नमक की दलदलों में

सनी

“नमक बनाने की जगह (नमकसार) जाओ, दोस्त। वहाँ हमेशा काम की भरमार रहती है। हर समय और हर घड़ी, जब भी जाओ, काम मिल ही जायेगा। असल में वह काम इतना बेहूदा और जानलेवा है कि अधिक दिनों तक वहाँ कोई चिपका नहीं रह सकता। सब भाग जाते हैं। बर्दाश्त नहीं कर पाते। सो वहाँ जाओ और दो-चार दिन काम करके देखो। प्रति ठेला एक कोपेक मिलती है। इतने में एक दिन का खर्च मज़े में चल जायेगा।”

यह सलाह देने के बाद उसने – वह एक मछुआरा था – ज़मीन पर थूका, सर उठाकर फिर समुद्र के उस पार क्षितिज की ओर देखा और मन ही मन किसी उदास गीत की धुन गुनगुनाने लगा। मैं उसकी बगल में मछियारों के बाड़े की छाँव में बैठा था। वह अपनी कनवास की पतलून की मरम्मत कर रहा था। रह-रहकर वह जम्हाई लेता और काफी काम न मिलने तथा काम की खोज में दुनिया की धूल छानने के बारे में निराशा भरी बातें बुदबुदाता जाता।

‘‘जब देखो कि अब नहीं सहा जाता तो यहाँ चले आना और आराम करना। बोलो क्या कहते हो? जगह ज्यादा दूर नहीं है-यहाँ से तीन मील दूर होगी। ऊंह, कितना अटपटा है हमारा जीवन।”

मैंने उससे विदा ली, सलाह के लिए उसे धन्यवाद दिया और समुद्र के किनारे-किनारे साल्ट मार्श के लिए चल दिया। अगस्त मास की गर्म सुबह थी। आकाश उजला और साफ़ था और समुद्र शांत और सौम्य। हरी लहरें, एक दुसरे का पीछा करतीं, तट की बालू पर दौड़ रही थीं। उनकी हलकी छलछलाहट उदासी भरी थी। सामने, खूब दूर, नीली धुंध के बीच, तट की पीली बालू के ऊपर सफ़ेद पैबंद नज़र आ रहे थे। वह ओचोकोव नगर था। मछियारों के बाड़े को, जो पीछे रह गया था, समुद्र की नीली-हरी आभा से रेंज रेट के उजले पीले टीलों ने निगल लिया था।

बाड़े में, जहाँ मैंने रात बिताई थी, दुनिया भर की ऐसी-ऐसी होनी-अनहोनी बातें और कहानिया मैंने सुनी थीं की मेरा जी भारी हो गया था। लहरों की ध्वनि भी जैसे मेरे इस भारीपन का साथ दे रही थी और उसे और भी घना बना रही थी।

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नमकसार शीघ्र ही दिखाई देने लगा। करीब चार-चार सौ वर्गमीटर के तीन प्लाट थे। नीची मेढें और संकरी खाइयाँ उन्हें एक-दुसरे से अलग कर रही थीं। ये तीनो प्लाट नमक निकालने की तीन मंजिलों के सूचक थे। पहला प्लाट समुद्र के पानी से भरा था। इस पानी को भाप बनकर उड़ जाने पर गुलाबी झलक लिए पीले-भूरे नमक की पतली तह रह जाती थी। दुसरे प्लाट में नमक के दूह जमा किये जाते थे। हाथों में फ़ावड़े लिए स्त्रियाँ, जिनके जिम्मे यह काम था, घुटनों तक काली चमचमाती दलदल में खड़ी थीं। वे आपस में न तो बतिया रही थी, न ही एक दुसरे को पुकार रही थी। केवल उनकी उदास मटमैली आकृतियाँ इस घनी, लोनी और घाव कर देने वाली कास्टिक ‘रापा’ की पृष्ठभूमि में – लोगों ने इस दलदल का यही नाम रख छोड़ा था – खोयी सी मुद्रा में हरकत करती नज़र आ रही थीं। तीसरे प्लाट से नमक हटाया जा रहा था। अपने हथ ठेलों पर झुके, मूक और निश्चेत, मज़दूर कसमसा रहे थे। हथ ठेलों के पहिये रगड़ खाते और चीं-चर्र करते और ऐसा मालूम होता जैसे यह आवाज़ नंगी मानवीय पीठों की लम्बी पांत द्वारा ईश्वर के दरबार में भेजी गयी एक शोकपूर्ण अपील हो। और ईश्वर था कि वह धरती पर असहन गर्मी उड़ेल रहा था जिसने लोनी दलदली घासों और नमक के कणों से युक्त पपड़ी-जमी धरती को झुलसा दिया था। हथ ठेलों की एकरस चरमर को वेदकर फोरमेन की गहरी आवाज़ सुनाई दे रही थी। वह मज़दूरों पर गालियों की बौछार कर रहा था। मज़दूर आते और अपने ठेलों को उसके पाँव के पास उड़ेलकर खाली कर देते। वह एक डोल में से नमक के ढेर पर पानी डालता और इसके बाद उसे एक पिरामिड के आकार में जमा देता। वह एक लम्बा आदमी था, अफ्रीका के लोगों की भांति काला और नीली तथा सफ़ेद पतलून पहने हुए। उस जगह, जहाँ नमक के ढेर पर खड़ा वह अपने हाथ के बेलचे को हवा में हिल रहा था, ठेला मज़दूरों पर वह बराबर चीख रहा था। तख्तों के ऊपर से वे ठेले खींचकर लाते और वह वहीँ से चीख उठता-

‘‘ऐ, इसे बायीं ओर खाली करना! बायीं ओर, भालू के बच्चे, बायीं ओर! चमड़ी उधेड़कर रख दूंगा! क्यों क्या अपने दीदे फुड़वाने  के जी में है? उधर कहाँ जा रहा है, बिच्छु?”

कुत्सा से भरा कमीज के एक छोर से वह अपने चेहरे का पसीना पोंछता, कांखता ओर, गालियों की बौछार को एक मिनट भी रोके बिना, नमक की सतह को समतल बनाने में जुट जाता। पीठ की ओर से बेलचे को वह उठता और पूरा जोर लगाकर नमक पर उसे दे मारता। मज़दूर यंत्रवत अपने ठेलों को खींचकर लाते उसके फरमान के मुताबिक- दाहिनी या बायीं ओर – यंत्रवत उन्हें खाली कर देते। इसके बाद, खींच-तानकर, वे अपनी कमर सीधी करते और अगला बोझ लाने के लिए वापस लौट पड़ते। ड़गमगाते ड़गों से अपने ठेलों को खींचते हुए वे लोटते, घनी काली दलदल में आधे धंसे तख्ते उनके पांवों के नीचे डगमगाने लगते। उनके ठेले अब पहले से कम लेकिन अधिक उबा देने वाली आवाज़ करते।

‘‘क्या टाँगे टूट गयीं हैं, हरामी पिल्लों?” फोरमैन उनके पीछे चिल्लाता-‘‘तेजी दिखाओ, तेजी!”

वे उसी दब्बू ख़ामोशी से काम में जूटे रहते, लेकिन कभी-कभी धूल और पसीने से चिपचिपाते उनके निःसत्व चेहरे भीतर ही भीतर गुस्से और असंतोष से बल खाने लगते। अक्सर ऐसा होता की एक ठेला तख्तों पर से फिसलकर दलदल में फंस जाता, आगे वाले ठेले बढ़ जाते, पीछे वाले बढ़ नहीं पाते और मैले-कुचले तथा गंदे तलछटी मज़दूर अपने ठेलों को थामे, पथराई सी आँखों से अपने उस साथी की ओर देखने लगते। ऐसे देखते मानो उनका उससे कोई वास्ता न हो। भारी-भारी ठेले को – छः सात मन पक्के वजन को – उठाने और फिर उसे तख्तों पर रखने में उसकी एड़ी-चोटी का पसीना एक हो जाता और वे वैसे ही उदास भाव में उसे ताकते रहते। आकाश में बादलों की परछाई तक नहीं थी। सूरज आग बरसा रहा था। तपन बढती ही जाती थी। ऐसा मालूम होता था  मानो सूरज ने, अपने आपको न्योछावर तथा धरती के साथ अपना गहरा लगाव सिद्ध करने के लिए, खास तौर से आज का ही दिन चुना हो। …………..

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गोर्की की कहानी आगे बढती है,  नमकसार के मज़दूर अपनी नीरस बोझिल जि़ंदगी में थोड़ा मज़ा करने के लिए गोर्की को परेशान करते हैं। पहले ही काम के बोझ को झेल रहे गोर्की को एक मज़दूर जानबूझकर ऐसा ठेला देता है जिसके हत्थों से गोर्की की हथेली की खाल छिल जाती है। गोर्की पीड़ा और बदले से चिल्ला उठते हैं। परन्तु उनके सवालों का कोई जवाब नहीं देता है। जब गोर्की काम की उदासीनता और अमानवीयता से तंग आकर जाने लगते हैं तो एक मज़दूर मात्वेयी उन्हें कुछ सिक्के लेने के लिए समझाते हुए कहता है- ‘‘बात मानो हमें अपमानित न करो। हम वास्तव में इतने बुरे नहीं है। हम जानते हैं कि हमने तुम्हारी भावनाओ को चोट पहुँचाई, लेकिन अगर तुम जरा सोचकर देखो तो इसके लिए क्या हम सचमुच दोषी हैं? नहीं हम दोषी नहीं हैं। इसके लिए जीवन का वह ढंग जिम्मेदार है जो कि हमें बिताना पड़ता है। कुत्ते का जीवन। छः सात मनिया ठेले, पांवों को चाट जाने वाली ‘रापा’ दलदल, दिन भर पीठ की चमड़ी झुलसाने वाली धूप, और पचास कोपेक प्रति दिन। यह हर आदमी को जानवर बना देने के लिए काफी है। काम, काम, काम पगार ठर्रे में उडा दो और फिर काम में जुट जाओ। आदि भी यही और अंत भी यही। पांच साल तक ऐसा जीवन बिताओ और फिर देखो – कुछ भी मानवीय नहीं रहेगा, निरे जानवर तुम हो जाओगे – और बस। सुनो, साथी, तुम्हारे साथ तो हमने कुछ भी नहीं किया, जो कि हम एक-दुसरे के साथ करते हैं, बावजूद इसके कि हम- जैसे कि कहा जाता है पुराने यार हैं और तुम एकदम नए आये हो। तुममे क्या सुरखाब के पर लगे हैं, जो तुम्हारे साथ हम रियायत करते? समझ गये न? तुमने जो बातें हमें कहीं- हाँ। तो क्या हम अचार डालें उनका? यों तुमने जो कहा, ठीक कहा, -वह सब सच है – लेकिन वह हम पर फिट नहीं बैठता। तुम्हें इतना बुरा नहीं मानना चाहिए। हम तो केवल मज़ाक कर रहे थे। आखिर हमारे पास भी तो दिल है। लेकिन अच्छा यही है तुम गोल हो जाओ। तुम्हारा रास्ता और है, हमारा और। हमारी छोटी-भेंट संभालो और विदा हो जाओ। हमने तुम्हारा साथ कोई अन्याय नहीं किया, न ही तुमने हमारे साथ कोई अन्याय किया। यह सच है कि मामला कुछ गड़बड़ा गया, लेकिन इसके सिवा तुम और क्या आशा करते थे। यहाँ एक भी चीज़ हमारे हक में कभी भी सीधी नहीं बैठती। और तुम्हारे यहाँ बने रहने में कोई तुक भी नहीं है। असल बात यह है कि तुम यहाँ फिट नहीं करते। हम एक दुसरे के आदि हो गए हैं। और तुम – तुम हमारी जात के नहीं हो। यहाँ रहने से कुछ भला नहीं होगा। सो तुम रास्ता नापो। तुम अपनी राह जाओ। अच्छा तो विदा!”

गोर्की इस नमकसार को छोड़कर आगे बढ़ते हैं और वापस अपने मछियारे दोस्त के वापस आ जाते हैं। यह आत्म कथा आज से 120 साल पहले 1893 में लिखी गयी थी परन्तु गुजरात में कच्छ की रण के मज़दूरों की जि़न्दगी गोर्की की कहानी का जीता-जागता बयान लगती है। वही खतरनाक दलदल नुमा खेत, झुलसाने वाली धूप, मज़दूरों का गुलामो जैसा शोषण अभी भी मौजूद है। यह कच्छ के करीब 1,40,000 मज़दूरों की कहानी है। इनकी जि़न्दगी का हमारा विवरण गोर्की की कहानी में उभारे चित्र जैसे रंग न ला पाए पर यहाँ भी उतना ही दुःख और उतनी ही अमानवीयता मौजूद है। मुनाफे की हवस में पगलाए ठेकेदारों और मालिकों की जेबे भरते अगरिया (जाति) मज़दूर नमक की दलदलों में अपनी हड्डियाँ गला रहे हैं। गुजरात में भारत के कुल नमक उत्पादन का 75 प्रतिशत नमक उत्पादन होता है और सिर्फ कच्छ के रन में ही गुजरात का 60 प्रतिशत नमक पैदा होता है। कच्छ की रण में एक जगह ही 7 नदियाँ एक जगह मिलती है। और समुद्र का पानी खाड़ी से इन नदियों में मिलता है। भूजल में नमक की भारी मात्रा के कारण पम्प या कुएं से नमकीन पानी पहले बाहर निकाला जाता है। इस पानी को पहले से तैयार किये गए खेत में डाल दिया जाता है, यहाँ आम तौर पर मज़दूर कईं खेत तैयार करते हैं, जिसमे से एक एक करके नमक सुखाया जाता है और अधिक शुद्ध नमक मिल जाता है। बच्चों से लेकर औरतें तक इस काम में ही जुटे रहते हैं। नमक की दलदलो में 50 डिग्री तापमान में झुलसाती हुयी धूप में मज़दूर घंटो काम करते हैं। काम के आदिम रूप की कल्पना इस से ही की जा सकती है कि एक परिवार को दुसरे परिवार को सन्देश देने के लिए शीशे (रोशनी से) का इस्तेमाल करना पड़ता है। नमक की दलदल नुमा खेत मज़दूरों के तलवों, एडियो, और हथेलियों को छिल देते हैं जिससे नमक मांस में और खून में मिल जाता है। जो नमक मज़दूर अपनी मेहनत से पैदा करते हैं वही उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। अगरिया मज़दूरों में कहावत है कि उनकी मौत तीन तरह यानी गार्गरिन, टीबी या अंधेपन (नमक के कारण) से होती है। कईं मज़दूर कैंसर या ब्लड प्रेशर की बीमारी से मर जाते हैं। कईं अगरिया मज़दूर जवानी में मर जाते हैं- कच्छ के खरघोडा गाँव की 12000 की आबादी में 500 विधवाएं हैं! नमक के खेतों से मज़दूरों को पीने का पानी लेने के लिए 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर जाना पड़ता है। मौत के बाद भी यह नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोडता है क्योंकि हाथ और पैरों में घूस जाने के कारण मज़दूरों के अंतिम संस्कार के दौरान उनके हाथ और पैर नहीं जलते हैं। इन्हें नमक की ज़मीन में ही दफ़न किया जाता है। इनको इतनी कम मज़दूरी मिलती है कि ये हमेशा ही ठेकेदारों से उधार लेकर जीते हैं और हमेशा उनके कर्ज के जाल में फ़ंसे रहते हैं। इलाके में 3 रूपए किलो में बिकने वाले नमक को ठेकेदार मज़दूरों से सिर्फ़ 15 पैसे प्रति किलो की मज़दूरी पर खेती करवाते हैं। गुजरात देश का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक प्रदेश है परन्तु अगरिया मज़दूरों के बच्चो को दूध भी नसीब नहीं होता है। गुजरात के मज़दूरों की जि़न्दगी को नमक के खेतो में दफ़न कर या फ़ैक्टरियों में झोंककर गुजरात का विकास (पूँजीपतियों का विकास) किया जा रहा है।

 

मज़दूर बिगुलसितम्‍बर  2013

 


 

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