सुधार के नीमहकीमी नुस्ख़े बनाम क्रान्तिकारी बदलाव की बुनियादी सोच

कात्यायनी

capitalism n corruptionनीमहकीम वे होते हैं जो या तो रोग के लक्षणों को ही रोग समझ बैठते हैं या एकाध लक्षणों को ही टटोलकर रोग की जड़ तक पहुँचने का दावा करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला डॉक्टर रोग के ज़्यादा से ज़्यादा लक्षणों का पर्यवेक्षण करके उनका सामान्यीकरण करता है, सतह के सच को भेदकर तह तक पहुँचने की कोशिश करता है, अपने प्रारम्भिक नतीजों को पुष्ट करने के लिए पैथोलॉजिकल टेस्ट, एक्स-रे, अल्ट्रासोनोग्राफी, एण्डोस्कोपी आदि-आदि वैज्ञानिक जाँचों का सहारा लेता है और फिर निदान सुझाता है। नीमहकीम सीधे-सादे नुस्ख़ों को अचूक रामबाण नुस्ख़ा बताते हैं। दु:ख-दर्द से परेशान भोले-भाले मरीज़ को उसकी बात झट से अपील करती है। इस तरह लम्बे समय तक वह एक से दूसरे नीमहकीम और ओझा-गुनी के पास घूमता रहता है।

वैज्ञानिकों और डॉक्टरों का रास्ता ओझा-गुनियों-फकीरों- नीमहकीमों से कठिन और लम्बा होता है। वह व्यापक पर्यवेक्षणों के सामान्यीकरणों के वैज्ञानिक सूत्रीकरण और फिर उनके प्रायोगिक सत्यापन का रास्ता होता है। विज्ञान का काम सतह के यथार्थ को भेदकर सारभूत यथार्थ तक पहुँचना होता है। आम आदमी वैज्ञानिक की बात तब सुनता है जब सारे सरल नुस्ख़ों की असलियत अपने अनुभव से जान जाता है, रोग गम्भीर हो जाता है, पीड़ा असह्य हो जाती है तथा रोग एवं उसके ग़लत-अधूरे इलाजों की अनुभव से उसकी चेतना उन्नत हो जाती है।

समाज-अर्थनीति और राजनीति के क्षेत्र में भी ऐसे नीमहकीमों की भरमार होती है जो कभी भ्रष्टाचार-उन्मूलन, कभी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की नैतिक शिक्षा, तो कभी जनसंख्या-नियन्‍त्रण या सामाजिक-आर्थिक सुधार की किसी सीमित कार्रवाई के जरिए जनता की तमाम समस्याओं को हल करने का अचूक रामबाण नुस्ख़ा प्रस्तुत करते रहते हैं। जन्तर-मन्तर और रामलीला मैदान पर मजमा लगाकर व्यवस्था की तमाम बीमारियों के शर्तिया इलाज के दावे इन दिनों ख़ूब पेश किये जा रहे हैं। अख़बारों में, न्यूज़ चैनलों पर ऐसे नीमहकीमों की ख़ूब चर्चा है। ‘सिविल सोसायटी’ का साइनबोर्ड ख़ूब चमक रहा है।

फिलहाल ऐसे नीमहकीमों की भरमार है जो बता रहे हैं कि देश की सारी समस्याओं की जड़ भ्रष्टाचार है। यदि कमीशनख़ोरी, रिश्वतख़ोरी, कालाबाज़ारी, मिलावट, जमाख़ोरी आदि-आदि बन्द हो जाये, तो आम आदमी की सारी समस्याएँ सुलट जायें और देश प्रगति की राह पर चौकड़ी भरने लगे ऐसा सोचने वाले तमाम लोग हैं। ऐसी सोच दरअसल रोग की जड़ तक पहुँचने के बजाय केवल ऊपरी लक्षणों का इलाज करने की कोशिश है। ये लोग मूल रोग की पहचान करने के बजाय, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ दर्द निवारक दवाएँ सुझाते हैं। ऐसे लोगों को नेताओं, नौकरशाहों, इंजीनियरों आदि द्वारा की जा रही कमीशनख़ोरी-घूसख़ोरी से एतराज़ है। कमीशन और घूस देने वाली कम्पनियाँ और पूँजीपति मज़दूरों को जो लूटते-निचोड़ते हैं, उसपर एतराज़ नहीं है। भ्रष्टाचार की मात्रा कम या ज़्यादा हो सकती है, पर कोई भी पूँजीवादी व्यवस्था भ्रष्टाचार-मुक्त हो ही नहीं सकती। पूँजीवादी शोषण की मूल बीमारी रिश्वतख़ोरी-जमाख़ोरी-कमीशनख़ोरी-कालाधन-मिलावटख़ोरी आदि-आदि तमाम सहायक बीमारियों को ‘बाईप्रोडक्ट’ के रूप में जन्म देती है। वैधा लूट अवैध लूट को जन्म देती है। सफेद धन काले धन को जन्म देता है। स्वामी वर्ग तो पूँजीपति है, जिसका अस्तित्व ही श्रम के शोषण पर क़ायम है। नेता, नौकरशाह और उच्चपदस्थ बुद्धिजीवी उन्हीं के प्रबन्धक और चाकर हैं। लुटेरों के प्रबन्धक और चाकर कभी भी सात्विक और नैतिक भला क्यों होंगे? उन्हें भी जहाँ मौक़ा मिलता है, पैसा बनाते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए विलासितापूर्ण जीवन की गारण्टी कर लेना चाहते हैं।

सच्चाई यह है कि पूँजीवाद स्वयं में ही अपराध और भ्रष्टाचार है। यदि भ्रष्टाचार एकदम समाप्त हो जाये (जो कि असम्भव है) तो भी जब तक उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व रहेगा, जबतक श्रम की लूट जारी रहेगी, तबतक समाज में धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई रहेगी, तबतक बेरोज़गारी बनी रहेगी, तबतक समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग नर्क का जीवन जीने को अभिशप्त बने रहेंगे। पूँजीवाद चाहे जितना ईमानदार हो, हर माल के उत्पादन की प्रक्रिया में अतिरिक्त श्रम को लूटकर पूँजीपति मुनाफा कमायेगा ही। इसके बिना पूँजी स्वयं को बढ़ा ही नहीं सकती और यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो समाप्त हो जायेगी। मेहनतकशों को निचोड़कर, छोटे मालिकों को उजाड़ते रहक़र, सड़कों पर बेरोज़गारों की भीड़ बढ़ाकर ही पूँजीवाद अपने को ज़िन्दा रख सकता है।

”भ्रष्टाचार मुक्त” पूँजीवाद भी सामाजिक असमानता मिटा नहीं सकता और सबको समान अवसर नहीं दे सकता। दूसरी बात यह कि पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचारमुक्त हो ही नहीं सकता। जब भ्रष्टाचार का रोग नियन्त्रण से बाहर होकर पूँजीवादी शोषण-शासन की आर्थिक प्रणाली के लिए और पूँजीवादी जनवाद की राजनीतिक प्रणाली के लिए सिरदर्द बन जाता है, तो स्वयं पूँजीपति और पूँजीवादी नीति निर्माता ही इसपर नियन्त्रण के उपाय करते हैं। तमाम किस्म के राजनीतिक सुधारवादियों की जमातें बिना क्रान्तिकारी बदलाव के, व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ”भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन” करने लगती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था की ‘नियन्त्रण एवं सन्तुलन’ की आन्तरिक यान्त्रिकी है। सुधारवादी सिद्धान्तकारों का शीर्षस्थ हिस्सा तो पूँजीवादी व्यवस्था के घाघ संरक्षकों का गिरोह होता है। उनके नीचे एक बहुत बड़ी नीमहकीमी जमात होती है जो पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली का अध्ययन किये बिना कुछ यूटोपियाई हवाई नुस्ख़े सुझाती रहती है और जनता को दिग्भ्रमित करती रहती है। ऐसे लोगों की नीयत चाहे जो हो, वे पूँजीवाद के फटे चोंगे को रफू करने, उसके पुराने जूते की मरम्मत करने और उसके घोड़े की नाल ठोंकने का ही काम करते रहते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टि और क्रान्तिकारी चेतना से लैस समाज के अग्रगामी दस्ते के लोग सामाजिक बीमारियों का इलाज वैज्ञानिक दृष्टि एवं पद्धति से ढूँढ़ते और बताते हैं। जो अपराध, भ्रष्टाचार, अनाचार और सामाजिक बुराइयाँ रोज़-रोज़ के जीवन में सतह पर दिखाई देती हैं, समाज वैज्ञानिक उनकी जड़ तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि तमाम सामाजिक अन्तरविरोधों में बुनियादी अन्तरविरोध क्या है, बुनियादी अन्तरविरोधों में प्रधान अन्तरविरोध क्या है और समय-विशेष में प्रधान अन्तरविरोध के दो पक्षों में कौन-सा पक्ष प्रधान है। वे समस्याओं की गाँठ खोलने के लिए कुंजीभूत कड़ी की तलाश करते हैं। वे हर समय में सामाजिक अन्तरविरोधों के कुंजीभूत संकेन्द्रण-बिन्दुओं का सन्‍धान करते हैं। जो समाज वैज्ञानिक क्रान्तिकारी होते हैं, वे परिस्थितियों का विश्लेषण मात्र नहीं करते रहते। उनके विश्लेषण का लक्ष्य परिस्थितियों को बदलना होता है और इसमें जनसमुदाय की सचेतन भूमिका को वे बुनियादी चीज़ मानते हैं। वे जनता को जागृत और शिक्षित करते हैं, उसकी राजनीतिक चेतना को उन्नत और सबल बनाते हैं और उसे संगठित होकर संघर्ष करना सिखाते हैं। क्रान्तिकारी पूँजीवादी व्यवस्था के हर अपराध के बारे में जनता को लगातार बताते हैं। वे मौजूद दुनिया से बुनियादी और गुणात्मक रूप से भिन्न, एक बेहतर दुनिया की आवश्यकता, सम्भावना और उस तक पहुँचने के रास्ते के बारे में लगातार बताते रहते हैं। वे पैबन्दसाज़ी के तमाम नीमहकीमी नुस्ख़ों की असलियत उजागर करते रहते हैं और यह बताते रहते हैं कि महज कुछ मात्रात्मक सुधारों और सतही बदलावों से जनता की समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं।

वे पूँजीवादी जनवाद के बारे में सुधारवादी बुद्धिजीवियों और मीडिया द्वारा फैलाये जाने वाले विभ्रमों का पर्दाफाश करते रहते हैं। प्रचार और शिक्षा के साथ ही वे जनता को बुनियादी अधिकारों और रोज़मर्रे की समस्याओं को लेकर संघर्ष करने के लिए संगठित करते हैं। पूँजीवादी जनवाद के सिद्धान्त जनता के जिन अधिकारों और सरकार के जिन कर्तव्यों का निरूपण करते हैं (जिनके प्रति पूँजीवादी संसदीय राजनीतिज्ञ अपनी वचनबद्धता दुहराते रहते हैं), पूँजीवादी जनवादी संविधान जनता से जो वायदे करता है और सरकार काग़जों पर जो क़ानूनी अधिकार देती है, उन्हीं को अमल में लाने की माँग से जनता अपने संघर्षों की शुरुआत करती है। संघर्षों का दबाव सत्ताधारियों को कुछ माँगें मानने के लिए बाध्य करता है, लेकिन कोई भी पूँजीवादी जनवादी सत्ता अपने सभी वायदों को कभी पूरा नहीं करती। इसके उलट, संघर्षों का दबाव बढ़ते ही उसका दमनकारी चरित्र नग्न-निरंकुश होता चला जाता है, वर्गीय अधिनायकत्व की सारवस्तु सतह पर आ जाती है और जनवाद की लफ्फाजियाँ ताक पर धर दी जाती हैं। जनता व्यावहारिक अनुभव से पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत जान जाती है। पूँजीवाद अपने शासन के लिए जो वैधता और स्वीकार्यता हासिल किये रहता है, वह तार-तार हो जाती है। व्यवस्था के सीमान्तों को देख-समझ लेने के बाद जनता उनके अतिक्रमण के बारे में सोचने लगती है। वह एक वैकल्पिक, न्यायपूर्ण सामाजिक ढाँचे के निर्माण के बारे में सुनने-समझने के लिए ज़्यादा तैयार हो जाती है। क्रान्ति उसके लिए एक व्यावहारिक सम्भावना बन जाती है।

यदि वस्तुगत परिस्थितियाँ तैयार हों (व्यवस्था के संकट घनीभूत हों), उत्पीड़ित जनसमुदाय को नेतृत्व देने वाली हरावल शक्तियाँ तैयार हों, सामाजिक अन्तरविरोधों और संघर्ष की दिशा एवं रास्ते का उनका वैज्ञानिक आकलन सटीक हो, सतत क्रान्तिकारी प्रचार के साथ वे जनता को उन्नत से उन्नततर धरातल के संघर्षों में नेतृत्व देने में सफल हों (यह सीधी रेखा में नहीं होगा, बेशक़ बीच-बीच में उतार और ठहराव के दौर भी आयेंगे), तो निश्चय ही क्रान्तिकारी परिवर्तन की सम्भावना को वास्तविकता में रूपान्तरित किया जा सकता है। चीज़ों को बदलने के लिए चीज़ों को समझना होता है। बदलने की प्रक्रिया के दौरान भी समझ बनती-बदलती चलती है। चीज़ों को बदलते हुए लोग स्वयं को भी बदलते हैं। भावी नये समाज का केन्द्रीय संघटक तत्व — नया मनुष्य भी क्रान्तिकारी बदलाव के दहन-पात्र में ढलता रहता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011

 


 

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