जन्मशती के मौक़े पर
तराना
फैज़ अहमद फैज़
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के
कोह-ए-ग़रां
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहल-ए-सफा, मर्दूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराये जायेंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उट्ठेगा ‘अनलहक’ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
लाज़िम – जरूरी; लौह-ए-अज़ल – वह तख्ती जिस पर पहले ही दिन सबकी किस्मत अंकित कर दी गयी; कोह-ए-ग़रां – भारी पहाड़; महकूमों – शोषितों; अहल-ए-हिकम – शासक; अर्ज-ए-ख़ुदा – खुदा की धरती; अहल-ए-सफा – पवित्र लोग; मरदूद-ए-हरम – जिनकी कट्टरपन्थियों ने निन्दा की; मंज़र – दृश्य; नाज़िर – दर्शक; अनल हक – ”मैं सत्य हूँ” – प्रसिद्ध सूफी सन्त मंसूर की उक्ति, जिसे उसकी इस घोषणा के कारण ही फाँसी पर लटकाया गया था; ख़ल्क-ए-ख़ुदा – ज़नता।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011














