा महाराष्ट्र में 2014 विधानसभा चुनाव में बेमेल वोटों के सम्बन्ध में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्रीय फ़ोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला, हैदराबाद को अन्य बातों के अलावा, यह जाँच करने के लिए कहा गया था कि क्या सोर्स कोड के साथ छेड़छाड़ की गयी है। उम्मीदवार के शब्दों में, “यह अजीब था कि जब मशीन वाई प्लस सुरक्षा के तहत सीएफएसएल, हैदराबाद पहुँची तो वहाँ कम से कम 40 लोग उसके आने का इन्तज़ार कर रहे थे, जिनमें इण्टेलिजेंस ब्यूरो, सीआईडी और अन्य खुफ़िया एजेंसियों के साथसाथ राज्य पुलिस और कई अन्य अफ़सर शामिल थे। उनमें बहुत ज़्यादा व्याकुलता थी।सीएफएसएल ने क्लीन चिट दे दी, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि उनके पास मशीन की जाँच करने के लिए तकनीकी विशेषज्ञता ही नहीं थी!

ईवीएम से वोटिंग कैसे होती है

वोट डालने के लिए, पीठासीन अधिकारी को सबसे पहले कण्ट्रोल यूनिट पर एक बटन दबाकर बैलेट यूनिट को एक्टिवेट करना होगा। मतदाता बैलेट यूनिट पर एक बटन दबाकर उम्मीदवार का चयन करके वोट डालता है। एक बार बटन दबाने पर, बटन के बगल में एक एलईडी लाइट चमकती है और एक लम्बी बीप होती है जो दर्शाती है कि वोट दर्ज हो गया है। उसी समय वीवीपैट काग़ज़ की एक छोटी पर्ची प्रिण्ट करता है जिसमें मतदाता द्वारा चुने गए उम्मीदवार का प्रतीक, नाम और क्रमांक अंकित होता है। यह स्लिप मशीन पर एक छोटी-सी विण्डो में सात सेकण्ड के लिए दिखायी देती है जिसके बाद यह एक सुरक्षित बॉक्स में चली जाती है।

पहले पर्ची दिखने का समय 15 सेकण्ड था जो अब 7 सेकण्ड रह गया है। विण्डो का शीशा भी सफ़ेद की जगह काला हो गया है। ज़्यादातर मतदाताओं के लिए इतनी जल्दी में यह देख पाना मुश्किल होता है कि उनका वोट सही उम्मीदवार को गया है या नहीं।

वोटिंग के पहले और बाद में क्या होता है?

बीईएल और ईसीआईएल दोनों चुनाव आयोग के निर्देशानुसार ईवीएम मशीनों की पैकेजिंग और राज्यों को भेजने के लिए ज़िम्मेदार हैं। ईवीएम और वीवीपैट के परिवहन के लिए उचित लॉकिंग व्यवस्था वाले कण्टेनर या सीलबन्द ट्रकों का उपयोग किया जाता है। कण्टेनरों पर पेपर सील लगायी जाती हैं। ईवीएम की सभी गतिविधियों को मशीनों के बाहर और ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (जीपीएस) पर आधारित ईवीएम ट्रैकिंग सॉफ़्टवेयर (ईटीएस) का उपयोग करके निर्धारित और मॉनिटर किया जाता है। ईवीएम की प्राप्ति पर, ज़िला निर्वाचन अधिकारियों को ईवीएम की प्राप्ति की प्रक्रिया की वीडियोग्राफ़ी करनी होती है और फिर उन्हें ज़िला मुख्यालय में स्ट्राँग रूम में रखना होता है।

चुनाव आयोग मतदान से 200 दिन पहले राज्यों को ईवीएम आवण्टित करता है। ईवीएम को मतदान से 180 दिन पहले भेजा जाता है और जीपीएस-आधारित ईटीएस सॉफ़्टवेयर का उपयोग करके ट्रैक किया जाता है। मतदान से तीन से छह महीने पहले ईवीएम की प्रथम-स्तरीय जाँच होती है, जहाँ आन्तरिक भागों की जाँच की जाती है और कण्ट्रोल यूनिट को सील कर दिया जाता है। मतदान से तीन सप्ताह पहले प्रथम चरण के रैण्डमाइज़ेशन सॉफ़्टवेयर का उपयोग करके ईवीएम को निर्वाचन क्षेत्रों को सौंपा जाता है। दूसरे चरण के रैण्डमाइज़ेशन में, ईवीएम को मतदान से दो सप्ताह पहले मतदान केन्द्रों को सौंपा जाता है। अन्त में, उम्मीदवार के नाम वापस लेने की अन्तिम तिथि के बाद, मतपत्र को बैलेट यूनिट पर लगाया जाता है, उम्मीदवारों के नाम वर्णमाला क्रम में दर्ज किये जाते हैं, एक मॉक पोल आयोजित किया जाता है, और बैलेट यूनिट को सील कर दिया जाता है।

मतदान वाले दिन प्रत्येक मतदान केन्द्र पर कम से कम 50 वोटों का मॉक पोल आयोजित किया जाता है और उम्मीदवारों के मतदान एजेण्टों की उपस्थिति में ईवीएम और वीवीपैट का मिलान किया जाता है। इसके बाद, मतदान के लिए उपयोग किये जाने वाले बटनों के अलावा कण्ट्रोल यूनिट के सभी बटनों को पेपर सील से ढँक दिया जाता है जिन पर मतदान एजेण्टों द्वारा हस्ताक्षर किये जाते हैं। मतदान पूरा हो जाने के बाद, पीठासीन अधिकारी क्लोज़ बटन दबाता है, जिसके बाद कोई वोट नहीं डाला जा सकता है। पूरी ईवीएम यूनिट को सील और हस्ताक्षरित किया जाता है। मतदान एजेण्टों को अपनी मुहर लगाने की अनुमति है। उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को उस वाहन के पीछे यात्रा करने की अनुमति है जो ईवीएम को मतगणना भण्डारण कक्ष तक ले जाता है। मतगणना भण्डारण कक्षों को केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ़) द्वारा सील और संरक्षित किया जाता है। उम्मीदवारों को स्ट्राँगरूम पर अपनी मुहर लगाने की अनुमति है।

इन्हीं प्रक्रियाओं की चर्चा करके तर्क दिया जाता है कि सुरक्षा के इतने इन्तज़ामों के बाद गड़बड़ की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है। लेकिन ज़मीनी सच्चाइयाँ कुछ और ही बताती हैं। कितनी ही जगहों पर ऐन चुनाव के दिन या उससे पहले ईवीएम मशीनें भाजपा के नेताओं या सरकारी अफ़सरों के घरों या गाड़ियों से बरामद की गयी हैं। कई बार मतदान केन्द्र से मतगणना स्थल तक पहुँचने के बीच मशीनें घण्टों तक ग़ायब हो जाने की ख़बरें आयी हैं। इनसे साफ़ है कि अचूक सुरक्षा के तमाम सरकारी दावे बोगस हैं। ज़ाहिर है, इतनी कड़ी व्यवस्था में सेंध लगाने का काम सरकारी तंत्र की मिलीभगत के बिना नहीं किया जा सकता है। और भाजपा से बेहतर इसे कौन कर सकता है जिसने फ़ासीवादीकरण और पैसे की ताक़त के बूते सरकारी मशीनरी के हर स्तर पर घुसपैठ कर ली है।

अन्तिम वोट डाले जाने के बाद कम से कम 10 अलग-अलग स्थानों से नयी ईवीएम को स्ट्राँगरूम में ले जाने की वीडियो रिपोर्टें आयीं। चुनाव आयोग ने कहा कि ये आरक्षित ईवीएम थे, लेकिन इसके लिए कोई सबूत नहीं दिया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया कि इन्हें मतदान के समय के बजाय गिनती से ठीक पहले स्थानान्तरित करने की क्या ज़रूरत थी। जबकि कई मामलों में, मतदान और गिनती के बीच कई हफ्तों का समय होता था। इस बात का भी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि इन वाहनों के साथ कोई सुरक्षा अधिकारी क्यों नहीं थेजैसा कि चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार आवश्यक हैऔर ये वाहन अक्सर बिना नम्बर वाले, अनौपचारिक वाहन क्यों थे। इस बात पर सन्देह क्यों किया जाये कि ये ग़ायब हुईं 20 लाख ईवीएम मशीनों का हिस्सा हैं।

साथ ही हम आगे देखेंगे कि 50 वोट डालने वाले मॉक परीक्षण से कुछ भी साबित नहीं होता क्योंकि ईवीएम का एल्गोरिदम इस प्रकार सेट किया जा सकता है कि पहले 200 या 300 वोटों के बाद हर दूसरा या तीसरा वोट कमल को जाये। इसलिए वोटिंग की पारदर्शिता व निष्पक्षता को जाँचने वाला प्रमुख क़दम ही ईवीएम के मामले में बेकार है। यह ख़ास तौर पर ध्यान देने योग्य बात इसलिए बन जाती है कि ईवीएम की मैन्युफ़ैक्चरिंग की प्रक्रिया में ही भाजपाइयों को घुसा दिया गया है।

पिछले चुनावों में दर्जनों जगहों पर मतदाताओं ने शिकायत की है कि उन्होंने किसी और पार्टी का बटन दबाया लेकिन वोट दूसरी पार्टी को चला गया। इन सभी जगहों पर निरपवाद रूप से यहदूसरी पार्टीभाजपा ही थी! इससे भी ज़ाहिर है कि यह किसी तकनीकी चूक नहीं बल्कि जानबूझकर की गयी गड़बड़ी का मामला है।

ईवीएम से मतगणना कितनी सुरक्षित है?

मतगणना के दिन सबसे पहले, ईवीएम सीरियल नम्बर, सील, मतदान के आरम्भ और समाप्ति के समय को चुनाव अधिकारियों और मतदान एजेण्टों द्वारा सत्यापित किया जाता है। जो कण्ट्रोल यूनिट परिणाम प्रदर्शित नहीं करती हैं क्योंकि वे ठीक से बन्द नहीं की गयी थीं, या जिनके रिपोर्ट किये गये वोटों की कुल संख्या पीठासीन अधिकारी द्वारा रिपोर्ट की गयी संख्या से मेल नहीं खाती है, उन्हें जाँच के लिए अलग रखा जाता है। परिणामों की घोषणा के बाद, उम्मीदवार या मतगणना एजेण्ट वीवीपैट गणना के लिए रिटर्निंग अधिकारी को आवेदन कर सकते हैं, जिन्हें इस मामले पर निर्णय लेना होता है।

सुनने में यह सुरक्षित तरीक़ा लगता है लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ भी ज़मीनी सच्चाइयाँ कुछ और ही कहानी कहती हैं।

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ‘द क्विण्ट’ वेब पोर्टल के एक पत्रकार ने चुनाव आयोग की वेबसाइट पर दिये आँकड़ों की जाँच की तो कई बेहद चौंकाने वाली बातें सामने आयीं। 373 सीटों पर डाले गये कुल वोटों और सभी उम्मीदवारों को मिले कुल वोटों की संख्या में अन्तर था। मिसाल के लिए, मथुरा सीट पर चुनाव आयोग के डेटा के अनुसार ईवीएम में कुल 10,88,206 वोट पड़े जबकि मतगणना में सभी उम्मीदवारों को मिले वोटों की संख्या थी – 10,98,112, यानी दोनों में 9,906 वोटों का भारी अन्तर था। तीन अन्य सीटों पर 18,331, 17,871 और 14,512 वोटों का अन्तर पाया गया। ये संख्याएँ स्पष्ट रूप से इतनी बड़ी हैं कि अनजाने में गिने गये शेष मॉक पोलिंग डेटा से इसकी व्याख्या करना सम्भव नहीं है। ‘द क्विण्ट’ ने जब चुनाव आयोग को इस भयंकर सन्देह पैदा करने वाले मामले की जानकारी दी तो उसने क्या किया? आप सोचेंगे कि चुनाव आयोग ने फ़ौरन जाँच का आदेश दिया होगा। लेकिन नहीं। चुनाव आयोग ने बस यह किया कि चुनाव आयोग की वेबसाइट से फ़ाइनल डेटा शीट ही डिलीट कर दी! अब करते रहो जाँच। है न बिल्कुल मोदी सरकार वाली चाल? मोदी के (अ)मृत काल में देश को यही दिन देखना था। जनता बढ़ती बेरोज़गारी के आँकड़े बताकर सवाल उठा रही थी, तो मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के आँकड़े जुटाना और प्रकाशित करना ही बन्द कर दिया। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!

वीवीपैट की व्यवस्था भी सन्देह के घेरे में है

इस बात के पक्ष में भी अब पर्याप्त तथ्य और तर्क आ चुके हैं कि वीवीपैट की जोड़ी गयी व्यवस्था भी ईवीएम को सन्देहमुक्त नहीं बनाती। स्वयं भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी और कई विपक्षी नेताओं ने बार-बार यह माँग उठायी कि वीवीपैट से निकली पर्ची मिलान कराने के लिए हर वोटर को भी मिलनी चाहिए और इसे एक दूसरे बॉक्स में डालना चाहिए। अगर उन्हें लगता है कि कोई विसंगति है तो उन्हें अपना वोट रद्द करने का विकल्प दिया जाना चाहिए। इसके बाद सारी वीवीपैट पर्चियों की गिनती करके ईवीएम के नतीजों से मिलान कराया जाना चाहिए, लेकिन चुनाव आयोग ने इसपर बिल्कुल कान नहीं दिया। आख़िर क्यों?

जाने-माने वकील प्रशान्त भूषण ने कहा है कि ईवीएम या तो हटाया जाये या वीवीपैट का डिज़ाइन बदला जाये क्योंकि वोट डालने के बाद जब लाइट बन्द होती है, उसके बाद उस वीवीपैट मशीन में क्या होता है, कण्ट्रोल यूनिट में क्या सिगनल जाता है, ये किसी को नहीं पता है, क्योंकि उसमें जो सॉफ़्टवेयर है, उसके बारे में किसी को मालूम नहीं है।

मतदान से पहले उम्मीदवारों के जनप्रतिनिधियों के सामने ‘मॉक पोलिंग’ करायी जाती है और 50 वोट डलवाकर हर मशीन की भरोसेमन्दी देखी जाती है। लेकिन ईवीएम मशीनों का अल्गोरिदम इस तरह सेट किया जा सकता है कि 500 या 1000 वोट पड़ चुकने के बाद हर दूसरा या तीसरा वोट कमल या निर्धारित चुनाव चिह्न को ही जाये, बटन चाहे जो भी दबाया जाये। अगर ईवीएम बनाने की प्रक्रिया में ही भाजपाइयों को घुसा दिया गया हो, तो सोचिये, भला यह क्यों नहीं सम्भव है? ज़ाहिर है कि हर सीट पर और बहुत बड़े पैमाने पर यह काम करने की मूर्खता नहीं की जायेगी और इस तिकड़म का सिर्फ़़ वहीं इस्तेमाल किया जाये जहाँ काँटे की टक्कर हो और हारजीत का अन्तर कम रहा करता हो। इसलिए भाजपाइयों का यह तर्क बकवास है कि अगर ईवीएम घोटाला सच है तो भाजपा हरेक चुनाव क्यों नहीं जीत जाती! मँजा हुआ तशेड़ी भी हर चाल में हाथ की सफ़ाई दिखलायेगा तो पकड़ा जायेगा।

सीधी-सी बात यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी या गठबन्धन लोगों के बीच ईवीएम की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए कुछ विधानसभा चुनावों में ईवीएम-धोखाधड़ी का इस्तेमाल नहीं करता है और उनमें से कुछ हार भी सकता है (ऐसे राज्यों में भी भाजपा अक्सर चुनावों के बाद धनबल और ईडी छापेमारी आदि की धमकियों से विधायक तोड़कर, सरकारें गिराकर अपनी सरकारें बना लेती है)। दूसरे, कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि भाजपा जितने वोटों की गड़बड़ी करे, जनता के भारी असन्तोष की वजह से उसके ख़िलाफ़ पड़ने वाले वोटों की तादाद उससे कहीं ज़्यादा हो जाये और भाजपा के कैल्कुलेशन गड़बड़ा जायें। साफ़ है कि ईवीएम की विश्वसनीयता पर उठे सवाल अपनी जगह पर जस के तस बने रहते हैं।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ईवीएम चुनाव में धाँधली करने के भाजपा के तमाम तरीक़ों में से सबसे बड़ा हथकण्डा है लेकिन यह उसका एकमात्र हथकण्डा नहीं है। इसका एक हथकण्डा यह भी है कि चुनिन्दा ढंग से अपने विरोधी वोटरों वाले इलाक़ों में से उन समुदायों के लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब कर दिये जायें जिनके वोट ना पाने की उसे आशंका होती है। कुछ विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि पिछले सालों के दौरान देशभर में लगभग 40 लाख मुस्लिम और क़रीब 7 लाख दलित मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से बाहर कर दिये गये।

प्रतिष्ठित अशोका युनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने अपने एक रिसर्च पेपर में आँकड़ों के साथ दिखाया कि 2019 के आम चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने कुछ सीटों पर परिणामों में हेरफेर किया था। इस हेरफेर के परिणामस्वरूप पार्टी ने क़रीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में अनुमान से कहीं ज़्यादा सीटें जीत लीं। अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर सब्यसाची दास के लिखे इस पेपर के प्रकाशन से भाजपा को लगा कि उसे चोरी करते रँगे हाथों पकड़ लिया गया है और उसके तमाम नेता और आईटी सेल की पूरी ताक़त उसके पीछे पड़ गयी।

इस पेपर ने अनेक विशेषज्ञों की इस बात को सही साबित किया कि बहुत कम संख्या में दोषपूर्ण ईवीएम मशीनों के साथ, कुछ हज़ार वोटों को स्विंग कराना, एक लोकसभा सीट पर परिणाम में बदलाव कराने के लिए पर्याप्त है।  ध्यान दें कि यदि विजेता और दूसरे नम्बर के उम्मीदवार के बीच अन्तर कम है, तो कम ईवीएम में हेराफेरी करने की आवश्यकता होगी और इसका पता लगाने के लिए, अधिक जाँच की आवश्यकता होगी।

व्यवहार में, काफ़ी कम ईवीएम में छेड़छाड़ करके भी चुनाव परिणाम बदले जा सकते हैं, और यह मानना ग़लत है कि दोषपूर्ण (या हैक की गयी) ईवीएम पूरी आबादी में समान रूप से वितरित की जाती हैं। इनका इस्तेमाल प्रशासनिक मशीनरी में घुसपैठ के बूते बहुत कुशलता के साथ ख़ास जगहों पर किया जाता है। किसी को किसी और बात की उम्मीद थी, तो यह उसकी नादानी है। ज़ाहिरा तौर पर, आपराधिक फ़ासिस्टों का गिरोह इस तरह की हेरफेर का इसी चालाकी से इस्तेमाल कर सकता है।

ईवीएम के विरुद्ध व्यापक जनान्दोलन खड़ा करना क्यों ज़रूरी है?

साथियो, बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार पूरी तरह नाकाम साबित हो चुकी है। इसी वजह से वह नये सिरे से साम्प्रदायिक आधार पर आम आबादी को बाँटने का काम कर रही है। लेकिन इसके बावजूद वह आने वाले चुनावों में जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध देश के तेरह राज्यों में तीन महीने तक चलने वाली भगतसिंह जन अधिकार यात्रा के दौरान हम सभी ने शिद्दत के साथ यह बात महसूस की कि मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियाँ देश को विनाश के ज्वालामुखी की ओर धकेलती जा रही हैं। उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ नब्बे प्रतिशत मेहनतकश जनता और बहुसंख्यक आम मध्यवर्गीय आबादी के बीच पूरे देश में सुलगती हुई आग एक विस्फोटक शक़्ल अख़्तियार करने की ओर आगे बढ़ रही है। हाल में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने चुनावों में ईवीएम द्वारा धाँधली के उस व्यापक सन्देह को और अधिक गहरा बना दिया है जो विशेषकर 2019 के आम चुनावों के बाद से ही गोदी मीडिया और विराट भाजपाई प्रचारतंत्र की हरचन्द कोशिशों के बावजूद देशव्यापी चर्चा का एक विषय बन चुका था। आज इस बात के स्पष्ट तथ्य और तर्क मौजूद हैं कि क्यों ईवीएम से होने वाले चुनाव कतई भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं।

आज ईवीएम के ज़रिये आम नागरिकों के सबसे बुनियादी जनवादी अधिकारों में से एक पर, यानी एक पारदर्शी चुनाव में वोट डालकर अपने प्रतिनिधि को चुनने के जनवादी अधिकार पर, एक अन्धेरगर्दी भरी डाकेज़नी की जा रही है। इसलिए ईवीएम के विरुद्ध संगठित जनसंघर्ष की अविराम मुहिम चलाना हमारी बेहद ज़रूरी फ़ौरी ज़िम्मेदारी है। यह हर उस ज़िम्मेदार नागरिक की ज़िम्मेदारी है जो हमारे रहे-सहे, अतिसीमित जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त को लेकर चिन्तित है। यह मुहिम तब तक जारी रहनी चाहिए जब तक ईवीएम को हटाया नहीं जाता।

बैलेट पेपर की प्रक्रिया में अधिक समय और अधिक धन लगाने का सरकारी और भाजपाई तर्क निहायत बेमानी है। किसी सरकार के चुनाव में पारदर्शिता और जनता का विश्वास सबसे बड़ी चीज़ है। इस देश में अकेले नेताओं की ऐयाशी और सुरक्षा पर तथा विशाल नौकरशाही पर जितना बेहिसाब धन ख़र्च होता है, वहाँ चुनाव जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर कुछ अधिक धन और कुछ अधिक समय ख़र्च हो जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

वैसे तो ईवीएम से होने वाले चुनाव में भी कई बार नतीजे घोषित होने में काफ़ी देर होती है क्योंकि भाजपा अपने मनचाहे उम्मीदवार को जिताने के लिए नतीजे रोककर रखती है। जो सरकार सिर्फ़़ मोदी के पागलपन में और उसकी चहेती कम्पनियों को अरबों-खरबों के ठेके दिलवाने के लिए सेण्ट्रल विस्टा जैसे निरर्थक प्रोजेक्ट पर हज़ारों करोड़ फूँक सकती है, उसे तो ईवीएम के ज़रिये पैसे बचाने की बात करने का वैसे भी कोई हक़ ही नहीं बनता!


अगर आम लोगों में ईवीएम पर भरोसा ख़त्म हो चुका है
तो सरकार इस पर क्यों अड़ी हुई है?

आगामी चुनावों के नतीजे चाहे जो भी हों, इससे ईवीएम की विश्वसनीयता नहीं सिद्ध होती। सत्ता में चाहे फ़ासिस्टों का गठबन्धन आये या अन्य पूँजीवादी चुनावी पार्टियों का, जबतक ईवीएम हटाकर बैलेट पेपर की व्यवस्था बहाल न की जाये तबतक चुनावों की पारदर्शिता पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। जनता को ईवीएम हटाने के लिए संघर्ष चलाना होगा और इसे मज़बूत एवं व्यापक बनाते जाना होगा। अगर हम ऐसा करने से चूकते हैं तो यह एक बड़ी राजनीतिक भूल होगी। अगर नंगी धाँधलीभरे चुनावी नतीजों के बाद देशव्यापी उग्र जनउभार की सम्भावना से घबराकर भाजपा इसबार ईवीएम की धाँधलेबाज़ी न करके दूसरे हथकण्डों का इस्तेमाल करे और यहाँ तक कि किसी आपवादिक स्थिति में अपनी हार भी स्वीकार करने को बाध्य हो जाये, तो भी ईवीएम का इस्तेमाल सन्देह से परे नहीं माना जाना चाहिए। किसी सत्तारूढ़ दल को इसका इस्तेमाल करने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट भाजपा अगर चुनाव हारती है, तो भी तृणमूल स्तर पर संघ की मशीनरी अपने जनविरोधी साम्प्रदायिक प्रचार को जारी रखेगी और असुरक्षा और अनिश्चितता से तंग आम जनता को साम्प्रदायिक उन्माद से बहकाकर फिर से सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का प्रयास जारी रखेगी। उसको फ़ैसलाकुन शिकस्त देने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है। लेकिन धोखाधड़ी और फ़रेब का कम से कम एक महत्वपूर्ण हथियार तो उसके हाथ से छीन ही लिया जाना चाहिए –  यानी, ईवीएम के ज़रिये चुनाव।

साथियो! इसके लिए हम ईवीएमविरोधी मुहिम में आपकी सक्रिय भागीदारी की और इसे देशव्यापी जुझारू आन्दोलन बनाने में आप सभी की प्रभावी भूमिका की उम्मीद करते हैं और इसके लिए आपका आह्वान करते हैं।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2024


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments